Monday, July 29, 2019

सत्ता पाने के लिए भाजपा इतनी हड़बड़ी में क्यों?


'जिस दिन बॉस इशारा करेंगे, कमलनाथ सरकार गिरा देंगे!' इस तरह के बड़बोले बयानबाज भाजपा नेताओं की अब बोलती बंद है! उन्हें समझ नहीं आ रहा कि उनके दड़बे में सैंध कैसे लग गई! जिन लोगों को भाजपा बहला-फुसलाकर कांग्रेस से अपने खेमे में लाई थी, वे फिर कांग्रेस में क्यों और किस लालच में पहुँच गए? ऐसे बहुत सारे सवाल हैं, जिससे भाजपा के बड़े नेता परेशान है! यही कारण है कि जिन दो भाजपा विधायकों ने प्रतिबद्धता बदली, उन्हें समझाने की कोशिशें हो रही है! पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सारी कमान अपने हाथ में ले ली! पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को ये भी खबर मिली कि पार्टी के कुछ नेताओं के कारण विधायकों में असंतोष है! इस घटना के बाद शिवराजसिंह चौहान और गोपाल भार्गव जैसे बयानवीरों की जुबान पर ताले डालने के अलावा प्रदेश में पार्टी नेतृत्व भी बदला जा सकता है!     
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- हेमंत पाल 

   ध्यप्रदेश में 15 साल तक सत्ता का सुख भोगने वाली भाजपा की दाढ़ में सत्ता की मलाई ऐसी लग गई, उसे विपक्ष में बैठना रास नहीं आ रहा! जब से प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, भाजपा नेताओं की नींद हराम है! ऐसे में दो विधायकों का भाजपा से टूटना उसे सहन नहीं हो रहा! पार्टी के बड़े नेता वो सुराख़ ढूंढने में लगे हैं, जहाँ से ये विधायक खिसककर कांग्रेस के पाले में चले गए! लेकिन, अब उन्हें इस बात की घबराहट ज्यादा है कि कुछ और विधायक कांग्रेस के संपर्क में हैं! कटनी के विधायक संजय पाठक को भी संदिग्ध नजरों से देखा जा रहा है। ये वही संजय पाठक हैं, जो भाजपा के राज में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए थे और उन्हें पार्टी ने मंत्री भी बनाया था। पाठक अभी इसे नकार रहे हैं, लेकिन, उनके इंकार में ज्यादा जोर दिखाई नहीं दे रहा! उनका तो यहाँ तक कहना है कि मेरा फैमिली बैकग्राउंड कांग्रेसी रहा है! मेरे पिता मंत्रीजी मंत्री रहे हैं, मैं भी कांग्रेस में रहा हूँ।' उनके खुद को कांग्रेसी बताने के जुमले का अर्थ तो यही है कि वे कांग्रेसी रहे हैं और रहेंगे! 
  मध्यप्रदेश विधानसभा में दंड विधि (मध्यप्रदेश संशोधन) विधेयक 2019 के पक्ष में भाजपा के दो सदस्यों सहित कुल 122 विधायकों ने मतदान किया था। इनमें कांग्रेस और उनके सहयोगियों के अलावा कांग्रेस सरकार का समर्थन करने वालों में दो भाजपा विधायक नारायण त्रिपाठी (मैहर) और शरद कोल (ब्यौहारी) भी थे। अपने इन दो विधायकों के पाला बदलने से भाजपा बुरी तरह तिलमिला गई! भाजपा के बड़े नेता और प्रदेश के पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्र ने का कहना है कि ये खेल कांग्रेस ने शुरू किया है। लेकिन, इसे खत्म भाजपा करेगी। ये स्वाभाविक भी है। क्योंकि, कुछ साल पहले भाजपा इन विधायकों को पुचकारकर अपने पाले में लाई थी, पर मौका मिलते ही वे बागड़ कूदकर भाग गए! 
   भाजपा को भी ये सोचना चाहिए कि कांग्रेस ने वही किया, जो कभी भाजपा ने उसके साथ किया था। अब मातम मनाने से कुछ नहीं होने वाला, जो होना था वो चुका! मुद्दे की बात तो ये है कि भाजपा के दिल्ली दरबार ने अभी तक दोनों विधायकों को पार्टी से निकालने का फैसला नहीं किया, बल्कि अगले सत्र तक सोचने का मौका दिया है! भाजपा का ये बदला रूप इसलिए दिखाई दे रहा, क्योंकि पार्टी वक़्त की नजाकत समझ रही है! लेकिन, पार्टी को उन बड़बोले नेताओं की जुबान पर भी लगाम लगाना चाहिए जो 'बॉस जब इशारा करेंगे कमलनाथ की सरकार गिरा देंगे' जैसे बयान देकर राजनीतिक माहौल बिगाड़ रहे हैं। प्रदेश की राजनीति के बदले हालात से कांग्रेस का उत्साह भी चरम पर है। नगरीय विकास एवं आवास मंत्री ने कहा कि भाजपा के लोग चाहें, तो सपने देखते रहें! लेकिन, कमलनाथ ने साबित कर दिया है कि पूरे मध्यप्रदेश में वही एकमात्र शेर हैं।
 भाजपा के दो विधायकों के कांग्रेस का समर्थन करने के बाद कुछ कथित नेताओं का उत्साह बल्लियों उछल रहा है। बयानबाजी से सुर्ख़ियों में रहने वाले कंप्यूटर बाबा भी दावा करने वालों में शामिल हो गए कि चार भाजपा विधायक उनके संपर्क में है! वो जल्दी ही कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं। ये दावा कितना सच होगा, ये सभी जानते हैं! लेकिन, कांग्रेस को ऐसे बयानबाजों से निजात पाना जरुरी है। वैसे भी इस तरह की राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक हल्ला बोलकर नहीं की जाती। नारायण त्रिपाठी और शरद कोल के यू-टर्न की प्लानिंग कितनी गोपनीयता से अंजाम तक पहुंची, ये सबने देखा है! ऐसे में पार्टी के लिए जरुरी है कि ऐसे हवाबाजों को काबू में रखा जाए! कम्प्यूटर बाबा खुद भी भाजपा का स्तुतिगान करते-करते कांग्रेस में कूदे हैं! परिवहन मंत्री गोविंदसिंह राजपूत और खाद्य मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर का भी कहना है कि अभी तो शुरुआत है! कई और भाजपा विधायक कांग्रेस के संपर्क में हैं! 
  इस राजनीतिक हादसे के बाद भाजपा के गोपाल भार्गव और शिवराजसिंह चौहान जैसे बड़बोले नेता खामोश हैं। यहाँ तक कि दोनों बागी विधायकों पर कार्रवाई को लेकर भी पार्टी इंतजार की मुद्रा में है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह का तो यहाँ तक कहना है कि अभी भी कुछ नहीं बदला! सब कुछ अनुकूल है और कंट्रोल में है! पार्टी अभी दोनों विधायकों के खिलाफ जल्दबाज़ी में कार्रवाई भी नहीं करना चाहती! दोनों बागियों को मनाने की कोशिश की जाएगी और अगले सत्र तक का समय भी दिया जाएगा। वास्तव में तो ये भाजपा की राजनीतिक शैली नहीं है! लेकिन, उसके सामने नई मज़बूरी ये है कि उसे भी अपने एक-एक संदिग्ध विधायक को संभालना है। भाजपा नहीं चाहती कि उसका एक भी गलत कदम कांग्रेस को अपना खूंटा गाड़ने का मौका दे दे! लेकिन, इसके लिए पार्टी को सबसे पहले हड़बड़ी से मुक्ति पाना होगा और अनर्गल बयानबाजी को बंद करना होगा! सबसे ज्यादा जल्दबाजी में तो शिवराजसिंह लग रहे, जो 8 महीने की सरकार से 5 साल का हिसाब मांग रहे हैं!  
  डेढ़ दशक तक सरकार चलाकर फुर्सत हुए शिवराजसिंह चौहान ऐसे नेता हैं जिनको प्रदेश में पार्टी की हार से अपच हो गया! जिस दिन विधानसभा चुनाव के नतीजे आए और भाजपा को सत्ता नहीं मिली! उस दिन से आज तक वे इस हड़बड़ी में हैं, कि कब सरकार गिरे! लेकिन, उनके साथ पार्टी भी हड़बड़ी क्यों दिखा रही, ये कोई समझ नहीं पा रहा! किनारे पर डूबने का दर्द उसे इतना ज्यादा है कि कांग्रेस सरकार उसकी आँखों में खटक रही! बार-बार ये प्रचारित किया जा रहा वो जब चाहे कांग्रेस सरकार गिरा सकती है! लेकिन, अभी तक वो ऐसा नहीं कर सकी और हाल ही में जो हुआ वो उसने उसे तोड़ भी दिया है। उधर, प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव का कटाक्ष था कि जब तक मंत्रियों के बंगले पुतेंगे, तब तक यह सरकार गिर जाएगी। लेकिन, मंत्रियों के बंगले पुत गए और कमलनाथ-सरकार ने दो भाजपा विधायकों को बगावत करने पर मजबूर कर दिया! अब, आगे क्या होना है ये देखना दिलचस्प होगा!
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Saturday, July 27, 2019

दो जन्मों के बंधन का सुपरहिट फार्मूला!

