Saturday, October 31, 2020

नफरत की राख में दबी मोहब्बत के दो दशक

- हेमंत पाल

  हर साल सैकड़ों फ़िल्में आती हैं और कुछ दिन बाद अपना जलवा दिखाकर परदे से उतर जाती हैं! बाद में कोई उन्हें याद भी नहीं करता! पर, हिंदी फिल्म इतिहास के सौ से ज्यादा सालों में ऐसी फ़िल्में भी हैं, जो मील के पत्थर की तरह यादों की जमीन पर टिकी हुई हैं! मुगले-आजम, मदर इंडिया, शोले, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे और 'मोहब्बतें' को ऐसी ही फिल्मों में गिना जा सकता है, जो अपने अनोखे कथानक, अदाकारी, निर्देशन और संगीत के लिए कालजयी बन गईं! सिनेमा की दुनिया में ये फ़िल्में सफलता का ऐसा पैमाना बन गईं, जिनसे दूसरी फिल्मों का मूल्यांकन किया जाता है। रोमांटिक कहानी, मधुर संगीत और सशक्त अभिनय के मामले में 'मोहब्बतें' ऐसी ही फिल्म थी। हाल ही में इस फिल्म ने अपनी रिलीज के दो दशक पूरे किए हैं। ये कई मायनों में याद की जाने वाली फिल्म भी है।
  अभी तक प्रेम कहानियों पर कई फ़िल्में बनाई गई! बल्कि, ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि सबसे ज्यादा फ़िल्में ही ऐसी कहानियों पर बनी, जो प्रेम के इर्द-गिर्द घूमती रहीं! ‘मोहब्बतें’ का कथानक भी युवा प्रेम और एक सख्त प्राचार्य के प्रेम के प्रति नफरत पर केंद्रित था। इस फिल्म को खास तौर पर दो बातों के लिए याद किया जाता है! एक, अमिताभ बच्चन का नारायण शंकर वाला किरदार और दूसरा एक साथ छह नए कलाकारों का परदे पर आना। अमिताभ बच्चन खुद भी अपने किरदार को कई मायनों में स्पेशल मानते हैं। उन्होंने फिल्म को याद करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा भी है 'परंपरा, प्रतिष्ठा, अनुशासन' मेरे लिए कई वजहों से खास है। इस खूबसूरत प्रेम कहानी और इमोशन्स के रोलर कोस्टर के 20 साल। आपके द्वारा जाहिर किए गए प्यार के प्रति तहे दिल से आभारी हूं।' 'मोहब्बतें' ही वो पहली फिल्म थी, जिसमें अमिताभ ने हीरो के किरदार को तिलांजलि देते हुए चरित्र भूमिकाओं की शुरुआत की थी! इस फिल्म से उदय चोपड़ा, शमिता शेट्टी, प्रीति झंगियानी और किम शर्मा का एक्टिंग का करियर शुरू हुआ था! जबकि, जिमी शेरगिल और जुगल हंसराज के अभिनय को ऊंचाई मिली।         अमिताभ 6 साल तक फिल्मों से दूर रहे थे। वापसी के बाद उन्होंने मृत्युदाता, बड़े मियां छोटे मियां और 'कोहराम' जैसी दोयम दर्जे की फ़िल्में की! पर, उन्हें वो पहचान नहीं मिली, जो उन्हें 80 और 90 के दशक में जंजीर, दीवार, शोले और 'सिलसिला' ने दी थी। लेकिन, 27 अक्टूबर 2000 को रिलीज 'मोहब्बतें' के बाद उनके करियर को नया जीवन मिला। इसमें अमिताभ और शाहरुख खान पहली बार साथ आए थे। फिल्म में अमिताभ ने 'गुरुकुल' नाम के कॉलेज के सख्त प्राचार्य नारायण शंकर की भूमिका निभाई, जिसे काफी पसंद किया गया। नारायण शंकर को सख्त मिजाज प्राचार्य बताया गया, जो परंपरा और अनुशासन पर जोर देकर अपने छात्रों को पढ़ाना अच्छा मानते हैं। उन्होंने अपने छात्रों को किसी भी तरह के प्रेम से भी मना कर रखा था। जो भी ऐसा करता पाया जाता, उसे निष्कासित कर दिया जाता है। उनकी इस सख्ती के पीछे भी एक कहानी छुपी होती है। 
    फिल्म में बहुत कुछ ऐसा था, जो यादगार रहा। फिल्म के शमिता शेट्टी और किम शर्मा के रोल वास्तव में करिश्मा कपूर और काजोल को सोचकर लिखे गए थे। लेकिन, दोनों ने मना कर दिया था। अमिताभ के अपोजिट एक भूमिका श्रीदेवी के लिए भी लिखी गई थी। लेकिन, श्रीदेवी के इंकार के बाद इसे कहानी से ही निकाल दिया गया। मिथुन चक्रवर्ती भी इस फिल्म में छोटा सा रोल करने वाले थे। उनकी भूमिका शेफाली शाह के पति के रूप में थी, पर इस भूमिका के चलते फिल्म की लंबाई ज्यादा बढ़ रही थी, तो उसे भी काट दिया गया। उदय चोपड़ा अपने अपोजिट रिंकी खन्ना को लेना चाहते थे। लेकिन, आदित्य चोपड़ा का कहना था कि उन्हें किसी नई एक्ट्रेस के साथ लांच किया जाना ही ठीक होगा। जितना इस फिल्म को पसंद किया जाता है, उतना ही इसके संगीत को भी लोगों ने पसंद किया था। जतिन-ललित के संगीत में फिल्म में करीब 9 गाने थे। लता मंगेशकर और उदित नारायण ने इन्हें आवाज दी और फिल्म के सभी गाने पसंद किए गए! इसका होली गीत तो आज भी अकसर होली पर सुनाई दे जाता है।  
  'मोहब्बतें' से पहले अमिताभ बच्चन अपने करियर को लेकर काफी मुश्किलों का सामना कर रहे थे। उनका प्रोडक्शन हाउस 'एबीसीएल' भी घाटे में चला गया था, जिससे न सिर्फ उनकी इमेज खराब हुई बल्कि उन्हें आर्थिक नुकसान का भी सामना करना पड़ा! यही वो समय था, जब यश चोपड़ा ने अमिताभ को अपने प्रोडक्शन की आने वाली इस फिल्म के बारे में बताया और वे राजी भी हो गए! 'मोहब्बतें' से अमिताभ ने अपनी 'हीरो' वाली इमेज को छोड़ा और एक ऐसे उम्रदराज व्यक्ति का रोल निभाया, जिसे मोहब्बत से नफरत थी। दो पीढ़ियों के अंतर्द्वंद में फँसी ये फिल्म आलोचनात्मक और व्यावसायिक दोनों मोर्चों पर सफल रही थी। लेकिन, आज फिल्म को एक सफल प्रेम कहानी के रूप में याद किया जाता है।    
----------------------------------------------------------------------------------------

Tuesday, October 27, 2020

'महाराज' किस बात पर इतना खफा!

