Sunday, March 24, 2019

गीतों में झलकती पुरुषवादी सोच!

- हेमंत पाल

  फिल्मों में शुरू से ही पुरुषवाद हावी रहा है। फिल्मों के कथानक से लगाकर गानों तक में नायक को आगे रखा जाता है। ऐसी स्थिति में नायिका या तो दिखावटी बनकर रह जाती है या उसे दोयम दर्जे के चरित्र की तरह पेश किया जाता है। जब नायिका की मुख्य भूमिका वाली कोई फिल्म आती है, तो मीडिया में उसकी तारीफों के पुल बांधे जाते हैं। क्योंकि, परदे दुनिया में पुरुषवाद जो हावी है! ध्यान देने वाली बात है कि फिल्मों के कथानक ही पुरुषवादी सोच प्रकट नहीं करते, गाने भी इसी परंपरा का निर्वहन करते हैं। भारतीय सिनेमा सौ साल से ज्यादा का हो गया। समय के साथ-साथ फिल्मों में काफी बदलाव भी आया है। लेकिन, आज भी पुरुष और स्त्री में  भेदभाव की ये खाई नहीं भरी गई! इन्हीं गीतों के जरिए लड़कियों से सबसे ज्यादा छेड़छाड़ भी की जाती है। 90 के दशक में आई गोविंदा की फिल्म 'आँखें' का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था! 'ओ लाल दुपट्टे वाली तेरा नाम तो बता, ओ काले कुरते वाली तेरा नाम तो बता!' इस गीत के कारण उस वक्त लड़कियों का सड़क पर लाल दुपट्टे और काले कुरते पहनकर निकलना मुश्किल हो गया था। 'मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी जैसे गीतों ने इस गंदगी को बहुत जल्दी आगे बढ़ाया! लेकिन, सारे फ़िल्मी गीत खंगालने पर भी किसी लड़के के नाम पर ऐसे गाने शायद नहीं मिलेंगे!
    साठ के दशक में आई फिल्म 'दिल ही तो है' के गीत के बोल थे 'तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी!' ये गाना सुनने में अच्छा लगता है! किंतु, इस गाने के बोल में प्यार का इजहार कम, धमकी ज्यादा है। 1952 में आई 'आन' के गीत 'मान मेरा अहसान अरे नादान के मैंने तुझसे किया है प्यार' को सुनकर लगता है कि नायिका से प्यार करके नायक उसपर अहसान जता रहा है! 60 के दशक की फिल्म 'कहीं दिन कहीं रात' के गाने के बोल थे 'तुम्हारा चाहने वाला खुदा कि दुनिया में, मेरे सिवा भी कोई और हो खुदा न करे!' ये गाना प्रेमी का प्रेमिका के असुरक्षा बोध दर्शाता है। 80 के दशक में आई फिल्म 'घराना' में एक गीत था 'तेरे डैडी ने दिया मुझे परमिट तुझे पटाने का ...' ये गीत उस सोच का प्रतिनिधित्व करता है, जो नायिका के स्तर को गिराता है। अक्षय कुमार की फिल्म 'खिलाडी का गीत 'खुद को क्या समझती है, इतना अकड़ती है' और इसी दशक की 'दिल' के गीत 'खम्बे जैसी खड़ी है, लड़की है या छड़ी है' भी इसी श्रेणी का गीत है, जिसमें नायिका को मजबूर किया जाता है। ऐसे गीतों की रचना का सबसे बड़ा कारण ये भी रहा कि फ़िल्मी गीतकारों में महिलाओं का योगदान बहुत कम देखा गया। इस कारण महिलाओं का पक्ष भी पुरुषवादी नज़रिए से लिखा गया।
  फिल्मों में होली सबसे पसंदीदा त्यौहार रहा है। होली गीत फिल्मकार के पितृ सत्तात्मक सोच के सबसे ज्यादा शिकार रहे हैं। 'कटी पतंग' का गीत 'आज न छोड़ेंगे बस हमजोली खेलेंगे हम होली' हद दर्जे तक जबरदस्ती को उकसाता सा लगता है। आशय यह कि नायक को बस होली खेलने से ही मतलब है। 'ये जवानी है दीवानी' का गीत 'बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी तो सीधी-साधी छोरी शराबी हो गई' में एक लड़की के शराबी होने को कितनी आसानी से कहा गया है! नायिका को उसके रंग पर छेड़ने पर भी कई गीत रचे गए हैं। 70 के दशक की फिल्म 'रोटी' में जब राजेश खन्ना मुमताज को छेड़कर कहता है 'गोरे रंग पे न इतना गुमान कर गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा' तो सबकुछ सहज लगता है, पर वास्तव में ये भी एक तरह की धमकी ही तो है। जबकि, 1965 में आई 'गुमनाम' में मेहमूद ने 'हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले है' गाकर अपने काले होने को भी सही ठहराया था! अमिताभ बच्चन की फिल्म 'गिरफ्तार' में 'धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाए' भी नायिका के साथ छेड़छाड़ ही थी।
   अधिकांश फिल्मों में छेड़छाड़ को हल्के रूमानी नजरिए से प्रस्तुत किया जाता है। आवारा किस्म का का नायक नायिका को तंग करता है और बाद में नायिका उसी को चाहने लगती है। 'आर राजकुमार' का गाना 'एबीसीडी पढ़ ली बहुत, अच्छी बातें कर ली बहुत, अब करूँगा तेरे साथ गंदी बात' पुरुषवादी समाज की उसी सोच को आगे बढ़ाता सा लगता है, जिसने महिलाओं को एक वस्तु से ज्यादा नहीं समझा! इससे ये भ्रम भी पनपता है कि लड़कियों के इंकार में ही उनकी 'हाँ' छुपी होती है। नायक की तरह पीछे पड़े रहो, तो किसी भी लड़की को प्रेम के लिए मजबूर किया जा सकता है। देखा गया है कि गीत के बोलों में नायिका के कपड़ों पर सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाता है। 'प्रिंस' के गीत 'बदन पे सितारे लपेटे हुए, ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो!' भी छेड़छाड़ ही दर्शाता है। 
  'शोले' के गीत 'कोई हसीना जब रूठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती हैँ' और 'शराबी' फिल्म के गीत 'दे दे प्यार दे प्यार दे प्यार दे' में खुले आम छेड़छाड़ है। 'लेडिस वर्सेस रिक्की बहल' के गीत 'क्या करूँ ओ लेडिस मैं हूँ आदत से मजबूर' में तो नायक अपनी आदत की मज़बूरी बताकर छेड़खानी से बाज नहीं आता! अठरा बरस की तू होने को आई रे (सुहाग), ओ मेरी मेहबूबा, मेहबूबा मेहबूबा (धरमवीर),  जाते हो, जाने जाना ... आखरी सलाम लेते जाना (परवरिश), पहली पहली बार देखा ऐसा जलवा, ये लड़की है या शोला (सिलसिला) और 'रफ्ता रफ्ता देखो आँख मेरी लड़ी है (कहानी किस्मत की) भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए लगते हैं। लेकिन, 1958 की फिल्म 'साधना' में साहिर लुधियानवी के गीत 'औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया' आज पाँच दशक बाद भी समाज को आईना दिखा रहा है। लेकिन, ऐसे गाने दोबारा नहीं लिखे जा सके!
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Tuesday, March 19, 2019

मालवा-निमाड़ में भाजपा चेहरे बदले तो कोई बात बने!

