Saturday, September 29, 2018

नायिका का नया ताना-बाना


- हेमंत पाल

   पुरानी फिल्म 'खानदान' में एक गीत था 'तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम ही देवता हो!' ये गीत सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माया गया था। वास्तव में ये गीत पत्नी का पति के प्रति अगाध प्रेम का प्रतीक माना जा सकता है। लेकिन, आज किसी फिल्म में इस तरह का कोई गीत हो, तो क्या दर्शक उसे पसंद करेंगे? पत्नी का पति से प्रेम अपनी जगह है, पर क्या नायिका के समर्पण का ये पूजनीय अंदाज सही है! जब ये फिल्म बनी, तब सामाजिक दृष्टिकोण से इसे स्वीकार लिया गया हो, पर आज के संदर्भों में सिर्फ पति को पूजनीय मान लेने से बात नहीं बनती! समाज में भी और फिल्मों में भी आज ऐसी पत्नी या नायिका को पसंद किया जाता है, जो प्रैक्टिकल हो! वास्तव में हिंदी फिल्मों में नायक के किरदार उतने नहीं बदले, जितने नायिकाओं के! आजादी के बाद जब समाज मनोरंजन के लिए थोड़ा अभ्यस्त हुआ तो फिल्मों में नायिका को नायक की सहयोगी की तरह दिखाया जाने लगा। नायक की सहयोगी की तरह नहीं!  
    फिल्मों में नायिका को आज भी एक जरुरी फैक्टर की तरह रखा जाता है। इसलिए कि सौ साल से ज्यादा पुरानी हिंदी फिल्मों की अधिकांश कहानियाँ नायक केंद्रित होती हैं। सालभर में इक्का-दुक्का फ़िल्में ही ऐसी नजर आती है, जिसका केंद्रीय पात्र नायिका हो! इस साल की उन चुनिंदा फिल्मों में 'सुई-धागा' को गिना जा सकता है, जिसकी नायिका परेशान पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसकी मदद करती है। उसका आत्मविश्वास जगाकर उसे सहारा देती है। लेकिन, ऐसी फ़िल्में बनाने का साहस कितने निर्माता कर पाते हैं? फिल्मकारों को लगता है कि नायक के सिक्स-पैक और मारधाड़ ही दर्शकों की डिमांड है! वे कहानी में नायिका की जगह तो रखते हैं, पर उसके कंधों पर इतना भरोसा नहीं करते कि वो फिल्म को बॉक्स ऑफिस की संकरी गली से निकाल सकेगी! जब 'दामिनी' आई थी, तो किसने सोचा था कि ये फिल्म के नायक सनी देओल के अदालत में चीख-चीखकर बोले गए संवाद से कहीं ज्यादा मीनाक्षी शेषाद्री के किरदार के कारण पसंद की जाएगी?   
   दरअसल, बॉक्स ऑफिस को लेकर फिल्मकारों का अज्ञात भय ही नायिका को परम्पराओं की देहरी पार नहीं करने देता! हर बार नायिका में सहनशील और परम्परावादी नारी की छवि दिखने की कोशिश की जाती है। इसी वजह से नायिकाओं ने लंबे अरसे तक अपनी महिमा मंडित छवि को बनाए रखने के लिए त्याग, ममता और आंसुओं से भीगी इमेज को बनाए रखा। लेकिन, अब जरुरत है 'सुई धागा' वाली जैसी नायिका ममता की, जो पति को नौकरी छोड़कर अपना काम शुरू करने के लिए प्रेरित करती है और अपनी कोशिश में सफल भी होती है। 'अभिमान' वाली जया भादुड़ी जैसे किरदार अब बीते कल की बात हो गई! जया का वो किरदार उस वक़्त की मांग थी, जो पति को आगे बढ़ने का मौका देने के लिए अपना कॅरियर त्याग देती है। आज फिल्मों को न तो ऐसी कहानियों की जरुरत है और ऐसे किरदारों की! 
   बेआवाज फिल्मों से 'अछूत कन्या' और 'मदर इंडिया' के बाद से सुजाता, बंदिनी, दिल एक मंदिर और 'मैं चुप रहूंगी' तक नायिकाएं परदे पर सबकी प्रिय बनी रहीं। इन नायिकाओं ने मध्यवर्गीय पुरातन परिवार के दमघोटूं माहौल में अपनी किस्मत को कोसते हुए 'मैं चुप रहूंगी' जैसी फिल्मों का दौर भी देखा है। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगें’ से लेकर ‘हम दिल दे चुके सनम’ तक में करवा चौथ का माहौल भी देखा है। लेकिन, सिनेमा का इतिहास बताता है कि हर दौर में ऐसी नायिकाएं भी सामने आईं हैं, जिन्होंने इस मिथक को तोड़ा है। समाज के लिए वे मुक्ति का आख्यान हैं, लेकिन अभी इनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही हो पाईं! पर, अब यंग इंडिया की सोच बदल रही है। इसलिए महिलाओं के प्रति भी सोच बदलने की जरूरत है। लड़की है, तो खाना बनाएगी और लड़का है तो काम करेगा। ये विचारधारा अब नहीं चलती! समाज और लोगों की सोच में बदलाव आया है, लेकिन अभी फिल्मों में बहुत कुछ बदलना बाकी है।
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उम्र की मोहताज नहीं मोहब्बत!


- हेमंत पाल

    'बिग बॉस' में इस बार सबसे अधिक चर्चा अनूप जलोटा की हो रही है। वजह यह कि वे खुद से 37 साल की कम उम्र की महबूबा के साथ शो का हिस्सा बने हैं। जसलीन के साथ अपने रिश्ते का खुलासा उन्होंने इस शो पर आकर ही किया। हालांकि, दोनों लंबे समय से साथ थे। कहते हैं कि प्यार करने की कोई उम्र नहीं होती! समाज के अन्य सभी समूहों की तरह बाॅलीवुड के कुछ नायक और नायिकाएं भी इस सिद्धांत का अनुसरण करते आए हैं। 
  कम वय के लडके का उम्रदराज महिला पर दिल आ जाना या उम्रदराज पुरूष का कम वय की लडकी से आंखे लडाने जैसे विषय पर फिल्में भी बनी और फिल्मकारों ने पर्दे से बाहर भी इस परम्परा को बरकरार रखा। राजकपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' का पहला भाग इसी विषय पर आधारित था, जिसमें कम वय का छात्र अपनी उम्र से दुगनी वय की टीचर के प्रेम में पड़ जाता है। इस विषय को उठाकर राजकपूर ने जिस खूबसूरती से दर्शकों को गुदगुदाने का कमाल किया इसका समाधान भी मनोज कुमार ने बड़ी संजीदगी से किया था। 'मेरा नाम जोकर' के इस भाग के राजू यानी ऋषि कपूर ने इस विषय पर बनी फिल्म 'दूसरा आदमी' में अपनी उम्र से बड़ी राखी से इश्क लड़ाया था। अंग्रेजी फिल्म 'फोर्टी कैरेट' पर बनी इस फिल्म में राखी और ऋषि कपूर के बीच उम्र के अंतराल और एक दूसरे के प्रति लगाव को यश चौपड़ा ने संगीतमय अंदाज में फिल्माया था। जिसे दर्शकों ने बेहद पसंद भी किया था। गुरू शिष्य के बीच प्रेम पर बनी फिल्मों में भी इसी तरह के संबंधों को दिखाया गया! देवआनंद और टीना मुनीम अभिनीत हाॅलीवूड की 'मायफेयर लेडी' पर आधारित फिल्म 'मनपसंद' ऐसी ही फिल्म थी। 
    उम्र के अंतर पर बनी अधिकांश फिल्मों में इस तरह के प्रेम संबंधों को नादानी या आकर्षण कहकर पुकारा जाता रहा है। किसी भी फिल्म ने इस तरह के कच्ची-पक्की उम्र के संबंध की वकालत नहीं की। इसके ठीक उलट फिल्मी सितारों ने उम्र की इस बेमैल खिचड़ी को खूब पकाया और खाया है। बाॅलीवुड में इस तरह की हरकतें करने में आईएस जौहर और उनकी ही तरह के कलाकार किशोर कुमार काफी मशहूर रहे हैं! उन्होंने पता नहीं किस अंदाज से अपने बेटे-बेटी की उम्र की लडकियों को आकर्षित करने में सफलता पाई। आईएस जौहर अपनी बेटी की उम्र की बीबी ब्याह कर लाए, तो अमित कुमार का सेहरा बंधने की उम्र में किशोर कुमार ने लीना चंदावरकर से शादी की थी। बाद में कबीर बेदी और विनोद खन्ना ने भी अपने डेशिंग अवतार का फायदा उठाकर आधी उम्र की लडकियों से शादियाॅं रचाई। कबीर बेदी ने तो 67 साल की उम्र में ब्रिटेन में जन्मी परवीन दुसानी से 2005 में शादी की उस समय उनकी बेटी पूजा बेदी अपनी नई माॅं से बड़ी थी। दक्षिण भारत में एनटीआर ने भी जीवन के उत्तरार्ध में शादी करके सभी को चौंकाया था। 
  हिन्दी फिल्मों में दिलीप कुमार की जितनी ज्यादा लोकप्रियता है, उनकी शादी ने भी उतनी ही लोकप्रियता बटोरी! 45 साल की उम्र में जिस समय दिलीप कुमार की शादी हुई, उनकी बेगम सायरा बानू की उम्र महज 22 साल थी। उनके बीच 23 साल का अंतर था। दिलीप कुमार के पदचिन्हों पर चलते हुए संजय दत्त ने जब मान्या से शादी की, तो मान्या उनसे 19 साल छोटी थी। हालांकि, इससे पहले संजय दो बार पहले भी शादी कर चुके हैं। दिलीप कुमार को आदर्श मानने वाले धर्मेन्द्र ने भी अपने से 13 साल छोटी हेमा मालिनी से निकाह कर साबित किया कि मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज है। 13 साल के अंतर वाली जोड़ियों में मीरा कपूर और उनसे 13 साल बड़े शाहिद कपूर का नाम भी शामिल है। इस दौड़ में शाहिद की पूर्व प्रेमिका करीना कपूर और सैफ अली की जोड़ी थोड़ा पीछे रह गई, क्योंकि उनके बीच 11 साल का अंतर है। 
    जिन दिनों राजेश खन्ना की शादी हुई देश की लाखों लडकियां उनकी दीवानी थी। लेकिन, राजेश खन्ना ने लाखों युवकों की धडकन डिम्पल कापडिया से शादी कर सभी को झटका दिया था। जिस समय राजेश खन्ना ने डिम्पल के साथ सात फेरे लिए उनकी उम्र महज 16 साल थी और राजेश खन्ना 15 साल बड़े थे। यह भी संयोग कि बात है कि बॉलीवुड में मियां-बीबी की उम्र में 9 साल के अंतर वाली जोड़ियां सबसे ज्यादा है। यदि आमिर खान अपनी दूसरी बीबी किरण राव से 9 साल बड़े हैं तो श्री देवी के पति बोनी कपूर भी उनसे 9 साल बडे थे! रितेश देशमुख और उनकी बीबी जेनिलिया के बीच भी 9 साल का ही अंतर है।
   ऐसी बात नहीं कि बाॅलीवुड के नायकों ने ही अपने से छोटी उम्र का दुल्हा चुना है। कुछ नायिकाओं ने इस परम्परा को उलटा भी है। यदि नरगिस अपने पति सुनील दत्त से बड़ी थी, तो अभिषेक बच्चन भी अपनी बीबी ऐश्वर्या राय से छोटे हैं। लेकिन, इनके बीच उम्र का फासला बहुत ज्यादा नहीं है। अलबत्ता कोरियोग्राफर और डायरेक्टर फराह खान ने अपने से 8 साल छोटे शिरिष कुंदर से शादी करके तीन बच्चों को एक साथ जन्म दिया। हाल ही में नेहा धूपिया ने अपने से छोटे अंगद बेदी से शादी कर साबित कर दिया कि प्यार करने की कोई उम्र नहीं होती!  
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बॉलीवुड के गणपति बप्पा!


