मायावती की राजनीति हमेशा चौंकाने वाली रही है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठन से लगाकर आजतक इस पार्टी ने कई पार्टियों को अपनी रणनीति से ललचाया और फिर झटका दिया। कांशीराम ने जब बसपा बनाई थी, तभी उन्होंने इशारा कर दिया था कि वे भविष्य में क्या करने वाले हैं। उन्होंने कहा था 'हम मजबूत नहीं, मजबूर सरकार चाहते हैं!' इसका सीधा सा मतलब है कि समर्थन की मज़बूरी का लालच देकर पार्टियों को ब्लैकमेल करना और अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना! उत्तरप्रदेश की राजनीति में बसपा ने कई बार कई पार्टियों को साथ देने का वादा करके झटका दिया है। समाजवादी पार्टी, भाजपा के साथ बसपा ने जो किया वो किसी से छुपा नहीं है! पर, इस बार मायावती ने कांग्रेस के साथ भी वही कहानी दोहराई है, जो पहले वो कर चुकी है।
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मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस और बसपा के बीच लम्बे समय से बातचीत चल रही थी। लग भी रहा था कि दोनों पार्टियां मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मिलकर चुनाव लड़ेंगी! लेकिन, एनवक्त पर मायावती ने रास्ता बदलकर कांग्रेस को अकेला छोड़ दिया! छत्तीसगढ़ में उसने अजीत जोगी की पार्टी 'जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) से गठबंधन कर मध्यप्रदेश की भी सभी 230 सीटें अकेले लड़ने का एलान कर दिया। ये अचानक नहीं हुआ! कांग्रेस से ज्यादा सीटें जुगाड़ने के लिए मायावती ने बीच-बीच में कई बार कुचालें भरी! बसपा के मध्यप्रदेश अध्यक्ष ने किसी गठबंधन से ही इंकार कर दिया था! लेकिन, मायावती ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी! लेकिन, छत्तीसगढ़ में गठबंधन के एलान के साथ ही मायावती ने मध्यप्रदेश में अपने 22 उम्मीदवारों के नाम जाहिर करके गठबंधन की सारी संभावनाओं को ही ख़त्म कर दिया! लेकिन, कांग्रेस अभी भी उम्मीद से है कि शायद कोई चमत्कार हो!
विधानसभा चुनाव से पहले ये कांग्रेस को लगने वाला सबसे बड़ा झटका है। छत्तीसगढ़ में अब अजीत जोगी की पार्टी और मायावती मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। इस समझौते में 90 में से 35 सीटों पर बसपा चुनाव लड़ेगी, जबकि जोगी की पार्टी 55 सीटों पर! मायावती ने कहा कि अगर हमारा गठबंधन चुनाव जीतता है, तो अजीत जोगी मुख्यमंत्री बनेंगे! मायावती ने भले ही जोगी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया हो, पर इस पर सहजता से भरोसा नहीं किया जा सकता! राजनीतिक धोखेबाजी में मायावती का कोई जोड़ नहीं! उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ में परिवर्तन लाने के लिए दोनों पार्टियां साझा चुनाव अभियान चलाएंगी और कुछ दिनों में दोनों पार्टियों की रैली भी होगी। गठबंधन के बारे में मायावती ने कहा किवे गठबंधन तभी करती हैं, जब उन्हें समझौते में सम्माजनक सीटें मिलें। जोगी और मायावती की इस जोड़ी में यदि कुछ और क्षेत्रीय पार्टियों का तड़का लगे, तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए! क्योंकि, मायावती ने कहा है बसपा और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) भाजपा को छत्तीसगढ़ में रोकने में सक्षम है, लेकिन यदि कुछ और क्षेत्रीय पार्टियां हमारे साथ जुड़ना चाहेंगी तो हम उनका भी सहयोग लेंगे।