  मध्यप्रदेश की राजनीति में टोटका है कि जिस पार्टी की स्थिति मालवा-निमाड़ में अच्छी होती है, वही सरकार बनाती है! विधानसभा चुनाव में तो ये कई बार साबित भी हो चुका है! पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ज्यादा सीटें जीती तो उसकी सरकार बनी! इस बार कांग्रेस आगे निकल गई तो प्रदेश में कमलनाथ को सरकार बनाने का मौका मिला! लोकसभा चुनाव में भी यही टोटका काम करता है! आशय यह कि मालवा-निमाड़ के मतदाता जिस पार्टी को पसंद करते हैं, केंद्र में उसी पार्टी का झंडा लहराता है। अब देखना है कि इस इलाके की 8 सीटें क्या संकेत देती हैं! अभी तो 7 पर भाजपा का कब्ज़ा है, पर ये आंकड़ा दोहराया जा सकेगा, इसमें शक है। क्योंकि, पार्टी का सर्वे चेहरे बदलने की हिदायत दे रहा है! लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि क्या भाजपा के पास वो 8 जिताऊ चेहरे हैं, जो 2014 की तरह यहाँ की सभी सीटें हथिया सकें?        
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- हेमंत पाल

    ध्यप्रदेश में कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार बना ली! उसे ये जीत भले ही हाशिये पर मिली हो, पर जीत आखिर जीत होती है! अब कांग्रेस के सामने बड़ी चुनौती लोकसभा चुनाव में अपनी इस जीत को दोहराना है! दूसरी तरफ भाजपा के लिए भी चुनौती है कि वो हार के गम से बाहर निकलकर अपनी पिछली सफलता को दोहराए! 29 लोकसभा सीटों में से पिछले चुनाव में भाजपा ने 27 सीटें जीती थीं! बाद में उपचुनाव में कांग्रेस ने झाबुआ-रतलाम सीट जीतकर आंकड़ा घटाकर 26 कर दिया था! लेकिन, इस बार मामला आसान नहीं लग रहा! भाजपा के लिए सबसे बड़ा संकट मालवा-निमाड़ की 8 सीटें हैं, जहाँ फिलहाल पार्टी की हालत ठीक नजर नहीं आ रही! आठ में से एक सीट झाबुआ-रतलाम भाजपा के हाथ से उपचुनाव में चली गई थी! देवास-शाजापुर के मौजूदा सांसद मनोहर ऊंटवाल विधायक चुन लिए गए हैं! इसलिए यहाँ तो भाजपा के सामने चुनौतियाँ खड़ी ही हैं! लेकिन, बाकी की 6 सीटों के मौजूदा सांसदों के फिर से जीतने में शंका है! मध्यप्रदेश में लोकसभा की 29 सीटों में 6 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं, इनमें से 3 सीटें (धार, झाबुआ-रतलाम और खरगोन) मालवा-निमाड़ में हैं।  
   इंदौर सीट को मालवा-निमाड़ की सबसे प्रतिष्ठित सीट माना जाता है! यहाँ से भाजपा की सुमित्रा महाजन उर्फ़ 'ताई' लगातार आठ बार से चुनाव जीत रही हैं! पिछला चुनाव जीतकर वे लोकसभा अध्यक्ष जैसे बड़े पद पर पहुंची! लेकिन, इस बार तय नहीं है कि उन्हें भाजपा फिर से उम्मीदवार बनाएगी! मुद्दे की बात ये कि 'ताई' को टिकट न दिए जाने की मांग पार्टी के नेता ही कर रहे हैं। लेकिन, पार्टी की मुश्किल ये भी है कि यदि उन्हें बदला जाता है तो टिकट किसे दिया जागा? भाजपा के सर्वे में सुमित्रा महाजन की स्थिति को भी संतोषजनक नहीं पाया गया! उनकी हार-जीत कांग्रेसी उम्मीदवार के चेहरे पर निर्भर है! ये स्थिति सिर्फ इंदौर नहीं है! मालवा- निमाड़ की शेष 7 सीटों पर जीत को लेकर भी भाजपा निश्चिंत नहीं है! 
 विधानसभा चुनाव के नतीजों का भी संकेत है कि 8 संसदीय सीटों में से 6 सीटों पर भाजपा की हालत खस्ता है। जिन दो सीटों पर कांग्रेस पीछे हैं, उनमें एक इंदौर है, जहाँ भाजपा और कांग्रेस दोनों ने 4-4 विधानसभा सीट जीती हैं। इस वजह से इंदौर में कांग्रेस का उत्साह शिखर पर है! जबकि, मंदसौर में भाजपा का अपेक्षाकृत भारी है! लेकिन, यहाँ के सांसद सुधीर गुप्ता को जीतने वाला उम्मीदवार नहीं माना जा सकता! मालवा और निमाड़ इलाके की 66 विधानसभा सीटों में से इस बार कांग्रेस को 36, कांग्रेस समर्थक निर्दलियों को 3 तीन और भाजपा को 27 सीटें मिली हैं। भाजपा ने अपने सर्वे में खंडवा, खरगोन, धार, देवास-शाजापुर और उज्जैन में भाजपा को कमजोर पाया है। इसका कारण है वहां के सांसद, जिनसे जनता नाराज है! पिछले चुनाव में निमाड़ की 2 सीटों खंडवा से नंदकिशोर चौहान और खरगोन से सुभाष पटेल को जीत हांसिल हुई थी! लेकिन, फ़िलहाल दोनों को कमजोर आँका गया है! यदि इन्हें दोबारा टिकट दिया जाता है तो पार्टी का दांव उल्टा पड़ सकता है! जबकि, मालवा की 6 सीटों में से झाबुआ-रतलाम फिलहाल कांग्रेस के पास है और भाजपा के पास कांतिलाल भूरिया का कोई तोड़ भी नहीं है! देवास-शाजापुर सांसद मनोहर ऊंटवाल को पार्टी विधानसभा चुनाव लड़वा चुकी है, इसलिए उनकी जगह कोई नया चेहरा आना तय है! 
  धार में सावित्री ठाकुर, मंदसौर में सुधीर गुप्ता और उज्जैन में चिंतामण मालवीय का फिर से जीतना भी मुश्किल है! मंदसौर में भले ही भाजपा का पलड़ा भारी है, पर वहाँ के लोग सुधीर गुप्ता से मुक्ति चाहते हैं! इन सभी में यदि पार्टी किसी पर फिर से भरोसा कर सकती है, तो इंदौर से सुमित्रा महाजन के बाद उज्जैन से चिंतामण मालवीय हो सकते हैं। इसके अलावा तो पार्टी को अपने 5 मौजूदा सांसदों को उम्मीदवारी से बाहर करना ही होगा! भाजपा के लिए माहौल भी अब पिछले चुनाव जैसा नहीं है! मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने से भी मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की तरफ हो सकता है! ऐसी स्थिति में भाजपा के लिए घरभर के बदलने से बेहतर कोई विकल्प नहीं हो सकता! जबकि, पार्टी को भरोसा है कि मालवा-निमाड़ की 8 सीटों में से आदिवासी बहुल 3 सीटों पर मेहनत करना पड़ेगी, बाकी की सीटों पर हम मजबूत हैं। लेकिन, वास्तव में सर्वे का इशारा इस बात की पुष्टि नहीं कर रहा!
  लोकसभा चुनाव को विधानसभा चुनाव में मिली सीटों के नजरिए से परखा जाए, तो भी स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि भाजपा को आदिवासी इलाके की 12 सीटों नुकसान झेलना पड़ा है! पिछले विधानसभा चुनाव में 22 आदिवासी सीटों में से भाजपा को 18 सीटें मिली थीं! जबकि, इस बार गणित पलट गया और कांग्रेस के खाते में 16 सीटें चली गईं! इस नुकसान का कारण भाजपा आदिवासियों के सामाजिक संगठन 'जय आदिवासी संगठन' (जयस) को मान रही है! इसके अध्यक्ष हीरालाल अलावा ने मनावर (धार) से कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा और जीता! भाजपा का अनुमान है कि धार, रतलाम-झाबुआ और खरगोन में 'जयस' की पकड़ के कारण माहौल भाजपा के लिए अनुकूल नहीं है। लेकिन, इस माहौल को अपने पक्ष में बनाने के लिए भाजपा के पास कोई फार्मूला  नहीं आ रहा! मालवा-निमाड़ की तीन लोकसभा क्षेत्र अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित हैं। इनमें से दो पर भाजपा और एक पर कांग्रेस का कब्जा है। अब इस लोकसभा चुनाव में किस पार्टी का किस सीट पर कब्ज़ा बरक़रार रहता है और किस पर से छिनता है, ये तो भविष्य ही बताएगा! लेकिन, भाजपा यदि सारे घर के बदले, तभी उसका घर ज्यादा रोशन होगा!   
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स्त्री की ताकत को आंकती कुछ फ़िल्में!