   मध्यप्रदेश में हो रहे उपचुनाव के केंद्र बिंदू ज्योतिरादित्य सिंधिया इन दिनों बेहद गुस्से में हैं। इतना गुस्सा हैं कि देखने वाले भी आश्चर्य कर रहे हैं। ये पहली बार हो रहा कि इस भद्र राजनेता को इतना गुस्से में देखा गया! सामान्यतः वे सहजता से भाषण देते हैं! चुनाव प्रचार के मंच पर वैसे उनकी भाव भंगिमाएं जरूर बदलती देखी गईं! उनके भाषण के क्लाइमेक्स तक पहुँचते-पहुँचते उनकी आवाज अकसर तेज हो जाती है! ये हमेशा होता है, लेकिन इन दिनों वे कुछ ज्यादा ही उत्तेजना में हैं। बोलते-बोलते उनका गुस्सा इतना उग्र हो जाता है कि वे आपा खो रहे हैं! ये सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या आखिर उन्हें इतना गुस्सा क्यों आ रहा! छाती ठोंकने वाला उनका ये अंदाज क्या दर्शा रहा है! वास्तव में 'महाराज' की ये उग्रता कांग्रेस के खिलाफ है या भाजपा के! कांग्रेस पर उनका गुस्सा स्वाभाविक है, पर यदि ये भाजपा पर नाराजी है, तो उसके भी कारण बताए जा रहे हैं।   
000 

- हेमंत पाल
 
   सोशल मीडिया पर इन दिनों उपचुनाव के कई रंग नजर आ रहे हैं! इसी माहौल में लोगों को ज्योतिरादित्य सिंधिया के कुछ आक्रामक वीडियो दिखाई दिए! मंच पर भाषण देते सिंधिया उर्फ़ 'महाराज' आपा खोते नजर आ रहे हैं। कभी वे अपनी छाती जोर-जोर से ठोंकते हैं तो कभी पोडियम पर मुक्के मारते हैं। ऐसा करते समय उनकी आँखे बड़ी हो जाती है। आवाज में जबरदस्त तेजी आ जाती है। उनकी आवाज इतनी तेज होती है, कि चुनाव सभा की भीड़ में भी सन्नाटा छा जाता है। लोगों को पहली बार उनका ये गुस्सा दिखाई दिया। डबरा के छिमक गाँव में एक चुनावी सभा में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ की इमरती देवी पर की गई 'आइटम' वाली टिप्पणी के बाद तो ज्योतिरादित्य सिंधिया बुरी तरह बिफर गए! उन्होंने मंच से इमरती देवी के अपमान को बदला लेने और सबक सिखाने की चुनौती मतदाताओं को बिल्कुल फ़िल्मी अंदाज में दी। सिंधिया ने अपना जो तेवर दिखाया, वो उनका नया रूप था। इमरती देवी भी सिंधिया की आत्मीयता से इतनी भाव-विभोर हो गई कि आँसू पोंछने लगी। जब इमरती देवी मंच पर सुबकने लगी तो सिंधिया ने उन्हें संभालते और गले लगाते नजर आए! बोले कि डबरा का ये चुनाव इमरती देवी नहीं मैं लड़ रहा हूं! लोगों को 'महाराज' पहले कभी चुनावी मंच पर इतने गुस्से में नहीं दिखे।
     इसके बाद ग्वालियर (पूर्व) सीट पर भाजपा उम्मीदवार और अपनी बगावती टीम के सदस्य मुन्नालाल गोयल के समर्थन में हुई सभा में भी उनका ऐसा ही आक्रामक रूप लोगों ने देखा। यहां भी कांग्रेस और कमलनाथ सरकार पर हमला बोलते हुए उन्होंने अपने भाषण में आँखे चौड़ी की, छाती ठोंकी और कमलनाथ और कांग्रेस को धमकाया! इस जबरदस्त परफॉमेंस वाले दृश्यों ने मतदाताओं को कितना प्रभावित किया, ये तो बाद में पता चलेगा! लेकिन, सिंधिया के इस गुस्से के और भी मंतव्य ढूंढे जा रहे हैं। सिंधिया के ऐसे तेवर ने उपचुनाव के प्रचार में आखिरी हफ्ते में सियासी पारा काफी ऊपर चढ़ा दिया। गुस्से के पीछे के कारण ढूंढने और 'महाराज' की राजनीति को नजदीक से समझने वालों का मानना है, कि चुनावी भाषणों की बातों से अमूमन वे इतना नहीं बिफरते! इसके पीछे कोई और कारण है, जो उन्होंने आपा खोया! यह भी हो सकता है भाजपा के किसी व्यवहार ने उन्हें इस गुस्से के लिए मजबूर किया हो! 
    कांग्रेस के नेता और ग्वालियर-चंबल इलाके के मीडिया प्रभारी केके मिश्रा का कहना है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया का ये गुस्सा इमरती देवी पर की गई कथित टिप्पणी को लेकर नहीं है। बल्कि वे भाजपा के पोस्टरों, होर्डिग्स और प्रचार वाहनों से खुद के फोटो गायब होने को लेकर ज्यादा खफा हैं। भाजपा ने जिस तरह उन्हें अकेला छोड़ दिया, वे उसे सहन नहीं कर पा रहे! ये बात गलत भी नहीं है। लोगों ने इस बात को महसूस किया कि प्रचार के इस दौर में ज्योतिरादित्य अकेले पड़ गए। कई चुनाव सभाएं उन्हें अकेले ही करना पड़ रही है। संभव है, ये गुस्सा ऐसे ही कारणों की कोख से जन्मा हो! लेकिन, मंच पर डॉयलॉग के साथ सिंधिया का कभी छाती और कभी पोडियम ठोंकना मतदाताओं को आकर्षित कर रहा है! यही कारण हैं कि उनके वीडियो हर सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। वे यह कहना भी नहीं भूलते कि मुझमें बड़े महाराज का खून है, अगर कोई किसानों, महिलाओं और नौजवानों के साथ गद्दारी करेगा, तो सिंधिया उसे मैदान में आकर धूल चटाएगा। निश्चित रूप से उनकी ये टिप्पणी कमलनाथ की तरफ है। 
    ग्वालियर-चंबल इलाके की 16 सीटों पर हो रहे चुनाव प्रचार में मतदाता पहली बार ज्योतिरादित्य सिंधिया का ये जोशीला अंदाज और नई शैली का भाषण देख और सुन रहे हैं। ख़ास बात ये भी है कि वे कई मंचों से भाजपा को छोड़ सिंधिया घराने से लोगों के पुराने संबंधों का हवाला देते हुए अपने समर्थक उम्मीदवार को वोट देने की अपील कर रहे हैं। वे चिल्ला-चिल्लाकर यह जताना नहीं भूल रहे कि ये भाजपा और कांग्रेस उम्मीदवार के बीच का चुनाव नहीं, बल्कि मेरा चुनाव है। ग्वालियर, बमोरी, दिमनी, भांडेर और डबरा की चुनावी सभाओं में उनका आक्रामक रूप ज्यादा सामने आया। वे मौजूद लोगों से ये हुंकारा भराना भी नहीं भूलते, कि ग्वालियर-चंबल इलाके में सिंधिया परिवार का झंडा हमेशा बुलंद रहेगा! बार-बार सिंधिया परिवार का जिक्र शायद भाजपा की उपेक्षा के कारण ही किया जा रहा है।
   इस उपचुनाव पर भाजपा की शिवराज सरकार के अलावा ज्योतिरादित्य सिंधिया का राजनीतिक करियर और उनके घराने का दबदबा भी दांव पर लगा है। उनके साथ विधायकी और मंत्री पद छोड़कर आए लोगों के लिए यह उपचुनाव प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। उन्होंने इमरती देवी की चुनाव सभा में जो बोला उसे बमोरी की सभा में भी दोहराया। सिंधिया कई जगह बोले कि उम्मीदवार और पार्टी को नहीं, सिर्फ मुझे देखें। सिंधिया के भाषणों के शब्द, तेवर और निशाना लगभग एक जैसा है। वे सिंधिया परिवार के मान-सम्मान के साथ अपना झंडा बुलंद रखने की भी अपील करते दिखाई दे रहे हैं। उनकी गुस्सैल भाषण शैली अच्छी-खासी तालियां भी बटोर रही हैं। वे कभी तीखी भाषा बोलते हैं, तो कभी मसखरी करते हुए कमलनाथ की खिल्ली उड़ाने का मौका भी नहीं चूकते! मंच से कई बार इशारों और मौन से भी वे बहुत कुछ कह जाते हैं। उन्होंने कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की 'बड़ा भाई-छोटा भाई' की जोड़ी पर भी टिप्पणी की। 
   ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में सिंधिया परिवार के दबदबे से इंकार नहीं किया जा सकता! पहले के चुनाव में कभी इस परिवार पर इतनी ज्यादा उंगलिया नहीं उठी जितनी इस बार! सिंधिया ने जब प्रचार शुरू किया तो उन्होंने देखा कि लोग उनसे नाराज हैं। अपने परिवार के प्रभाव वाले इलाकों में सिंधिया को कई जगह 'गद्दार वापस जाओ' और काले झंडों का भी सामना करना पड़ा था। दरअसल, सिंधिया का मिजाज ऐसा नहीं है, कि वे अपना ऐसा खुला विरोध सहन कर सकें! पर, जब ऐसा होता दिखाई दिया तो भाजपा को भी चिंता हुई! पार्टी को अंदाजा नहीं था कि जिस इलाके में सिंधिया परिवार की तूती बोलती थी, वहां जनता ख़म ठोंककर विरोध में खड़ी हो जाएगी! संभवतः इसके बाद पार्टी ने अपनी रणनीति बदली और प्रचार तंत्र का तरीका बदला! उन्हें स्टार कैंपेनर की लिस्ट में 10वां नंबर दिया गया। इतने प्रतिष्ठा वाले चुनाव में प्रचार सामग्री से 'महाराज' के फोटो गायब होना, उनके और समर्थकों के लिए एक बड़ा इशारा माना जा सकता है। 
----------------------------------------------------------------------------------------