- हेमंत पाल 

 ब से हिंदी फ़िल्में बनना शुरू हुई, कुछ विषयों पर फ़िल्में ज्यादा बनी। शुरुआत में धार्मिक फ़िल्में बनी, इसके बाद देश के विभाजन की त्रासदी को फिल्माया गया! फिर आया सामाजिक भेदभाव और अमीरी-गरीबी की खाई से जुड़ी कहानियों का दौर! जब सिनेमा को मनोरंजन की तरह समझा गया तो प्रेम और बदले की कहानियों को फिल्माया जाने लगा! इसी के साथ शुरू हुआ पुनर्जन्म की कहानियों का दौर! ये ऐसा फ़िल्मी फार्मूला है, जिसे हर समय के परिवेश के मुताबिक ढाला गया! यही कारण है कि बॉलीवुड में पुनर्जन्म काफी हिट कांसेप्ट है। जितनी उम्र पर्वतों, नदियों और आकाश की है, शायद उतनी ही उम्र पुनर्जन्म की कहानियों की भी होगी। 
    ब्लैक एंड व्हाइट से लगाकर मल्टीप्लेक्स के ज़माने तक इस फॉर्मूले का कई बार इस्तेमाल हुआ। एक जन्म से दूसरे जन्म तक फैली प्रेम कहानियों से लगाकर बदला लेने और डरावनी फ़िल्में तक ऐसी कहानियों पर बनी और पसंद की गईं! एक जन्म में बिछुड़े हुए दो प्रेमियों की अधूरी प्रेम कहानी दूसरे जन्म में पूरी होती है। इसके अलावा बदले की आग में जलते दो परिवारों का बदला दूसरे जन्म में पूरा होता है। सात जन्मों के बंधन और कर्मफल जैसी बातों पर किसी को भरोसा हो या नहीं! लेकिन, पुर्नजन्म पर आधारित बॉलीवुड की ये फ़िल्में दर्शक को ये यकीन जरूर दिला देती हैं कि अधूरी इच्छा पूरी करने के लिए पुनर्जन्म होता जरूर है!
  बॉलीवुड के इतिहास को खंगाला जाए, तो ब्लैक एंड व्हाइट के समय में पुनर्जन्म पर पहली बार बिमल रॉय ने ‘मधुमति’ और बाद में 'यहूदी' बनाई थी। 1958 में बनी 'मधुमति' को तो इस तरह की कहानियों पर बनी श्रेष्ठ फिल्म माना जाता है। दिलीप कुमार और वैजयंती माला के किरदारों को अलग-अलग समयकाल में गढ़ा गया था। 1968 में परदे पर आई सुनील दत्त, साधना और राजकुमार की फिल्म 'नीलकमल' भी पिछले जन्म की कहानी पर आधारित थी। इसमें राजकुमार को आत्मा की तरह प्रस्तुत किया गया था, जो अपनी मेहबूबा को गाना गाकर पुकारता है और वो (साधना) सबकुछ भूलकर खिंची चली आती है। कमाल अमरोही की ‘महल’ में भी जायदाद हड़पने के लिए पुनर्जन्म की कहानी गढ़ी गई थी! सुनील दत्त और नूतन की फिल्म ‘मिलन’ भी पुनर्जन्म की प्रेमकथा है। इसी विषय पर चेतन आनंद ने राजेश खन्ना, हेमा मालिनी और विनोद खन्ना को लेकर ‘कुदरत’ बनाई थी। 
    सत्तर के दशक के सुपरहिट हीरो राजेश खन्ना की 1976 में आई फिल्म 'मेहबूबा' का कथानक भी एक जन्म से दूसरे जन्म तक फैला था। 1980 में रिलीज़ हुई सुभाष घई की 'क़र्ज़' का आधार भी यही विषय थी l ये फिल्म भी प्रेम और हत्या के बदले  कहानी थी। सलमान खान जैसे बड़े सितारे ने भी 1992 में दो जन्मों की कहानी 'सूर्यवंशी' में अदाकारी की थीl फ़िल्म में सलमान खान का पुनर्जन्म होता है। शाहरुख़ खान और सलमान खान की जोड़ी वाली फ़िल्म 'करण अर्जुन' 1995 की सुपरहिट फ़िल्म रही थी। ये दो भाइयों करण और अर्जुन के पुनर्जन्म पर बनी बदले की कहानी थी, जिसे दर्शकों ने पसंद भी किया!  इसी साल आई संजय कपूर और तब्बू की फिल्म 'प्रेम' में भी दो जन्मों का बंधन दिखाया गया था।  
  2002 की फिल्म 'अब के बरस' हिट थी, जो पुनर्जन्म पर आधारित थी। इसमें आर्या बब्बर और अमृता राव मुख्य भूमिका में थेl जबकि, 2007 में रिलीज हुई 'ओम शांति ओम' दीपिका पादुकोण के करियर की पहली फ़िल्म भी पुनर्जन्म की कहानी पर बनी थी l इसमें शाहरुख़ खान मुख्य भूमिका में थेl 2012 में आई करिश्मा कपूर की कमबैक फिल्म 'डेंजरस इश्क़' की कहानी भी दो जन्मों से जुड़ी थी, जिसे विक्रम भट्ट ने निर्देशित किया। 2015 में आई फ़िल्म 'एक पहेली लीला' भी पिछले जन्म पर आधारित थी। 
  हाल के वर्षों में 2017 में आई सुशांतसिंह राजपूत और कृति सेनन की 'राब्ता' में भी दोनों के पुनर्जन्म के बारे में ही बताया थाl दिनेश विजन की ये फिल्म अपने कमजोर कथानक के कारण मात खा गई! क्योंकि, आज के दर्शक पुनर्जन्म की मनगढ़ंत कहानी को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। फिल्मकारों को अब इस फॉर्मूले को नया कलेवर देना होगा। 'बाहुबली' से लोकप्रिय हुए एक्टर प्रभास की आने वाली फिल्म 'साहो' के बारे में भी कहा जा रहा है कि ये फिल्म भी दो जन्मों की कहानी कहती है। लेकिन, अभी इसका खुलासा होना बाकी है! 
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Tuesday, July 23, 2019

जिंदगी में हज़ार दुःख, सरकार 'आनंद' ढूंढने में लगी!


- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार अपनी पूर्ववर्ती शिवराज सरकार के कुछ बोझ बेवजह ढो रही है! उन्हीं में से एक है 'आनंद संस्थान!' भूटान की नक़ल से बने इस ख़ुशी के फॉर्मूले को प्रदेश की शिवराज सरकार ने अपनाया था! अब कमलनाथ सरकार ने भी इसे जारी रखा! पुरानी सरकार जो 'हैप्पीनेस इंडेक्स' का काम बाकी छोड़ गई थी, उसे अब कांग्रेस सरकार पूरा करने की कोशिश में है! तीन साल में भी जो 'हैप्पीनेस इंडेक्स' तय नहीं हुआ था, अब वो प्रयोग फिर नए सिरे से शुरू हो गया! आईआईटी खड़गपुर ने 30 सवालों की एक प्रश्नावली बनाई है, जिसके जरिए लोगों से सरकार और प्रशासन के कामकाज के बारे में सवाल किए जाएंगे! मुद्दा ये है कि जब सरकार आर्थिक संकट से जूझ रही है, तो ऐसे निरर्थक प्रयोगों जिंदा रखने का औचित्य क्या है? 'ख़ुशी' के मामले में भारत बहुत पीछे है। 156 देशों में भारत का स्थान 140वां है। पाकिस्तान और बांग्ला देश जैसे अभावग्रस्त देश भी भारत से आगे हैं। इस रिपोर्ट में फिनलैंड अव्वल है। 
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      शिवराज सरकार ने जनता को ख़ुशी देने के लिए 'आनंद विभाग' के गठन की घोषणा की थी। पहले इस सोच को 'आनंद मंत्रालय' कहा गया था। लेकिन, भारी उहापोह के बाद अंत में बना 'आनंद संस्थान।' लेकिन, तीन साल में सरकार तय नहीं कर सकी कि ये संस्थान लोगों को ख़ुशी कैसे देगा? भूटान की तर्ज पर जनता का 'हैप्पीनेस इंडेक्स' तैयार करने की भी बात कही गई थी। पर, न तो इस तरह का कोई काम हो पाया न संस्थान ने कोई आधारभूत योजना तैयार की। अब कमलनाथ सरकार भी इस काम को आगे बढ़ाने में लग गई है! सरकार ने नए सिरे से 'हैप्पीनेस इंडेक्स' के लिए सर्वें कराने की बात कही है! वास्तव में भौतिक समृद्धि महज सुविधा है, ख़ुशी नहीं। इससे किसी को आंतरिक खुशी और शांति नहीं मिलती। सरकार को यदि मानसिक ख़ुशी का अहसास कराना है तो उसे जनता के लिए रचनात्मक विकास करना होगा। अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा, जिससे लोगों को वास्तविक आनंद की अनुभूति हो। गुदगुदाने से भी हँसी आती है, ख़ुशी नहीं होती। ऐसे में 'आनंद संस्थान' की सफलता पर सवालिया निशान है। 
  प्रदेश की अभावग्रस्त, दुखी, परेशान और भविष्य की चिंता से ग्रस्त जनता को आनंदित करना आसान बात नहीं है। सरकारी प्रयोगों से लोगों को खुश करने का फार्मूला कभी सफल नहीं हो सकता! किसी दूसरे देश के फॉर्मूले को भी लागू करने से बात नहीं बनेगी! क्योंकि, दूसरे देशों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बहुत फर्क है। वहां के फॉर्मूले से मध्यप्रदेश के 'हैप्पीनेस इंडेक्स' का निर्धारण भी संभव नहीं है! भूटान और अन्य देशों के जीवन स्तर और प्रदेश के लोगों की जीवन शैली, संस्कृति और जीवन स्तर में बड़ा फर्क है। आश्चर्य की बात तो ये कि जब शिवराज सरकार ने जीवन को आनंदित बनाने वाले इस सरकारी प्रपंच की घोषणा की थी, तब सरकार के पास चार पन्ने का कोई आइडिया तक नहीं था। सामने सिर्फ भूटान का फार्मूला था, जो प्रदेश जीवन शैली से साम्य नहीं रखता! यही स्थिति कमलनाथ सरकार के सामने भी है!
   'हैप्पीनेस इंडेक्स' के लिए ग्यारह पन्नों के एक फॉर्म में 17 क्षेत्रों से संबंधित 30 सवाल हैं। सरकारी योजनाओं और भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाए गए कदमों के बारे में लोगों की राय जानी जाएगी। सर्वे करने वाले लोग आम जनता से स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, स्वच्छता से जुड़ी योजनाओं के बारे में भी जानेंगे। सरकार के कामकाज के अलावा निजी जिंदगी से जुड़ें कुछ सवाल भी होंगे। जिसमें व्यक्तिगत संबंध, शासन एवं प्रशासन, पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा बोध वाले सवाल होंगे! साथ ही आय, अधोसरंचना, परिवहन, सामाजिक समावेशिता, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन, समय का उपयोग, जीवन में सार्थकता, लैंगिक समानता, स्वयं के जीवन में संतुष्टि और सकारात्मक-नकारात्मक भावनाओं के पैमाने वाले सवालों के जवाब भी पूछे जाएंगे!
   'आनंद संस्थान' का ये सर्वे सितंबर से मार्च 2020 तक चलेगा। मार्च में इस सर्वे की रिपोर्ट आएगी। कहा गया है कि इस आधार पर सरकार अपने कामकाज में बदलाव लाएगी। जिन योजनाओं का लाभ कम मिल रहा है, उनकी प्रक्रिया बदली जाएगी। बदलाव के नतीजे देखने के लिए एक साल बाद फिर दूसरा सर्वे कराया जाएगा। ये सर्वे लोगों के आनंद का स्तर यानी हैप्पीनेस इंडेक्स पता करने के लिए किया जा रहा है। पिछली भाजपा सरकार के समय इस सर्वे की कवायद शुरु हुई थी! अब नई सरकार इसे नए सिरे से करा रही है। इस सर्वे के माध्यम से ये जाना जाएगा कि आखिर लोगों की ख़ुशी का पैमाना क्या है और उनकी ख़ुशी की वजह किस तरह की हैं? वे अपने जीवन से कितने संतुष्ट हैं और सरकार से उनकी उम्मीदें क्या है? लेकिन, जिस तरह की योजना बनाई गई है, उसका कोई सार्थक नतीजा निकलेगा, उसके आसार नजर नहीं आते! क्योंकि, ये सारी कवायद शिवराज-सरकार कर चुकी है! कमलनाथ सरकार दोबारा मंथन करके क्या अमृत निकालेगी, ये समझ से परे है!
  सरकार  का मकसद है कि 'आनंद संस्थान' ऐसे स्वयं सेवकों को तैयार करे, जो सरकारी दफ्तरों और समाज में लोगों को सकारात्मक जीवन शैली अपनाने के लिए प्रेरित करें! स्वयं सेवक निजी क्षेत्र या किसी  कार्यालय के कर्मचारी भी हो सकते हैं। सरकार का मानना है कि अधिकारियों और कर्मचारियों में सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए लगातार कोशिश करने की जरुरत है। इसलिए की आनंद प्रबंधन वास्तव में सार्वजनिक सेवाओं के प्रभावी क्रियान्वयन से संबंधित है। लोगों के जीवन में खुशहाली लाने का काम दुनिया में कई जगह हो रहा है। किन्तु, खुशहाली के लिए सबसे पहले सरकार को अपनी जिम्मेदारियां निभाना होती है। लोगों की व्यक्तिगत मुसीबतें कम हों और वे खुश रहें इसके लिए काम करना होता है! जबकि, आज मध्यप्रदेश (और देश में भी) में हर आदमी महंगाई, भ्रष्टाचार, महंगी बिजली, प्रदूषित पानी, टूटी छत, ठंडे व्यवसाय, बेरोजगारी, अफसरों की अकड़, नेताओं के अहम् से पीड़ित है। ऐसे में कैसे संभव है कि सरकारी गुदगुदी से कोई खुलकर हँस सकेगा?
  सरकार का 'आनंद संस्थान' का ये प्रयोग शहरों में चलने वाले 'लाफिंग क्लब' जैसा है! सुबह साथ घूमने वाले लोग अपना तनाव दूर करने के लिए एक साथ गोला बनाकर खड़े होते हैं और बेवजह हंस लेते हैं! सरकार को लगा होगा कि वो भी लोगों को ऐसे ही बेवजह हंसने के लिए मजबूर कर सकती है! जिनके जीवन में तनाव, अभाव और हर वक़्त भविष्य की चिंता हो, उन्हें अंतर्मन की ख़ुशी देने में बरसों लग जाएंगे! अपने प्रयोग की कथित सफलता का जश्न मनाने और वाहवाही के लिए सरकार कुछ समय बाद आंकड़ें दिखा दे, पर वो सच नहीं होगा!
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Sunday, July 21, 2019

'बाबू मोशाय, आनंद कभी नहीं मरता!'

