Monday, April 6, 2020

कोरोना संकट के दौर में उपचुनाव की चुनौती भी कम नहीं!

- हेमंत पाल  

   ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जब अपने राजनीतिक बागियों की फ़ौज के साथ कांग्रेस छोड़ी थी, तब और आज के राजनीतिक हालात में बहुत अंतर आ गया। इसे संयोग कहा जाए या दुर्भाग्य कि कांग्रेस के 22 विधायकों के इस्तीफे से कमलनाथ की सरकार तो गिरी, पर बाद में बनी सरकार भी आकार नहीं ले सकी! शिवराजसिंह चौहान मुख्यमंत्री तो बने, पर सरकार बनना अभी भी बाकी है। इस बीच कोरोना ने राजनीति को इस तरह जकड़ लिया कि परिस्थितियां बदल गई! चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे शिवराजसिंह को आते ही उस चुनौती से जूझना पड़ा, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं थी! अपनी सरकार को बनाए रखने के लिए उन्हें जो फैसले करना थे, वो सब अटक गए! उन्हें प्रदेश में फैलते  कोरोना संक्रमण से तो जूझना ही है, छह महीने में होने वाले 24 सीटों के उपचुनाव (दो सीटें जो पहले से खाली थीं) में भी जीत का परचम लहराना है! सवाल है कि बदले हालात में क्या भाजपा उन 22 विधायकों को उपचुनाव में जीत दिला सकेगी, जो कांग्रेस से भाजपा में आए हैं? क्योंकि, इन बागियों की जीत पहले भी आसान नहीं थी, अब और भी मुश्किल है!
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     मध्यप्रदेश में भाजपा की शिवराज सरकार की वापसी लगता है, सही मुहूर्त में नहीं हुई! जिस समय शिवराजसिंह चौहान राजभवन में शपथ ले रहे थे, कोरोना संक्रमण से बचाव का मास्क उनके गले में लटका था। शपथ लेने के बाद उन्होंने ख़ुशी नहीं मनाई, बल्कि वल्लभ भवन जाकर कोरोना से निपटने के लिए अफसरों के साथ बैठक की और निर्देश दिए। उसके बाद से अभी तक भी हालात सामान्य नहीं हुए कि वे अपना मंत्रिमंडल बना सकें! फिलहाल तो वे अकेले ही कोरोना संकट से जूझ रहे हैं। वो भी ऐसी स्थिति में जब कई अफसर भी कोरोना की चपेट में आ गए। यही कारण है कि कोरोना संक्रमण ने चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह की चुनौतियां चार गुना बढ़ा दी! क्योंकि, ये ऐसी अनजान मुसीबत है, जो दिखाई नहीं देती पर अपना लम्बा असर छोड़ रही है। लॉक डाउन हालात में शिवराजसिंह को कोरोना संक्रमित लोगों के इलाज का इंतजाम तो करना ही है! उन लोगों को भी बचाना है, जो जाने-अनजाने में इसकी चपेट में आ गए हैं। इस बात से इंकार नहीं कि शिवराज सिंह को विपरीत परिस्थितियों में सरकार चलाने और सटीक फैसले लेने का लम्बा अनुभव है! लेकिन, इस संकटकाल के उनके फैसले उनकी भविष्य की राजनीति पर क्या असर डालेंगे, इनका आंकलन भी जरुरी है! वे राजनीतिक हालात को बदलने का अच्छा माद्दा रखते हैं, इसे मानने वाले कम नहीं हैं! किन्तु, अभी के हालात ऐसे नहीं हैं कि वे एक फैसले से सबको खुश कर सकें।  
    शिवराज सिंह की राजनीतिक परिपक्वता के कई किस्से हैं। पहली बार सांसद से सीधे मुख्यमंत्री बनने को भी याद किया जाए, तो लगेगा कि उन्होंने शुरू से ही लोगों को चौंकाया है! किसी भी मंत्रिमंडल में मंत्री बने बिना वे सीधे मुख्यमंत्री बने थे और अब जनता के फैसले को उलटकर बागियों के कंधे पर सवार होकर चौथी बार सत्ता की सवारी कर ली। उनके कामकाज की शैली भी ऐसी है, कि वे नए राजनीतिक आइडिए उछालकर जनता को अपने पाले में ले आते हैं। लेकिन, अभी के जो हालात हैं, वो शायद उनके राजनीतिक जीवन का सबसे संकटकालीन समय है। मुख्यमंत्री बनने के साथ ही उनके सामने जो चुनौतियाँ आई, उन्हें कुशलता से उन्हें निपटाना ही होगा! वास्तव में ये उनकी अग्नि परीक्षा है, जिससे उन्हें अकेले ही जूझना है। कोरोना से निपटने के अलावा उन्हें उपचुनाव में जीत का भी माहौल बनाना है।   