Friday, October 23, 2020

बिना ब्रेक की फिल्मों में बंधे दर्शक!

हेमंत पाल

    बॉलीवुड में हर साल सैकड़ों फ़िल्में बनती हैं। सबके कथानक तो अलग-अलग होते हैं, पर इनके फॉर्मूले में कोई अंतर नहीं होता। एक कहानी, कुछ गाने, बीच में इंटरवल और फिल्म का अंत सकारात्मक! इससे अलग कुछ नहीं होता! लेकिन, जिस फ़िल्मकार ने इससे अलग हटकर कुछ किया, वो फिल्म इतिहास में दर्ज हो गया! बिना गानों वाली फिल्म, एक पात्रीय अभिनय वाली फिल्म और एक रात की कहानी पर फिल्म बनाने जैसे प्रयोगों के अलावा बिना इंटरवल वाली फिल्म बनाना भी ऐसा ही अनोखा प्रयोग है। सौ सालों से ज्यादा के हिंदी फिल्म इतिहास में ऐसी फ़िल्में बहुत कम बनी, जिसमें कोई इंटरवल नहीं था! ऐसा करने का सिर्फ यही मकसद था कि दर्शकों को फिल्म के कथानक के रोमांच से बांधकर रखना! इस प्रयोग को जिस भी फिल्म में अपनाया गया, उस फिल्म में इस बात का भी ध्यान रखा गया कि फिल्म की लम्बाई ज्यादा न हो! क्योंकि, ढाई-तीन घंटे तक दर्शकों को किसी सनसनी या रोमाँच में बांधकर नहीं रखा जा सकता! याद किया जाए, तो सिर्फ तीन ही फ़िल्में याद आती है, जिनमें दर्शकों को आधी फिल्म के बाद सीट से उठने का मौका नहीं दिया गया। लेकिन, इस प्रयोग में सफल होने वाली राजेश खन्ना की पहली फिल्म थी।     
   संभवतः यश चोपड़ा पहले ऐसे फ़िल्मकार थे, जिन्होंने बिना इंटरवल के 'इत्तेफ़ाक' (1969) बनाने का साहस किया था। इसके पीछे उनका सोच था कि दर्शकों को फिल्म की कहानी इतना बांध ले कि वे सीट से न उठें! वास्तव में ऐसा हुआ भी था। ये एक ऐसी मर्डर मिस्ट्री थी, जिसमें न तो इंटरवल था और न कोई गाना! फिल्म का कथानक अंग्रेजी नाटक ‘साइनपोस्ट टु मर्डर’ से प्रेरित था। इस फिल्म में राजेश खन्ना ने एक पेंटर की भूमिका निभाई थी, जिस पर अपनी पत्नी अरूणा ईरानी को मारने का इल्जाम लगता है। पुलिस से बचने के लिए राजेश खन्ना जिस घर में घुसते हैं, उस घर की मालकिन (नंदा) ने भी अपने पति की हत्या करके उसकी लाश को घर में छुपाया था! फिल्म का रोमांच ऐसा था कि दर्शकों को इंटरवल न होने का अहसास ही नहीं हुआ! यश चोपड़ा ने ये फिल्म एक गुजराती नाटक 'धूमस' देखकर बनाई थी, जो अंग्रेजी नाटक का रूपांतरण था! ये फिल्म मात्र 20 दिन में बनी थी और पसंद भी की गई थी। 
  पहली फिल्म के बरसों बाद 2010 में बिना ब्रेक का फार्मूला आमिर खान ने अपनी फिल्म 'धोबी घाट' में अपनाया! सीमित बजट और लीक से हटकर बनी इस फिल्म को आमिर की पत्नी किरण राव ने डायरेक्ट किया था। इसमें आमिर खान के अलावा कोई नामचीन चेहरा नहीं था। लेकिन, फिल्म का कथानक इतना सशक्त था कि दर्शक डेढ़ घंटा बंधकर रहे! ये फिल्म चार अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए किरदारों की कहानी है, जो कुछ नया करना चाहते हैं। ये चारों एक-दूसरे से अलग हैं! फिर भी आपस में जुड़े हैं। वे मुंबई की बुराई करते हैं, लेकिन इससे दूर भी नहीं रह पाते! उनके दर्द के पीछे उनका अतीत छुपा है। वे बहुत कुछ करना चाहते हैं! पर, मन मसोसकर रह जाते हैं! मान लेते हैं कि यही उनकी जिंदगी और नियति है! मोनिका डोगरा जो बैंकर लेकिन उसे फोटोग्राफी पसंद है। आमिर खान ने अपना जीवन चित्रकारी को समर्पित कर रखा है! किंतु, उसका जीवन कला और सोच के बीच बंटा हुआ है। कृति मल्होत्रा ने ऐसा किरदार निभाया, जो अपने भाई से दूर होकर दुखी है! अंदर से दुखी होकर भी वो सबके सामने खुश होने नाटक करती है! चौथा किरदार प्रतीक बब्बर है, जो धोबी है, लेकिन उसे हीरो बनने का जुनून है। वो सलमान खान को अपना फेवरेट मंटा है। लेकिन, यह नहीं जानता कि जीवन में आसानी से कुछ नहीं मिलता!
   2016 में आई 'ट्रैप्ड' भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें इंटरवल नहीं था। फिल्म के नाम से ही स्पष्ट है कि इसकी कहानी किसी पात्र के कहीं फंसे होने पर केंद्रित होगी। मुंबई के एक खाली पड़े अपार्टमेंट में राजकुमार राव फंस जाता है। वहाँ कोई सुविधा नहीं होती। उसके पास न तो खाने को कुछ होता है, न बिजली होती है न पानी! वहां कॉकरोच और चूहों की भरमार होती है। अपने फंसे होने की सूचना देने के लिए राजकुमार राव क्या-क्या हथकंडे करता है, यही इस फिल्म का रोमांच था। मुंबई जैसे शहर में कोई कहीं फंस जाए और उसे निकलने में इतनी जद्दोजहद करना पड़े, ये आसानी से हज़म होने वाली बात नहीं है! फिल्म में हल्की सी झलक हॉलीवुड की फिल्मों जैसी जरूर मिली थी, पर फिल्म ठेठ मुम्बइया स्टाइल की थी। फंसे होने की पीड़ा हो राजकुमार राव ने बखूबी निभाया था, पर कथानक की कमजोरी फिल्म को बचा नहीं सकी थी। 
   इन तीन फिल्मों के अलावा किसी ने इस तरह का प्रयोग किया हो, ये याद नहीं आता! पर, राजकपूर ने दो ऐसी फ़िल्में बनाई जिनमें दो इंटरवल थे। पहले बनाई 'संगम' (1964) फिर बनाई 'मेरा नाम जोकर' (1970) जैसी फिल्म भी बनाई जिसकी लम्बाई इतनी थी कि उसमें दो इंटरवल करना पड़े थे। इस फेहरिस्त में भीष्म साहनी के उपन्यास पर बनी तमस, जेपी दत्ता की 'एलओसी' और राजश्री की 'मैंने प्यार किया' के अलावा 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' का नाम लिया जा सकता है। विवादस्पद कहानी होने के कारण 'तमस' को टीवी पर सीरियल की तरह दिखाया गया। 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' के दो हिस्से करना पड़े और फिल्म की लम्बाई कम करना पड़ी।           
--------------------------------------------------------------------------