हेमंत पाल 

   इन दिनों पूरे देश में गणेशोत्सव मनाया जा रहा है। लेकिन, मुंबई और बॉलीवुड में गणेशजी का ज्यादा ही महत्व है। सामाजिक समरसता के मकसद से मनाए जाने वाले इस पर्व ने न केवल समाज में अपनी छाप छोड़ी, बल्कि बॉलीवुड के फिल्मकारों को भी फिल्म की गति को आगे बढ़ाने का एक विषय दिया! गणेशोत्सव की धूम को फिल्मों में उत्सवी माहौल बनाने से लगाकर रोमाॅंच और मारधाड़ सहित अलग-अलग घटनाक्रमों में शामिल किया जाता रहा है। कई फिल्में ऐसी हैं, जो गणेश की कथा-कहानियों पर आधारित है, तो बप्पा के गीतों ने कई फिल्मों को दर्शनीय बनाने का काम भी किया है।
   याद किया जाए, तो बॉलीवुड के सितारों में गणेश उत्सव के प्रसंग मिथुन चक्रवर्ती के साथ आरंभ हुए! बाद में इस परम्परा को सलमान खान से लगाकर  रितिक रोशन ने आगे बढ़ाया और अब वरूण धवन इसे अपनी फिल्मों से बढ़ा रहे हैं। मिथुन चक्रवर्ती और अमजद खान अभिनीत फिल्म 'हम से बढकर कौन' का टाइटल सांग ही गणेशोत्सव के दृश्यों को जोड़कर फिल्माया गया था। इस फिल्म के गीत 'देवा हो देवा गणपति देवा को आज भी गणेशोत्सव के विभिन्न पंडालों में सुबह-शाम सुना जा सकता है। यूं तो सलमान खान की प्रभुदेवा निर्देशित फिल्म 'वांटेड' एक एक्शन थ्रिलर थी, लेकिन इसमें सलमान खान ने जमकर मेरा ही जलवा गाकर अपना जलवा बिखेरा था। रितिक रोशन की फिल्म 'अग्निपथ' में भी गणेशोत्सव का रोमांचक फिल्मांकन किया गया था। 1990 में अपराधिक पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में संगीतकार अजय-अतुल की जोड़ी ने 'देवा श्री गणेशा' की जो धुन तैयार की, वह अपने आपमें यादगार बन गई है! इसके साथ रितिक रोशन का जोशीला डांस देखने वालों को चमत्कृत कर देता है। 
    महेश मांजरेकर ने अपनी फिल्म 'वास्तव' में गणेशजी का नया अवतार दिखाया था। संजय दत्त अभिनीत इस फिल्म में बताया गया था कि गणेशजी बालसुलभ देवता ही नहीं, बल्कि दुश्मनों की फौज को नष्टकर दंड देने वाले सख्त देवता भी है। फिल्म में रवीन्द्र साठे द्वारा गया गया गीत 'सिंदूर लाल ...' अपराधियों के पतन को रेखांकित करने में कामयाब रहा है। वरूण धवन को फिल्मों में आए ज्यादा समय नहीं हुआ, लेकिन बप्पा ने उन्हें फिल्म दर फिल्म अपनी महिमा गाने का अवसर प्रदान किया है। प्रभुदेवा ने 'वांटेड' के बाद एक बार फिर 'एबीसीडी-2' में गणेशजी की वंदना करने के लिए 'हे गणराया' का सहारा लिया, जिसमें दिव्य कुमार ने अपने प्राण फूंके तो वरूण धवन ने इसमें खास रंग भरे हैं। इस गीत की शूटिंग के दौरान सेट पर किसी को मांसाहार खाकर आने या जूते पहनकर आने की इजाजत नहीं थी। वरूण धवन ने अपनी फिल्म 'जुड़वाँ-2' में एक बार फिर बप्पा के प्रति अपनी श्रृद्धा प्रकट की। शाहरूख खान ने भी अपनी फिल्म 'डाॅन-2' में 'मोरया रे बप्पा मोरया रे' गाकर अपनी आदरांजलि दी। 
   बप्पा के आगमन को फिल्मों में उत्सवी माहौल तैयार करने में मदद की, तो उनकी बिदाई ने फिल्मों में उदासी को माहौल को प्रदर्शित करने में सफलता पाई है। सुनील दत्त की फिल्म 'दर्द का रिश्ता' में अपनी बेटी की बीमारी और उसकी जुदाई की आशंका को सुनील दत्त ने बप्पा की बिदाई के साथ जोड़कर दर्शकों की आंखों को भिगोया है। मेहुल कुमार की फिल्म 'आंसू बने अंगारे' में राजेश रोशन ने 'अगले बरस तू जल्दी आ' को माधुरी दीक्षित के गरिमामय नृत्य के साथ परदे पर उतारा। अजय देवगन और परेश रावल की फिल्म 'अतिथि तुम कब जाओगे' में भी गणेश विसर्जन की भीड़ का अच्छा इस्तेमाल किया गया है। देखा जाए तो पूरी फिल्मी दुनिया ही गणपति की मुरीद है। हर छोटा-बड़ा सितारा पूरे आदर औेर सम्मान के साथ इन दिनों अपने यहां गणेशजी को स्थापित कर नंगे पैर चलकर उसका विसर्जन करता है। इसमें जाति धर्म जैसी बात आड़े नहीं आती! यही कारण है कि यदि बॉलीवुड में सलमान के गणेशजी लोकप्रिय हैं, तो नाना पाटेकर और जाॅन अब्राहम के गणेशजी भी याद किए जाते हैं। 
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कहाँ, कैसा असर डालेगा मायावती और कांग्रेस का टूटा रिश्ता!


    मध्यप्रदेश में कांग्रेस को जो उम्मीद नहीं थी, वो हो गया। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने कांग्रेस से चार महीने से चल रही बातचीत तोड़कर 22 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए। अब उनका एलान है कि वे सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। लेकिन, कांग्रेस ने अभी भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा! उसे लगता है कि ये मायावती की 'प्रेशर पॉलिटिक्स' का हिस्सा है! लेकिन, यदि ऐसा होता तो छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की 'जनता कांग्रेस (जे) से गठबंधन का एलान नहीं होता। देखा जाए तो मायावती राजनीति का सबसे अविश्वसनीय चेहरा हैं। वे पहले भी कई पार्टियों को गठबंधन की आड़ में झटका दे चुकी हैं। मध्यप्रदेश में तो अब तय है कि बसपा अकेले किला लड़ाएंगी, लेकिन इससे चुनाव के नतीजे कहाँ प्रभावित होंगे, ये समझने वाली बात है। वैसे मायावती के बिदकने का बड़ा कारण कांग्रेस का अनमनापन भी है, जिसने सीटों के बंटवारे की बातचीत को लगातार टाला!  



