इसे संयोग कहें या वक़्त का फेर, जो भी माना जाए! पर, इन दिनों प्रदेश का भाजपा संगठन अजीब मुसीबत में फंसा है! वो जो भी फैसला करता है, उस पर उंगलियां उठने लगती है। मामला चाहे 22 सिंधिया समर्थकों को उपचुनाव में टिकट देने का हो या 24 नए जिला अध्यक्ष बनाने का! दोनों फैसलों में विरोध के सुर सामने आए! फ़िलहाल उभरे विरोध को भले दबा दिया गया हो, पर इसे हमेशा के लिए ख़त्म नहीं माना जा सकता। नए जिला अध्यक्षों की घोषणा के बाद पुराने नेता जिस तरह उखड़ पड़े, उससे संगठन की कड़ियों के कमजोर होने का अहसास होने लगा! इंदौर और ग्वालियर में तो विरोध मुखर होकर सामने भी आ गया। ऐसे ही सभी सिंधिया समर्थकों को उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार बनाने को लेकर भी पार्टी में अंदर जो असंतोष उभरा है, वो भी गंभीर मामला है। ये ऐसा असंतोष है, जो पार्टी के दिशा-निर्देशों की अनदेखी करके खदबदाकर बाहर निकल आए तो आश्चर्य नहीं!
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- हेमंत पाल
भाजपा संगठन के काम करने की अपनी शैली है। राष्ट्रीय स्तर से प्रदेश स्तर तक संगठन का पार्टी के नेताओं पर भारी दबदबा है। इस सर्वशक्तिमान संगठन के फैसलों पर न तो कोई टिप्पणी करने की हिम्मत करता है और न किसी दबाव में कभी फैसलों को बदला जाता है। अब तक यही होता आया है, इसलिए समझा जाता है कि संगठन जो कहे, वो हमेशा सही होता है! लेकिन, लगता है अब अनुशासन की ये दीवार दरकने लगी और विरोध और असंतोष के सुर अंदर तक गूंजने लगे। पार्टी के नेता अब अनुशासन की मुंडेर लांघकर संगठन के आँगन में भी अपनी बात कहने में संकोच नहीं करते! उनकी बात सुनी जाए या नहीं, पर उनके सुर अब इतने मुखर तो होने लगे कि उसे विरोध कहा जाने लगा है! हाल ही में दो ऐसे मामले सामने आए जिनमें नेताओं ने संगठन को उसकी हैसियत का अंदाजा करवा दिया।
पहला मामला 24 नए जिला अध्यक्षों की नियुक्ति को लेकर था, जिसे लेकर खुला विरोध किया गया। दो बड़े शहरों इंदौर और ग्वालियर में तो विरोध की स्थिति ये रही कि बड़े नेताओं ने खुलकर बयानबाजी की। इंदौर में गौरव रणदिवे के नगर अध्यक्ष बनने के बाद अलग-अलग कोनों से विरोध का सिलसिला चला। उधर, ग्वालियर में नव नियुक्त अध्यक्ष कमल माखीजानी को लेकर पार्टी के कई बड़े नेताओं ने विरोध के झंडे उठा लिए। सांसद विवेक शेजवलकर के करीबी कमल माखीजानी को ग्वालियर का भाजपा जिला अध्यक्ष बनाए जाने पर पार्टी का एक गुट खुलकर सामने आ गया। ये बात अलग है कि बाद में ग्वालियर के इन नेताओं और कार्यकताओं को अनुशासन के नाम पर डरा-धमकाकर माफीनामा लिखवा लिया गया! पर, सभी जानते हैं कि ये विरोध को झाड़कर जाजम के नीचे करने की फौरी कार्रवाई है। उनके दिलों में विरोध का उबाल तो आज भी है, जो अब वक़्त आने पर बाहर भी निकलेगा।
इस विरोध की इंदौर में शुरुआत हुई नगर अध्यक्ष की दौड़ में सबसे आगे रहे पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता उमेश शर्मा के दुख जाहिर करने से। वे लम्बे समय से नगर अध्यक्ष की दौड़ में थे और उम्मीद लगाए थे कि पार्टी भी उनके दावे को नजरअंदाज नहीं करेगी! लेकिन, गौरव रणदिवे ने उनको पछाड़ दिया। इसके बाद भाजपा के बड़े नेता और पहले नगर अध्यक्ष रहे भंवरसिंह शेखावत ने गौरव रणदिवे को लेकर मोर्चा खोला। शेखावत ने रणदिवे को नौसिखिया नेता तक कहा! उनका कहना सही भी था, कि उनके पास पर्याप्त राजनीतिक अनुभव नहीं है! शेखावत ने शहर के कई नेताओं के इस विरोध में साथ होने की बात भी कही। उनकी इस बात में दम है कि रणदिवे भाजपा में कभी किसी पद पर नहीं रहे। वे सिर्फ एनएसयूआई कार्यकर्ता थे। बाद में पूर्व विधायक सत्यनारायण सत्तन ने भी शेखावत का साथ देते हुए रणदिवे की नियुक्ति पर टिप्पणी की! पर, हमेशा की तरह बाद में वे पलटी मार गए कि मेरी बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। सत्तन ये पहले भी कई बार कर चुके हैं।