- हेमंत पाल 

  फिल्म  इंडस्ट्री में कई बड़े-बड़े स्टार हुए हैं, लेकिन सभी को अपने दौर में वो ख्याति नहीं मिली, जो फिल्म इतिहास पन्नों पर चंद अभिनेताओं के खाते में दर्ज है! याद किया जाए तो दिलीप कुमार, देवआनंद, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन ही ऐसे सर्वकालिक अभिनेता हैं, जिनके प्रति दर्शकों की दीवानगी चरम पर रही! इनकी हर फिल्म को देखने का जुनून जो इनके दौर में था, ऐसा कहीं दिखाई नहीं देता! आज की फ़िल्में तो अच्छी कहानी, अच्छे डायरेक्शन, अच्छे संगीत या एक्शन की वजह से ही चलती है! कोई दर्शक सिर्फ कलाकार के प्रति दीवाना होकर फिल्म देखे, ऐसा सुनने में कम ही आता है! आज सलमान खान और आमिर खान जैसे लोकप्रिय अभिनेताओं की फ़िल्में भी फ्लॉप होती है, क्योंकि दर्शक उसमें अच्छी कहानी ढूंढता है!
  सौ साल से ज्यादा पुरानी फिल्म इंडस्ट्री में चार-पाँच ही ऐसे अभिनेता हुए हैं, जिनका अपना स्टारडम था! लेकिन, इनमें भी किसी एक का नाम चुना जाए तो सिर्फ राजेश खन्ना का ही है। उनके प्रति दीवानगी का जो दौर था, वो और किसी अभिनेता की किस्मत में नहीं आया और न शायद आ सकता है! हंसमुख चेहरे, लुभावनी मुस्कान और चंचल शरारतों वाले इस अभिनेता की लड़कियां तो जबरदस्त दीवानी थीं। खून से उन्हें चिट्ठी लिखने और उनकी कार पर लिपस्टिक के दाग के कई किस्से मशहूर हैं। राजेश खन्ना ने अपने दौर जो लोकप्रियता पाई, आज के अभिनेता तो उसकी कल्पना भी नहीं सकते! उन्होंने अपने करियर में लंबे समय तक सुनहरा दौर देखा है। वे अकेले ऐसे अभिनेता हैं, जिन्‍होंने लगातार 16 सुपरहिट फिल्‍में दी! उनका यह रिकॉर्ड बरकरार है।अभी तक कोई और अभिनेता ये कमाल नहीं कर सका! अमिताभ बच्चन भी नहीं, जिन्हें तीन पीढ़ियों का हीरो माना जाता है।
   कहा जाता है कि सफलता के शिखर पर जगह बहुत कम होती है, वहाँ लम्बे समय तक टिके रहना मुश्किल है! यही सब राजेश खन्ना के साथ भी हुआ! यासिर उस्मान की किताब 'राजेश खन्ना: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियाज फर्स्ट सुपरस्टार' में जाने-माने पटकथा लेखक सलीम खान ने कहा था, 'ये जो शोहरत की शराब है, इसका नशा अलग है और बहुत गहरा है. जैसे-जैसे शोहरत बढ़ती है पैसा बढ़ता है यह डबल नशा है। यह नशा अगर ज्‍यादा हो जाए तो कोई भी आदमी लड़खड़ा का गिर सकता है।' ये बात सच भी थी! स्टारडम के नशे ने राजेश खन्ना को बेपरवाह, बदजुबान और घमंडी बना दिया था! वे फ़िल्मी सफलता को चिरस्थाई समझने का भ्रम पाल बैठे थे! यही कारण था, कि जिस तेजी से राजेश खन्ना ऊंचाई पर पहुंचे, उतनी ही तेजी से वे नीचे भी आ गए! फ़िल्मी दुनिया में सफलता के मद का सबसे सटीक उदाहरण राजेश खन्ना ही है और असफलता की गर्त का भी!
  राजेश खन्‍ना ने अपनी फ़िल्मी करियर में कई बेहतरीन फिल्में की! आनंद, कटी पतंग, आराधना, मेरे जीवन साथी, दाग, हाथी मेरे साथी और अमर प्रेम जैसी कई फिल्में उनके फिल्मी सफर के मील का पत्थर हैं। उन्होंने करीब 170 फिल्मों में काम किया। लेकिन, अमिताभ बच्चन के साथ 'नमक हराम' करने के बाद उनका ग्राफ गिरने लगा था। इस फिल्म में अमिताभ उनसे बाजी मार ले गए थे। राजेश खन्ना की अमिताभ से कोई प्रतिद्वंदिता नहीं रही! दोनों की फिल्मों पसंद करने वाले भी अलग थे! राजेश खन्ना रोमांटिक फिल्मों के बेताज बादशाह थे और अमिताभ युवा आक्रोश का प्रतीक! लेकिन, वक़्त ने राजेश खन्ना का साथ नहीं दिया! रोमांस के सामने आक्रोश ने बाजी मार ली और राजेश खन्ना अपनी सफलता की यादों के साथ अकेले रह गए! यही वो कारण था कि वे शराब में डूब गए और सबकुछ गँवा बैठे! जीवन के अंत तक वे उस सफलता को याद करते रहे, जो उनके हाथ से निकल गई थी! उनकी फिल्म 'आनंद' का में एक डॉयलाग था 'बाबू मोशाय, आनंद कभी नहीं मरता ...!' ये बात कुछ हद तक सच भी साबित हुई! राजेश खन्ना आज भी मी‍ठी सी याद की तरह चाहने वालों के दिल में बसे हैं।
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Monday, July 15, 2019

भाजपा की खंडित होती शुचिता और आचरण की मर्यादा!