 - हेमंत पाल

  मायावती की राजनीति ने हमेशा ही चौंकाने वाली रही है। क्योंकि, उत्तरप्रदेश में समाज के सबसे नीचे वाले वर्ग को साथ लेकर बनी 'बहुजन समाज पार्टी' (बसपा) की राजनीति मौकापरस्त रही है। गठन से लगाकर आजतक इस पार्टी ने कई पार्टियों को अपनी रणनीति से ललचाया, भरमाया और फिर झटका देकर किनारे किया। कांशीराम ने जब बसपा बनाई थी, तभी उन्होंने इशारा कर दिया था कि वे भविष्य में किस तरह की राजनीति करने वाले हैं। उन्होंने कहा भी था 'हम मजबूत नहीं, मजबूर सरकार चाहते हैं!' इसका सीधा सा मतलब है कि समर्थन की मज़बूरी का लालच देकर पार्टियों को ब्लैकमेल करना और अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना ही बसपा की राजनीतिक शैली है! उत्तरप्रदेश की राजनीति में बसपा ने कई बार कई पार्टियों को साथ देने का वादा करके झटका दिया है। समाजवादी पार्टी, भाजपा के साथ बसपा ने जो किया वो किसी से छुपा नहीं! पर, इस बार मायावती ने कांग्रेस के साथ भी वही कहानी दोहराई है, जो पहले वो कई बार कर चुकी है। उत्तरप्रदेश में भाजपा के साथ आधा-आधा कार्यकाल सरकार चलाने का वादा मायावती ने तोड़ा था! समाजवादी पार्टी के साथ भी वे ऐसा कर चुकी हैं और अभी फिर उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ खड़ी हैं।  
   मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और बसपा के बीच लम्बे समय से बातचीत चल रही थी। लग भी रहा था कि दोनों पार्टियां मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मिलकर चुनाव लड़कर भाजपा को टक्कर देंगी! लेकिन, एनवक्त पर मायावती ने रास्ता बदलकर कांग्रेस को अकेला छोड़ दिया! छत्तीसगढ़ में उसने अजीत जोगी की पार्टी 'जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) से गठबंधन कर मध्यप्रदेश की भी सभी 230 सीटें अकेले लड़ने का एलान कर दिया। ये अचानक नहीं हुआ! कांग्रेस से ज्यादा सीटें जुगाड़ने के लिए मायावती ने बीच-बीच में कई बार कुचालें भरी! बसपा के मध्यप्रदेश अध्यक्ष ने एक बार कांग्रेस से किसी गठबंधन की संभावना से इंकार भी किया था! लेकिन, तब भी मायावती ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी! यानी कहीं न कहीं शक की सुई कांग्रेस को तभी इशारा कर रही थी कि गठबंधन की गाँठ अभी पक्की नहीं है। अब छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी से गठबंधन का एलान करने के बाद मायावती ने मध्यप्रदेश में अपने 22 उम्मीदवारों के नाम घोषित करके कांग्रेस से गठबंधन की सारी संभावनाओं को ही ख़त्म कर दिया!     
  विधानसभा चुनाव से पहले ये कांग्रेस को लगने वाला सबसे बड़ा झटका है। छत्तीसगढ़ में अब अजीत जोगी की पार्टी और मायावती मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। कुल 90 में से 35 सीटों पर बसपा चुनाव लड़ेगी, जबकि जोगी की पार्टी 55 सीटों पर! मायावती ने कहा कि अगर हमारा गठबंधन  चुनाव जीतता है, तो अजीत जोगी मुख्यमंत्री बनेंगे! मायावती ने भले ही जोगी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया हो, पर इस पर सहजता से भरोसा नहीं किया जा सकता! राजनीतिक धोखेबाजी में मायावती का कोई जोड़ नहीं! गठबंधन के बारे में मायावती ने कहा कि वे गठबंधन तभी करती हैं, जब उन्हें समझौते में सम्माजनक सीटें मिलें। जोगी और मायावती की इस जोड़ी में यदि कुछ और क्षेत्रीय पार्टियों का तड़का लगे, तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए! क्योंकि, मायावती ने कहा है बसपा और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) भाजपा को छत्तीसगढ़ में रोकने में सक्षम है, लेकिन यदि कुछ और क्षेत्रीय पार्टियां हमारे साथ जुड़ना चाहेंगी तो हम उनका भी सहयोग लेंगे।
  मध्यप्रदेश में बसपा ने सभी 230 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का एलान करके ये संकेत भी दे दिया कि अब कांग्रेस के लिए उनके दरवाजे बंद हो गए। बसपा चाहती थी कि कांग्रेस मध्यप्रदेश से उसे कम से कम 30 सीटें मिलें। जबकि, कांग्रेस उसे 14-15 सीटें देने के मूड में थी। क्योंकि, कांग्रेस को कुछ सीटें समाजवादी पार्टी को भी अपने साथ लेना चाहती थी। वोटों  विभाजन रोकने के लिए कांग्रेस बसपा का साथ चाहती थी। लेकिन, अब कांग्रेस और बसपा साथ नहीं है, तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा। एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस ने बसपा से बातचीत को बहुत हल्के में लिया! उन्हें लगा कि कांग्रेस से जुड़ना मायावती की मज़बूरी है, पर बसपा का ऊंट इस करवट बैठेगा, ये किसी ने नहीं सोचा था! कांग्रेस अभी मायावती से गठबंधन की जमीन तैयार करने की तैयारी कर ही रहे थे, कि बसपा छिटककर दूर खड़ी हो गई!
  मायावती की आखिर कांग्रेस से क्यों नाराज हुई, अभी इस बात का खुलासा नहीं हुआ! लेकिन, समझा जा रहा है कि इसकी जड़ें उत्तरप्रदेश में हैं। एक कारण उत्तरप्रदेश के नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी को माना जा सकता है, जो कभी मायावती के सबसे भरोसेमंद थे और चंदे तक का हिसाब रखने थे! लेकिन, अब वे कांग्रेस के साथ हैं। बसपा से बाहर आने के बाद नसीमुद्दीन ने मायावती पर खुलकर टिकट बेचने सहित कई इल्जाम लगाए थे। कहा जाता है कि नसीमुद्दीन की मंशा समाजवादी पार्टी में जाने की थी, लेकिन अखिलेश यादव ने ऐसा नहीं होने दिया! कांग्रेस में नसीमुद्दीन को तवज्जो मिलना भी मायावती को खटक रहा है। ये भी मायावती की नाराजी के कारणों में गिना का रहा है। बदली परिस्थितियों में कांग्रेस को विश्वास है कि बसपा के बिना भी तीनों राज्यों में चुनाव जीता जा सकता है। क्योंकि, परंपरागत रूप से माना जाता है कि भाजपा से ज्यादा बसपा कांग्रेस के वोट बैंक में घुसपैठ करती है। जबकि, छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल का कहना है कि मायावती ने सीबीआई और ईडी के डर से कांग्रेस से गठबंधन नहीं किया।
   समझा जा रहा है कि एससी, एसटी एक्ट के खिलाफ सवर्णों की नाराजी का तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव पर असर पड़ना लगभग तय है। छत्तीसगढ़ में तो इसका प्रभाव कम है, पर 'भारत बंद' के दौरान मध्यप्रदेश और राजस्थान में विरोध प्रदर्शन सबसे ज्यादा हुए। इस संशोधन एक्ट से नाराज सवर्णों का रुख भाजपा और कांग्रेस को लेकर एक जैसा लग रहा है। ऐसी स्थिति में मायावती को कहीं न कहीं आशंका थी, कि अगर उन्होंने कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा तो गठबंधन में जहां-जहां बसपा के उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे, वहां सवर्ण लोग उनसे किनारा कर सकते हैं। ऐसी ढेर सारी आशंकाएं हैं, जो मायावती और कांग्रेस का रिश्ता टूटने का कारण बनी है। लेकिन, इन सारी शंकाओं, कुशंकाओं का चुनाव के नतीजों पर क्या असर होता है! इसके लिए चार महीने इंतजार कीजिए!
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कांग्रेसी क्षत्रपों में खींचतान का प्रचार, कहीं चाल तो नहीं?


   कांग्रेस और गुटबाजी मध्यप्रदेश में एक दूसरे पूरक हैं! जब भी कांग्रेस अपने चिर प्रतिद्वंदी भाजपा के खिलाफ कमर कसने की तैयारी करती थी, पार्टी तीन हिस्सों में बंटकर अपने-अपने सेनापतियों के पीछे खड़ी हो जाती थी। कांग्रेस के झंडे के तीन रंगों की तरह प्रदेश में इसकी तीन अलग धाराएं भी साफ़ नजर आती रही! लेकिन, इस बार कांग्रेस के इन टीमों क्षत्रपों में आपसी समझदारी दिखाई दे रही! चुनाव की नजदीकी के साथ ही ये एकजुट होकर भाजपा से मुकाबले के लिए साथ खड़े हैं! अभी तक जो कांग्रेस कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह खेमे में बंटी दिखती थी, अब उनमें एक सामंजस्य बनता लग रहा है। बैनरों, पोस्टरों और नारों में भी अब वो भेद नहीं लग रहा, जो कांग्रेस की पहचान बन गया था। इन तीन नेताओं की ताकत यदि साझा प्रयास करे, तो भाजपा को चुनौती देना मुश्किल नहीं है। लेकिन, फिर भी कार्यकर्ताओं तक ये संदेश नहीं पहुँच रहा! ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस में गुटबाजी का दिखावा करने में भाजपा सफल हो रही हो!  
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- हेमंत पाल

   ध्यप्रदेश में कांग्रेस की तीन धाराएं बरसों से प्रवाहित होती रही है! दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की जटाओं से निकलकर ये पार्टी पूरे प्रदेश में बहती है। जब कभी पार्टी को जरुरत पड़ती है, ये धाराएं एक जगह इकठ्ठा हो जाती थी और पार्टी का जनसैलाब बना देती है, जो कांग्रेस की ताकत के रूप में सामने आता है। लेकिन, जरुरत पूरी होते ही ये धाराएं फिर बिखर जाती थी। लेकिन, इस बार माहौल थोड़ा बदला सा लग रहा है। तीनों धाराएं कांग्रेस के झंडे के नीचे समाहित होती लग रही है। कांग्रेस की यही कोशिश भाजपा की परेशानी का कारण भी है। भाजपा को भी पता है कि ये तीनों नेता एक हो गए, तो भाजपा सरकार की जड़ों को उखाड़ना मुश्किल नहीं होगा! तीनों क्षत्रप अब पार्टी के मंच पर भी साथ हैं और मंच के पीछे भी! अभी तक इनके दल मिले थे, पर अब मज़बूरी में दिल भी मिलते लगते हैं। कांग्रेस नेतृत्व इन तीनों को एक जाजम पर बैठा पाने में सफल हो पाया है। इन तीनों धाराओं का सम्मिलित जोश डेढ़ दशक से प्रदेश में जमी भाजपा की जड़ों को हिला दे तो कोई आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।   
  विधानसभा चुनाव की तैयारी से पहले तक पार्टी में गुटीय राजनीति जबरदस्त हावी थी। पार्टी के कार्यकर्ताओं को कांग्रेसी न मानकर कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह गुटों में बांटकर देखा जा रहा है। यह वो संकेत है, जो पार्टी की रणनीति और भविष्य का अच्छा संकेत नहीं दे रहा था। सभाओं में नारे भी पार्टी को छोड़, नेताओं के नाम के लगने लगे थे! इस बारे में कई बार नेताओं ने कार्यकर्ताओं को हिदायत भी दी, पर समर्थकों की प्रतिबद्धता पार्टी से ज्यादा अपने नेता के प्रति दिखाई देती रही! लेकिन, तीनों के बीच आपसी सामंजस्य ने माहौल को बदला है। फिर भी इस सच्चाई को नाकारा नहीं जा सकता कि पिछले 15 सालों में मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने विपक्ष भूमिका ठीक से नहीं निभाई! अन्यथा आज जैसे हालात नहीं होते! इस दौरान कांग्रेस की स्थिति पूरी तरह निष्प्रभावी राजनीति की रही। कांग्रेस के निर्गुट कार्यकर्ता भी स्वीकारने लगे थे कि यदि भाजपा से मुकाबला करना है, तो पार्टी को एकजुट होना ही होगा! 
     जब तक कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की कमान नहीं सौंपी गई थी, उनके समर्थक उनकी सांगठनिक क्षमता के बारे में काफी कुछ बखानते थे। बीते महीनों में ऐसा कोई चमत्कार तो नहीं हुआ, पर दिग्विजय सिंह, सिंधिया और कमलनाथ में साझा रणनीति बनने की स्थितियां जरूर बनने लगी! कांग्रेस में अब वो बिखराव नजर नहीं आ रहा है, जो पिछले सालों में देखा गया। पार्टी की स्थिति अरुण यादव के कार्यकाल से जरूर कमजोर हुई! इसलिए भी कि अरुण यादव के कार्यकाल को पार्टी के नेता शांतिकाल की व्यवस्था मानते थे। जब से कमलनाथ ने पार्टी की कमान संभाली, पार्टी में बदलाव तो लगा, पर भाजपा पर कोई बड़ा राजनीतिक हमला नहीं किया जा सका! कई मामलों में तो पार्टी ठीक से अपनी रणनीतिक सफलता को भी भुना नहीं पाई! सबसे ख़राब स्थिति पार्टी प्रवक्ताओं की है, जो अभी भी कांग्रेस के प्रवक्ता न होकर अपने नेताओं के गुणगान तक सीमित हैं। पार्टी को इस तरह सबसे ज्यादा ध्यान इसी पर देने की जरुरत है। जब तक सारे प्रवक्ता साझा तैयारी से भाजपा पर हमला नहीं बोलेंगे, जनता तक पार्टी की ताकत का संदेश नहीं पहुंचेगा!
   पहले ये माना जा रहा था कि आने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रदेश में किसी चेहरे को सामने रखकर वोट मांगेगी! जैसा कांग्रेस ने पंजाब में किया था! लेकिन, अब ये बात स्पष्ट हो गई कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला! मध्यप्रदेश में पार्टी बिना चेहरे के ही चुनाव लड़ेगी। पार्टी का मानना है कि चुनाव में चेहरे की जरूरत नहीं होती, जनता का समर्थन चाहिए। फिलहाल पार्टी जिस स्थिति में है, उसे देखते हुए यदि कोई चेहरा सामने किया गया तो पार्टी की हालत ख़राब हो जाएगी! फिलहाल की राजनीति इस बात की इजाजत भी नहीं देती, कि पार्टी किसी एक चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़े! ऐसा हुआ तो सामंजस्य बिगड़ जाएगा और फिर निपटाने-सुलझाने का खेल शुरू होने में देर नहीं लगेगी। वैसे भी कांग्रेस को किसी चेहरे पर फोकस करने के बजाए तहसील, ब्लॉक और जिला स्तर पर संगठन को मजबूत करने की जरुरत ज्यादा है। भाजपा ने अपने डेढ़ दशक के शासन में कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान संगठन के स्तर पर ही पहुँचाया है। इसमें सुधार करके ही सार्थक नतीजे की उम्मीद की जा सकती है। कांग्रेस की इस एकजुटता को अब नीचे तक ले जाना जरुरी है, तभी बदलाव  की जाना संभव है! 
   प्रदेश का मुखिया बनने से पहले कमलनाथ ने शिवराजसिंह चौहान और उनकी सरकार की कथित कलाकारी को चलने नहीं देने का दावा किया था! उन्होंने 2018 में शिवराज की सरकार को उखाड़ फैंकनें का दावा भी किया था। कमलनाथ ने एक बात अच्छी ये भी कही थी कि मैं अपने ग्रामीण इलाके के दस कांग्रेसी नेताओं को रोज फोन लगाता हूँ, ताकि उनसे जीवंत संपर्क बना रहे। क्योंकि, जब तक लोग पार्टी में अपनापन महसूस नहीं करेंगें, तब तक संभव नहीं कि संगठन मजबूत बने! हम अभी तक जो चुनाव हारे उसकी वजह है कि हम स्थानीय स्तर पर संगठित नहीं हो पाए। आज नए और पुराने दोनों ही तरह के पार्टी कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलने की जरूरत है। कमलनाथ का ये फॉर्मूला कारगर नतीजे देने वाला हो सकता है, बशर्ते इस पर गंभीरता से अमल किया जाए! क्योंकि, दिनभर में दस ट्वीट करने से तो भाजपा घबराकर कांग्रेस को सत्ता सौंप देगी, ऐसा नहीं होगा! 
  प्रदेश में अब चुनाव प्रचार धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है! भाजपा की तरफ से शिवराज सिंह पूरी मुस्तैदी से किला लड़ा रहे हैं। लेकिन, भाजपा का पूरा ध्यान इस बात पर भी है कि कहीं कांग्रेस के तीनों क्षत्रप एक होकर उनका किला न छीन लें! यही कारण है कि भाजपा की तरफ से एक नियोजित तरीके से कांग्रेस में गुटबाजी को प्रचारित भी किया जाने लगा है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों सभाएं तो जमकर कर रहे हैं, पर अभी भी कहीं न कहीं उनका 'अपना आदमीवाद' साफ़ दिख रहा है! दोनों नेता इस बात का भी ध्यान रख रहे हैं कि उनके समर्थक कहीं टिकट की दौड़ में पिछड़ न जाएं! अभी चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की कोई सूची जारी नहीं हुई! लेकिन, जब वो समय आएगा, तब भी तीनों को सामंजस्य रखना होगा! क्योंकि, दिखने वाली जरा सी लापरवाही भाजपा की हल्ला ब्रिगेड को मौका दे सकती है।
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दोस्ती में झटके देना मायावती की पुरानी आदत!