- हेमंत पाल 

  बीते एक दशक में बनने वाली हिन्दी सिनेमा की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्त्री जीवन की समस्याओं को केंद्र में रखकर फिल्म बनाना रहा है। ये परंपरा पहले भी रही है, लेकिन पहले की फिल्मों से इन फिल्मों में कुछ बुनियादी फर्क है। पहले की फिल्में स्त्री जीवन की मुश्किलों और विडंबनाओं को व्यक्त करते हुए उनके साथ बराबरी और अधिक और मनुष्योचित व्यवहार करने पर बल देती थी। जबकि, इनके बाद जो फिल्में बनने लगी, उसमें इनके साथ-साथ स्त्री सबलीकरण पर भी बल दिया गया! इन फिल्मों में स्त्री जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं को उठाया गया, जो शायद इससे पहले इतने तीखे रूप में नहीं उठाया गया था। इन फिल्मों में गरीबी और भुखमरी में जीने वाली स्त्रियाँ भी है और अभिजात्य समाज की स्त्रियाँ भी! इसमें उच्चवर्णीय हिंदू है तो दलित स्त्रियां भी है और धार्मिक अल्पसंख्यक भी! 
  इन फिल्मों ने स्त्री जीवन के पारिवारिक और सामाजिक सवालों को ही नहीं उठाया गया, बल्कि राजनीतिक सवालों को भी उठाया! स्त्री जीवन पर केंद्रित कुछ ऐसी फिल्में ‘सूरज का सातवा घोड़ा’ (1992) , ‘दामिनी’ (1993), ‘बेंडिट क्वीन’ (1994), ‘मम्मो’ (1994), ‘फायर’ (1998), ‘सरदारी बेगम’ (1998), ‘मृत्युदंड’ (1998), ‘गॉड मदर’ (1999), ‘हरी-भरी’ (1999), ‘गजगामिनी’ (1999), ‘अस्तित्व’ (2000), ‘जुबैदा’ (2000), ‘क्या कहना’ (2000), ‘लज्जा’ (2001), ‘चांदनी बार’ (2001) आदि के नाम लिए जा सकते है। इसके अलावा ‘नसीम’ (1995), ‘जख्म’ (1999), ‘हमारा दिल आपके पास है’ (2000), ‘फिज़ा’ (2000) में भी स्त्री जीवन को महत्वपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
  1991 में आई फिल्म 'लम्हें' और 'हिना' नारी संवेदनाओं और चरित्रों की विशेष प्रकार की फिल्म है! इनमें प्रेम तो है, साथ में जीवन के प्रति जीने की समझ भी है। 1992 में 'रूदाली' और 'रोजा' जैसी फिल्मों ने समाज में स्त्री के चरित्रों और कमजोरियों को उभारा है। दोनों फिल्मों  की स्त्री पात्र लड़ती हैं, समाज और परिस्थितियों के आगे झुक भी जाती है। 1993 में जब ‘दामिनी’ आई तो वहाँ नारी एक सशक्त चरित्र के रूप में उभरकर सामने आई! जहाँ वह अपने पति से अलग रहकर भी अपने सम्मान के लिए संघर्ष करती है। समाज में हो रहें अत्याचार के खिलाफ खड़ी होती है। बेबाक होकर हाथ में फावड़ा लेकर गुंडों का सामना भी करती है। 
   1995 में ‘बाम्बे’ फिल्म में एक मुस्लिम स्त्री का हिंदू लड़के के साथ शादी और उससे उपजी दिक्कतों को दर्शाया गया था। 1997 में ‘विरासत’ और ‘परदेश’ जैसी फ़िल्में आईं! 'विरासत' में गाँव और शहर के बीच आंतरिक संवेदना का चित्रण था तो 'परदेश' के स्वच्छंद वातावरण में खुद को घुटती, महसूस करती एक नायिका का चित्रण था। 1998 और 1999 के गॉडमदर, हम दिल दे चुके सनम, ताल, हजार चौरासी की मां, दिल से जैसी फिल्मों ने स्त्री के अनगिनत चरित्र पेश किए, जिन्होंने सामाजिक बंधनों को कहीं न कहीं तोड़ा है। 
  इसके साथ ही फिल्मों में उपभोक्तावादी संस्कृति का भी विकास हुआ, जिसका लक्ष्य सिर्फ मुनाफा कमाना था। सिनेमा का संसार भी पुरूष वर्चस्व वाला है। यह वर्चस्व उनके संख्या बल के कारण नहीं, बल्कि सिनेमा के संसार में जारी मूल्य व्यवस्था के कारण है। भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी सिनेमा की स्त्रियाँ भी अब विश्व स्तर पर जानी जाती है! उसके स्वभावगत चरित्र में भी परिवर्तन आया है। समाज में देश से लेकर विदेशी वस्तुओं की उत्पादकता और खपत बढ़ी है इनकी खपत में फिल्मों का भी एक बहुत बड़ा योगदान रहा है।
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Tuesday, March 12, 2019

सत्ता खोने की पीड़ा और भाजपा का आर्तनाद!

