- हेमंत पाल
बीते एक दशक में बनने वाली हिन्दी सिनेमा की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्त्री जीवन की समस्याओं को केंद्र में रखकर फिल्म बनाना रहा है। ये परंपरा पहले भी रही है, लेकिन पहले की फिल्मों से इन फिल्मों में कुछ बुनियादी फर्क है। पहले की फिल्में स्त्री जीवन की मुश्किलों और विडंबनाओं को व्यक्त करते हुए उनके साथ बराबरी और अधिक और मनुष्योचित व्यवहार करने पर बल देती थी। जबकि, इनके बाद जो फिल्में बनने लगी, उसमें इनके साथ-साथ स्त्री सबलीकरण पर भी बल दिया गया! इन फिल्मों में स्त्री जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं को उठाया गया, जो शायद इससे पहले इतने तीखे रूप में नहीं उठाया गया था। इन फिल्मों में गरीबी और भुखमरी में जीने वाली स्त्रियाँ भी है और अभिजात्य समाज की स्त्रियाँ भी! इसमें उच्चवर्णीय हिंदू है तो दलित स्त्रियां भी है और धार्मिक अल्पसंख्यक भी!
इन फिल्मों ने स्त्री जीवन के पारिवारिक और सामाजिक सवालों को ही नहीं उठाया गया, बल्कि राजनीतिक सवालों को भी उठाया! स्त्री जीवन पर केंद्रित कुछ ऐसी फिल्में ‘सूरज का सातवा घोड़ा’ (1992) , ‘दामिनी’ (1993), ‘बेंडिट क्वीन’ (1994), ‘मम्मो’ (1994), ‘फायर’ (1998), ‘सरदारी बेगम’ (1998), ‘मृत्युदंड’ (1998), ‘गॉड मदर’ (1999), ‘हरी-भरी’ (1999), ‘गजगामिनी’ (1999), ‘अस्तित्व’ (2000), ‘जुबैदा’ (2000), ‘क्या कहना’ (2000), ‘लज्जा’ (2001), ‘चांदनी बार’ (2001) आदि के नाम लिए जा सकते है। इसके अलावा ‘नसीम’ (1995), ‘जख्म’ (1999), ‘हमारा दिल आपके पास है’ (2000), ‘फिज़ा’ (2000) में भी स्त्री जीवन को महत्वपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।
1991 में आई फिल्म 'लम्हें' और 'हिना' नारी संवेदनाओं और चरित्रों की विशेष प्रकार की फिल्म है! इनमें प्रेम तो है, साथ में जीवन के प्रति जीने की समझ भी है। 1992 में 'रूदाली' और 'रोजा' जैसी फिल्मों ने समाज में स्त्री के चरित्रों और कमजोरियों को उभारा है। दोनों फिल्मों की स्त्री पात्र लड़ती हैं, समाज और परिस्थितियों के आगे झुक भी जाती है। 1993 में जब ‘दामिनी’ आई तो वहाँ नारी एक सशक्त चरित्र के रूप में उभरकर सामने आई! जहाँ वह अपने पति से अलग रहकर भी अपने सम्मान के लिए संघर्ष करती है। समाज में हो रहें अत्याचार के खिलाफ खड़ी होती है। बेबाक होकर हाथ में फावड़ा लेकर गुंडों का सामना भी करती है।
1995 में ‘बाम्बे’ फिल्म में एक मुस्लिम स्त्री का हिंदू लड़के के साथ शादी और उससे उपजी दिक्कतों को दर्शाया गया था। 1997 में ‘विरासत’ और ‘परदेश’ जैसी फ़िल्में आईं! 'विरासत' में गाँव और शहर के बीच आंतरिक संवेदना का चित्रण था तो 'परदेश' के स्वच्छंद वातावरण में खुद को घुटती, महसूस करती एक नायिका का चित्रण था। 1998 और 1999 के गॉडमदर, हम दिल दे चुके सनम, ताल, हजार चौरासी की मां, दिल से जैसी फिल्मों ने स्त्री के अनगिनत चरित्र पेश किए, जिन्होंने सामाजिक बंधनों को कहीं न कहीं तोड़ा है।
इसके साथ ही फिल्मों में उपभोक्तावादी संस्कृति का भी विकास हुआ, जिसका लक्ष्य सिर्फ मुनाफा कमाना था। सिनेमा का संसार भी पुरूष वर्चस्व वाला है। यह वर्चस्व उनके संख्या बल के कारण नहीं, बल्कि सिनेमा के संसार में जारी मूल्य व्यवस्था के कारण है। भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी सिनेमा की स्त्रियाँ भी अब विश्व स्तर पर जानी जाती है! उसके स्वभावगत चरित्र में भी परिवर्तन आया है। समाज में देश से लेकर विदेशी वस्तुओं की उत्पादकता और खपत बढ़ी है इनकी खपत में फिल्मों का भी एक बहुत बड़ा योगदान रहा है।
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