   मायावती की राजनीति हमेशा चौंकाने वाली रही है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठन से लगाकर आजतक इस पार्टी ने कई पार्टियों को अपनी रणनीति से ललचाया और फिर झटका दिया। कांशीराम ने जब बसपा बनाई थी, तभी उन्होंने इशारा कर दिया था कि वे भविष्य में क्या करने वाले हैं। उन्होंने कहा था 'हम मजबूत नहीं, मजबूर सरकार चाहते हैं!' इसका सीधा सा मतलब है कि समर्थन की मज़बूरी का लालच देकर पार्टियों को ब्लैकमेल करना और अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना! उत्तरप्रदेश की राजनीति में बसपा ने कई बार कई पार्टियों को साथ देने का वादा करके झटका दिया है। समाजवादी पार्टी, भाजपा के साथ बसपा ने जो किया वो किसी से छुपा नहीं है! पर, इस बार मायावती ने कांग्रेस के साथ भी वही कहानी दोहराई है, जो पहले वो कर चुकी है।  
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   मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और बसपा के बीच लम्बे समय से बातचीत चल रही थी। लग भी रहा था कि दोनों पार्टियां मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मिलकर चुनाव लड़ेंगी! लेकिन, एनवक्त पर मायावती ने रास्ता बदलकर कांग्रेस को अकेला छोड़ दिया! छत्तीसगढ़ में उसने अजीत जोगी की पार्टी 'जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) से गठबंधन कर मध्यप्रदेश की भी सभी 230 सीटें अकेले लड़ने का एलान कर दिया। ये अचानक नहीं हुआ! कांग्रेस से ज्यादा सीटें जुगाड़ने के लिए मायावती ने बीच-बीच में कई बार कुचालें भरी! बसपा के मध्यप्रदेश अध्यक्ष ने किसी गठबंधन से ही इंकार कर दिया था! लेकिन, मायावती ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी! लेकिन, छत्तीसगढ़ में गठबंधन के एलान के साथ ही मायावती ने मध्यप्रदेश में अपने 22 उम्मीदवारों के नाम जाहिर करके गठबंधन की सारी संभावनाओं को ही ख़त्म कर दिया! लेकिन, कांग्रेस अभी भी उम्मीद से है कि शायद कोई चमत्कार हो!   
    विधानसभा चुनाव से पहले ये कांग्रेस को लगने वाला सबसे बड़ा झटका है। छत्तीसगढ़ में अब अजीत जोगी की पार्टी और मायावती मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। इस समझौते में 90 में से 35 सीटों पर बसपा चुनाव लड़ेगी, जबकि जोगी की पार्टी 55 सीटों पर! मायावती ने कहा कि अगर हमारा गठबंधन  चुनाव जीतता है, तो अजीत जोगी मुख्यमंत्री बनेंगे! मायावती ने भले ही जोगी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया हो, पर इस पर सहजता से भरोसा नहीं किया जा सकता! राजनीतिक धोखेबाजी में मायावती का कोई जोड़ नहीं! उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में परिवर्तन लाने के लिए दोनों पार्टियां साझा चुनाव अभियान चलाएंगी और कुछ दिनों में दोनों पार्टियों की रैली भी होगी। गठबंधन के बारे में मायावती ने कहा किवे  गठबंधन तभी करती हैं, जब उन्हें समझौते में सम्माजनक सीटें मिलें। जोगी और मायावती की इस जोड़ी में यदि कुछ और क्षेत्रीय पार्टियों का तड़का लगे, तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए! क्योंकि, मायावती ने कहा है बसपा और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) भाजपा को छत्तीसगढ़ में रोकने में सक्षम है, लेकिन यदि कुछ और क्षेत्रीय पार्टियां हमारे साथ जुड़ना चाहेंगी तो हम उनका भी सहयोग लेंगे।
  मध्यप्रदेश में बसपा ने सभी 230 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का एलान करके ये संकेत भी दे दिया कि अब कांग्रेस के लिए उनके दरवाजे बंद हो गए। बसपा चाहती है कि कांग्रेस मध्यप्रदेश से उसे कम से कम 30 सीटें मिलें। जबकि, कांग्रेस उसे 14-15 सीटें देने के मूड में है। क्योंकि, कांग्रेस समाजवादी पार्टी को भी अपने साथ लेना चाहती है, जिसे 10 सीटें देना पड़ सकती है। तीसरी पार्टी महाकौशल में अपना प्रभाव रखने वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी है, उसके लिए भी कांग्रेस को कुछ सीटें छोड़ना होंगी! कांग्रेस की रणनीति है कि गैर-भाजपाई वोटों को एकजुट करके ही भाजपा को सत्ता से उखाड़ा जा सकता है। कांग्रेस की मंशा थी कि इस मुहिम में बसपा का साथ होना बहुत ज़रूरी है। अब, जबकि कांग्रेस और बसपा साथ नहीं है, तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा।
  कांग्रेस अभी मायावती से गठबंधन की जमीन तैयार करने की तैयारी कर ही रहे थे, कि बसपा छिटककर दूर खड़ी हो गई! ख़ास बात ये कि बसपा की नजर सिर्फ उत्तरप्रदेश से लगने वाली सीटों पर ही नहीं है, वो मालवा-निमाड़ जैसी सुदूर की सीटों पर भी अपनी संभावनाएं तलाश रही है। बसपा ने प्रदेश में अपनी चुनावी तैयारी के तहत प्रदेश को पाँच झोन में बांटा है। इसमें खरगोन को नया झोन बनाया गया है। जिसमें इसमें खरगोन के साथ खंडवा, बुरहानपुर, बड़वानी, धार, झाबुआ और आलीराजपुर जिले भी हैं। पार्टी इन जिलों में अपने वोट बैंक को तलाशकर अपना जनाधार मजबूत करना चाहती है, ताकि मध्यप्रदेश में तीसरा राजनीतिक विकल्प खड़ा किया जा सके!
  कांशीराम द्वारा 1984 में बनाई गई बसपा ने 1990 में पहली बार मध्यप्रदेश में अपने चुनावी सफर का आगाज किया था। अपने पहले चुनाव में बसपा ने 3.53% वोट पाए थे। इसके बाद से पार्टी लगातार सभी चुनावों में 6% से 8% के आँकड़े को छू रही है। मध्यप्रदेश में बसपा का अपना जनाधार अनुसूचित जाति वर्ग के जाटव और अहिरवार समाज में है। क्योंकि, यही उसका जनाधार बढ़ाने वाला मुख्य जातिगत वोट बैंक भी है और इसी में उसकी पैठ भी है। मुरैना, भिंड और विंध्य के कुछ जिलों में बसपा ने सवर्ण जातियों विशेष रूप से ब्राह्मणों और वैश्यों को अपने टिकट पर मैदान में उतारा। परशराम मुद्गल, बलवीर दंडोतिया और रीवा में केके गुप्ता इसके उदाहरण हैं। बसपा ने यह फार्मूला दूसरी जगह भी अपनाया। इसका फ़ायदा ये हुआ कि उसने क्षेत्रीय और जातिगत समीकरणों में सेंध लगा ली। इस बार भी बसपा उन लोगों पर भी नजर रखेगी, जिन्हें भाजपा या कांग्रेस का टिकट नहीं मिलेगा! ऐसे सवर्ण नेताओं की राजनीतिक पृष्ठभूमि से उसे स्थानीय वोट बैंक को प्रभावित करने का मौका मिलता है। ऐसी स्थिति में जातिगत वोट, बसपा के पारंपरिक वोट बैंक के अलावा इन बागी नेताओं के समर्थकों के वोट भी उसके खाते में जुड़ जाते हैं। इस बार भी बसपा बागी नेताओं के भरोसे 230 सीटों पर चुनाव लड़ने की फिराक में है।
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तीन क्षत्रपों के हवाले कांग्रेस की पालकी!