- हेमंत पाल

     जब से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार बनी है, भाजपा की रातों की नींद हराम है! छोटे कार्यकर्ता से लगाकर डेढ़ दशक तक सरकार चलाकर फुर्सत हुए शिवराजसिंह चौहान तक को हार पच नहीं रही! जिस दिन विधानसभा चुनाव के नतीजे आए थे, उस दिन से अभी तक भाजपा इस हड़बड़ी में है कि कब सरकार गिरे! भाजपा को किस बात की जल्दबाजी है, ये कोई समझ नहीं पा रहा! किनारे पर डूबने का दर्द उसे इतना ज्यादा है कि कमलनाथ सरकार उसकी आँखों में बुरी तरह खटक रही है! जब चौथी बार भाजपा की सरकार नहीं बनी, तो ये बात जमकर प्रचारित की गई कि वो जब चाहे कांग्रेस सरकार गिरा सकती है! लेकिन, ऐसा करना संभव नहीं लगा तो भाजपा ने कमलनाथ सरकार के फैसलों की आलोचना शुरू कर दी! ख़ास बात ये कि इस सारी नौटंकी का नेतृत्व शिवराज सिंह करते दिखाई दे रहे हैं, जिन्हें पार्टी ने किनारे कर दिया! दो महीने पुरानी सरकार से ऐसे सवाल-जवाब किए जाने लगे, जैसे सरकार का कार्यकाल पूरा होने वाला हो! किसानों की कर्ज माफ़ी पर सरकार को घेरा गया! छोटे-छोटे मामलों पर प्रलाप किया जाने लगा! लेकिन, लोकसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही भाजपा की नौटंकी थम गई! अब जनता तय करेगी कि लोकसभा चुनाव में किसका पलड़ा भारी रखना है और किसे सबक सिखाना है! 
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  चुनाव में जनता जिसे चाहती है, उसे जिताती है, जिसे नहीं चाहती उसे बाहर का रास्ता दिखाने में भी देर नहीं करती! उसे कोई प्रचार, कोई लोभ और कोई आश्वासन प्रभावित नहीं करता! लेकिन, भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनाव में अपनी हार हजम नहीं हो रही! क्यंकि, कांग्रेस से चंद सीटों से पिछड़ने से वो चौथी बार सरकार नहीं बना सकी! इसलिए उसे कांग्रेस फूटी आँखों नहीं सुहा रही! भाजपा ने कांग्रेस सरकार को परेशान करने के हर संभव प्रपंच शुरू कर दिए! इसलिए कि उसे भ्रम है कि वो कमलनाथ सरकार को जितना घेरेगी, लोकसभा चुनाव में उसकी स्थिति उतनी ही मजबूत होगी! उसे लग रहा है कि उसके ऐसे हंगामे उसकी ताकत बढ़ाने के साथ ही कांग्रेस को कमजोर करेंगे! लेकिन, वास्तव में ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा! लेकिन, लोगों को भाजपा की ये खीज साफ़ नजर आ रही है। जिन लोगों का राजनीति से कोई सरोकार नहीं है, उन्हें भाजपा की ये हठधर्मी रास नहीं आ रही!    
   भाजपा कार्यकर्ताओं ने प्रदेश की कानून व्यवस्था के मुद्दे को लेकर भी पिछले दिनों पूरे प्रदेश में सड़कों पर हंगामा किया। कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि जब से प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनी, तब से अपराधी बेलगाम हो गए! इसी मुद्दे पर भाजपा ने पूरे प्रदेश में प्रदर्शन कर कांग्रेस सरकार के खिलाफ हल्लाबोल प्रदर्शन किया। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी कानून व्यवस्था को लेकर कमलनाथ सरकार पर हमला बोला! उन्होंने एक ट्वीट में लिखा 'कांग्रेस अब सरकार में है और पार्टी के नेताओं को जिम्मेदारी का परिचय देना चाहिए। कमलनाथजी को अपने मंत्रियों को हिदायत देनी चाहिए कि वो गली-मोहल्ले के नेताओं जैसे बयान न दें। राज्य की कानून एवं व्यवस्था सरकार की जवाबदेही है। ऐसे में मंत्रियों को अफवाहें फैलाने से बचना चाहिए।' कांग्रेस ने भी पलटवार करते हुए कहा कि भाजपा बेवजह कानून व्यवस्था को मुद्दा बना रही है। भाजपा सरकार के समय मध्यप्रदेश की पहचान अपराध के लिए देश में 'टॉप स्टेट' के रूप में होती थी। वही भाजपा अब कानून व्यवस्था पर निशाना साध रही है। ये बात सही भी है कि महिला और बाल अपराध के मामलों में मध्यप्रदेश पिछले कई सालों से अव्वल रहा है! ऐसे में भाजपा का कांग्रेस पर निशाना साधने का कोई मतलब नहीं रह जाता! 