  राजनीति गंदगी का वो दलदल है, जहाँ बदनामी के छींटे उड़ते रहते हैं! ऐसे में नेताओं का बचे रहना बहुत मुश्किल है। बात सिर्फ चारित्रिक गंदगी की नहीं है! यहाँ बहुत से ऐसे लालच होते हैं, जो व्यक्ति को अपनी तरफ खींचते हैं! कोई धन देखकर अपना ईमान खो देता है! किसी को सुविधाओं के संसाधन भटका देते हैं! लेकिन, सबसे घृणित लालच है चरित्र की राह पर भटक जाना! राजनीति में शुचिता, संस्कार और मर्यादा की सबसे ज्यादा बात भाजपा ही ज्यादा करती रही है। ये जानते हुए भी कि ये संभव नहीं है! देशभर में ऐसी कई घटनाएं हुई जिनसे सामने आया कि भाजपा के नेता भी दूध के धुले नहीं है! आश्चर्य तो इस बात पर कि संघ से भाजपा में आए नेताओं पर सबसे ज्यादा उँगलियाँ उठती है। पार्टी में संगठन मंत्री वप पद है, जिन्हें संघ से पार्टी में लाया जाता है! ताजा मामला उज्जैन का है, जहाँ के भाजपा के संगठन मंत्री प्रदीप जोशी पर एक युवक से समलैंगिक संबंधों का आरोप लगा है। पार्टी ने उन्हें पद से हटा दिया, पर ये समस्या का हल नहीं है! जरुरत है कि इस तरह के अमर्यादित आचरण के कारणों को जानकर उनका स्थाई हल निकालने की! 
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- हेमंत पाल
    भाजपा हमेशा अपनी पार्टी का मूलमंत्र चाल, चरित्र और चेहरा बताती है! दावा करती है कि जो भी पार्टी से जुड़ा है उसका चरित्र बेदाग़ और निष्कलंक है! लेकिन, जिस तरह की घटनाएं बीते कुछ सालों में हुई है, वो इस दावे को सही नहीं बता रही! संजय जोशी कांड के बाद अभी तक ऐसी कई घटनाएं हो चुकी है, जो संघ और भाजपा नेताओं की चारित्रिक कमजोरी की पोल खोलती हैं! उज्जैन भाजपा के संगठन मंत्री प्रदीप जोशी इस श्रृंखला में जुड़ने वाली नई कड़ी है। उनके एक युवक के साथ कथित समलैंगिक संबंधों का वीडियो और अश्लील चैट के सोशल मीडिया पर वायरल होने बाद भूचाल आ गया! आरोप ये भी है कि जिस युवक के साथ प्रदीप जोशी की चैट सामने आई, वो कुछ दिनों से लापता है। आशंका जताई जा रही है कि कहीं बदनामी छुपाने के लिए उसे रास्ते से हटा तो नहीं दिया गया! कांग्रेस ने भी इसे विपक्ष का अंदरुनी विवाद न मानते हुए आपराधिक कृत्य माना है! यदि वास्तव में युवक के लापता होने की खबर सही निकली तो इस पर कार्रवाई हो सकती है। 
    प्रदीप जोशी को पार्टी ने तीन साल पहले दूसरी बार उज्जैन के संगठन मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी थी। संघ से भाजपा में भेजे गए जोशी करीब 18 साल से संभागीय संगठन मंत्री के पद पर काम कर रहे हैं। उज्जैन से पहले वे ग्वालियर में भी इसी पद पर थे। उनके बारे में चर्चित है कि वे अपने आसपास युवकों का जमघट बनाकर रखते हैं और उन्हें हमेशा नैतिकता का पाठ पढ़ाते थे। कार्यकर्ताओं के बीच वे मस्तमौला स्वभाव वाले नेता के रूप में लोकप्रिय रहे हैं। लोकसभा चुनाव के समय जब उनका पालतू कुत्ता खो गया था, तो उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया था। पार्टी के कई कार्यकर्ता शहर की गली-गली में उनके कुत्ते को खोजते रहे! बाद में खुद प्रदीप जोशी ने सोशल मीडिया पर भी अपने दुःख की दास्ताँ लिखी थी! जब उनके कुत्ते को खोज लिया गया, तो उज्जैन में भोज भी हुआ था! पार्टी की कुछ महिला कार्यकर्ताओं ने भी उनकी कथित अश्लील हरकतों को लेकर पार्टी के बड़े नेताओं से उनकी शिकायत की थी। युवक के साथ उजागर हुई अश्लील समलैंगिक चैट से पहले एक महिला के साथ भी उनका वीडियो वायरल होने की चर्चा रही है। उज्जैन से पहले प्रदीप जोशी ग्वालियर संभाग की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं। संभव है कि वहाँ से भी उनकी ऐसी हरकतों की कहानी सामने आए!
   भाजपा का कहना है कि जिसका चरित्र साफ-सुथरा व उजला हो, चेहरा बेदाग हो वही पार्टी की सदस्यता लेने के काबिल है। लेकिन, पार्टी के कुछ चेहरे जिस तरह से सामने आए हैं, वो इस बात पुष्टि नहीं करते! प्रदीप जोशी ने अपनी कथित करतूतों से कई युवा नेताओं और कार्यकर्ताओं की चाल बिगाड़ दी। इस घटना ने उन युवकों का भरोसा भी तोड़ा है, जो राजनीति को गंभीरता से लेते हैं और आगे बढ़ना चाहते थे। अब उनका पार्टी के बड़े नेताओं पर विश्वास बनने में वक़्त लगेगा। क्योंकि, ऐसे नेताओं के सानिध्य में उनका शारीरिक और चारित्रिक शोषण तो होता ही है, उनकी जान पर भी बन आती है। ध्यान देने की बात ये कि सबकुछ सामने आने पर भी पार्टी के बड़े नेताओं मुँह में दही जम गया! ऐसे कई बड़े नेता जो हर मुद्दे पर बयानबाजी करने का मौका नहीं छोड़ते, इस मामले में छुपने की कोशिश कर रहे हैं! जबकि, हाल ही में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ये हिदायत दे चुके हैं कि पार्टी के नेताओं को गलत को गलत कहने से बचना नहीं चाहिए!
  पार्टी में ये पहली और आखरी घटना नहीं है! कई साल पहले गुजरात में पदस्थ पार्टी के नेता संजय जोशी पर भी ऐसे ही आरोप लग चुके हैं! मामला सामने आने पर उन्हें भाजपा से निष्कासित भी कर दिया गया था! इसके बाद मध्यप्रदेश के तत्कालीन वित्त मंत्री राघवजी वाला प्रसंग अभी भी लोग भूले नहीं है। इस मामले में भी ऐसा ही एक वीडियो सामने आया था, जिसमें राघवजी एक युवक के साथ अंतरंग दिखाई दिए थे। पार्टी ने मामले की गंभीरता को समझते हुए उन्हें तत्काल मंत्री पद से हटा दिया था। प्रदीप जोशी को भी पार्टी ने उज्जैन से हटा दिया, पर वे पार्टी में हैं। ऐसे मामले के आरोपी को हटाकर कहीं और भेज देने से ये समझ लेना कि लोग घटना को बिसरा देंगे, गलत है! पहले भी ऐसी घटनाएं हुई है, जिसने भाजपा के चारित्रिक दावों को कलंकित किया है। सवाल यह कि भाजपा और संघ से जुड़े नेताओं को लेकर ऐसी ही लांछित करने वाली घटनाएं क्यों सामने आ रही है! जिस पार्टी की आचार संहिता और पहचान भारतीय संस्कृति, सभ्यता और संस्कार से जुडी रही हो, वहाँ ऐसी घटनाएं उसे नीचे देखने के लिए मजबूर करती है!    
  भाजपा अकेली ऐसी पार्टी है, जो हमेशा अपने सद्चरित्र का दावा करने से नहीं चूकती! ऐसे सद्चरित्र का दावा करने वाली भाजपा के नेताओं पर जब लांछन लगते हैं, तो सवाल उठता है कि क्या भाजपा को अपनी चाल, चरित्र और चेहरे को लेकर ऐसे दावे करना चाहिए? बेहतर हो कि पार्टी को लांछित करने वाली ऐसी घटना के सामने आने के बाद लीपापोती करने के बजाए अपने नेताओं के असली चरित्र को परखे या फिर ऐसे दावों से पीछा छुड़ा ले! इसे विपक्ष पर बदनाम करने की साजिश भी नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, जो हुआ वो जगजाहिर है और उजागर करने वाले भी पार्टी कार्यकर्ता ही हैं! वास्तव में तो भाजपा ने अभी भी प्रदीप जोशी को पार्टी से बाहर नहीं किया है! मामले को जाँच के दायरे में लाकर इंतजार किया जा रहा है कि लोग इस घटना को भूल जाएँ! लेकिन, ये संभव नहीं लगता! क्योंकि, भाजपा में अब ऐसे कांड आम हो रहे हैं। 
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Sunday, July 14, 2019

कभी गुदगुदाती, कभी डराती फिल्मी बरसात

- हेमंत पाल

  हिंदी सिनेमा में बारिश का इस्तेमाल कई मकसद के लिए किया गया है। गीतों में, दृश्यों में अथवा कथानक में मन की भावनाओं को बारिश का सहारा लेकर दिखाया जाता रहा है। प्रेमाग्नि का सुलगना हो, बहकना हो, अकेलापन हो, निराशा का भाव हो या फिर कोई खतरा आया हो! ऐसे दृश्यों को फिल्माने में बारिश की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। राजकपूर की फिल्म 'बरसात' के गीत 'बरसात में हमसे मिले तुम सजन' से शुरू हुआ बरसात का सिलसिला आज भी जारी है। राजकपूर की तो करीब सभी फिल्मों में बरसात के दृश्य देखने को जरूर मिलते हैं। 'बरसात' के बाद आवारा, मेरा नाम जोकर और 'सत्यम शिवम सुंदरम' के बरसाती दृश्य भूलाए नहीं भूलते।
    1969 में आई 'आराधना' में 'रूप तेरा मस्ताना' गीत गाते नायक-नायिका का मिलन होता है। 1973 की फिल्म 'जैसे को तैसा' में 'अब के सावन में जी डरे ...'  गीत के दौरान नायक-नायिका की मुद्राएं आज भी याद है। 1974 की मनोज कुमार की फिल्म 'रोटी, कपड़ा और मकान' में नायिका 'हाय हाय ये मजबूरी' गीत गाते हुए नायक को दो टकिया की नौकरी का ताना देती है। 2007 में प्रदर्शित फिल्म 'लाइफ इन ए मेट्रो' में नायक नायिका के बीच रोमांस इसी बारिश के मौसम में परवान चढ़ता है। नायक, नायिका की पहली मुलाकात के प्यार में बदल जाने के दृश्य दिखाने के लिए भी बारिश का मौसम बड़ा माकूल माना जाता है। 'बरसात की रात' (1960) का सदाबहार गीत 'जिंदगीभर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात' वाले दृश्य के जरिए नायक नायिका को कभी विस्मृत न करने की भावना शिद्दत से दर्शाता है। 
  हिन्दी  फिल्मों के ऐसे दृश्यों की भरमार है, जिनमें नायक-नायिकाओं के मनोभाव प्रकट करने के लिए इसी बारिश का सहारा लिया गया है। 1989 की फिल्म 'चांदनी' में विनोद खन्ना अपनी दिवंगत पत्नी की याद में जो गीत गाता है उसके लिए बारिश की पृष्ठभूमि उपयुक्त लगती है। 1984 की फिल्म 'मशाल' में ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार अपनी घायल पत्नी की मदद के लिए भीगी रात में ही गुहार लगाते हैं। 'कंपनी' (2002) और 'जॉनी गद्दार' (2007) के दृश्यों में काफी खून-खराब था, जिसे फिल्माने के लिए बारिश का सहारा लिया गया था। मनोज कुमार जैसे सदाचारी ने भी 'रोटी कपडा और मकान' और 1981 में आई 'क्रांति' में देह दर्शन के लिए बरसात को माध्यम बनाया था। 
  आमिर खान अपनी फिल्म 'लगान' (2001) में सूखा पीड़ित गांव में भगवान से पानी बरसाने की प्रार्थना के लिए 'घनन घनन घिर आए रे बदरा' गाता है। गाने के खत्म होते-होते नायक-नायिका बारिश में भीगते नजर आते हैं। देवानंद की 1965 में आई 'गाइड' में भी सूखाग्रस्त गांव में पानी बरसाने के लिए सन्यासी से प्रार्थना की जाती है। मानव मन की तमाम भावनाओं जैसे हर्ष, व्यथा, रोमांस, प्रतिशोध, हिंसा को व्यक्त करने के लिए हिंदी फिल्मों में बारिश को सशक्त माध्यम की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। फिल्मों में नायक-नायिकाओं और अन्य चरित्रों, परिस्थितियों और मनोदशाओं को व्यक्त करने के लिए बारिश का सहारा लिया जाता रहा है। अनेक फिल्मों के शहरी पृष्ठभूमि के चरित्र भी बारिश का आनंद लेते दिखाई देते रहे हैं। 1977 की फिल्म 'प्रियतमा' में नीतू सिंह 'छम छम बरसे घटा' और माधुरी दीक्षित 'दिल तो पागल है' (1997) में बच्चों के साथ सड़कों पर नाचते हुए यह गाना 'चक धूम धूम' कुछ ऐसी ही कहानी सुनाते हैं। 1973 की फिल्म 'दाग' में तो लगभग सभी घटनाएं भारी वर्षा के दौरान ही होती है। रहस्यमयी फिल्मों को तो बरसात और भयावह बना देती है। 1964 की फिल्म 'वो कौन थी' में बरसात के बीच रहस्यमयी मुद्रा में साधना पर फिल्माया गीत 'नैना बरसें रिमझिम रिमझिम' कौन भूल सकता है। बलात्कार के दृश्यों को भी बरसात में फिल्माकर कई बार वीभत्स रूप दिया गया है। 1985 में आई 'अर्जुन' में छतरियों की भीड़ में फिल्माया गया मारपीट का दृश्य आज भी याद आता है। अमिताभ पर फिल्माया 'आज रपट जाएं' गीत भी दर्शकों को गुदगुदाने में सफल रहा था।  
  कुछ फिल्मों के शीर्षक भी बरसात पर आधारित रहे। कई फिल्मों में बरसात के प्रतीक सावन को महत्व दिया गया। सावन की घटा, आया सावन झूम के, सावन को आने दो, प्यासा सावन, बरसात, बरसात की एक रात, और बारिश ऐसी ही कुछ फिल्में हैं, जिनके नाम में तो सावन अथवा बरसात है, परंतु उनके कथानक से बारिश का कोई लेना-देना नहीं था। कुछ समय पूर्व अंग्रेजी- हिंदी में बनी मीरा नायर की 'मानसून वेडिंग' की कथावस्तु में जरूर वर्षा का कुछ महत्व था। यह फिल्म भारत में बरसात के मौसम में पंजाबियों की शादी से संबंधित कहानी पर आधारित थी। सबसे मजेदार फिल्म तो 1970 में प्रदर्शित 'सावन भादौ' थी! इसमें न तो सावन की फुहार नजर आई और न भादौ की भारी बरसात! इसके बावजूद फिल्म में रेखा के लावण्य की बरसात ने इसे सफल फिल्मों की सूची में जगह दिलवा दी थी। 
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Tuesday, July 9, 2019