   कांग्रेस और गुटबाजी मध्यप्रदेश में एक दूसरे पूरक हैं! जब भी कांग्रेस अपने चिर प्रतिद्वंदी भाजपा के खिलाफ कमर कसने की तैयारी करती है, पार्टी तीन हिस्सों में बंटकर अपने-अपने सेनापतियों के पीछे खड़ी हो जाती है। कांग्रेस के झंडे के तीन रंगों की तरह प्रदेश में इसकी तीन अलग धाराएं भी साफ़ नजर आती है! इस बार भी कांग्रेस इस सबसे मुक्त दिखाई नहीं दे रही! चुनाव की नजदीकी भी कांग्रेस को ये सबक नहीं दे रही कि वे एकजुट होकर भाजपा से मुकाबले के लिए साथ खड़े हों! यहाँ तक कि चुनाव प्रचार में भी कांग्रेस कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह खेमे में बंटी दिख रही है। बैनरों, पोस्टरों और नारों में भी कांग्रेस के बजाए नेताओं के नाम से जयकारे लगते हैं। तीन नेताओं की तीन धाराओं में विभाजित पार्टी यदि एक साथ प्रयास करे, तो भाजपा को चुनौती देना मुश्किल नहीं है। लेकिन, ऐसा हो नहीं पा रहा! यहाँ तक कि पार्टी के नेता ने चुनाव सभाओं के लिए भी अपने-अपने समर्थकों की सीटों का ध्यान रख रहे हैं! लेकिन, क्या कारण है कि पार्टी आलाकमान ने मध्यप्रदेश में पार्टी की पालकी इन्हीं तीनों को सौंप दी?  
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- हेमंत पाल

   ध्यप्रदेश में कांग्रेस की तीन धाराएं प्रवाहित होती है! दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की जटाओं से निकलकर ये पार्टी पूरे प्रदेश में बहती है। जब कभी पार्टी को जरुरत पड़ती है, ये धाराएं एक जगह इकठ्ठा हो जाती हैं और पार्टी का जनसैलाब बना देती है, जो कांग्रेस की ताकत के रूप में सामने आता है। जैसे ही ये जरुरत पूरी हो जाती है, ये धाराएं फिर अपनी-अपनी दिशाओं में बहने लगती हैं। लेकिन, जिस दिन भी ये तीनों धाराएं कांग्रेस के झंडे के नीचे एक हो जाएंगी, किसी भी सरकार की जड़ों को उखाड़ना मुश्किल नहीं होगा! लेकिन, ऐसा हो नहीं रहा! ये तीनों क्षत्रप पार्टी मंच पर तो कई बार साथ दिखे! इनके दल भी मिले, पर दिल नहीं! कांग्रेस नेतृत्व इन तीनों को एक जाजम पर बैठा पाने में सफल क्यों नहीं हो पा रहा, ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब किसी के पास नहीं! जब तक ये तीन धाराएं एक-दूसरे में समाहित नहीं होंगी, डेढ़ दशक से प्रदेश में जमी भाजपा की जड़ों को हिला पाना इसके लिए आसान नहीं होगा! 
     विधानसभा चुनाव की तैयारी पर भी गुटीय राजनीति हावी है। पार्टी के कार्यकर्ताओं को कांग्रेसी न मानकर कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह गुटों में बांटकर देखा जा रहा है। यह वो संकेत है, जो पार्टी की रणनीति और भविष्य संकेत देता है। अब तो चुनावी सभाओं में नारे भी पार्टी को छोड़, नेताओं के नाम के लगने लगे! इस बारे में कई बार नेताओं ने कार्यकर्ताओं को हिदायत भी दी, पर समर्थकों की प्रतिबद्धता पार्टी से ज्यादा अपने नेता के प्रति दिखाई देती है! इस सच्चाई को नाकारा नहीं जा सकता कि पिछले 15 सालों में मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने विपक्ष भूमिका भी ठीक से नहीं निभाई! कांग्रेस की स्थिति पूरी तरह निष्प्रभावी राजनीति की रही है। अब तो कांग्रेस के निर्गुट कार्यकर्ता भी स्वीकारने लगे हैं कि यदि भाजपा मुकाबला करना है, तो पार्टी को एकजुट होना ही होगा! सिर्फ पार्टी अध्यक्ष बदलने से कांग्रेस में शक्ति का संचार होने का जो भ्रम था, वो भी चार महीने में खंडित हो गया! 
   जब तक कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की कमान नहीं सौंपी गई थी, उनके समर्थक उनकी सांगठनिक क्षमता के कसीदे काढ़ने में देर नहीं करते थे! लेकिन, बीते महीनों में ऐसा कोई चमत्कार नहीं हुआ कि कांग्रेस मजबूत दिखाई दी हो! बल्कि, कई मामलों में पार्टी की स्थिति अरुण यादव के कार्यकाल से भी कमजोर लगी! जबकि, अरुण यादव के कार्यकाल को पार्टी के नेता शांतिकाल की व्यवस्था मानते हैं! जब से कमलनाथ ने पार्टी की कमान संभाली, न तो भाजपा पर कोई बड़ा राजनीतिक हमला किया गया न मुख्यमंत्री की घेरेबंदी की गई! कई मामलों में तो पार्टी ठीक से अपनी सफलता को भी भुना नहीं पाई! सबसे ख़राब स्थिति पार्टी प्रवक्ताओं की हो गई, जो खुद कांग्रेस के प्रवक्ता न होकर अपने आका के गुणगान तक सीमित हो गए! जबकि, अरुण यादव के कार्यकाल में केके मिश्रा ने कहीं ज्यादा प्रभावी ढंग से पार्टी का पक्ष सामने रखने का काम किया! सच्चाई ये है कि अभी तक कांग्रेस अपनी सेना भी ढंग से खड़ी नहीं कर सकी! सारा ध्यान नियुक्तियां करने और फिर उसे बदलने का ही है!        
   ये माना जा रहा था कि आने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रदेश में किसी चेहरे को सामने रखकर वोट मांगेगी! जैसा कांग्रेस ने पंजाब में किया था! लेकिन, अब ये बात स्पष्ट हो गई कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला! मध्यप्रदेश में पार्टी बिना चेहरे के ही चुनाव लड़ेगी। पार्टी का मानना है कि चुनाव में चेहरे की जरूरत नहीं होती, जनता का समर्थन चाहिए। फिलहाल पार्टी जिस स्थिति में है, उसे देखते हुए यदि कोई चेहरा सामने किया गया तो पार्टी की हालत और ज्यादा ख़राब हो जाएगी! गुटीय राजनीति इस बात की इजाजत भी नहीं देती कि, पार्टी किसी चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़े! ऐसा हुआ तो दूसरा गुट उसे निपटाने पर तुल लाएगा! वैसे भी आज कांग्रेस को किसी चेहरे पर फोकस करने के बजाए तहसील, ब्लॉक और जिला स्तर पर संगठन को मजबूत करने की जरुरत ज्यादा है। भाजपा ने अपने डेढ़ दशक के शासन में कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान संगठन के स्तर पर ही पहुँचाया है। गाँव-गाँव में कमल छाप कांग्रेसी मौजूद हैं। पार्टी को सबसे पहले इन्हें पहचानना होगा, तभी किसी सार्थक नतीजे की उम्मीद की जा सकती है। भाजपा के खिलाफ कांग्रेस की इस कथित एकजुटता को अब नीचे तक ले जाना जरुरी है, तभी बदलाव  की जाना संभव है!  
  प्रदेश की मुखिया बनने से पहले कमलनाथ ने शिवराजसिंह चौहान और उनकी सरकार की कथित कलाकारी को चलने नहीं देने का दावा किया था! वे 2018 में उनकी सरकार को उखाड़ फैंकनें का दावा भी कर रहे थे, तो अब तक उन्होंने कुछ किया क्यों नहीं? लेकिन, कमलनाथ ने एक बात अच्छी कही कि मैं अपने ग्रामीण इलाके के दस कांग्रेसी नेताओं को रोज फोन लगाता हूँ, ताकि उनसे जीवंत संपर्क बना रहे। क्योंकि, जब तक लोग पार्टी में अपनापन महसूस नहीं करेंगें, तब तक संभव नहीं कि संगठन मजबूत बने! हम अभी तक जो चुनाव हारे उसकी वजह है कि हम स्थानीय स्तर पर संगठित नहीं हो पाए। आज नए और पुराने दोनों ही तरह के पार्टी कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चलने की जरूरत है। कमलनाथ का ये फॉर्मूला कारगर नतीजे देने वाला हो सकता है, बशर्ते इस पर अमल किया जाए! दिन में दस ट्वीट करने से भाजपा घबराकर कांग्रेस को सत्ता सौंप देगी, ऐसा तो कुछ होगा नहीं! वास्तव में हो यही रहा है! 
  प्रदेश में चुनाव प्रचार धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है! भाजपा की तरफ से शिवराज सिंह पूरी मुस्तैदी से किला लड़ा रहे हैं, पर कांग्रेस के प्रचार में अभी गरमाहट दिखाई नहीं दे रही! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया दोनों सभाएं तो कर रहे हैं, पर उनका 'अपना आदमीवाद' साफ़ दिख रहा है! दोनों नेता इस बात का भी ध्यान रख रहे हैं कि उनके समर्थक कहीं टिकट की दौड़ में पिछड़ न जाएं! अभी चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की कोई सूची जारी नहीं हुई! लेकिन, जब वो समय आएगा, तब इन तीनों में खींचतान होना तय है। फिलहाल दिग्विजय सिंह ने अपने आपको भोपाल की राजनीति से अलग रखा है और प्रदेशभर में 'संगत में पंगत' कर रहे हैं! लेकिन, वे भी उम्मीदवारी की कानाफूसी से अलग नहीं हैं! देखना है कि ये तीनों मठाधीश कांग्रेस की पालकी को राजप्रासाद तक ले जाने में कैसे कामयाब होंगे!            
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Monday, September 10, 2018

'सपाक्स' की आहट से बदलते समीकरण!