Tuesday, October 20, 2020

संस्कारहीन चुनावी राजनीति की अमर्यादित भाषा शैली!

  मध्यप्रदेश की 28 विधानसभा सीटों के उप चुनाव का राजनीतिक घटनाक्रम देखकर लगता है कि अब राजनीति पूरी तरह दिशाहीन होकर भटक गई! प्रचार में कोई भी पार्टी अपनी उपलब्धि या भविष्य की योजनाओं की बात नहीं कर रही! सारा जोर एक-दूसरे पर लांछन लगाने और अमर्यादित भाषा बोलने तक सीमित हो गया! इसमें कोई भी पार्टी पीछे नहीं है। कीचड़ उछालने का अंतहीन खेल शुरू हो गया। कटाक्ष वाली घटिया भाषा को चुनाव प्रचार समझ लिया गया! खुद को ईमानदार और दूसरे को चोर कहने में कोई संकोच नहीं हो रहा! वास्तव में ये स्तरीय राजनीति की भाषा नहीं है! अभी तक मध्यप्रदेश इससे अछूता था। पर, अब ये गंदगी यहाँ भी बरसने लगी! मीडिया भी चटखारे लेकर ऐसे भाषणों को सुर्खियां बना रहा है! 
000

- हेमंत पाल 

    चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में सत्ता की दावेदार पार्टियों के बीच भाषा बहकने की घटनाएं आम होती जा रही है। प्रचार की ये वो गंदगी है, जिसे रोकने की कोई भी कोशिश अब तक कामयाब नहीं हो सकी! क्योंकि, पार्टियों के बड़े से लगाकर छोटे नेता तक यही भाषा बोल रहे हैं, तो कार्यकर्ता भी वही बोलने लगते हैं। क्योंकि, उन्हें लगता है कि यही सही भाषा होगी! हमारे यहाँ शब्द को ब्रह्म मानने की परंपरा है। लेकिन, राजनीति में इसी ब्रह्म शब्द की जो हालत हो रही है, उससे सभी वाकिफ हैं। राजनीति में प्रचार की भाषा ने समाज में जो भावना पैदा की है, उसने ही हिंसा की स्थितियों को जन्म दिया। इसी तरह की भाषा ने ग़ैर-संस्थागत शक्तियों को भी सड़क पर हिंसात्मक स्थितियां बनाई हैं। राजनीति में चुनाव प्रचार की इसी असभ्य भाषा ने हिंसा को उकसाया और उसे मॉब लिंचिंग तक ले आया। जिस तरह के कटाक्ष किए जाने लगे हैं, वो गलियों से ज्यादा बुरी भाषा है। कुछ समाजों में गालियां उनकी संस्कृति का हिस्सा हैं, लेकिन अब ये उस समाज में भी शरीक हो गए जिसका प्रतिनिधित्व राजनीति करती है। 
    राजनीति की मौजूदा भाषा ने समाज में भय के साथ आक्रामकता पैदा की है! ऐसी ही किसी मानसिकता से समाज में मॉब लिंचिंग का जन्म हुआ है। इसलिए कि राजनीति में जब भाषा की मर्यादा के बंधन टूटते हैं, तो सबसे ज्यादा महिलाओं को ही निशाने बनाया जाता है। चुनाव प्रचार में भाषा के गिरते स्तर से महिलाएँ सबसे ज्यादा दुखी हैं। जब राजनीति के मंचों पर ऐसी भाषा का उपयोग किया जाएगा, तो कैसा समाज बनेगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। राजनीति में महिलाओं के प्रति सोच इतनी गंदी हो गई है, कि योग्य महिलाएं भी इससे कतराने लगी हैं। जो महिलाएँ सोचती थीं, कि वे आधी आबादी हैं और राजनीति के मैदान में पुरूषों के साथ कदमताल करने में समर्थ हैं, वे चिंतित हो गईं! इसलिए कि सबसे ज्यादा कटाक्ष उन पर किए जाते हैं। खुद को ऊंचा और दूसरे को नीचा दिखाकर, जातियों पर टिप्पणी करने से तात्कालिक फ़ायदा तो मिल सकता है, इससे लोकतंत्र दरकने लगता है।
   लोकतंत्र में शब्दों की अपनी मर्यादा होती है? जरुरी नहीं कि प्रतिद्वंदी को गालियां देकर ही वोट कबाड़ने की जुगत जमाई जाए! नेताओं और उनके गुर्गों को ये भाषाई हमले सही लगते हों, पर भद्र समाज इसे पसंद नहीं करता! सभ्य भाषा में भी आक्षेप लगाए जा सकते हैं! लेकिन, लगता है मध्यप्रदेश में दोनों पार्टियों के बड़े नेताओं ने भी मर्यादा और शर्म छोड़ दी! मंच के सामने मौजूद गिनती भर लोगों को उद्वलित करने के लिए बाजारू भाषा बोली जा रही है। अनुभव बताता है कि ऐसी स्थिति में जनता की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं होती! ज्यादातर जनादेश गालियों के खिलाफ गए हैं। 
   भाषा की सभ्यता ही समाज को आपस में जोड़ती है, स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ये जरूरी भी है। लेकिन, लगता है आज की राजनीति में नैतिकता और सिद्धांत पूरी तरह गायब हो गए। यहाँ विचार कम और व्यक्तिगत हमले हावी होने लगे! यदि ये स्थिति अदने नेताओं में होती तो उसे समझा जा सकता था। क्योंकि, उनमें परिपक्वता नहीं होती! किंतु, अब बड़े नेताओं ने भी नाम लेकर व्यक्तिगत हमले शुरू कर दिए। चुनाव प्रचार में जनता की सहानुभूति के लिए इनका इस्तेमाल करने की कोशिश होती है, लेकिन कई बार दांव उल्टा पड़ जाता है। आज राजनीति जिस मुकाम पर पहुंची है, वहां बड़े नेताओं में सीधे टकराव की स्थिति बढ़ी है। स्वस्थ चुनाव फ़िलहाल लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। क्योंकि, हर राजनीतिक पार्टी के नेता मंच पर प्रतिद्वंदी पार्टी के नेताओं को दुश्मन समझने लगे हैं। उन्हें लगता है कि वे जितने अपशब्द बोलेंगे, सुनने वाले उतने ज्यादा प्रभावित होंगे और उनका वोट बैंक मजबूत होगा। लेकिन, ये क्षणिक आवेश वाली बात होती है। नेता के मंच से उतरने के बाद उसकी अच्छी बातों को कोई याद नहीं रखता, पर उसकी अमर्यादित भाषा की आलोचना जरूर होने लगती है। 
    नेताओं की भाषा लगातार मर्यादा की सीमा लांघ रही है। इसके साथ ही राजनीति में भाषा का स्तर गिर रहा है। यही कारण है कि राजनीति के मूल स्वभाव में काफी गिरावट आई! नेता भी अपने संस्कारों का परिचय अपने आचरण से देने में बाज नहीं आ रहे। भाषा की गिरती मर्यादा ने भी साबित कर दिया कि हम टेक्नोलॉजी में कितना भी एडवांस हो जाएं, सामाजिक धरातल पर हम बहुत तेजी से गर्त में जा रहे हैं। मंचों के अलावा सोशल मीडिया पर अब ऐसे शब्दों का इस्तेमाल होता दिखाई देने लगा है, जो असंस्कारित है। उसे सीधी भाषा में गाली बकना कहना भी गलत नहीं होगा। मतदाताओं को बरगलाने के लिए नेताओं की बदजुबानी जिस तरह आसमान छूने लगी है, वो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। राजनीति के मंच से जिस तरह की अमर्यादित और स्तरहीन भाषा बोली रही है, वह उस लोकतंत्र की शिक्षा नहीं है, जिसका पाठ पढ़ाया जाता रहा है। इससे सिर्फ सामाजिक ढांचा ही नहीं दरक रहा, पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
    आज नेताओं के चुनावी भाषण एक-दूसरे को चेलैंज देने, आरोप लगाने और निजी लांछन तक सीमित होते जा रहे हैं। बड़े नेताओं से भाषण में जिस संयम और शालीनता की उम्मीद जाती है, वो पूरी तरह तिरोहित हो गई! 1996 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट कहा था 'राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेताओं की बड़ी जिम्मेदारी है, कि वे अपनी भाषा का ऐसा उपयोग करें, जिससे उनसे नीचे वालों को प्रेरणा मिले।' लेकिन, भाषा की ये गंदगी ऊपर से ही नीचे आई है। अब तो संसद तक में ऐसे तंज कसे जाते हैं, जो सामाजिक धरातल पर स्तरीय नहीं कहे जा सकते! ऐसी भाषा बोलने में कोई भी पीछे नहीं रहता! यही भाषा वहां से निकलकर मीडिया में आती है और फिर मंच पर! कुछ नेता हमेशा अपने बिगड़े बोलों के कारण सुर्खियों में बने रहते हैं। उन्हें लगता है कि वे जितना कटाक्ष करेंगे, मीडिया में उन्हें उतनी तवज्जो मिलेगी! चुनावी रैलियों या सोशल मीडिया पर विवादास्पद टिप्पणियां करके ये लोग सुर्ख़ियों में रहना चाहते हैं। ये दोष किसी एक पार्टी को नहीं दिया जा सकता, हर पार्टी के नेता इसमें शामिल रहे हैं। 
 स्तरहीन भाषा को बढ़ाने में मीडिया की भी खासी भूमिका रही है! इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का दायरा बढ़ने के बाद ये चलन कुछ ज्यादा ही बढ़ा है। क्योंकि, मीडिया ने ऐसे नेताओं की बातों को ज्यादा चटपटे ढंग से पेश करना शुरू कर दिया। इससे उन्हें लगने लगा कि चर्चा रहने के लिए द्विअर्थी, स्तरहीन भाषा और अमर्यादित बातें ज्यादा बोली जाएं, तो जनता के बीच उनकी लोकप्रियता छलांग मारने लगेगी। लेकिन, अब ये जनता यानी मतदाताओं को तय करना है कि वे किसे चुनें! अच्छा हो, कि अमर्यादित भाषा बोलने वाले नेताओं का सामाजिक बहिष्कार किया जाए, फिर वे किसी भी पार्टी के क्यों न हों! राजनीतिक मंच से असंस्कारित भाषा बोलने वाले नेताओं के खिलाफ कानूनी प्रावधान किए जाना अब जरूरी लगने लगा है। जब ऐसी सख्ती होगी, तभी नेताओं की भाषा पर भी अंकुश लगेगा। 
-------------------------------------------------------------------