   भाजपा के तेवर पहले दिन से कमलनाथ सरकार के खिलाफ काफी तीखे रहे हैं। कांग्रेस सरकार को घेरने के साथ ही उसे गिराने के लिए पूरा जोर लगाने की कोशिशें भी की गई, पर लगा नहीं कि कुछ हुआ! भाजपा लोकसभा चुनाव में प्रदेश में ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश में भी है। प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने तो साफ़ कहा भी कि केंद्र में मोदी-सरकार की वापसी और मध्यप्रदेश में लोकसभा की ज्यादा सीट आते ही प्रदेश में कमलनाथ की सरकार चली जाएगी। उनका कटाक्ष था कि जब तक मंत्रियों के बंगले पुतेंगे, तब तक यह सरकार गिर जाएगी। उन्होंने भाजपा को बहुमत न मिल पाने के दुख पर कार्यकर्ताओं ढाढस बंधाते हुए ये भी कहा कि प्रदेश में अल्पमत की सरकार है, यह जुगाड़ वाली सरकार है। यह सरकार उस मानव शरीर जैसी है, जिसमें गुर्दे दूसरे के, हृदय दूसरे का, लिवर दूसरे का है। ऐसी सरकारें ज्यादा दिन नहीं चलती और न टिकाऊ होती हैं। 
  जबकि, मुख्यमंत्री कमलनाथ का कहना है कि उनकी सरकार पूरे पांच साल चलेगी। वे अपने कार्यकाल का हिसाब भी देंगे, जो भाजपा 15 साल बाद भी नहीं दे पाई! कमलनाथ को यह बात इसलिए कहनी पड़ी कि भाजपा की तरफ से बार-बार कहा जाता रहा है, कि यह सरकार कुछ ही महीनों में गिरने वाली है। आजकल भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेता तक अपने जुबानी हमलों से कांग्रेस सरकार गिरने की कामना करते नजर आते हैं। ऐसी कामना करने में सबसे आगे हैं, शिवराजसिंह चौहान! वे हर मंच से कमलनाथ सरकार किसानों की कर्ज माफी के नाम पर भ्रमित करने को लेकर कोसते दिखाई देते हैं। भाजपा ने अपने 'धिक्कार दिवस' आयोजन में ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में लाया गया प्याज भी सड़कों पर बिखरकर अपने विरोध को तमाशे का रंग दिया। भाजपा ने आरोप लगाया कि राज्य कि कांग्रेस सरकार में किसानों को प्याज के सही दाम नहीं मिल रहे हैं।  
  भाजपा ने कांग्रेस को एक और षड़यंत्र रचकर घेरने का हथकंडा किया है। पार्टी ने 'प्रवास कार्यक्रम' शुरु किया है। इसके जरिए पार्टी कमलनाथ सरकार के खिलाफ अभियान चलाएगी। प्रदेश भाजपा अध्य़क्ष राकेश सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और बाकी बड़े नेता अलग-अलग जिलों में जाकर सरकार की नीतियों के खिलाफ जनसभा करेंगे। भाजपा नेता रोजाना दो स्थानों पर ऐसी सभा करेगी। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष ने भी कांग्रेस सरकार को जमकर कोसा और कहा कि कमलनाथ सरकार ने जनता के साथ विश्ववासघात किया है। प्रदेश के किसान अभी भी कर्ज माफी का इंतजार कर रहे हैं। वहीं प्रदेश के किसी भी युवा को अब तक बेरोजगारी भत्ता नहीं मिला! कांग्रेस किसानों के साथ सिर्फ राजनीति कर रही है।
  असलियत यह है कि प्रदेश में भाजपा की स्थिति अंदर से काफी कमजोर है। जमीनी कार्यकर्ताओं की बात सुनने के लिए प्रदेश कार्यालय में पदाधिकारी तक नहीं मिलते। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह हर मंच पर जबरन पार्टी का नेतृत्व करते दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने अपना गुट ही बना लिया। क्योंकि, प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह संगठन चलाने में पूरी तरह नाकारा ही साबित हुए! गोपाल भार्गव को नेता प्रतिपक्ष जरूर बनाया गया, परंतु अभी तक वे उभरकर सामने नहीं आ सके। वे प्रदेश के नेता बनने के बजाए बुंदेलखंड तक सीमित होकर रह गए! कैलाश विजयवर्गीय और नरोत्तम मिश्रा जैसे नेता भी सही मौके का इंतजार कर रहे हैं। जबकि, भाजपा के केंद्रीय संगठन के निर्देश थे, कि लोकसभा चुनाव से पहले भोपाल में कमलनाथ सरकार के खिलाफ प्रभावी रैली की जाए, ताकि माहौल बने! लेकिन, ऐसा कुछ हो नहीं सका! दिल्ली में बैठे नेता ये भी चाहते थे कि लोकसभा चुनाव से पहले प्रदेश में भाजपा की छवि एक प्रभावी विपक्ष की बनना चाहिए। पर, इसके लिए जरूरी था कि पार्टी आक्रामकता के साथ सरकार के खिलाफ आंदोलन करे, लेकिन भाजपा गली-मोहल्लों तक ही सीमित रही! पार्टी ने सभी विधायकों से कहा है कि वे अपने क्षेत्र की छोटी-छोटी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित कर स्थानीय स्तर पर जोरदार आंदोलन करें। इस सबके पीछे पार्टी की सोच थी कि जनता को ये अहसास कराया जाए कि भाजपा ही उनकी खैरख्वाह है! भाजपा जो कुछ कर रही है, उससे उसे स्वांतः सुखाए मिल रहा हो, पर लोग अब ऐसी राजनीति से उबने लगे हैं। 
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Sunday, March 10, 2019

