- हेमंत पाल
हिंदी सिनेमा में बारिश का इस्तेमाल कई मकसद के लिए किया गया है। गीतों में, दृश्यों में अथवा कथानक में मन की भावनाओं को बारिश का सहारा लेकर दिखाया जाता रहा है। प्रेमाग्नि का सुलगना हो, बहकना हो, अकेलापन हो, निराशा का भाव हो या फिर कोई खतरा आया हो! ऐसे दृश्यों को फिल्माने में बारिश की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। राजकपूर की फिल्म 'बरसात' के गीत 'बरसात में हमसे मिले तुम सजन' से शुरू हुआ बरसात का सिलसिला आज भी जारी है। राजकपूर की तो करीब सभी फिल्मों में बरसात के दृश्य देखने को जरूर मिलते हैं। 'बरसात' के बाद आवारा, मेरा नाम जोकर और 'सत्यम शिवम सुंदरम' के बरसाती दृश्य भूलाए नहीं भूलते।
1969 में आई 'आराधना' में 'रूप तेरा मस्ताना' गीत गाते नायक-नायिका का मिलन होता है। 1973 की फिल्म 'जैसे को तैसा' में 'अब के सावन में जी डरे ...' गीत के दौरान नायक-नायिका की मुद्राएं आज भी याद है। 1974 की मनोज कुमार की फिल्म 'रोटी, कपड़ा और मकान' में नायिका 'हाय हाय ये मजबूरी' गीत गाते हुए नायक को दो टकिया की नौकरी का ताना देती है। 2007 में प्रदर्शित फिल्म 'लाइफ इन ए मेट्रो' में नायक नायिका के बीच रोमांस इसी बारिश के मौसम में परवान चढ़ता है। नायक, नायिका की पहली मुलाकात के प्यार में बदल जाने के दृश्य दिखाने के लिए भी बारिश का मौसम बड़ा माकूल माना जाता है। 'बरसात की रात' (1960) का सदाबहार गीत 'जिंदगीभर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात' वाले दृश्य के जरिए नायक नायिका को कभी विस्मृत न करने की भावना शिद्दत से दर्शाता है।
हिन्दी फिल्मों के ऐसे दृश्यों की भरमार है, जिनमें नायक-नायिकाओं के मनोभाव प्रकट करने के लिए इसी बारिश का सहारा लिया गया है। 1989 की फिल्म 'चांदनी' में विनोद खन्ना अपनी दिवंगत पत्नी की याद में जो गीत गाता है उसके लिए बारिश की पृष्ठभूमि उपयुक्त लगती है। 1984 की फिल्म 'मशाल' में ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार अपनी घायल पत्नी की मदद के लिए भीगी रात में ही गुहार लगाते हैं। 'कंपनी' (2002) और 'जॉनी गद्दार' (2007) के दृश्यों में काफी खून-खराब था, जिसे फिल्माने के लिए बारिश का सहारा लिया गया था। मनोज कुमार जैसे सदाचारी ने भी 'रोटी कपडा और मकान' और 1981 में आई 'क्रांति' में देह दर्शन के लिए बरसात को माध्यम बनाया था।
आमिर खान अपनी फिल्म 'लगान' (2001) में सूखा पीड़ित गांव में भगवान से पानी बरसाने की प्रार्थना के लिए 'घनन घनन घिर आए रे बदरा' गाता है। गाने के खत्म होते-होते नायक-नायिका बारिश में भीगते नजर आते हैं। देवानंद की 1965 में आई 'गाइड' में भी सूखाग्रस्त गांव में पानी बरसाने के लिए सन्यासी से प्रार्थना की जाती है। मानव मन की तमाम भावनाओं जैसे हर्ष, व्यथा, रोमांस, प्रतिशोध, हिंसा को व्यक्त करने के लिए हिंदी फिल्मों में बारिश को सशक्त माध्यम की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। फिल्मों में नायक-नायिकाओं और अन्य चरित्रों, परिस्थितियों और मनोदशाओं को व्यक्त करने के लिए बारिश का सहारा लिया जाता रहा है। अनेक फिल्मों के शहरी पृष्ठभूमि के चरित्र भी बारिश का आनंद लेते दिखाई देते रहे हैं। 1977 की फिल्म 'प्रियतमा' में नीतू सिंह 'छम छम बरसे घटा' और माधुरी दीक्षित 'दिल तो पागल है' (1997) में बच्चों के साथ सड़कों पर नाचते हुए यह गाना 'चक धूम धूम' कुछ ऐसी ही कहानी सुनाते हैं। 1973 की फिल्म 'दाग' में तो लगभग सभी घटनाएं भारी वर्षा के दौरान ही होती है। रहस्यमयी फिल्मों को तो बरसात और भयावह बना देती है। 1964 की फिल्म 'वो कौन थी' में बरसात के बीच रहस्यमयी मुद्रा में साधना पर फिल्माया गीत 'नैना बरसें रिमझिम रिमझिम' कौन भूल सकता है। बलात्कार के दृश्यों को भी बरसात में फिल्माकर कई बार वीभत्स रूप दिया गया है। 1985 में आई 'अर्जुन' में छतरियों की भीड़ में फिल्माया गया मारपीट का दृश्य आज भी याद आता है। अमिताभ पर फिल्माया 'आज रपट जाएं' गीत भी दर्शकों को गुदगुदाने में सफल रहा था।
कुछ फिल्मों के शीर्षक भी बरसात पर आधारित रहे। कई फिल्मों में बरसात के प्रतीक सावन को महत्व दिया गया। सावन की घटा, आया सावन झूम के, सावन को आने दो, प्यासा सावन, बरसात, बरसात की एक रात, और बारिश ऐसी ही कुछ फिल्में हैं, जिनके नाम में तो सावन अथवा बरसात है, परंतु उनके कथानक से बारिश का कोई लेना-देना नहीं था। कुछ समय पूर्व अंग्रेजी- हिंदी में बनी मीरा नायर की 'मानसून वेडिंग' की कथावस्तु में जरूर वर्षा का कुछ महत्व था। यह फिल्म भारत में बरसात के मौसम में पंजाबियों की शादी से संबंधित कहानी पर आधारित थी। सबसे मजेदार फिल्म तो 1970 में प्रदर्शित 'सावन भादौ' थी! इसमें न तो सावन की फुहार नजर आई और न भादौ की भारी बरसात! इसके बावजूद फिल्म में रेखा के लावण्य की बरसात ने इसे सफल फिल्मों की सूची में जगह दिलवा दी थी।
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