मध्यप्रदेश में बसपा ने सभी 230 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का एलान करके ये संकेत भी दे दिया कि अब कांग्रेस के लिए उनके दरवाजे बंद हो गए। बसपा चाहती है कि कांग्रेस मध्यप्रदेश से उसे कम से कम 30 सीटें मिलें। जबकि, कांग्रेस उसे 14-15 सीटें देने के मूड में है। क्योंकि, कांग्रेस समाजवादी पार्टी को भी अपने साथ लेना चाहती है, जिसे 10 सीटें देना पड़ सकती है। तीसरी पार्टी महाकौशल में अपना प्रभाव रखने वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी है, उसके लिए भी कांग्रेस को कुछ सीटें छोड़ना होंगी! कांग्रेस की रणनीति है कि गैर-भाजपाई वोटों को एकजुट करके ही भाजपा को सत्ता से उखाड़ा जा सकता है। कांग्रेस की मंशा थी कि इस मुहिम में बसपा का साथ होना बहुत ज़रूरी है। अब, जबकि कांग्रेस और बसपा साथ नहीं है, तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा।
कांग्रेस अभी मायावती से गठबंधन की जमीन तैयार करने की तैयारी कर ही रहे थे, कि बसपा छिटककर दूर खड़ी हो गई! ख़ास बात ये कि बसपा की नजर सिर्फ उत्तरप्रदेश से लगने वाली सीटों पर ही नहीं है, वो मालवा-निमाड़ जैसी सुदूर की सीटों पर भी अपनी संभावनाएं तलाश रही है। बसपा ने प्रदेश में अपनी चुनावी तैयारी के तहत प्रदेश को पाँच झोन में बांटा है। इसमें खरगोन को नया झोन बनाया गया है। जिसमें इसमें खरगोन के साथ खंडवा, बुरहानपुर, बड़वानी, धार, झाबुआ और आलीराजपुर जिले भी हैं। पार्टी इन जिलों में अपने वोट बैंक को तलाशकर अपना जनाधार मजबूत करना चाहती है, ताकि मध्यप्रदेश में तीसरा राजनीतिक विकल्प खड़ा किया जा सके!
कांशीराम द्वारा 1984 में बनाई गई बसपा ने 1990 में पहली बार मध्यप्रदेश में अपने चुनावी सफर का आगाज किया था। अपने पहले चुनाव में बसपा ने 3.53% वोट पाए थे। इसके बाद से पार्टी लगातार सभी चुनावों में 6% से 8% के आँकड़े को छू रही है। मध्यप्रदेश में बसपा का अपना जनाधार अनुसूचित जाति वर्ग के जाटव और अहिरवार समाज में है। क्योंकि, यही उसका जनाधार बढ़ाने वाला मुख्य जातिगत वोट बैंक भी है और इसी में उसकी पैठ भी है। मुरैना, भिंड और विंध्य के कुछ जिलों में बसपा ने सवर्ण जातियों विशेष रूप से ब्राह्मणों और वैश्यों को अपने टिकट पर मैदान में उतारा। परशराम मुद्गल, बलवीर दंडोतिया और रीवा में केके गुप्ता इसके उदाहरण हैं। बसपा ने यह फार्मूला दूसरी जगह भी अपनाया। इसका फ़ायदा ये हुआ कि उसने क्षेत्रीय और जातिगत समीकरणों में सेंध लगा ली। इस बार भी बसपा उन लोगों पर भी नजर रखेगी, जिन्हें भाजपा या कांग्रेस का टिकट नहीं मिलेगा! ऐसे सवर्ण नेताओं की राजनीतिक पृष्ठभूमि से उसे स्थानीय वोट बैंक को प्रभावित करने का मौका मिलता है। ऐसी स्थिति में जातिगत वोट, बसपा के पारंपरिक वोट बैंक के अलावा इन बागी नेताओं के समर्थकों के वोट भी उसके खाते में जुड़ जाते हैं। इस बार भी बसपा बागी नेताओं के भरोसे 230 सीटों पर चुनाव लड़ने की फिराक में है।
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