- हेमंत पाल 
 
   दो साल पहले मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण के लिए बनाए कानून एवं नियमों को असंवैधानिक मानते हुए इसे निरस्त कर दिया था। इस निर्णय के खिलाफ प्रदेश सरकार के सुप्रीम कोर्ट में जाने से गैर-आरक्षित वर्ग के सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी नाराज हो गए! 'सपाक्स' इसी नाराजी की कोख से उपजा संगठन है। अब 'सपाक्स' ने अपनी ताकत को चुनाव के मैदान में आजमाने का फैसला किया है। अगले विधानसभा चुनाव में 'सपाक्स' ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान किया है। सरकारी नौकरी में अनारक्षित वर्ग के लोगों की संख्या पांच लाख से ज्यादा है। इनके परिवार और संबंधियों को जोड़ लिया जाए तो ये संख्या कई लाख होगी! इन सभी की नाराजी का फ़ायदा लेने के लिए ही 'सपाक्स' राजनीति में उतरना चाहता है। क्योंकि, एससी-एसटी कानून में संशोधन और आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस दोनों साथ खड़े हैं। वे समझ नहीं पा रहे कि सामान्य वर्ग में कितनी नाराजी है।  लेकिन, ये कांग्रेस और भाजपा को कितना नुकसान और फ़ायदा देगा, अभी इस बारे में कोई अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी! 
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    मध्यप्रदेश की राजनीति दो दलीय है! यहाँ अभी तक कोई तीसरा विकल्प खड़ा नहीं हो सका। जब भी कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी तीसरे राजनीतिक विकल्प का जिक्र आता, तो नजरें बहुजन समाज पार्टी (बसपा) या समाजवादी पार्टी (सपा) पर जाकर टिक जाती है। क्योंकि, उत्तरप्रदेश की राजनीतिक पृष्ठभूमि से उभरी इन दोनों ही पार्टियों ने प्रदेश में कुछ अर्थों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है! लेकिन, उनका प्रभाव उन्हीं सीटों तक रहा, जो उत्तरप्रदेश की सीमा से लगती हैं। महाकौशल, मालवा, निमाड़ या मध्यप्रदेश के अन्य इलाकों में बसपा या सपा की असरदार राजनीति नदारद है। कांग्रेस और भाजपा की हार-जीत पर भी ये असर डाल सकते में सफल नहीं होते! लेकिन, ताजा राजनीतिक संदर्भों में सामान्य, पिछड़ा, अल्पसंख्यक कर्मचारी संगठन 'सपाक्स' को प्रदेश में तीसरा विकल्प समझा जा रहा है! अपने नाम से 'सपाक्स' अपने राजनीतिक अस्तित्व का संकेत नहीं देता! इसलिए ये संगठन विधानसभा चुनाव में 'उगता सूरज' नाम से राजनीतिक पार्टी मैदान में उतार रहा है! इस संगठन के असर को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही समझ रहे हैं! देखना है कि चुनाव में 'सपाक्स' अपनी मौजूदगी से खुद की पहचान बना पाता है या किसी और पार्टी के लिए मददगार बनता है!       
     संसद में एससी, एसटी एक्ट में हुए नए संविधान संशोधन के खिलाफ सवर्णों के बंद को 'सपाक्स' के मौन समर्थन ने उसकी ताकत दिखा दी! प्रदेश की जनता तक ये संदेश पहुँच गया कि राजनीतिक विचारधारा से हटकर भी कोई मंच है, जो सवर्णों की बात को आवाज दे सकता है! इस संगठन ने सरकारी सेवाओं में कार्यरत ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों को ताकत देने की कोशिश की, जो अभी तक आरक्षण राजनीति के सामने खामोश रहने के लिए मजबूर थे। 'सपाक्स' की वजह से ही एससी-एसटी एक्ट और प्रमोशन में आरक्षण के मुद्दे पर होने वाले विरोध ने जोर पकड़ा! इस संगठन का मकसद सरकारी नौकरियों में होने वाले प्रमोशन में आरक्षण को खत्म कराना है। यह संगठन जातिवाद समाप्त करने का भी पक्ष लेता है। शायद इसीलिए इस संगठन का नारा है 'साथ चलेंगे विकास करेंगे।'
   दरअसल, 'सपाक्स' की उत्पत्ति का एक प्रमुख कारण है 'अनुसूचित जाति एवं जनजाति अधिकारी एवं कर्मचारी संघ (अजाक्स) का विरोध। इसीलिए 'सपाक्स' को 'अजाक्स' का प्रतिद्वंदी संगठन कहा जाता है। 'सपाक्स' ने ही मध्यप्रदेश सरकार द्वारा 2002 में पारित 'आरक्षण के आधार पर पदोन्नति कानून' का विरोध किया था। इसे हाईकोर्ट ने भी असंवैधानिक करार दिया। लेकिन, प्रदेश सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई! बस यहीं से 'सपाक्स' की नींव पड़ी! संरक्षक हीरालाल त्रिवेदी का ये संगठन आज प्रदेश के सभी जिलों में सक्रिय है और इसके कई मोर्चे भी हैं। इस संगठन की विचारधारा कभी राजनीतिक नहीं रही, पर वर्तमान संदर्भों में 'सपाक्स' का नजरिया राजनीतिक हो गया! क्योंकि, एससी, एसटी कानून में केंद्र सरकार ने जो संविधान संशोधन किया, वो सवर्ण जनमानस की उस सोच से मेल खाता है, जो 'सपाक्स' का मकसद है। आरक्षण, जातिय भेदभाव जैसे मुद्दों ने 'सपाक्स' और एससी, एसटी कानून का विरोध करने वाले अराजनीतिक लोगों को एक मंच पर ला दिया है! उनकी इस योजना के पीछे मूल मकसद राजनीति में लागू आरक्षण का विरोध करना, क्योंकि देश के विकास में यही सबसे बड़ा रोड़ा बना है। आरक्षण विरोधी युवाओं का भी 'सपाक्स' के प्रति रुझान बढ़ा है!
   अनारक्षित सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के इस संगठन के राजनीतिक असर को कभी न तो समझा गया और न ऐसी कोई जरुरत पड़ी! क्योंकि, सरकारी सेवा से जुड़े लोगों को अपनी राजनीतिक सोच को सार्वजनिक रूप से दर्शाने पर रोक होती है! लेकिन, एससी,एसटी एक्ट में बदलाव से सवर्णों में उभरे गुस्से ने 'सपाक्स' को अपनी राजनीतिक ताकत परखने पर मजबूर कर दिया! यही कारण है कि इसे आज कांग्रेस और भाजपा के सामने तीसरा प्रमुख प्रतिद्वंदी समझा जा रहा है। 'सपाक्स' ने अगले विधानसभा चुनाव में अपनी मौजूदगी का फैसला करके दोनों प्रमुख पार्टियों की नींद उड़ा दी! 'सपाक्स' ने प्रदेश की सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का एलान कर दिया और राजनीतिक पार्टी बनाने की बात कही है। अनुमान है कि 'सपाक्स' के संरक्षक हीरालाल त्रिवेदी खुद उज्जैन जिले की बड़नगर विधानसभा से चुनाव लड़ेंगे!
   'सपाक्स' की स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा भाजपा और कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल भी है। क्योंकि, एससी-एसटी कानून में संशोधन का विरोध करने का साहस इन दोनों ही पार्टियों में नहीं है। केंद्र में सरकार भाजपा की है, इसलिए भाजपा तो विरोध करने से रही! पर, कांग्रेस भी एससी-एसटी वोटों के लोभ में मुँह बंद किए है! उसे डर है कि यदि संविधान संशोधन के खिलाफ मुँह भी खोला तो एक बड़ा वर्ग उसके हाथ से निकल जाएगा! लेकिन, 'सपाक्स' का गठन इस विरोध की कोख से जन्मा है, इसलिए उसे खुलकर बोलने और सामने आने में कोई संकोच नहीं है, और यही आज वक़्त की मांग है! 'सपाक्स' अनारक्षित वर्ग के इसी सोच का फ़ायदा उठाकर अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाना चाहता है। इस बार का विधानसभा चुनाव उसके लिए शायद सबसे अच्छा मौका साबित हो! विधानसभा चुनाव में 'सपाक्स' उनकी इसी विचारधारा के संगठन के साथ गठबंधन करने को भी तैयार है! क्योंकि, 'सपाक्स' के अधिकांश सदस्य सरकारी नौकरी में हैं, जो खुलकर राजनीति करने मैदान में नहीं आ सकते! लेकिन, 'सपाक्स' की सबसे बड़ी ताकत है उसका एससी-एसटी को मिलने वाले आरक्षण के प्रति उसका विरोध! समाज में धारणा के समर्थकों की कमी नहीं है, पर उस विरोध को मंच देकर 'सपाक्स' ने लोगों को सोचने पर मजबूर तो कर दिया!   
     'सपाक्स' के चुनाव लड़ने के फैसले से प्रदेश की राजनीति का चेहरा कहाँ और कैसे बदलेगा, इसे लेकर अभी कई तरह अनुमान हैं! एससी-एसटी कानून  में संशोधन से सामान्य वर्ग की भाजपा के प्रति नाराजी साफ़ नजर आ रही है! ऐसे में 'सपाक्स' के चुनाव लड़ने से भाजपा विरोधी वोट उसकी झोली में गिरेंगे जो कांग्रेस नहीं चाहती! कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि किसी भी स्थिति में सरकार विरोधी वोटों का बंटवारा न हो! क्योंकि, सत्ता विरोधी वोटों के बंटने से भाजपा को फ़ायदा मिलना तय है। 'सपाक्स' के राजनीति में उतरने को भाजपा अपनी जीत की तरह देख रही है। इसकी वजह भी साफ है! 'सपाक्स' जब मैदान में उतरेगा तो सत्‍ता विरोधी वोट बटेंगे और ये विभाजित वोट कांग्रेस के लिए नुकसानदायक है। लेकिन, अभी भी बहुत सारे किन्तु, परन्तु हैं जो प्रदेश में राजनीति के समीकरण बदल सकते हैं।
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अब कंगना की 'मणिकर्णिका' निशाने पर!