पुरानी कहानियों पर नई फ़िल्में!


- हेमंत पाल

  बॉलीवुड में पुरानी हिट फिल्मों की कहानियों को फिर से दोहराने का चलन इन दिनों जोरों पर है। लेकिन, चंद रीमेक फिल्मों को छोड़ दिया जाए, तो अधिकांश फ़िल्में अपनी पूर्ववर्ती फिल्मों की तरह दर्शकों को नहीं रिझा पायी! इसका बड़ा कारण ये है कि जिस समय, काल और परिस्थितियों में मूल फिल्म की कहानी को फिल्माया गया था, तब के दर्शक अलग थे और आज के अलग! एक ही कहानी होते हुए भी जरुरी नहीं कि दर्शक उसी कथानक को नए कलेवर में भी पसंद करें! इसके बावजूद पुरानी कहानी पर फिल्म बनाने का मोहभंग नहीं हो रहा! अभी भी पुरानी फिल्मों को नए कलाकारों के साथ थोड़ा बदलकर दर्शकों के सामने परोसा जा रहा है! 
     बॉलीवुड में जिन सफल फिल्मों के रीमेक बने हैं उनमें देवदास, शोले, नदिया के पार, जय संतोषी मां, डॉन, उमराव जान, कर्ज, रंगीला और अग्निपथ जैसी फ़िल्में प्रमुख है। लेकिन, ज्यादातर रीमेक फिल्मों को अनुरूप सफलता नहीं मिली। शरतचंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास 'देवदास' पर उसी नाम से कई फिल्में बनी! 1935 में प्रदर्शित 'देवदास' में मुख्य भूमिका कुंदनलाल सहगल ने निभाई थी। इसके बाद 1955 में जब इसका रीमेक बना तो 'देवदास की भूमिका को दिलीप कुमार ने निभाया था। 2005 में एक बार फिर 'देवदास' का रीमेक बना। संजय लीला भंसाली के निर्देशन में बनी फिल्म में इस बार 'देवदास' का रोल शाहरुख खान ने निभाया था। ये उन चंद फ़िल्मी कहानियों में से एक है, जिसे हर दौर के दर्शकों ने सराहा है!
    महबूब खान के निर्देशन में बनी फिल्म 'औरत' 1940 में प्रदर्शित हुई थी, जिसमें सरदार अख्तर की मुख्य भूमिका थी। लेकिन, फिल्म बुरी तरह असफल हुई! लेकिन, महबूब खान को फिल्म की कहानी पर पूरा भरोसा था। उन्होंने 'मदर इंडिया' नाम से फिर इसी कथानक पर फिल्म बनाई! फिल्म में नरगिस ने मुख्य भूमिका निभाई थी। ये फिल्म ने सिर्फ सुपरहिट हुई, बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी सराही गई। राजश्री प्रोडक्शन अकसर अपने ही बैनर के तले बनी सुपरहिट फिल्मों के रीमेक बनाते रहे हैं। 'नदिया के पार' की रीमेक 'हम आपके हैं कौन' बनी, 'चितचोर' की 'मैं प्रेम की दीवानी हूं' नाम से बनाई गई! 'तपस्या' को 'एक विवाह ऐसा भी' नाम से बनाया गया। इनमें हम आपके हैं कौन टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई. जबकि 'मैं प्रेम की दीवानी हूं' और 'एक विवाह ऐसा भी' टिकट खिड़की पर उम्मीद के मुताबिक सफल नहीं हुई! 
  रामगोपाल वर्मा भी अपनी ही सुपरहिट फिल्मों के रीमेक बनाने में अग्रणी रहे हैं। 1975 में आई 'शोले' को रामगोपाल वर्मा ने 'आग' नाम से बनाया था। लेकिन, फिल्म दर्शकों के दिलों में चिंगारी भी नहीं भड़की! 'शोले' की रीमेक फिल्म में इस बार गब्बर सिंह की भूमिका अमजद खान की जगह अमिताभ बच्चन ने निभाई थी। लेकिन, वह अपने अभिनय का लोहा दर्शकों से नहीं मनवा पाए और फिल्म बुरी तरह फ्लॉप साबित हुई। उन्होंने अपनी ही फिल्म 'रंगीला' और 'शिवा' का रीमेक बनाया! लेकिन, दोनों ही फिल्मों को दर्शकों ने नकार दिया। सत्तर के दशक की सुपरहिट फिल्म 'जय संतोषी मां' और 'विक्टोरिया नंबर-203' के भी रीमेक बने, पर ये फ़िल्में कब आई और कब गई, यह पता ही नहीं चला। 
  अमिताभ बच्चन की सुपरहिट फिल्म 'डॉन' का रीमेक 2006 में फिर बनाया गया। फरहान अख्तर की रीमेक फिल्म 'डॉन' में अमिताभ की जगह शाहरुख खान डॉन के रूप में नजर आए। जबकि, जीनत अमान और हेलन की भूमिका में प्रियंका चोपड़ा और करीना कपूर थे। 80 के दशक में आई फिल्म 'उमराव जान' के रीमेक में उमराव जान की भूमिका रेखा की जगह ऐश्वर्या राय ने निभाई थी। जेपी दत्ता की इस फिल्म में ऐश्वर्या अपने अभिनय का जादू नहीं बिखेर पाई। 80 के दशक में पुनर्जन्म पर बनी सुपरहिट फिल्म 'कर्ज' का भी रीमेक बना! इसमें ऋषि कपूर की भूमिका हिमेश रेशमिया ने निभाई, लेकिन वे अपने अभिनय का लोहा नहीं मनवा पाए थे। 2012 में करण जौहर ने अमिताभ बच्चन की फिल्म 'अग्निपथ' का रीमेक इसी नाम से बनाया। रितिक रोशन, प्रियंका चोपड़ा और संजय दत्त की मुख्य भूमिका थी। इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता भी मिली। 
 अन्य रीमेक फिल्मों में चश्मे बद्दूर, जंजीर और 'हिम्मतवाला' भी हैं। 'चश्मे बद्दूर' को औसत सफलता मिली, पर 'हिम्म्मतवाला' और 'जंजीर' कोई कमाल नहीं दिखा सकी। रीमेक फिल्मों में 'खूबसूरत' का नाम भी है। यह फिल्म 1980 में आई रेखा और राकेश रोशन की भूमिका वाली ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'खूबसूरत' का ही रीमेक थी। लेकिन, फिल्म कब आई पता ही नहीं चला! रीमेक फिल्मों की असफलता के बाद भी फिल्मकार ऐसी फिल्मों के मोह से मुक्त नहीं हो पाते! उन्हें लगता है कि पुरानी सफलता को फिर दोहराया जा सकता है! लेकिन, ये सब इतना आसान नहीं होता! दर्शकों का मूड भांपना आसान नहीं है! 
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Tuesday, March 5, 2019

'ताई' से इंदौर की चाभी छिनेगी या उसी पल्ले में बंधी रहेगी?