मध्यप्रदेश के विकास के छद्म दावों से झांकती सच्चाई!


  मध्यप्रदेश के विकास के दावे छद्म और झूठे हैं। दिखाने के लिए विकास के नाम पर सड़कें, पुल और पुलिया दिखाई जाती है! जबकि, किसी राज्य का वास्तविक विकास प्रति व्यक्ति आय, गरीबी का अनुपात, ऊर्जा की उपलब्धता, स्वास्थ्य और शिक्षा, कृषि विकास के हालात और राजकोषीय घाटे की स्थिति मानी जाती है। वित्त आयोग की टीम ने मध्यप्रदेश की यात्रा के दौरान ऐसे सारे दावों की भी पोल खोल दी, जिसमें राज्य को बीमारू राज्य से उबरने की बात कही गई थी! आयोग ने भाजपा सरकार के 15 साल के कार्यकाल में हुई उन्नति के दावों को भी खोखला माना! वित्त आयोग के अध्यक्ष की सबसे कड़ी टिप्पणी किसानों की कर्ज माफ़ी को लेकर थी! उन्होंने कहा कि ये स्थाई हल नहीं है! ये प्रयोग पहले भी हो चुका है। किसानों की समस्याओं को हल करने के लिए अन्य विकल्प सोचे जाना चाहिए!
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- हेमंत पाल

    केंद्रीय वित्त आयोग की टीम अध्यक्ष एनके सिंह के नेतृत्व में मध्यप्रदेश आई थी। आयोग ने अपनी समीक्षा में प्रति व्यक्ति आय, कृषि और ऊर्जा के मामले में प्रदेश सरकार की जमकर खिंचाई की! उन्होंने पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के इस दावे की धज्जियाँ उड़ा दी, कि मध्यप्रदेश बीमारू राज्य की स्थिति से उबरकर उन्नति की राह पर है! 15वें वित्त आयोग के आंकड़ों से खुलासा हुआ कि प्रदेश का हर तीसरा व्यक्ति गरीब है। प्रति व्यक्ति आय भी अन्य राज्यों से काफी कम है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति और मानव विकास सूचकांक में भी कमी आई है। वित्त आयोग के अध्यक्ष ने प्रदेश की पिछली भाजपा सरकार के 15 साल के कार्यकाल में हुए राज्य के विकास का लेखा-जोखा भी सामने रखा। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय 90,998 रुपए है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ये औसत 1.26 लाख रुपए है। प्रदेश में गरीबी का अनुपात भी 33% है, जबकि पूरे देश में यह औसत 21% पर है।
  इसका सीधा सा आशय है कि हम देश के कई पिछड़े राज्यों की सूची में भी नीचे की पायदान पर खड़े हैं। कांग्रेस के शासनकाल की यूपीए सरकार के दौरान बनी 'रंगराजन समिति' ने 2014 में शहरों में रोजाना 47 रुपए और गांवों में 32 रुपए से कम खर्च करने वालों को गरीब माना था। इससे पहले 2011 में बनी 'तेंदुलकर समिति' ने शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति रोज 33 रुपए और ग्रामीण क्षेत्रों में रोज 27 रुपए खर्च करने वाले परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर माना था। इसी तरह 'फिस्कल रिस्पांसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट' (एफआरबीएम) के तहत राजकोषीय घाटे पर भी टिप्पणी की गई! कहा गया कि ये घाटा भी 3% से अधिक नहीं होना चाहिए। जबकि, यह 3.2% तक पहुंच गया, लेकिन इसमें कोई दिक्कत नहीं। बिजली के क्षेत्र में घाटा ज्यादा है। ट्रांसमिशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन लाॅस बढ़ गया। इसे कम करने की जरूरत है।
   वित्त आयोग ने प्रदेश के विकास को लेकर कुछ जरूरी सुझाव भी दिए। कहा कि अनुसूचित जाति और जनजाति से जुड़ी योजनाओं में बदलाव की जरुरत है। शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में अभी काफी कुछ सुधार किया जाना है। आयोग के अध्यक्ष ने किसानों की कर्ज माफी के राजनीतिक कारनामे के बारे में कहा कि ये कोई अंतिम विकल्प नहीं है। 2004 में भी सरकार ने किसानों का कर्जमाफ किया था! इस बार भी किया गया है। ये कोई स्थाई समाधान नहीं है! कृषि आय में सब्सिडी व किसानों को सक्षम बनाने से किसानों की समस्याओं का समाधान हो सकता है।
  प्रदेश के दोनों बड़े राजनीतिक दलों ने वित्त आयोग अध्यक्ष को अपने-अपने सुझाव दिए। कांग्रेस की और से कहा गया कि राज्य देश के बाकी प्रदेशों की तुलना में ‘मानव विकास मानकों’ के संदर्भ में चुनौतियों का सामना कर रहा है। राज्य के विकास के लिए सरकार लगातार प्रयास कर रही है! लेकिन, राज्य के पास पर्याप्त राशि नहीं है। प्रदेश के कर्ज लेने की सीमा भी अत्यंत सीमित है। किसानों के लिए विशिष्ट अनुदान राशि उपलब्ध कराई जाए। केंद्र द्वारा आयोजित कोर योजनाओं में फंडिंग पैटर्न भी 80 और 20 प्रतिशत किया जाए। केंद्रीय राजस्व में प्रदेश की हिस्सेदारी भी विकसित राज्यों की तुलना में 10% ज्यादा रखी जाए। प्राकृतिक आपदा के समय किसानों के लिए अलग से कोष बनाए जाने की भी बात की गई! कांग्रेस ने प्रदेश के ‘राइट-टू-वॉटर’ और ‘राइट-टू-हेल्थ’ के लिए विशेष पैकेज की भी मांग की।
  जबकि, भाजपा ने अपने मांग पत्र में करों में राज्य की हिस्सेदारी 42% से बढ़ाकर 50% कर देने का सुझाव दिया। जबकि, आयोग के अध्यक्ष का तर्क है कि वास्तव में अभी भी राज्यों को 51% भुगतान किया जा रहा है। राज्य में वन क्षेत्र और जनजातीय वर्ग अधिक होने का हवाला देते हुए पार्टी ने कहा कि केंद्र को दूरस्थ वनवासी क्षेत्रों के विकास के लिए अलग से राशि का प्रावधान करना चाहिए। पार्टी ने कृषक कल्याणकारी योजनाओं में केंद्र का अंश बढ़ाने और नदियों के जल संरक्षण के लिए अलग से राशि देने की भी जरूरत बताई। पार्टी ने इंदौर और भोपाल के स्वच्छता पायदानों में अव्वल आने का संदर्भ देते हुए स्वच्छता अभियान के लिए अधिक अनुदान पर भी जोर दिया। भाजपा की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वित्त आयोग के अध्यक्ष को ऐसा फार्मूला बनाने का सुझाव दिया, जिससे प्रदेश में गरीबी का उन्मूलन हो सके। कहा गया कि देश में प्राकृतिक संसाधनों पर सभी राज्यों का समान अधिकार है। लेकिन, देखा गया है कि आजादी के बाद कुछ राज्य विकास की दौड़ में काफी आगे निकल गए, कुछ राज्य पिछड़ गए। ऐसे में जरूरी है कि ऐसे राज्यों को भी ढंग से न्याय मिलें। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कई प्राकृतिक संसाधन हैं। लेकिन, राज्यों को पूरा लाभ नहीं मिलता!
 सबसे गंभीर बात ये थी कि वित्त आयोग ने प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के इस दावे को झूठा साबित कर दिया कि मध्यप्रदेश बीमारू राज्य के गर्त से बाहर निकल गया है! 69वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर 15 अगस्त 2015 को की गई उनकी वो घोषणा भी याद आती है, जब उन्होंने कहा था कि राज्य अब हर क्षेत्र में तेजी से विकास करने वाला प्रदेश बन गया है। उन्होंने कहा था कि प्रदेश के माथे से बीमारू प्रदेश का कलंक मिट गया है! उन्होंने कहा था कि अभी तक हमारे प्रदेश की पहचान बीमारू राज्य के रूप में हुआ करती थी, अब ऐसा नहीं रहा। राज्य में आर्थिक विकास दर दहाई पर पहुंच गई और कृषि विकास दर 20% के आसपास है। उन्होंने किसानों के हित के लिए चलाई जा रही परियोजनाओं का जिक्र करते हुए कहा था कि सरकार का लक्ष्य कृषि को फायदे का पेशा बनाना है। इसलिए किसानों को शून्य ब्याज दर पर कर्ज दिया जा रहे है! राज्य सरकार 10% की सब्सिडी भी दे रही है। इसके अलावा सिंचाई की सुविधा में भी इजाफा हुआ है। लेकिन, वित्त आयोग की टीम ने जो आईना दिखाया उसने साबित कर दिया कि मध्यप्रदेश अभी भी बीमारू राज्य की श्रेणी में ही है और विकास के सारे दावे खोखले और झूठे हैं! 
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Saturday, July 6, 2019