हेमंत पाल

   संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावत' के बाद अब कंगना रनौत की ऐतिहासिक फिल्म ‘मणिकर्णिका : द क्वीन ऑफ झांसी’ पर तथ्यों से छेड़छाड़ करने का आरोप लगा है। जिस तरह 'पद्मावत' के खिलाफ राजस्थान से आवाज उठी थी, वहीं से 'मणिकर्णिका' का विरोध भी पनपा! 'मणिकर्णिका' के बारे में कहा गया है कि फिल्म में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और एक अंग्रेज अफसर के बीच प्यार बताया गया है। जबकि, फिल्म में झांसी की रानी का रोल निभा रही, कंगना रनौत का कहना है कि फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है। कहानी में लक्ष्मीबाई और अंग्रेज अफसर बीच कहीं, कोई संबंध नहीं है। ऐसे विवादों को देखते हुए लगता है कि अब फिल्मकारों को ऐतिहासिक कहानियों पर फिल्म बनाने को लेकर गंभीरता से सोचना पड़ेगा! 
  फिल्म पर आरोप लगाने वाले संगठन का कहना है कि 'मणिकर्णिका' में इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गई है। 'पद्मावत' की ही तरह इस फिल्म की कहानी में भी गड़बड़ है। 'मणिकर्णिका' की शूटिंग राजस्थान के कई शहरों में हुई है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई पर बनी ये फिल्म लेखिका जयश्री मिश्रा की लिखी कथित विवादस्पद किताब 'रानी' के कुछ अंशों पर आधारित है। लेकिन, आरोप लगाने वालों के पास फिल्म की कहानी को लेकर ऐसा कोई तथ्य नहीं है, जो उनके आरोप की पुष्टि करे! सिर्फ शूटिंग के कुछ सीन देखकर उन्होंने अनुमान लगाया है।  
  अभी इस बात ज्यादा वक़्त नहीं बीता जब संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावत' को लेकर करणी सेना ने उत्पा‍त मचाया था। उनके विरोध के कारण फिल्म की रिलीज में देरी हुई और कुछ बदलाव भी करना पड़े थे। 'पद्मावत' के बाद अब ‘मणिकर्णिका' को निशाना बनाया गया। कंगना रनौत की इस बात में दम है कि कुछ लोग ऐसे विवाद के जरिए पॉपुलर होना चाहते हैं। वास्तव में फिल्म की कहानी में झांसी की रानी के प्रेम का कोई प्रसंग ही नहीं है। यह पूरी फिल्म अंग्रेजों और झांसी की रानी के बीच हुई लड़ाई पर आधारित है। इस फिल्म की कहानी ‘बाहुबली’ के लेखक विजयेंद्र प्रसाद ने लिखी है। वे खुद इस किरदार से इतना प्रभावित हुए कि अपनी बेटी का नाम ही मणिकर्णिका रख दिया। 
  कंगना रनौत और विवादों का रिश्ता काफी पुराना है। 'मणिकर्णिका' की कहानी में तथ्यात्मक गड़बड़ी के आरोप के अलावा निर्देशक कृष से भी कंगना के मतभेद काफी छाये रहे। यहाँ तक कि उन्होंने तो कंगना के साथ काम करने से ही इंकार कर दिया! उनका कहना था कि कंगना का व्यवहार काफी ख़राब है। बॉलीवुड में कंगना रनौत हमेशा ही अपने व्यवहार के कारण सुर्ख़ियों में रही है। बताते हैं कि कंगना को फिल्म के कई सीन ठीक नहीं लगे और उन्होंने उसे फिर से फिल्माने को कहा! लेकिन, निर्देशक ने ये पैचवर्क से मना कर दिया! उनका कहना था कि फिर से शूटिंग करने की कोई जरुरत नहीं हैं! इस विवाद के बाद फिल्म के बचे हिस्से का डायरेक्शन कंगना रनौत ने संभाला। क्योंकि, कृष इस समय 'एनटी रामाराव' की बायॉपिक की शूटिंग में बिजी हैं। 
   पहले रितिक रोशन के साथ भी कंगना की लंबी कानूनी लड़ाई चली है। कंगना का नाम रितिक की आने वाली फिल्म 'सुपर 30' के वितरकों को भड़काने के मामले से भी जोड़ा जा रहा है। चर्चा है कि आनंद कुमार पर उनकी कोचिंग के लिए देशभर से आने वाले परीक्षार्थियों से कथित धोखाधड़ी का भंडाफोड़ वाली पूरी प्लानिंग कंगना के दिमाग की उपज है। एक मामला ये भी है कि फिल्म की शूटिंग पूरी होने के बाद कंगना ने फिल्म में एक अहम् रोल निभा रहे सोनू सूद पर भी फिल्म के कुछ सीन फिर से फिल्माने के लिए दबाव डाला! जिसके लिए सोनू के पास समय नहीं है और उन्होंने मना कर दिया। तात्पर्य यह कि कंगना रनौत को विवादों में बने रहने की आदत सी हो गई है! ये भी कहा जा रहा है कि 'मणिकर्णिका' को लेकर वास्तव में कोई विवाद ही नहीं है, कंगना ने खुद ही तथ्यों से छेड़छाड़ का आरोप लगवाया है, ताकि फिल्म को 'पद्मावत' तरह पॉपुलरिटी मिले!    
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Wednesday, September 5, 2018

सोशल मीडिया के राजनीतिक खतरों को भी भांपा जाए!



   सोशल मीडिया ने राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की परंपरागत पहचान और लोकप्रियता को पूरी तरह बदल दिया। हैशटैग-वॉर राजनीति का नया अखाड़ा बन गया। नेताओं और लोगों के बीच संचार में सोशल मीडिया असरदार माध्यम बन गया! इससे राजनीतिक संचार के ढंग और तरीके को भी नया रूप मिला। सोशल मीडिया ने छोटी राजनीतिक पार्टियों और कम लोकप्रिय उम्मीदवारों को सामने लाने में भी भूमिका निभाई है। उनके कामकाज को सोशल मीडिया ने बढ़ाकर उनको राजनीतिक आधार दिया। इस मीडिया ने तो उम्रदराज नेताओं को भी मीडिया साक्षर बनने के लिए मजबूर कर दिया है। अब तो राजनीतिक पार्टियों के फैसलों पर सोशल मीडिया में गंभीर बहस भी चलने लगी! इस बार सोशल मीडिया पर चुनावी नतीज़ों की छाप साफ़ नजर आने वाली है। लेकिन, ये नहीं भूला जाना चाहिए कि यदि सोशल मीडिया इमेज बनाने की भूमिका निभाएगा तो उतनी ही सक्रियता से उसे बिगाड़ भी सकता है! इसलिए नेताओं और पार्टियों को इस दोधारी तलवार से सावधान रहना चाहिए! 
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- हेमंत पाल

   समाज में सोशल मीडिया इतने गहरे तक रच-बस गया है कि उससे अलग होकर कुछ सोचा भी नहीं जा सकता। ऐसे में इस मीडिया के राजनीतिक प्रभाव से इंकार नहीं! विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका का महत्वपूर्ण होना तय है। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की 'इमेज मेकिंग' का एक बड़ा काम सोशल मीडिया ने ही किया था! अब 5 साल बाद ये मीडिया उससे कहीं ज्यादा समृद्ध हो गया है। अनुमान है कि मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया बड़ा गुल खिलाएगा! क्योंकि, सोशल मीडिया यदि किसी की इमेज बना सकता है, तो बिगाड़ भी सकता है। 
     सोशल मीडिया के प्रभाव की वजह से राजनीति पार्टियां और नेता अब अपना पक्ष रखने के लिए किसी और मीडिया के मोहताज नहीं रह गए! अब तो मुख्यधारा के मीडिया को पूर्वाग्रही तक माना जाने लगा है! राजनीति और समाज में सोशल मीडिया एक ताज़ा लहर जैसी है, जिसके ज़रिए वो टेक्नोलॉजी से समृद्ध उस युवा मतदाता तक पहुंचने लगा, जो राजनीति से पूरी तरह कटा हुआ था। सोशल मीडिया को राजनीतिकों द्वारा हाथों-हाथ लिए जाने का सबसे कारण ये था कि ये मीडिया किसी बिचौलिए के दखल मोहताज नहीं था। अब स्थिति ये है कि नेता और पार्टियाँ अपनी बात, अपने दावे और वादे मतदाताओं तक सीधे पहुंचा सकते हैं। अब उन्हें मुख्यधारा के मीडिया के सामने गिड़गिड़ाने की ज़रूरत भी नहीं रह गई! सोशल मीडिया ऐसा मंच बन गया जहां से वे अपने समर्थकों तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं। उनसे संवाद कर सकते हैं, उन्हें संबोधित कर सकते हैं और उनसे मुद्दों पर सलाह भी ले सकते हैं।
      किसी ने सोचा नहीं होगा कि वक़्त के साथ दुनिया इतनी सिमट जाएगी कि राजनीति जैसा गंभीर विषय भी मुट्ठी में आ जाएगा। 80 के दशक तक पार्टियों और नेताओं की एक अलग ही छवि और लोकप्रियता होती थी! जो पार्टी के संघर्ष एवं उसके कामकाज के आधार पर बनती थी! लेकिन, माहौल बदल गया! अब तो पेशेवर लोगों ने सोशल मीडिया के जरिए पार्टियों और नेताओं की छवि को गढ़ना शुरू कर दिया है। उनकी खामियों को छुपाकर, खूबियों को इतना बढ़ा चढ़ाकर सोशल मीडिया पर दिखाया जाता है कि उसे देखने वाले भ्रमित हो जाते हैं। सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सोशल मीडिया के जरिए जो क्रांति आई है, कुछ साल पहले तक ये सोचना भी संभव नहीं था। सोशल मीडिया ने समाज की सोच के साथ-साथ राजनीति को भी हाई जैक कर लिया। आजादी के बाद राजनीति में जो कूटनीतिक व्यवहार और प्रोफेशनलिज्म हावी रहता था, आज उस पर टेक्नोलॉजी हावी है।
   माना जाता है कि राजनीति को सोशल मीडिया पर लोकप्रिय बनाने का पहला सफल प्रयोग 2008 में अमेरिका में हुआ था। सोशल मीडिया का इन चुनावों के नतीजों पर इतना प्रभाव देखने को मिला कि इन चुनावों को 'फेसबुक इलेक्शन ऑफ 2008' कहा गया! अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में बराक ओबामा ने ये नया प्रयोग किया था! 2007 तक बराक ओबामा अमेरिकी राजनीति में एक सामान्य से सीनेटर थे! लेकिन, राष्ट्रपति चुनाव में उनकी समर्थक टीम ने डाटाबेस तैयार किया 2008 का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव एक इतिहास बन गए। सोशल मीडिया ने वैश्विक स्तर पर एक क्रांति को जन्म दिया! ऐसा तूफान उठा जिसमें जो भी इस तकनीक से जुड़ा, वो पार लग गया और जिसने इस तकनीक को नहीं समझा, वो पिछड़ गया। सोशल मीडिया का बड़ा योगदान महिलाओं और युवाओं को राजनीति से जोड़ने का रहा है! इन दोनों के लिए राजनीति नीरस विषय रहा! लेकिन, सोशल मीडिया के माध्यम से ये दोनों ही वर्ग राजनीति पर अपने विचार रखने लगे हैं।
 हमारे यहाँ सोशल मीडिया में चुनाव प्रचार का पहला प्रयोग 2014 के लोकसभा चुनाव में शुरू हुआ था! विकास पुरुष के रूप में नरेंद्र मोदी को प्रोजेक्ट करने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही! देश में 'फेसबुक' यूज़र्स की संख्या लगातार बढ़ रही है। देश का हर 7वां व्यक्ति कभी न कभी सोशल मीडिया का इस्तेमाल करता है। अमेरिका के बाद भारत 'फेसबुक' का सबसे बड़ा बाजार बन गया! भारत में 'व्हाट्सएप्प' तो वैसे भी दुनिया में सबसे बड़ा बाजार है। अधिकांश राजनीतिक दल सोशल मीडिया पर अपने प्रचार में करोड़ों खर्च कर रहे हैं। स्पष्ट है कि वे अपना पैसा पानी में तो नहीं डाल रहे हैं! फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर या यूट्यूब जैसे मीडिया पर राजनीतिक दलों का भरोसा है, उसके पीछे मॉस मीडिया की एक थ्योरी काम कर रही है। इसके मुताबिक, लोग जानकारी या विचारों के लिए इस मीडिया के जरिए किसी ओपीनियन मेकर को चुनते हैं। उसी की बात सुनी और कई बार मानी भी जाती है। इसे 'टू स्टेप थ्योरी' कहा जाता हैं।
   पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव ने भी सोशल मीडिया को नई दिशा दी! कैंपेन, वायरल सेक्स सीडी कंटेंट और नेताओं के बयानों पर जोक इस बार के गुजरात चुनाव का अहम हिस्सा रहे! यह चुनाव इस बार जमीन से ज्यादा सोशल मीडिया पर लड़ा गया था। लेकिन, सोशल मीडिया सकारात्मक प्रभाव ही नहीं छोड़ता, इसका नकारात्मक प्रभाव भी तत्काल सामने आता है। सोशल मीडिया किसी नेता या पार्टी की इमेज बनाता है, तो सोशल मीडिया पर इमेज उतनी ही जल्दी बिगड़ती भी है। चार साल पहले जिस नरेंद्र मोदी को लोगों ने राजनीति के शिखर पर बैठाया था। इन दिनों सोशल मीडिया में चल रही जुमलेबाजी में उसी मोदी-सरकार की नीतियों और काम की जमकर खिंचाई हो रही है। भाजपा को सोशल मीडिया का अच्छा खिलाड़ी माना जाता है, लेकिन अब पार्टी के लिए सोशल मीडिया को हैंडल करना मुश्किल हो रहा है! ऐसी ही कुछ स्थिति मध्यप्रदेश में भी है, जहाँ सरकार और पार्टी पर लगातार हमले हो रहे हैं। पार्टी को चिंता है कि उसकी बिगड़ती छवि देश के अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी असर डाल सकती है। 2018 में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। भाजपा को सोशल मीडिया की मंझी हुई खिलाड़ी माना जाता है। पार्टी ऑनलाइन स्पेस में अच्छी खासी जगह रखती हैं, इसका ट्विटर बेहद ही एक्टिव है और सोशल मीडिया पर भी इसके मैसेज लोगों को आकर्षित करते हैं। ट्रोलिंग में भी पार्टी का जवाब नहीं, लेकिन पार्टी के लिए ऑनलाइन स्पेस में हो रही आलोचना और विरोध अब परेशानी बन गया है।
    राजनीतिक प्रबंधन ने सोशल मीडिया का भी अभूतपूर्व इस्तेमाल किया और भारतीय लोकतंत्र की चुनाव संस्कृति को बदल दिया। व्हाट्सएप्प, ट्विटर, फ़ेसबुक और लिंक्डइन जैसी सोशल मीडिया साइट्स ने युवाओं के संवाद के ढंग को ही बदल दिया! राजनीति ने इसे अपने फायदे के रूप में पहचाना देखा कि यदि एक नेता सोशल मीडिया पर दस यूजर्स को प्रभावित करता है, तो वे दस यूजर्स और भी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं। राजनीतिक दलों, नेताओं और उनके समर्थकों के प्रति नज़रिया बनाने या उसे बिगाड़ने में सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है! ख़ास बात ये कि राजनीतिकों ने उतनी ही  चतुराई से उसका इस्तेमाल भी किया है।    अब तो सोशल मीडिया पर चुनाव कैंपेन एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन है। यहाँ तक कि ये निर्णायक भूमिका भी अदा करने लगा है। मध्यप्रदेश में हर पार्टी के कार्यक्रमों की जानकारी, गतिविधियाँ, प्रदर्शन और मध्यप्रदेश सरकार की गड़बड़ियां सामने आ रही है। यूथ वोटर या फर्स्ट टाइम वोटर तक पार्टी की विचार धारा और दिल्ली सरकार के काम को पहुँचाने में यह टीम जी जान से जुटी हुई है। इस परिदृश्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि अब वोटर्स को प्रचार से रिझाना या भरमाना पार्टियों के लिए संभव नहीं है। आज हर वोटर्स के हाथ में ऐंड्रोइड मोबाइल फ़ोन है जो सबकी खबर रखता है। अगला चुनाव तो वही जीतेगा, जो सोशल मीडिया पर वोटर्स का दिल जीतेगा! लेकिन, इस मीडिया के यदि लाभ हैं तो उतने खतरे भी हैं। 
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Sunday, September 2, 2018