- हेमंत पाल


  भारतीय जनता पार्टी के लिए इंदौर प्रदेश की सबसे प्रतिष्ठित सीट है! यहाँ 'ताई' यानी सुमित्रा महाजन को 9वीं बार जीतकर रिकॉर्ड बनाना है, लेकिन उनकी राह में 'भाई' यानी कैलाश विजयवर्गीय खड़े हैं। 'ताई' से इंदौर की चाभी छीनने में कांग्रेस तो पूरा दम-ख़म लगा ही रही है, भाजपा भी इस कोशिश में पीछे नहीं दिख रही! क्योंकि, अपने 8 संसदीय कार्यकाल में सुमित्रा महाजन ने शहर में उपलब्धियों का ऐसा कोई पहाड़ खड़ा नहीं किया, जो उन्हें 9वीं जीत दिलाए! इसके अलावा सत्यनारायण सत्तन जैसे नेता भी हैं, जो ख़म ठोंककर 'ताई' खिलाफ खड़े हैं। ऐसे में ये सवाल लाख टके का है कि 'ताई' से इंदौर की चाभी कौन छीनेगा?      
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  कांग्रेस करीब तीन दशक से इंदौर लोकसभा सीट जीतने के लिए छटपटा रही है। यहाँ तक कि कांग्रेस की एक पूरी पीढ़ी 'ताई' को सांसद की कुर्सी पर बैठे देखते हुए बुढाने लगी! वे अकेली ऐसी महिला सांसद हैं, जो एक ही लोकसभा सीट और एक ही पार्टी से लगातार 8 लोकसभा चुनाव जीती हैं। लेकिन, इस बार माहौल कुछ अलग है! इंदौर जैसे भाजपा के गढ़ में विधानसभा चुनाव में पार्टी की दुर्गति के बाद भाजपा को खतरा नजर आने लगा है। विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे में 'ताई' और 'भाई' में हुई खींचतान का खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा! इंदौर संसदीय क्षेत्र की 8 में से कांग्रेस ने चार सीटें जीतकर पार्टी का सारा गणित बिगाड़ दिया। पार्टी ने इस हार से ये सबक सीखा कि वो अब 'ताई' औऱ 'भाई' में सुलह कराने की कोशिश में है। इसका पहला इशारा ये है कि पार्टी ने कैलाश विजयवर्गीय के सबसे नजदीकी विधायक रमेश मेंदौला को सुमित्रा महाजन को जिताने की जिम्मेदारी सौंपी है। पार्टी की ये ऐसी रणनीति है कि न चाहते हुए भी कैलाश विजयवर्गीय को 'ताई' के लिए नरमी बरतना पड़ेगी!
  सबसे बड़ा सवाल ये है कि पार्टी सुमित्रा महाजन को लोकसभा का उम्मीदवार बनाती भी है या नहीं! फिलहाल ये फैसला भविष्य के गर्भ में है! लेकिन, यदि 'ताई' को टिकट मिला और उन्होंने 9वीं बार जीतीं, तो वे नया संसदीय इतिहास बना देंगी! वे देश की पहली महिला सांसद होंगी, जो लगातार 9 बार एक ही पार्टी से लोकसभा चुनाव जीतेंगी! लेकिन, 'ताई' को ये इतिहास रचने के लिए इंदौर के सभी गुटों साधना होगा! ख़ासकर कैलाश विजयवर्गीय को साथ लेना होगा, जिनका आज भी शहर में डंका बजता है। खुसुर-पुसुर तो ये भी हैं कि कैलाश विजयवर्गीय खुद ही लोकसभा चुनाव लड़ने के मूड में हैं, इसीलिए उन्होंने विधानसभा चुनाव से दूरी बनाई है। ऐसे हालात से निपटने के लिए ही शायद पार्टी ने रमेश मेंदौला के हाथ में चुनाव की कमान सौंपी है।
  भाजपा इस बार इंदौर में कोई रिस्क लेगी, ऐसा नहीं लगता! कारण कि विधानसभा चुनाव के टिकट बंटवारे में इन दोनों की तनातनी का नतीजा अच्छा नहीं निकला! 'ताई' ने अपने जिन भी समर्थकों को टिकट दिलाया, कैलाश विजयवर्गीय  ने उसका विरोध किया! मामला इतना गंभीर हो गया था कि 'ताई' को मनाने के लिए नरेद्रसिंह तोमर और विनय सहस्त्रबुद्धे को इंदौर आना पड़ा! 'ताई' की बात मान ली गई, पर उनकी पसंद के 5 में से 4 उम्मीदवार चुनाव हार गए। यही कारण है कि पार्टी अब रिस्क लेना नहीं चाहती! पार्टी का मानना है रमेश मेंदोला के बीच में होने से कार्यकर्ताओं में अच्छा संदेश जाएगा और मेंदोला के इलाके से सुमित्रा महाजन को अच्छी लीड मिलेगी।
   पिछला लोकसभा चुनाव सुमित्रा महाजन करीब साढ़े चार लाख वोट से जीतीं थी। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को संसदीय क्षेत्र की 8 में से 4 सीटें जीती है, इसलिए कांग्रेस मुकाबले को बराबरी का मान रही है। कांग्रेस का मानना है कि उसे प्रदेश में चुनावी वादे पूरे करने का भी फायदा लोकसभा चुनाव में मिलेगा। कांग्रेस के उत्साह की वजह ये भी है कि 2014 में साढ़े 4 लाख का जीत का आंकड़ा विधानसभा चुनाव में घटकर करीब 95 हज़ार रह गया! साथ ही इस बार लोकसभा चुनाव में करीब 25 लाख 70 हजार मतदाता वोट डालेंगे! जबकि, विधानसभा चुनाव में करीब 24 लाख 80 हजार मतदाता थी। करीब एक लाख नए मतदाताओं के नाम जुड़े हैं। इनमें भी ऐसे युवा मतदाता ज्यादा हैं, जो पहली बार वोटिंग करेंगे। दरअसल, ये नए मतदाता ही फैसला करेंगे कि लोकसभा में उनका अगला प्रतिनिधि किस पार्टी का और कौन होगा!
    आठ लोकसभा चुनावों से अजेय बनी सुमित्रा महाजन के लिए इस बार परेशानी कांग्रेस से ज्यादा अपने घरवालों से है। एक मंचीय कवि और भाजपा नेता सत्यनारायण सत्तन ने तो ख़म ठोंककर चुनौती दे डाली है कि यदि पार्टी ने इस बार भी 'ताई' को ही उम्मीदवार बनाया तो वे भी चुनाव लड़ेंगे! जबकि, वे खुद टिकट न मांगकर चार नाम हवा में उछाल रहे हैं। इसमें एक कैलाश विजयवर्गीय का भी है! ये पहली बार नहीं है कि 'ताई' खिलाफ माहौल बना हो! 2009 में भी भाजपा के एक गुट ने उन्हें टिकट दिए जाने का विरोध किया था! इस चुनाव में जमकर सेबोटेज भी हुआ था। स्थिति ये आ गई थी कि 'ताई' कांग्रेस उम्मीदवार सत्यनारायण पटेल से बमुश्किल साढ़े 11 हज़ार वोट से चुनाव जीत सकी थीं। इस बार फिर भाजपा में 'ताई' के खिलाफ आवाज उठ रही है। भाजपा में भी बदलाव का नारा बुलंद होता दिखाई देने लगा है। कभी प्रकाशचंद्र सेठी से इंदौर की चाभी छीनने वाली 'ताई' के हाथ से अब चाभी छीनने वालों की लाइन लग गई है! कांग्रेस ही नहीं भाजपा में भी चाभी छीनने वाले बाँह चढ़कर खड़े हैं। 'ताई' ने योग्य व्यक्ति को चाभी सौंपने की बात क्या कह दी, उनके विरोधी सक्रिय हो गए! उन्होंने पार्टी अध्यक्ष राकेश सिंह की मौजूदगी में भी इसी बात को दोहराया तो कैलाश विजयवर्गीय के समर्थन में जमकर नारेबाजी हुई। ये इस बात का संकेत है कि भाजपा में सतह के नीचे काफी खदबदाहट है। 
  इस सीट के राजनीतिक समीकरण को परखें तो इस बार चुनाव में न कोई लहर है और न हवा! नरेंद्र मोदी की वजह से पिछले चुनाव में भाजपा का जो माहौल था, वो अब नहीं बचा! ऐसी स्थिति में जो अच्छा उम्मीदवार  मैदान में उतारेगी, जीत की संभावना उसकी ही ज्यादा है। लेकिन, कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी मुसीबत ये है कि 'ताई' के सामने किसे उतारा जाए? कांग्रेस में उम्मीदवार को लेकर गहन मंथन का दौर चल रहा है! कई नए पुराने नेताओं के नाम सामने आ रहे हैं! लेकिन, लगता नहीं कि जो घिसे-पिटे नाम हवा में हैं, उनमें से कोई उम्मीदवार हो सकता है!
  इंदौर लोकसभा की सीट देश की हाईप्रोफाइल सीटों में से एक है। इंदौर सीट का पहला चुनाव 1957 में हुआ था। इस चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार खादीवाला जीते थे। इसके बाद 1984 तक इस सीट से कांग्रेस ही जीतती रही! लेकिन, 1989 में जब भाजपा ने सुमित्रा महाजन को इस सीट पर उतारा तो इसके बाद से यह सीट उन्हीं के नाम हो गई! उन्होंने इस चुनाव में कांग्रेस के भारी भरकम नेता प्रकाशचंद्र सेठी को हराया। जबकि, सुमित्रा महाजन इससे पहले महेश जोशी से विधानसभा चुनाव हार चुकी थीं। वे 1982-85 में इंदौर महापालिका में पार्षद भी रही हैं। सुमित्रा महाजन का राजनीतिक जीवन 1980 के दशक में शुरू हुआ, जब वे इंदौर की उप-महापौर चुनी गईं थी। पर, लोकसभा उनको इतनी रास आई कि वे तीन दशक में 8 चुनाव जीत चुकी हैं। इन 8 चुनाव में कांग्रेस ने हर बार उन्हें हराने के लिए सारी कोशिशें की, पर अभी तक सफलता नहीं मिली है! देखना है इस बार भी कोई 'ताई' से चाभी छीनता है या इंदौर की चाभी उन्हीं के पल्ले में बंधी रहेगी! 
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Sunday, March 3, 2019