Monday, October 19, 2020

कोरोना काल में सोशल बिहेवियर को रेखांकित करती किताब

- हेमंत पाल
 क्कीसवीं सदी का बीसवां साल सदियों का दस्तावेज बन गया है। कोविड 19 के रूप में क महामारी ने दुनियाभर में भारी तबाही मचाई और यह अभी खत्म नहीं हुई है। लोगों की जान पर आई आफत ने मानवीयता और अमानवीयता के कई पहलुओं को उजागर किया तो कुछ दबे या अनछुए रह गए। कई ऐसी घटनाएं इस देशकाल और समाज में घट रही थीं और अभी भी घट रही हैं, जो शायद हमारे लिए अभूतपूर्व थीं और हैं। इसे साहित्य में कितना महसूस किया गया, यह साफ नहीं है, लेकिन कोरोना में हुए इस असाधारण सामाजिक बदलाव को प्रखर पत्रकार अजय बोकिल ने अपने नजरिए से देखा, समझा, परखा और उसका मूल्यांकन किया है।
    यह उनकी पैनी और गहन दृष्टि का ही परिणाम है कि कोरोना लाॅक डाउन और कुछ अनलाॅक के दौरान उनके लिखे लेख देश प्रदेश ( विशेषकर मध्यप्रदेश) इस कालावधि में हुई सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल का पत्रकारीय दस्तावेज बन गए हैं। हिंदी पत्रकारिता में संभवत: यह पहली किताब है, जो कोरोना काल में सोशल बिहेवियर को रेखांकित करती है और जिसकी रेंज बहुत व्यापक है। अजय बोकिल विषय रोजमर्रा की जिंदगी से उठाते हैं, लेकिन उसका इतनी गहराई से विश्लेषण करते हैं कि वो आलेख भी एक दस्तावेज बन जाता है। लेखक का मानना है कि कोरोना ने जो हमें जो दंश दिया है, उससे उबरने में समाज और देश को लंबा समय लगेगा।
  दरअसल कोरोना काल महज एक महामारी से उपजा समय नहीं है, जिसने सामाजिक रूप से उथल-पुथल मचाई हो! बल्कि, इसने भारतीय समाज की जीवनशैली और दिनचर्या के साथ-साथ रिश्तों को भी नए सिरे से परिभाषित किया है। लेखक ने विशिष्ट घटनाओं को आधार बनाते हुए किस्सागोई की तरह समकालीन परिस्थितियों को लिखा है। ये अपनी तरह की पहली ऐसी किताब है, जिसमें कल्पना की उड़ान कम, सच्चाई की कड़वाहट और बेबाकी ज्यादा है। मध्यम और निम्न मध्यमवर्ग ने इस कोरोना काल को जिस तरह भोगा है, वो भी कई जगह इस दस्तावेज का हिस्सा बना! खाद्यान्न का संकट, नौकरी गंवाने की पीड़ा, परिवार के घर में कैद हो जाने की बेबसी आदि कई घटनाओं को अजय बोकिल ने जिस शिद्दत से महसूस किया और कागज पर उतारा, वह काबिले तारीफ है। ‘कोरोनाकाल की दंश कथाओं’ में शब्दों के माध्यम से वास्तविक मानवीय पीड़ा का जो दर्द झलकता है, पाठक उससे विलग नहीं रह सकता! क्योंकि, इस महामारी ने हर व्यक्ति, हर समाज, हर वर्ग और हर घर को छुआ है।
   खास बात यह है कि ये किताब सोचकर नहीं लिखी गई और न ही इसके लिखे जाने की कोई पूर्व योजना बनी! यहाँ तक कि इसके विषयों के बारे में भी पहले से कोई विचार किया गया हो, ऐसा नहीं लगता! इस किताब में शामिल सभी लेख दरअसल लेखक अजय बोकिल की नियमित रचनाधर्मिता का परिणाम हैं। यही कारण है कि किताब के अधिकांश लेख तात्कालिक विषयों पर आधारित हैं, लेकिन अजय बोकिल उनकी आत्मा तक पहुंचते हैं। ऐसी ही एक दिलचस्प रचना है ‘हाँ बाबा, रिसर्च के लिए प्रज्ञा चाहिए, ड्रेसकोड नहीं!’ इसे बाबा रामदेव के ‘पतंजलि’ संस्थान के कोरोनाकाल में खोजी गई महामारी की आयुर्वेदिक दवा को आधार बनाकर लिखा गया है। इसमें लेखक ने विवादों के सारे आस्पेक्ट समेटे और विश्लेषित किए हैं। मोदी सरकार द्वारा चीन के खिलाफ उठाए गए कथित सख्त कदमों पर लिखा गया ‘चीन पर डिजीटल स्ट्राइक और हमारा डिजीटल राष्ट्रवाद’ भी बेहद खरी-खरी है। चीनी सेना की भारतीय सीमा पर तैनाती के जवाब में चीन के ऍप्स पर बंदिश लगाने के सरकार के फैसले पर जबरदस्त कटाक्ष है। टिक-टॉक, वीबो पर प्रतिबंध लगाकर ये समझ लेना कि हमने चीन को खदेड़ दिया सरकार की ग़लतफ़हमी ही तो है। ये सिर्फ कॉलम नहीं, सटीक सम्पादकीय है जो पढ़ने वाले के दिमाग पर भी डिजीटल स्ट्राइक करती है। पूरी किताब में बदलते जीवन, समाज और देश के हर पहलू पर बेलाग टिप्पणी की गई है। भविष्य में पत्रकारिता का कोई विद्यार्थी यदि कोरोना काल का कच्चा इतिहास टटोलना चाहे, तो यह किताब उसके काम आ सकती है।
  अजय बोकिल के लेखन की सबसे बड़ी खासियत है, शब्दों के साथ उनका खेलना! शब्द उनकी कलम के आस-पास गरबा करते नजर आते हैं, जो उनकी भाषा समृद्धि का परिचायक भी है। अजय की लेखन शैली में भाषा की शुद्धता, अपनी बात कहने की रोचक शैली और शब्दों का अनंत भंडार है। वे एक ही बात को कई तरह से कहने और समझाने की काबलियत रखते हैं। विषय के मुताबिक लेखन शैली उनकी एक और विशेषता है। एक प्रभावी और किसी हद तक सार्वकालिक पत्रकारीय लेखन के जरूरी है पत्रकार में अपने समय के भीतर और गहरे तक झांकने की अंतदृष्टि। अर्थात वर्तमान के आईने में भविष्य की आहट सुनना। इसके लिए लंबी साधना और कमिटमेंट की जरूरत होती है। यह तभी संभव है, जब पत्रकार अपनी भाषा अर्जित कर ले।
