Sunday, March 24, 2019

गीतों में झलकती पुरुषवादी सोच!

- हेमंत पाल

  फिल्मों में शुरू से ही पुरुषवाद हावी रहा है। फिल्मों के कथानक से लगाकर गानों तक में नायक को आगे रखा जाता है। ऐसी स्थिति में नायिका या तो दिखावटी बनकर रह जाती है या उसे दोयम दर्जे के चरित्र की तरह पेश किया जाता है। जब नायिका की मुख्य भूमिका वाली कोई फिल्म आती है, तो मीडिया में उसकी तारीफों के पुल बांधे जाते हैं। क्योंकि, परदे दुनिया में पुरुषवाद जो हावी है! ध्यान देने वाली बात है कि फिल्मों के कथानक ही पुरुषवादी सोच प्रकट नहीं करते, गाने भी इसी परंपरा का निर्वहन करते हैं। भारतीय सिनेमा सौ साल से ज्यादा का हो गया। समय के साथ-साथ फिल्मों में काफी बदलाव भी आया है। लेकिन, आज भी पुरुष और स्त्री में  भेदभाव की ये खाई नहीं भरी गई! इन्हीं गीतों के जरिए लड़कियों से सबसे ज्यादा छेड़छाड़ भी की जाती है। 90 के दशक में आई गोविंदा की फिल्म 'आँखें' का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था! 'ओ लाल दुपट्टे वाली तेरा नाम तो बता, ओ काले कुरते वाली तेरा नाम तो बता!' इस गीत के कारण उस वक्त लड़कियों का सड़क पर लाल दुपट्टे और काले कुरते पहनकर निकलना मुश्किल हो गया था। 'मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी जैसे गीतों ने इस गंदगी को बहुत जल्दी आगे बढ़ाया! लेकिन, सारे फ़िल्मी गीत खंगालने पर भी किसी लड़के के नाम पर ऐसे गाने शायद नहीं मिलेंगे!
    साठ के दशक में आई फिल्म 'दिल ही तो है' के गीत के बोल थे 'तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी!' ये गाना सुनने में अच्छा लगता है! किंतु, इस गाने के बोल में प्यार का इजहार कम, धमकी ज्यादा है। 1952 में आई 'आन' के गीत 'मान मेरा अहसान अरे नादान के मैंने तुझसे किया है प्यार' को सुनकर लगता है कि नायिका से प्यार करके नायक उसपर अहसान जता रहा है! 60 के दशक की फिल्म 'कहीं दिन कहीं रात' के गाने के बोल थे 'तुम्हारा चाहने वाला खुदा कि दुनिया में, मेरे सिवा भी कोई और हो खुदा न करे!' ये गाना प्रेमी का प्रेमिका के असुरक्षा बोध दर्शाता है। 80 के दशक में आई फिल्म 'घराना' में एक गीत था 'तेरे डैडी ने दिया मुझे परमिट तुझे पटाने का ...' ये गीत उस सोच का प्रतिनिधित्व करता है, जो नायिका के स्तर को गिराता है। अक्षय कुमार की फिल्म 'खिलाडी का गीत 'खुद को क्या समझती है, इतना अकड़ती है' और इसी दशक की 'दिल' के गीत 'खम्बे जैसी खड़ी है, लड़की है या छड़ी है' भी इसी श्रेणी का गीत है, जिसमें नायिका को मजबूर किया जाता है। ऐसे गीतों की रचना का सबसे बड़ा कारण ये भी रहा कि फ़िल्मी गीतकारों में महिलाओं का योगदान बहुत कम देखा गया। इस कारण महिलाओं का पक्ष भी पुरुषवादी नज़रिए से लिखा गया।
  फिल्मों में होली सबसे पसंदीदा त्यौहार रहा है। होली गीत फिल्मकार के पितृ सत्तात्मक सोच के सबसे ज्यादा शिकार रहे हैं। 'कटी पतंग' का गीत 'आज न छोड़ेंगे बस हमजोली खेलेंगे हम होली' हद दर्जे तक जबरदस्ती को उकसाता सा लगता है। आशय यह कि नायक को बस होली खेलने से ही मतलब है। 'ये जवानी है दीवानी' का गीत 'बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी तो सीधी-साधी छोरी शराबी हो गई' में एक लड़की के शराबी होने को कितनी आसानी से कहा गया है! नायिका को उसके रंग पर छेड़ने पर भी कई गीत रचे गए हैं। 70 के दशक की फिल्म 'रोटी' में जब राजेश खन्ना मुमताज को छेड़कर कहता है 'गोरे रंग पे न इतना गुमान कर गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा' तो सबकुछ सहज लगता है, पर वास्तव में ये भी एक तरह की धमकी ही तो है। जबकि, 1965 में आई 'गुमनाम' में मेहमूद ने 'हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले है' गाकर अपने काले होने को भी सही ठहराया था! अमिताभ बच्चन की फिल्म 'गिरफ्तार' में 'धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाए' भी नायिका के साथ छेड़छाड़ ही थी।
   अधिकांश फिल्मों में छेड़छाड़ को हल्के रूमानी नजरिए से प्रस्तुत किया जाता है। आवारा किस्म का का नायक नायिका को तंग करता है और बाद में नायिका उसी को चाहने लगती है। 'आर राजकुमार' का गाना 'एबीसीडी पढ़ ली बहुत, अच्छी बातें कर ली बहुत, अब करूँगा तेरे साथ गंदी बात' पुरुषवादी समाज की उसी सोच को आगे बढ़ाता सा लगता है, जिसने महिलाओं को एक वस्तु से ज्यादा नहीं समझा! इससे ये भ्रम भी पनपता है कि लड़कियों के इंकार में ही उनकी 'हाँ' छुपी होती है। नायक की तरह पीछे पड़े रहो, तो किसी भी लड़की को प्रेम के लिए मजबूर किया जा सकता है। देखा गया है कि गीत के बोलों में नायिका के कपड़ों पर सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित किया जाता है। 'प्रिंस' के गीत 'बदन पे सितारे लपेटे हुए, ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो!' भी छेड़छाड़ ही दर्शाता है। 
  'शोले' के गीत 'कोई हसीना जब रूठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती हैँ' और 'शराबी' फिल्म के गीत 'दे दे प्यार दे प्यार दे प्यार दे' में खुले आम छेड़छाड़ है। 'लेडिस वर्सेस रिक्की बहल' के गीत 'क्या करूँ ओ लेडिस मैं हूँ आदत से मजबूर' में तो नायक अपनी आदत की मज़बूरी बताकर छेड़खानी से बाज नहीं आता! अठरा बरस की तू होने को आई रे (सुहाग), ओ मेरी मेहबूबा, मेहबूबा मेहबूबा (धरमवीर),  जाते हो, जाने जाना ... आखरी सलाम लेते जाना (परवरिश), पहली पहली बार देखा ऐसा जलवा, ये लड़की है या शोला (सिलसिला) और 'रफ्ता रफ्ता देखो आँख मेरी लड़ी है (कहानी किस्मत की) भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए लगते हैं। लेकिन, 1958 की फिल्म 'साधना' में साहिर लुधियानवी के गीत 'औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया' आज पाँच दशक बाद भी समाज को आईना दिखा रहा है। लेकिन, ऐसे गाने दोबारा नहीं लिखे जा सके!
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