     कांग्रेस के एक धड़े के मुखिया रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस से बगावत करने वाले 22 बागी विधायक प्रदेश के 14 जिलों से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। इनमें मुरैना से 4, ग्वालियर से 3, अशोक नगर, शिवपुरी और भिंड से 2-2 हैं। इनके अलावा दतिया, देवास, रायसेन, इंदौर, गुना, सागर, मंदसौर, अनूपपुर और धार जिले से 1-1 हैं। ये विधायक लोकसभा की 11 सीटों पर असर डालते हैं। इनमें करीब 15-16 विधायक ऐसे हैं, जो ज्योतिरादित्य सिंधिया के इलाके ग्वालियर-चंबल इलाके से जीतकर विधानसभा में पहुंचे थे! लेकिन, पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी लहर के बावजूद इनमें से गिने-चुने विधायक ही ऐसे हैं, जो बड़े अंतर चुनाव जीते! पार्टी बदल के बाद अब वहाँ उपचुनाव में कोई बड़ा चमत्कार हो जाएगा, फिलहाल तो ऐसा दिखाई नहीं दे रहा! बल्कि, कोरोना संक्रमण से हुए लॉक डाउन और कुछ शहरों में कर्फ्यू लगने से हुई सख्ती से लोगों की सरकार और प्रशासन के प्रति नाराजी बढ़ी है! देखा गया है कि जब भी कहीं प्रशासन को कानून व्यवस्था के नजरिए से अपना रवैया सख्त करना पड़ता है, लोग इसके पीछे सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं! इस बार भी यही होगा और ये कहीं न कहीं उपचुनाव पर असर भी डालेगा!   
     ग्वालियर-चम्बल इलाके की जिन 15-16 सीटों पर कांग्रेस के विधायकों ने बगावत की है, वहां एक बड़ा राजनीतिक खतरा वो मजदूर वर्ग भी है, जो दिल्ली, नोयडा और गुरुग्राम से पैदल चलकर अपने घर लौटे हैं। इस इलाके के ज्यादातर मजदूर दिल्ली और उसके आसपास ही दिहाड़ी मजदूरी करने जाते हैं! कोरोना संक्रमण के कारण देशभर में हुए लॉक डाउन ने इन्हें बेरोजगार कर दिया और इन्हें रातों-रात अपने घर छोड़कर पैदल ही भागना पड़ा! ये लोग जिस मुसीबत से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर आए हैं, वो सारी नाराजी अब सरकार को झेलना पड़ेगी! परिस्थितियां चाहे जो हों, लेकिन जनता की नाराजी का गुस्सा तो सरकार पर ही फूटता है! भाजपा के लिए मुसीबत ये भी है कि लॉक डाउन के कारण वे जनता को समझा भी नहीं सकते! अब इसे बदकिस्मती ही कहा जाना चाहिए कि जो गाज कमलनाथ सरकार पर गिरना थी, वो नई नवेली शिवराज सरकार पर गिरी। 
    कांग्रेस के 22 बागी विधायकों में से 10 पहली बार विधानसभा पहुंचे हैं। ये हैं रघुराजसिंह कंसाना, कमलेश जाटव, रक्षा सरोनिया, मनोज चौधरी, जजपाल सिंह जज्जी, सुरेश धाकड़, ओपीएस भदौरिया, गिरराज दंडौतिया, जसमंत जटावे और मुन्नालाल गोयल। जबकि, महेंद्र सिंह सिसौदिया, रनवीर जाटव, हरदीप सिंह डंग और ब्रजेंद्र सिंह यादव दूसरी बार विधायक बने थे। प्रद्युम्न सिंह तोमर, इमरती देवी, प्रभुराम चौधरी, गोविंद सिंह राजपूत और राजवर्धन सिंह को जनता ने तीसरी बार विधायक बनाया था। चौथी बार विधायक बनने वाले तुलसी सिलावट और एदल सिंह कंसाना ही थे। जबकि, बिसाहूलाल सिंह अकेले ऐसे विधायक हैं, जो पांचवी बार चुने गए थे। अब इनमें से कितने फिर उपचुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचेंगे, इस बात का दावा मुश्किल हो गया है।  
    सिंधिया समर्थक 22 बागी विधायक जिन विधानसभा सीटों से 2018 में चुनाव जीते थे, उनमें से 20 सीटें ऐसी हैं, जहाँ भाजपा उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे थे। इनमें से 11 सीटों पर हार-जीत का अंतर बहुत कम था। सरसरी तौर पर कहा जाए तो 22 बागी विधायकों ने औसतन मात्र 15% वोटों के अंतर से ही जीत दर्ज की थी। सबसे ज्यादा 57,446 वोटों से जीतने वाली डबरा सीट की विधायक इमरती देवी ही थीं। जबकि, सुवासरा के बागी विधायक हरदीपसिंह डंग तो मात्र 350 वोटों से विधानसभा चुनाव जीते थे। ऐसे में यदि भाजपा ने सभी कांग्रेसी बागियों को उपचुनाव में टिकट दिए, तो कई सीटों पर भाजपा में विद्रोह के हालात बन सकते हैं। ये भी संभव है, कि भाजपा के पूर्व उम्मीदवार मैदान में उतर जाएं। क्योंकि, यदि उन्होंने बागी कांग्रेसियों को चुनाव जिताने में मदद की, तो उनकी बरसों की राजनीति हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगी। भाजपा के जो नेता इस बार इन सीटों से उपचुनाव नहीं लड़ पाएंगे, तो वो कभी ऐसा नहीं चाहेंगे कि उनके वोट उस नेता को मिले, जो उनके खिलाफ पिछला चुनाव लड़कर जीता था। 
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