     इस पुस्तक में जाने माने कथाकार, चित्रकार, लेखक प्रभु जोशी की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। अजय ‘नईदुनिया’ समाचार पत्र में प्रभु के कनिष्ठ सहयोगी रहे हैं। उन्होंने अजय बोकिल को पत्रकार के रूप में ‘ग्रो’ होते हुए देखा है। प्रभु लिखते हैं- ‘ अजय पत्रकारिता की नर्सरी माने जाने वाले इन्दौर के ‘नईदुनिया’ का एक ऐसा पौधा है, जिसने अब एक तनावर दरख्त़ की वह ऊँचाई हासिल कर ली है, जिसके चलते वह अलग से दिखायी देने लगा है। पत्रकारिता में ऊँचाई का अर्थ मेरे लिए अख़बार की दुनिया में ओहदों से ओहदों पर छलाँग पर छलाँग लगाते हुए, किसी शिखर पर बैठ जाना नहीं है। क्योंकि, मैं पत्रकार को बौद्धिक संसार का, एक निर्भीक नागरिक मानता हूँ जिसमें, ‘आलोचनात्मक विवेक’ को अपने अन्दर एक अभीष्ट की तरह स्थापित करना होता है। उसमें, यह प्रतिभा होती है कि वह, ‘स्तुतियों’ और ‘भर्त्सनाओं’ को एक सिरे से ख़ारिज करता हुआ, अन्तत: ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम हितों’ का पहरेदार बनना ही उसकी प्राथमिक प्रतिज्ञा होती है।
  अजय बोकिल को, मैं उसके अँकुरण के काल से जानता हूँ। वह ‘जीनान्तरित’ नहीं, ‘जीवनान्तरित’ बीज था, इसीलिए वह विवेक और ज्ञान को, अपनी प्रज्ञा के साथ नाथ कर, हमारे ‘समकाल’ पर, ऐसी विवेचनात्मक टिप्पणियाँ लिख कर, इस विस्मृत सच को प्रतिपादित कर पाया कि पत्रकारिता केवल ‘सत्ता का प्रतिपक्ष’ नहीं है। प्रतिपक्ष, तो ‘विरोध और प्रतिरोध’ के लिये एक दलगत निष्ठा के तहत अपनी भूमिका के निर्वाह के लिये बाध्य है। इसलिये अजय का पत्रकारीय लेखन, इस दृष्टि से अधिक निरपेक्ष है। उसके लिखे में दृष्टि किसी भी विचारधारा के समक्ष ‘सार्वदेशीय सत्य’ की अनसुनी या अनदेखी करना नहीं है। बल्कि, एक ‘अधिक मनुष्य’ और ‘अधिक नागरिक’ होकर लिखने की, सच के प्रति ईमानदारी का पर्याय है। उसके लिखे में ‘देश और काल’ बोलता है। हाँ, राष्ट्र भी बोलता है, लेकिन राष्ट्रवाद नहीं बोलता। उसकी एक आँख पीठ में भी है, जो ‘पास्टनेस ऑफ पास्ट’ को देखती है और सामने की सच्चाई को अपनी ही दो आँखों से नहीं बल्कि ‘जन’ की आँखों से देखता है। इसलिए अजय के लिखे में विगत की समझ, आगत को पढ़ने की दृष्टि के साथ, वर्तमान को बहुत वस्तुगत ढंग से देखने की एक सहज और सरल भाषा के उपकरणों की आविष्कृत प्रविधियाँ भी हैं। मुझे उससे बहुत उम्मीदें है कि वह भाषा की स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर की परम्पराओं को आत्मसात करता हुआ, इस विस्मृति के युग में, एक बहुत सकारात्मक पत्रकारिता के प्रतिमानों में अपनी कलम की स्याही से सच के हर संस्करण को उत्कीर्ण करेगा।
  पुस्तक में संकलित अजय बोकिल के तमाम आलेख भोपाल से प्रकाशित ‘सुबह सवेरे’ में प्रकाशित हुए हैं। इस पत्र के प्रधान संपादक और मप्र के ख्यात पत्रकार उमेश त्रिवेदी ने इस पुस्तक पर अपनी टिप्पणी में कहा है ‘पत्रकारिता के गोलाकार सपाट दायरों में भी अजय बोकिल हर दिन एक बहुआयामी रचनाधर्मी के रूप में अखबार मे प्रकट होते हैं। उनके पत्रकारीय लेखन में साहित्य की सृजनशीलता, संस्कृति की मर्मज्ञता और विज्ञान की तार्किकता स्पष्ट झलकती है। यह सम्मिश्रण ही उन्हें विशिष्ट बनाता है।‘ उमेश त्रिवेदी ने लिखा है- ‘एक पत्रकार के रूप में अजय बोकिल गुणवत्ता की कसौटियां निर्धारित करते हैं। कोरोना के इस दौर में मानवीय करुणा समेटते हुए अपने पत्रकारीय दायित्वों अंजाम देना आसान काम नहीं है।’
  इस पुस्तक को पढ़ने से अजय बोकिल की पत्रकारीय दृष्टि के साथ साथ उनका विषय वैविध्य और समझ की रेंज विस्मित करती है। शायद ही कोई विषय हो, जिस पर उनकी कलम न चली हो। न सिर्फ चली बल्कि इस रूप में चली है कि मानो वो विषय के विशेषज्ञ हों। अजय पत्रकारिता में मेरे हमसफर रहे हैं, लेकिन दैनिक स्तम्भ लेखक के तौर पर उनका यह रूप मेरे लिए भी नया है। अगर कोरोना काल की बात करें तो समाज, कला, विज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, संस्कृति, फिल्म आदि अनेक क्षेत्रों से विषय उठाकर उन्होंने उसका अपनी दृष्टि और पैमाने पर विश्लेषण किया है। जिसमें रोचकता के साथ साथ तार्किकता भी बनी रहती है। जिसका आनंद सामान्य और बुद्धिजीवी पाठक समान रूप से ले सकता है। वो अपनी हर बात तथ्यों के आधार पर कहते हैं। लेकिन तथ्‍य को ही अंतिम सत्य नहीं मानते। बल्कि वो तथ्य के भीतर छिपे सत्य को अनावृत्त करने की सफल कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका में कोविड 19 मृतकों की संख्या 1 लाख होने पर न्यूयाॅर्क टाइम्स का अपना पहला पृष्ठ काला छापना पूरी दुनिया के लिए पत्रकारीय नवाचार था। कोरोना काल में ही कार्टून चरित्र टाॅम एंड जेरी के जन्मदाता जीन डाइच का निधन, शोले के सूरमा भोपाली के देहांत पर अजय बोकिल ने जो अनूठी श्रद्‍धांजलि दी है, वह काॅमेडियन जगदीप के साथ भोपाली जबान पर भी विस्तार से प्रकाश डालती है। एक और महत्वपूर्ण लेख कोरोना से लड़ाई के तरीकों पर है। अजय सवाल उठाते हैं कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारियों से तानाशाही बेहतर ढंग से निपट सकती है या लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं। भारत में ‘संपादक के नाम पत्र पुरूष एंथोनी पाराकल’ पर सार्थक टिप्पणी इस किताब में है। पत्रकारों की नई पीढ़ी को तो इस बारे में ज्यादा पता भी नहीं होगा।
  अजय प्रिंट मीडिया के भविष्य, मीडिया की ‘माफियागिरी’, ब्यूटी बाजार में फेयर एंड लवली में से फेयर शब्द हटाने का बाजार का मानसशास्त्र, कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों की विवंचना, कोरोना के साइड इफेक्ट :केरल से सोनागाछी तक अपनी नजर दौड़ाते हैं। ये सभी लेख भी पठनीय है। तेलंगाना में पूर्व प्रधानमंत्री व कांग्रेस नेता पी.वी. नरसिंहराव की जन्मशती पर राज्य की वायएसआर कांग्रेस सरकार द्वारा विज्ञापन जारी करने के राजनीतिक ‍निहितार्थ पर गंभीर टिप्पणी और सवाल हैं। अजय इस बात को खास तौर पर रेखांकित करते हैं कि अब कांग्रेस के इस बड़े नेता को भी दूसरी पार्टी ने हाइजैक कर लिया।
  अजय बोकिल के समूचे पत्रकारीय लेखन का मूल स्वर और सरोकार समाज और मानवता के पक्ष में है। इस मायने में वो उस पत्रकारिता से बहुत दूर है, जहां केवल सत्ता को साधना एकमात्र मकसद रहता है। आज जब कि प‍त्रकारिता में भी ‘इस पार या उस पार’ होने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, पूरे मीडिया को खेमे में बांटकर देखा जा रहा है, ऐसे में निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ भाव से समकालीन घटनाक्रमों का आकलन, विश्लेषण बहुत महत्पूर्ण है। लाॅक डाउन के दौरान भूखे प्यास प्रवासी मजदूरों के लिए पारले जी बिस्किट का संजीवनी के रूप में उभरना, सोशल डिस्टेसिंग के चलते घरों में काम वाली बाई और ‘मैडमजी’ के पारंपरिक‍ रिश्तों का बिगड़ना, मध्यप्रदेश में कोरोना काल में सत्ता की छीना झपटी और खुद को प्रदेश का टाइगर सिद्ध करने की राजनीतिक होड़, पैसा कमाने कृष्ण की तरह विदेश गए भारतीयों का कोरोना की मार के चलते ‘सुदामा’ की तरह स्वदेश लौटना, लोअर ‍मिडिल क्लास का दर्द, लाॅक डाउन के दौरान लोगों की साइकिल की तरफ फिर लौटना, सोशल मीडिया में लोगों का मांगकर शुभकामनाएं और सांत्वनाएं बटोरने का अजब चलन, पूरे समाज का विचार शून्यता की और बढ़ने का खतरा, वर्क फ्राॅम होम के कारण बदलता सामाजिक आचार व्यवहार, लाॅक डाउन में सत्यदर्शी पत्रकारिता पर को लाॅक करने की सत्ता की दुष्प्रवृत्ति, कोरोना काल में आम जैसे रसीले फल का सहमा सहमा सा होना, मोदी गमछे को लेकर दो राज्यो में टकराव, उद्योगपति एलन मस्क द्वारा अपने बेटे का अजब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाले संख्यात्मक नामकरण का औचित्य, देश में श्रम कानूनों में बदलाव के बाद श्रमिकों की दुर्दशा का जायजा, छत्तीसगढ़ राज्य में गोबर की सरकारी खरीद पर चुटकी, कोरोना काल में चाय की फसल बर्बाद होने के बाद की स्थिति का आकलन, कोरोना जनित नए पांच शब्दों का हिंदी शब्दकोश में शामिल होने से लेकर माफी देने का वास्तविक अधिकार किसे, इस सवाल पर भी गंभीर टिप्पणी पुस्तक में है।
  अजय बोकिल की पत्रकारिता की ताकत यही सम्यक दृष्टि है, जो उन्हें दूसरे पत्रकारों से अलग करती है। आज के दौर में जिम्मेदार और निष्पक्ष पत्रकारिता अब दुर्लभ होती जा रही है। ऐसे में अजय बोकिल जैसे पत्रकारों की लेखनी हिंदी पत्रकारिता के दीप स्तम्भ स्व. राजेन्द्र माथुर की परंपरा को ही आगे बढ़ाने का काम कर रही है। दरअसल यह किताब कोरोना काल की घटनाओं का दस्तावेज ही नहीं , बल्कि तुरत फुरत लिखा गया इतिहास ही है। क्योंकि पूरे देश में लगभग दो माह तक लाॅक डाउन रहना एक अभूतपूर्व देशबंदी थी, जिसके बारे में पहले न को किसी ने सोचा और न ही ऐसा कोई पूर्वानुभव समूचे देश के पास था। ऐसे में पत्रकार की नजर से अपनी आंखों से गुजर रहे इतिहास को जानना समझना अपने आप में अपूर्व अनुभव है।
------------------------------------------------------------------------------ 