कभी फिल्मों की धड़कन थे स्टूडियो!




- हेमंत पाल 
   सिनेमा सिर्फ सेलुलॉइड पर उतरी काल्पनिक कहानी ही नहीं होती! इसके पीछे और भी बहुत कुछ होता है! कहानी को फिल्माने के लिए वास्तविक लोकेशन के साथ काल्पनिक लोकेशन भी निर्मित की जाती है! नकली मकान, बाजार, झरने, पहाड़, रेलवे स्टेशन और न जाने क्या-क्या गढ़ा जाता है। जहाँ ये नकली लोकेशन गढ़कर कहानी को फिल्माया जाता है, वो जगह होती है स्टूडियो! इसलिए इन स्टूडियो का इतिहास भी फिल्मों से कम पुराना नहीं है! ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से आजतक मुंबई के इन स्टूडियो की अहमियत कम नहीं हुई! इनकी जरूरत जरूर घट गई! यही कारण है कि धीरे-धीरे मुंबई के फिल्म स्टूडियो बंद होने लगे। सामने आई राजकपूर के आरके स्टूडियो के बिकने की खबर ऐसे स्टूडियो के अब इतिहास बनने की दर्दनाक सूचना जैसा है।      
    फिल्मों की शुरुआत से आजतक कई अविस्मरणीय फिल्मों की शूटिंग इन्हीं स्टूडियो में हुई। महबूब, आरके, फ़िल्मिस्तान, प्रभात, फैमस, फिल्मालय, बॉम्बे टॉकीज, नवरंग, सिनेविस्टा और नटराज जैसे कई स्टूडियो सौ साल से ज्यादा पुराने फिल्म इतिहास के गवाह रहे हैं! जाने-माने फ़िल्मकार वी शांताराम ने 1942 में पुणे के प्रभात स्टूडियो को छोड़कर मुंबई के परेल इलाके में बसे वाडिया मूवी टाउन को ख़रीदा और उसे राजकमल कलामंदिर का नाम दिया। 'शकुंतला' पहली फ़िल्म थी, जिसकी यहां शूटिंग हुई। वी शांताराम ने देश की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म 'नवरंग' को भी यहीं फिल्माया गया था। बीआर चोपड़ा ने भी अपनी कई फिल्मों की शूटिंग यहां की! यश चोपड़ा ने बतौर निर्देशक अपनी पहली फ़िल्म 'धूल का फूल' से लेकर आख़िरी फ़िल्म 'जब तक है जान' का भी कुछ हिस्सा इसी स्टूडियो में फिल्माया। 'शोले' की डबिंग भी राजकमल स्टूडियो में ही हुई! अब उनके बेटे किरण शांताराम कोशिश कर रहे हैं कि अपने पिता द्वारा इस्तेमाल की गई चीज़ों का म्यूज़ियम बनाया जाए! बॉम्बे टॉकीज उन दिनों का सबसे बड़ा प्रोडक्शन हाउस हुआ करता था! कई शानदार और मशहूर फिल्में देने वाला इस प्रोडक्शन हॉउस का स्टूडियो 'बॉम्बे टॉकीज' आज इतिहास के पन्नों में दफन हो चुका है। 
  देश के बंटवारे के वक़्त फ़ेमस स्टूडियो रुंगटा परिवार के हिस्से में आया था। शुरुआती दौर में गुरुदत्त, जेबी प्रकाश और शक्ति सामंत जैसे कई फ़िल्मकारों के दफ़्तर भी यहीं थे। यहां प्यासा, नीलकमल और 'सीआईडी' जैसी कई फ़िल्मों की शूटिंग हुई! लेकिन, 1985 के बाद से यहां शूटिंग बहुत कम हो गई। रितिक रोशन की 'अग्निपथ' और 'आशिक़ी-2' के कुछ हिस्सों की ज़रूर यहां शूटिंग हुई थी। अब यहां पुरानी फ़िल्मों का रिस्टोरेशन का काम जरूर होता है। यहां पाकीज़ा, मिस्टर इंडिया, शोले और 'वो सात दिन' रिस्टोरेशन किया गया। 
  एक और प्रमुख फ़िल्मालय स्टूडियो की स्थापना शशधर मुखर्जी ने साल 1958 में की थी। उन्होंने यहां दिल दे के देखो, लव इन शिमला और 'लीडर' जैसी फ़िल्मों की शूटिंग की! भट्ट कैंप की ज़्यादातर फ़िल्मों की शूटिंग इसी स्टूडियो में होती है। नटराज स्टूडियो को पहले मॉडर्न स्टूडियो के नाम से जाने जाना जाता था। इस स्टूडियो को 1968 में शक्ति सामंत, आत्माराम, प्रमोद चक्रवर्ती, रामानंद सागर और एफ़सी मेहरा ने साथ मिलकर ख़रीदा और नाम दिया नटराज स्टूडियो। यहाँ कई मशहूर फ़िल्में जैसे आराधना, आरज़ू, जुगनू और 'तुमसे अच्छा कौन है' की शूटिंग हुई। आख़िरी दौर में यहां अक्षय कुमार की फ़िल्म 'बारूद' और टीवी सीरियल 'अंतरिक्ष' की शूटिंग हुई थी। 
  कुछ स्टूडियो इसलिए बंद हो गए, क्योंकि इनमें आग लग गई और सबकुछ जलकर ख़ाक हो गया! ये आग कैसे और क्यों लगी, ये एक अलग कहानी है! जनवरी 2018 में दक्षिण मुंबई के लोअर परेल स्‍थित 'नवरंग स्‍टूडियो' में देर रात आग लगी थी। यह स्‍टूडियो कई सालों से बंद पड़ा था। मुंबई के कांजुर मार्ग का सिनेविस्‍टा स्‍टूडियो में भी ऐसे ही आग लगी थी। इसके बाद सितम्बर, 2017 में आरके स्टूडियों में लगी आग ने इस स्टूडियो को पूरी तरह बर्बाद कर दिया था। इसी के बाद कपूर परिवार ने इसे बेचने का फैसला किया है। मुंबई के चेंबूर स्थित इस स्टूडियो में कई फ़िल्में बनी! यहाँ बनी पहली फिल्म 'आग' थी, जिसे 1948 में ही रिलीज किया गया। इसके बाद 1949 में 'आरके' में 'बरसात' का निर्माण हुआ। इस स्टूडियो की दीवारें बूट पॉलिश, जागते रहो और 'अब दिल्ली दूर नहीं' के बाद 'प्रेमरोग' जैसी फिल्मों की शूटिंग की गवाह रही हैं। धीरे-धीरे इन स्टूडियो का बंद होना फिल्म इतिहास की बड़ी घटना है!
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