युद्ध के फ़िल्मी कथानक में वायु सेना


- हेमंत पाल 

    जीवन में कभी कुछ संयोग ऐसे होते हैं कि सहजता से विश्वास नहीं होता! लगता है कि ये किसी होने वाली घटना का पूर्वाभास है या कोई फ़िल्मी कथानक! पाकिस्तान की कैद से वापस लौटे विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान के साथ भी कुछ ऐसा ही हो चुका है। उनके पिता और रिटायर्ड वायुसेना अधिकारी एस. वर्तमान ने दो साल पहले बनी एक फिल्म में सलाहकार की भूमिका निभाई थी! इस फिल्म में एक भारतीय पायलट पाकिस्तान की सीमा में गिर जाता है। 2017 में निर्देशक मणिरत्नम की फिल्म 'कतरू वेलियिदाई' में ऐक्टर कार्ति ने भारतीय वायुसेना के एक ऐसे स्क्वाड्रन लीडर की भूमिका निभाई थी, जिसका जेट विमान सीमा पार पाकिस्तान में गिर जाता है और उसे पाकिस्तान में कैद कर लिया जाता है। आखिर में हीरो पाकिस्तान की कैद से अपनी फैमिली के पास लौट आता है। असल जिंदगी में एस वर्तमान के जीवन में उनके ही बेटे के साथ यही कहानी सच घटित हो गई। फिल्म की तरह उनका बेटा भी पाकिस्तान पहुंचकर वापस लौट आया! 
    फिल्म और जिंदगी में ऐसे संयोग कई बार हुए हैं। ये भी देखा गया है कि युद्ध से संबंधित जो भी फ़िल्में बनी हैं, उनमें वायुसेना पर बनी फिल्मों की संख्या ज्यादा है। शायद इसलिए कि वास्तविक युद्ध में भी वायुसेना जवानों का योगदान सबसे ज्यादा होता है। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी वायु सेना का योगदान अहम रहा था। इस युद्ध को केंद्र में रखकर 1971 में चेतन आनंद ने 'हिंदुस्तान की क़सम' बनाई थी। इसमें राजकुमार ने वायु सेना के अधिकारी की भूमिका निभाई थी। राजकपूर निर्देशित 'संगम' प्यार और दोस्ती की फ़िल्म थी! लेकिन, वायु सेना के अधिकारी की भूमिका निभाने वाले राजकपूर का कश्मीर जाना फिल्म की कहानी बदल देता है। 'आराधना' में भी राजेश खन्ना ने वायु सेना के पायलट का रोल किया था, जो लापता हो जाता है। रोमांटिक फ़िल्म 'सिलसिला' को अमिताभ बच्चन और रेखा की रियल लाइफ स्टोरी के लिए जाना जाता है! किन्तु, इस फ़िल्म में शशि कपूर ने एयर फोर्स के स्क्वैड्रन लीडर का रोल किया था, जिसकी एयर फोर्स से कॉम्बेट करते हुए मौत हो जाती है और फिल्म में नया मोड़ आ जाता है। 
  भारत और पाकिस्तान के 1971 के युद्ध पर आधारित फिल्म 'बॉर्डर' में एयर फोर्स अधिकारी की भूमिका जैकी श्रॉफ ने की थी। उन्होंने विंग कमांडर एंडी बाजवा का रोल किया था। गोविंद निहलानी निर्देशित फिल्म 'विजेता' में कुणाल कपूर ने मिग-21 के फाइटर पायलट का रोल किया था। इसमें 1971 का भारत और पाकिस्तान युद्ध की घटना को शामिल किया था। 'वीर ज़ारा' में शाहरुख़ ख़ान वायु सेना के अधिकारी वीरप्रताप सिंह बने थे। एक बचाव योजना के दौरान उसकी मुलाक़ात पाकिस्तानी ज़ारा से होती है और दोनों में प्यार हो जाता है। 'मौसम' में शाहिद कपूर ने वायु सेना की यूनिफॉर्म पहनी थी। इस लव स्टोरी में सोनम कपूर उनकी हीरोइन थी। बॉलीवुड एक्टर्स में अक्षय कुमार अकेले ऐसे हैं, जिन्होंने तीनों सेनाओं की वर्दी पहनी है। 'अंदाज़' में वायु सेना अधिकारी का रोल निभाया था। 'हॉलीवुड' में वे आर्मी अफ़सर बने और 'रुस्तम' में नेवल अधिकारी का किरदार निभाया।  
   उरी हमले के बाद पाकिस्तान में हुई सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी फ़िल्म 'उरी : द सर्जिकल स्ट्राइक' में कीर्ति कुल्हरी ने सीरत कौर नाम की इंडियन एयर फोर्स की अफ़सर का किरदार निभाया था, जो पाकिस्तान में गयी पैरा एसएफ टीमों को सुरक्षित निकालने के लिए एयर स्ट्राइक्स कर करती है। जाह्नवी कपूर भी अब वायु सेना की वर्दी पहनने वाली हैं। वे वायु सेना की पहली फीमेल कॉम्बेट पायलट गुंजन सक्सेना की बायोपिक में मुख्य भूमिका करेंगी! अब बालाकोट में हुई सर्जिकल स्ट्राइक की घटना पर भी फिल्म बनाने की तैयारी शुरू हो गई है।     
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