फ़िल्मी गीतों के नाम से भरमाते टीवी शो!

- हेमंत पाल 

   हिंदी फिल्मों और टीवी के हिंदी सीरियलों ने एक-दूसरे को लगभग आत्मसात कर लिया है। दोनों कहीं न कहीं आपस में जुड़े नजर आते हैं। सीरियलों की कहानी के विषयों पर फ़िल्में बनती है, तो फ़िल्मी गानों को सीरियलों के नाम की तरह उपयोग किया जा रहा है! सीरियलों के नाम गानों पर क्यों रखे जाते हैं, इसके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है! बस, इससे लोकप्रियता जल्दी मिलने की संभावना रहती है। कई को अपने शो को लाइम लाइट में लाने का सबसे सहज तरीका लगता है। बड़े अच्छे लगते हैं, कुछ तो लोग कहेंगे, एक हजारों में मेरी बहना है, न बोले तुम न मैंने कुछ कहा़, मैं मायके चली जाऊंगी, इस प्यार को क्या नाम दूं, रुक जाना नहीं, थोड़ा है थोड़े की जरूरत है, झिलमिल सितारों का आंगन होगा, तुझ संग प्रीत लागी सजना, पिया का घर प्यारा लगे, एक दूसरे से करते हैं प्यार हम, सपने सुहाने लड़कपन के ऐसे सीरियल हैं जिनके नाम लोकप्रिय फिल्मी गानों पर रचे गए! ये बात अलग है कि सीरियलों की कहानी उनके नाम के अनुरूप नहीं होती!
    टीवी सीरियलों के नाम फ़िल्मी गाने पर होने की वजह से ये दर्शकों की जुबान पर आसानी से चढ़ जाते है। लेकिन, ध्यान देने वाली बात ये भी है कि सीरियल निर्माता उन गानों को सीरियल की कहानी से नहीं जोड़ते! इसकी वजह म्यूजिक राइट्स को माना जाता है। किसी गाने के राइट्स देना या न देना म्यूजिक कंपनी के अधिकार क्षेत्र में होता है। बिना लिखित अनुमति के मूल गाने का उपयोग उल्लंघन माना जाता है। टीवी सीरियल बनाने वाले जल्दबाजी में होते हैं, इसलिए वे राइट्स लेने बजाए उनके रीमिक्स से अपना काम चलाते हैं। फिल्मों के रिमिक्स गीतों ने असल गानों का कितना नुकसान किया है, ये बात किसी से छुपी नहीं है!
  'कुछ तो लोग कहेंगे' की कहानी सीरियल की नायिका पर ही केंद्रित है! 'क्या हुआ तेरा वादा' प्रेम कहानी का त्रिकोण बन जाता है! 'एक हजारों में मेरी बहना है' में प्यारी बहना कहीं नजर नहीं आती! 'झिलमिल सितारों का आंगन होगा' में कहीं कुछ झिलमिल दिखाई नहीं देता! 'बड़े अच्छे लगते हैं' की शुरुआत रोमांटिक लगी थी! मगर, जल्द ही यह अपने नाम से भटककर अलग ट्रैक पर चला गया था। ऐसे कई सीरियल याद किए जा सकते हैं, जिनके नाम के आकर्षण में दर्शक इनके साथ जुड़ते तो हैं, पर जल्दी ही छिटककर दूर भी हो जाते हैं! फिल्मी गानों के नाम से ललचाने वाले सीरियल भी कुछ दिनों में आम सीरियल की तरह दर्शकों को छलावा ही लगते हैं। सीरियलों के नाम ऐसे क्यों होते हैं, इस बारे में एक रोचक तर्क ये भी दिया जाता है कि पुराने यानी 60 और 70 के दशक के फिल्मीं गीतों की लाइनें बहुत लुभाती थीं! ऐसे नाम रखने से दर्शकों का ध्यान उस तरफ जल्दी जाता है।
    टीवी के अरबों के बाजार की टीआरपी में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए सीरियल निर्माता ऐसे कई हथकंडों का सहारा लेने का मौका नहीं चूकते! क्योंकि, वे जानते हैं कि दर्शक ने यदि एक बार नाम के तिलस्म में उलझकर सीरियल देखना शुरू किया तो फिर लगातार जिज्ञासा कारण वो उससे बंधा रहता है! ऐसा बहुत कम होता है कि दर्शक कुछ एपिसोड देखने के बाद सीरियल बदल दे! क्योंकि, यदि वह नए सीरियल की तरफ शिफ्ट होगा, तो उसे नए सिरे से कहानी को समझने की जुगत लगाना पड़ेगी! इस वजह से दर्शक किसी नए सीरियल के साथ गहराई से जुड़ नहीं पाते! 
    सच्चाई ये है कि सीरियल निर्माता एक छलावे को दर्शकों के सामने परोसकर उन्हें अपना शो देखने के लिए ललचाते हैं। जबकि, सजग दर्शक जानते हैं कि इन सीरियलों की कहानी का उनके नाम से कोई वास्ता नहीं होता! फ़िल्मी नामों को महज आकर्षण के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है और ये प्रथा आज भी जारी है। अब इसी तरफ का एक नया नाम 'इशारों इशारों में' सामने आया है! बताया जा रहा है कि ये मूक-बधिर किरदार की कहानी है। वो न तो सुन सकता है और न बोल सकता है! उसका सारा काम मूक-बधिरों की सांकेतिक भाषा से चलता है! इसी भाषा में एक प्रेम कहानी पनपने का भी इशारा है! किसी ऐसे चरित्र पर बने सीरियल के लिए 'इशारों इशारों में' से अच्छा नाम शायद नहीं हो सकता! अब जरा 60 दशक में बनी फिल्म 'कश्मीर की कली' के शम्मी कपूर और सायरा बानो पर फिल्माए गए इस गीत को याद कीजिए!   
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Tuesday, July 2, 2019

शुचिता वाली राजनीति पर अमर्यादित आचरण के छींटे!

