- हेमंत पाल
पुरानी फिल्म 'खानदान' में एक गीत था 'तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम ही देवता हो!' ये गीत सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माया गया था। वास्तव में ये गीत पत्नी का पति के प्रति अगाध प्रेम का प्रतीक माना जा सकता है। लेकिन, आज किसी फिल्म में इस तरह का कोई गीत हो, तो क्या दर्शक उसे पसंद करेंगे? पत्नी का पति से प्रेम अपनी जगह है, पर क्या नायिका के समर्पण का ये पूजनीय अंदाज सही है! जब ये फिल्म बनी, तब सामाजिक दृष्टिकोण से इसे स्वीकार लिया गया हो, पर आज के संदर्भों में सिर्फ पति को पूजनीय मान लेने से बात नहीं बनती! समाज में भी और फिल्मों में भी आज ऐसी पत्नी या नायिका को पसंद किया जाता है, जो प्रैक्टिकल हो! वास्तव में हिंदी फिल्मों में नायक के किरदार उतने नहीं बदले, जितने नायिकाओं के! आजादी के बाद जब समाज मनोरंजन के लिए थोड़ा अभ्यस्त हुआ तो फिल्मों में नायिका को नायक की सहयोगी की तरह दिखाया जाने लगा। नायक की सहयोगी की तरह नहीं!
फिल्मों में नायिका को आज भी एक जरुरी फैक्टर की तरह रखा जाता है। इसलिए कि सौ साल से ज्यादा पुरानी हिंदी फिल्मों की अधिकांश कहानियाँ नायक केंद्रित होती हैं। सालभर में इक्का-दुक्का फ़िल्में ही ऐसी नजर आती है, जिसका केंद्रीय पात्र नायिका हो! इस साल की उन चुनिंदा फिल्मों में 'सुई-धागा' को गिना जा सकता है, जिसकी नायिका परेशान पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसकी मदद करती है। उसका आत्मविश्वास जगाकर उसे सहारा देती है। लेकिन, ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस कितने निर्माता कर पाते हैं? फिल्मकारों को लगता है कि नायक के सिक्स-पैक और मारधाड़ ही दर्शकों की डिमांड है! वे कहानी में नायिका की जगह तो रखते हैं, पर उसके कंधों पर इतना भरोसा नहीं करते कि वो फिल्म को बॉक्स ऑफिस की संकरी गली से निकाल सकेगी! जब 'दामिनी' आई थी, तो किसने सोचा था कि ये फिल्म के नायक सनी देओल के अदालत में चीख-चीखकर बोले गए संवाद से कहीं ज्यादा मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार के कारण पसंद की जाएगी?
दरअसल, बॉक्स ऑफिस को लेकर फिल्मकारों का अज्ञात भय ही नायिका को परम्पराओं की देहरी पार नहीं करने देता! हर बार नायिका में सहनशील और परम्परावादी नारी की छवि दिखने की कोशिश की जाती है। इसी वजह से नायिकाओं ने लंबे अरसे तक अपनी महिमा मंडित छवि को बनाए रखने के लिए त्याग, ममता और आंसुओं से भीगी इमेज को बनाए रखा। लेकिन, अब जरुरत है 'सुई धागा' वाली जैसी नायिका ममता की, जो पति को नौकरी छोड़कर अपना काम शुरू करने के लिए प्रेरित करती है और अपनी कोशिश में सफल भी होती है। 'अभिमान' वाली जया भादुड़ी जैसे किरदार अब बीते कल की बात हो गई! जया का वो किरदार उस वक़्त की मांग थी, जो पति को आगे बढ़ने का मौका देने के लिए अपना कॅरियर त्याग देती है। आज फिल्मों को न तो ऐसी कहानियों की जरुरत है और ऐसे किरदारों की!
बेआवाज फिल्मों से 'अछूत कन्या' और 'मदर इंडिया' के बाद से सुजाता, बंदिनी, दिल एक मंदिर और 'मैं चुप रहूंगी' तक नायिकाएं परदे पर सबकी प्रिय बनी रहीं। इन नायिकाओं ने मध्यवर्गीय पुरातन परिवार के दमघोटूं माहौल में अपनी किस्मत को कोसते हुए 'मैं चुप रहूंगी' जैसी फिल्मों का दौर भी देखा है। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगें’ से लेकर ‘हम दिल दे चुके सनम’ तक में करवा चौथ का माहौल भी देखा है। लेकिन, सिनेमा का इतिहास बताता है कि हर दौर में ऐसी नायिकाएं भी सामने आईं हैं, जिन्होंने इस मिथक को तोड़ा है। समाज के लिए वे मुक्ति का आख्यान हैं, लेकिन अभी इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही हो पाईं! पर, अब यंग इंडिया की सोच बदल रही है। इसलिए महिलाओं के प्रति भी सोच बदलने की जरूरत है। लड़की है, तो खाना बनाएगी और लड़का है तो काम करेगा। ये विचारधारा अब नहीं चलती! समाज और लोगों की सोच में बदलाव आया है, लेकिन अभी फिल्मों में बहुत कुछ बदलना बाकी है।
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