गौरण रणदिवे भले अपने राजनीतिक गणित से इंदौर के नगर अध्यक्ष बनने में कामयाब हो गए हों, पर इसके लिए उन्हें बहुत से पापड़ बेलने पड़े। पार्टी के प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत पहले रणदिवे को युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनवाने की कोशिश में थे। किंतु, जब वे इस कोशिश में सफल नहीं हुए, तो नगर भाजपा अध्यक्ष बनवा दिया। क्योंकि, युवा मोर्चा के अध्यक्ष के मामले में प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा सहमत नहीं थे। पार्टी में यह भी चर्चा में है कि प्रदेश अध्यक्ष और गौरव रणदीवे की पटरी नहीं बैठती! दोनों पहले विद्यार्थी परिषद् में साथ काम कर चुके हैं। उसी समय दोनों के बीच किसी मुद्दे पर ठन गई थी। इसके बाद से ही दोनों में संबंध मधुर नहीं हैं। जानकारों का ये भी कहना है कि सुहास भगत से भी रणदिवे के रिश्ते बहुत पुराने नहीं है। दो-तीन साल में गौरव ने सुहास भगत से नजदीकी बनाई है। इसका एक बड़ा कारण दोनों का मराठी होना भी समझा जा रहा है।
उधर, ग्वालियर का किस्सा भी इससे अलग नहीं है। वहां के जो नेता सांसद गुट से अलग हैं, उन्होंने कमल माखीजानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
ग्वालियर में पार्टी के 37 बड़े नेताओं ने बकायदा बैठक करके जिला अध्यक्ष बनाए गए कमल माखीजानी का न केवल विरोध किया बल्कि राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखकर सुहास भगत पर गंभीर आरोप भी लगाए।
उनका कहना जिला अध्यक्ष के तौर पर माखीजानी किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं हैं। बाद में संभागीय संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी ने इन लोगों से बात कर समझाने कि कोशिश भी की। भाजपा नेता जयसिंह कुशवाह का कहना सही है कि विरोध कमल माखीजानी की नियुक्ति के तरीके का है। इस पद पर नियुक्ति सहमति से होनी चाहिए, किसी को थोपा जाना गलत है। लेकिन, बाद में विरोध करने वालों को डराकर चुप करा दिया गया। सुहास भगत पर आरोप लगाने वालों को पार्टी से निकालने की धमकी दी तो 37 में से 5 नेताओं ने पत्र लिखकर सुहास भगत पर लगाए गए आरोपों पर खेद व्यक्त कर दिया।
इंदौर और ग्वालियर में उठा विरोध तो सतह पर आ गया, पर कई जिलों में विरोध का लावा खदबदा रहा है। धार में जिस राजू यादव को जिला अध्यक्ष बनाया गया, उसे भी बड़े नेता पचा नहीं पा रहे हैं। जिले में पार्टी के बड़े नेताओं की कमी नहीं है, पर संगठन ने एक ऐसे नेता को कमान सौंप दी, जिसकी अपनी कोई छवि नहीं है। राजू यादव के विरोध का एक संकेत ये भी है कि पार्टी के नेताओं ने उसे औपचारिक बधाई तक नहीं दी। इसके अलावा कुछ और जिलों में भी युवा चेहरे के नाम पर थोपे गए अध्यक्षों का मूक विरोध शुरू हो गया। संगठन ने इस बात को महसूस भी किया कि 24 नवनियुक्त जिला अध्यक्षों को लेकर पार्टी में असंतोष है। इन नियुक्तियों को लेकर शिकायतों के दौर चल रहे हैं। अधिकांश में जिलों प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत को लेकर नाराजी है। प्रदेश के प्रभारी उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे ने इन जिला अध्यक्षों की नियुक्तियों की समीक्षा के लिए एक टीम बनाई और बाद में इससे इंकार भी कर दिया।
भाजपा संगठन के खिलाफ विरोध का झंडा उठाने का दूसरा मामला हाटपिपल्या के पूर्व विधायक दीपक जोशी के बयान का है। उन्होंने कांग्रेस के बागी और अब उपचुनाव में भाजपा के टिकट के दावेदार मनोज चौधरी को लेकर पिछले दिनों खुला विरोध किया। उन्होंने पार्टी को एक तरह से चेतावनी दी कि 'उनके पास सारे विकल्प खुले हुए हैं।' दीपक जोशी की बात जब संगठन तक पहुंची, तो आनन-फानन में उन्हें तलब कर माफ़ी मंगवाई गई! मज़बूरी में उन्होंने भले अपने कदम पीछे खींचे हों, पर उनके दिल में जो मलाल है, पार्टी उसे कैसे दूर करेगी! ये स्थिति सिर्फ दीपक जोशी की नहीं, उन 22 विधानसभा क्षेत्रों में पिछला विधानसभा चुनाव हारे उन सभी भाजपा उम्मीदवारों की है, जहाँ से अब कांग्रेस के बागी भाजपा के निशान पर उपचुनाव लड़ेंगे! दीपक जोशी को सिर्फ उस विरोध का प्रतीक माना जा सकता है! संभव है कि उपचुनाव में 'दूसरे विकल्प' का रास्ता 22 में से कई भाजपा नेता अपनाएं! अभी इंतजार कीजिए आने वाले 3 महीनों में बहुत कुछ ऐसा होगा, जो भाजपा संगठन ने सोचा भी नहीं होगा!
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