   हर राजनीतिक पार्टी की राजनीति की एक शैली होती है, जिससे उसके आचरण का पता चलता है! भाजपा के नेता और कार्यकर्ता जिस तरह से मारपीट की घटनाएं कर रहे हैं, उससे लगता है वे पार्टी संस्कारों से भटक गए! भाजपा के नेता और कार्यकर्ता सत्ता खोने से हताशा में हैं! शायद इसी लिए वे अराजक हो गए! कहीं अधिकारियों को काम करने से रोका जा रहा है! उनको हद में रहने की हिदायत दी जा रही है, तो कहीं उन पर जानलेवा हमले हो रहे हैं। नेताओं के बेटे भी गोलियां चलाने में गुरेज नहीं कर रहे! भाजपा के विधायक से लगाकर सामान्य कार्यकर्ता तक कानून हाथ में लेने से नहीं हिचक रहे! ऐसे में शुचिता वाली राजनीति का दंभ कहाँ गया? पार्टी के नीति-नियंताओ को सोचना होगा उनके नेता, कार्यकर्ता और उनकी शह पर उनके परिजन किस दिशा में जा रहे हैं! 
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हेमंत पाल 

     मध्यप्रदेश में इन दिनों जो हो रहा है, वो भाजपा की राजनीतिक शुचिता वाली शैली तो कदापि नहीं है! पार्टी की रीति-नीति भले ही गांधीवादी नहीं है, पर इतनी हिंसक भी नहीं है कि उसके नेता और कार्यकर्ता  कानून को ठेंगा दिखाएं! कोई क्रिकेट के बल्ले से अधिकारियों के साथ मारपीट कर रहा है, कोई बेसवाॅल के बेट से जानलेवा हमला कर रहा है, तो कोई भरी बैठक में अधिकारियों को धमका रहा है। चौथी बार सत्ता न पाने की हताशा में भाजपा के नेता और कार्यकर्ता हमला करने और धमकी देने से भी बाज नहीं आ रहे! प्रदेश में लगातार डेढ़ दशक तक सत्ता में रही भाजपा की एक पूरी पीढ़ी ने जब होश संभाला, सत्ता की चाशनी का स्वाद लिया! अब, पार्टी सत्ता से बाहर है और अधिकारियों की कामकाज की शैली में जो बदलाव आया है, वो नेताओं और कार्यकर्ताओं को रास नहीं आ रहा! जो अधिकारी उनके इशारों को समझते थे, वही अब उनके निर्देशों को नजर अंदाज कर रहे हैं, तो उन्हें वो तिरस्कार लग रहा है।  इंदौर के एक भाजपा विधायक आकाश विजयवर्गीय राजनीतिक हित साधने के लिए नगर निगम के अधिकारी पर क्रिकेट के बल्ले से हमला कर देते हैं। य घटना तब होती है, जब नगर निगम शहर में चिन्हित 26 अति-खतरनाक मकानों को तोड़ने की कार्रवाई कर रही थी। जब ये टीम एक मकान को तोड़ने पहुंची, तो उनकी बहस आकाश विजयवर्गीय से हो गई। 
  विधायक ने नगर निगम अधिकारियों और कर्मचारियों को 10 मिनट में वहां से निकल जाने को कहा। बाद में विधायक भड़क गए और उन्होंने क्रिकेट के बल्ले से निगम कर्मचारी पर हमला कर दिया। दमोह के भाजपा नेता विवेक अग्रवाल भी क्रिकेट बल्ला लेकर अधिकारी को धमकाने ऑफिस पहुंच जाते है। सतना के रामनगर नगर पंचायत के अध्यक्ष रामसुशील पटेल पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी देवरत्नम सोनी पर बेसवाॅल के बेट जानलेवा हमला करके उन्हें घायल कर देते हैं! केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद पटेल के बेटे और भतीजे सरेआम गोलियां चलाकर भाग जाते हैं। ये किसी राजनीतिक पार्टी के नेताओं के कार्यकर्ताओं के कृत्य तो नहीं है! क्या पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को इस अराजकता को नजर अंदाज करना चाहिए? 
  भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे और इंदौर के विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-3 से विधायक आकाश विजयवर्गीय चार दिन तक पूरे देश में चर्चा में रहे! राजनीतिक रूप से तो हरकत की निंदा हुई, मीडिया ने भी उनके इस कदम को सही नहीं माना! जब चारों तरफ ये खबर सुर्ख़ियों में थी, तभी एक और भाजपा की विधायक महिला लीना जैन ने एक अधिकारी को बैठक में सबके सामने नौकरी नहीं करने देने के लिए धमकाया! गंजबासौदा विधानसभा क्षेत्र की इस विधायक ने आपा खोते हुए अधिकारी को नौकरी नहीं करने देने की खुली धमकी इसलिए दी कि उन्होंने एक कार्यक्रम में कांग्रेस के नेताओं को बुलाया था। उनका ये धमकाने वाला वीडियो भी खूब चला! किसी जनप्रतिनिधि से ऐसे आचरण की उम्मीद नहीं की जाती कि वो अधिकारियों को इस तरह की भाषा में हिदायत दे! कम से कम एक महिला विधायक से तो बिल्कुल नहीं! लेकिन, जब पुरुष विधायक हाथ चलाएंगे तो स्वाभाविक है कि महिला विधायक जुबान तो चला ही सकती है!
    हाल ही में केंद्रीय राज्यमंत्री प्रह्लाद पटेल के बेटे प्रबल पटेल और भतीजे मोनू पटेल और उनके साथियों को एक व्यक्ति को गोली मारने के आरोप में गिरफ्तार किया गया! ये नरसिंहपुर जिले के गोटेगांव इलाके की घटना है। ये उनकी सरेआम गुंडागर्दी थी। पुलिस ने हत्या की कोशिश के मामले में मामला दर्ज किया है। आश्चर्य है कि प्रह्लाद पटेल के भाई और विधायक जालमसिंह पटेल ने अपने बेटे सोनू और भतीजे पर लगे आरोपों को गलत बताया! उनका कहना है कि पुलिस ने उन्हें जबरन फंसाया! जबकि, ये घटना सरेआम हुई! शुरू में पुलिस ने एफआईआर दर्ज करने में ढिलाई बरती। लेकिन, बाद में एफआईआर दर्ज की गई और आरोपियों की गिरफ्तारी के निर्देश दिए गए। सतना नगर पंचायत के मेडिकल ऑफिसर के साथ मारपीट के मामले में भी भाजपा पंचायत अध्यक्ष राम सुशील पटेल को गिरफ्तार किया गया! इस मामले में पुलिस ने दोनों पक्षों के खिलाफ मामला दर्ज किया है। जानलेवा हमले के बाद भी राम पटेल ने दावा किया कि उनके साथ भी मारपीट की गई! जबकि, जो फोटो वायरल हुआ है, उसे देखकर समझा जा सकता है कि किसने किसको मारा होगा! 
     प्रदेश के पूर्व मंत्री और भाजपा विधायक कमल पटेल के बेटे सुदीप पटेल की गुंडगर्दी के तो कई किस्से सुर्ख़ियों में हैं। सुदीप ने लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस नेता सुखराम बामने को अपशब्द कहते हुए धमकाया था! इसका ऑडियो वायरल होने के बाद पुलिस ने प्रकरण दर्ज किया था। वो लम्बे समय से फरार था। पुलिस ने उस पर 25 हजार रुपए का इनाम भी घोषित किया था। आखिर उसे भी गिरफ्तार किया गया। ये सारी घटनाएं संयोग नहीं कही जा सकती! ये भाजपा की कार्यशैली भी नहीं है! तो फिर क्या ये माना जाए कि ये सत्ता खोने की कुंठा है, जो हिंसक रूप में सामने आ रही है? इन सारी घटनाओं में संयोग ये है कि भाजपा नेताओं के कोप का शिकार अधिकारी ही बन रहे हैं! अपनी आदत के मुताबिक जब ये नेता अधिकारियों से अपनी मर्जी के काम करवाना चाहते हैं, और वे नहीं करते तो उनका गुस्सा फट पड़ता है! बेहतर होगा कि पार्टी ऐसे मामलों को गंभीरता से ले और अपने नेताओं को सच्चाई स्वीकारने की सलाह दे कि पार्टी अब विपक्ष में है! इसलिए अपना आचरण भी उसी के अनुरूप ढाल लें!    
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