Saturday, July 6, 2019

फ़िल्मी गीतों के नाम से भरमाते टीवी शो!

- हेमंत पाल 

   हिंदी फिल्मों और टीवी के हिंदी सीरियलों ने एक-दूसरे को लगभग आत्मसात कर लिया है। दोनों कहीं न कहीं आपस में जुड़े नजर आते हैं। सीरियलों की कहानी के विषयों पर फ़िल्में बनती है, तो फ़िल्मी गानों को सीरियलों के नाम की तरह उपयोग किया जा रहा है! सीरियलों के नाम गानों पर क्यों रखे जाते हैं, इसके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है! बस, इससे लोकप्रियता जल्दी मिलने की संभावना रहती है। कई को अपने शो को लाइम लाइट में लाने का सबसे सहज तरीका लगता है। बड़े अच्छे लगते हैं, कुछ तो लोग कहेंगे, एक हजारों में मेरी बहना है, न बोले तुम न मैंने कुछ कहा़, मैं मायके चली जाऊंगी, इस प्यार को क्या नाम दूं, रुक जाना नहीं, थोड़ा है थोड़े की जरूरत है, झिलमिल सितारों का आंगन होगा, तुझ संग प्रीत लागी सजना, पिया का घर प्यारा लगे, एक दूसरे से करते हैं प्यार हम, सपने सुहाने लड़कपन के ऐसे सीरियल हैं जिनके नाम लोकप्रिय फिल्मी गानों पर रचे गए! ये बात अलग है कि सीरियलों की कहानी उनके नाम के अनुरूप नहीं होती!
    टीवी सीरियलों के नाम फ़िल्मी गाने पर होने की वजह से ये दर्शकों की जुबान पर आसानी से चढ़ जाते है। लेकिन, ध्यान देने वाली बात ये भी है कि सीरियल निर्माता उन गानों को सीरियल की कहानी से नहीं जोड़ते! इसकी वजह म्यूजिक राइट्स को माना जाता है। किसी गाने के राइट्स देना या न देना म्यूजिक कंपनी के अधिकार क्षेत्र में होता है। बिना लिखित अनुमति के मूल गाने का उपयोग उल्लंघन माना जाता है। टीवी सीरियल बनाने वाले जल्दबाजी में होते हैं, इसलिए वे राइट्स लेने बजाए उनके रीमिक्स से अपना काम चलाते हैं। फिल्मों के रिमिक्स गीतों ने असल गानों का कितना नुकसान किया है, ये बात किसी से छुपी नहीं है!
  'कुछ तो लोग कहेंगे' की कहानी सीरियल की नायिका पर ही केंद्रित है! 'क्या हुआ तेरा वादा' प्रेम कहानी का त्रिकोण बन जाता है! 'एक हजारों में मेरी बहना है' में प्यारी बहना कहीं नजर नहीं आती! 'झिलमिल सितारों का आंगन होगा' में कहीं कुछ झिलमिल दिखाई नहीं देता! 'बड़े अच्छे लगते हैं' की शुरुआत रोमांटिक लगी थी! मगर, जल्द ही यह अपने नाम से भटककर अलग ट्रैक पर चला गया था। ऐसे कई सीरियल याद किए जा सकते हैं, जिनके नाम के आकर्षण में दर्शक इनके साथ जुड़ते तो हैं, पर जल्दी ही छिटककर दूर भी हो जाते हैं! फिल्मी गानों के नाम से ललचाने वाले सीरियल भी कुछ दिनों में आम सीरियल की तरह दर्शकों को छलावा ही लगते हैं। सीरियलों के नाम ऐसे क्यों होते हैं, इस बारे में एक रोचक तर्क ये भी दिया जाता है कि पुराने यानी 60 और 70 के दशक के फिल्मीं गीतों की लाइनें बहुत लुभाती थीं! ऐसे नाम रखने से दर्शकों का ध्यान उस तरफ जल्दी जाता है।
    टीवी के अरबों के बाजार की टीआरपी में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए सीरियल निर्माता ऐसे कई हथकंडों का सहारा लेने का मौका नहीं चूकते! क्योंकि, वे जानते हैं कि दर्शक ने यदि एक बार नाम के तिलस्म में उलझकर सीरियल देखना शुरू किया तो फिर लगातार जिज्ञासा कारण वो उससे बंधा रहता है! ऐसा बहुत कम होता है कि दर्शक कुछ एपिसोड देखने के बाद सीरियल बदल दे! क्योंकि, यदि वह नए सीरियल की तरफ शिफ्ट होगा, तो उसे नए सिरे से कहानी को समझने की जुगत लगाना पड़ेगी! इस वजह से दर्शक किसी नए सीरियल के साथ गहराई से जुड़ नहीं पाते! 
    सच्चाई ये है कि सीरियल निर्माता एक छलावे को दर्शकों के सामने परोसकर उन्हें अपना शो देखने के लिए ललचाते हैं। जबकि, सजग दर्शक जानते हैं कि इन सीरियलों की कहानी का उनके नाम से कोई वास्ता नहीं होता! फ़िल्मी नामों को महज आकर्षण के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है और ये प्रथा आज भी जारी है। अब इसी तरफ का एक नया नाम 'इशारों इशारों में' सामने आया है! बताया जा रहा है कि ये मूक-बधिर किरदार की कहानी है। वो न तो सुन सकता है और न बोल सकता है! उसका सारा काम मूक-बधिरों की सांकेतिक भाषा से चलता है! इसी भाषा में एक प्रेम कहानी पनपने का भी इशारा है! किसी ऐसे चरित्र पर बने सीरियल के लिए 'इशारों इशारों में' से अच्छा नाम शायद नहीं हो सकता! अब जरा 60 दशक में बनी फिल्म 'कश्मीर की कली' के शम्मी कपूर और सायरा बानो पर फिल्माए गए इस गीत को याद कीजिए!   
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