Saturday, October 17, 2020

परदे की कास्ट्यूम कला का पूर्णविराम

हेमंत पाल

   फिल्मों के बारे में एक सामान्य दर्शक की रूचि उस फिल्म के कलाकार, निर्देशक और संगीतकार को जानने से ज्यादा नहीं होती! वास्तव में दर्शक को इससे ज्यादा जानने की जरूरत भी नहीं है। ऐसे में किसी फिल्म के कास्ट्यूम डिज़ाइनर के बारे में उसे जानकारी होने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। लेकिन, इस दुरूह पहचान में भी भानु अथैया ने अपनी जगह बनाई! अब, जबकि वे इस दुनिया से बिदा हो गईं, उन्हें याद करने के लिए किसी को दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं डालना पड़ा! क्योंकि, 'गाँधी' में कास्ट्यूम डिजाइन करने उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जो पहचान बनाई थी, वो आज भी ताजा है। वे अपने पीछे हिंदी फिल्मों में कॉस्ट्यूम डिजाइन की बहुत बड़ी विरासत छोड़ गई हैं। उन्होंने 'गाँधी' फिल्म के जरिए देश के लिए पहला 'ऑस्कर अवॉर्ड' पाया था। भानु ने हॉलीवुड में भी अपनी कला का जलवा दिखाया और कई विदेशी फिल्मकारों के साथ काम किया। कॉस्टयूम डिजाइनर के तौर पर भानु अथैया ने पाँच दशक के करियर में 100 से भी ज्यादा फिल्मों में योगदान दिया। उनकी आखिरी फिल्म थी आमिर खान की 'लगान' और शाहरुख खान की 'स्वदेस' जिसमें उन्होंने अपनी कला दिखाई थी। भानु ने अपने करियर में गुरुदत्त, राज कपूर, यश चोपड़ा, आशुतोष गोवारिकर, गुलजार से लगाकर आमिर खान की फिल्मों समेत कई बड़े निर्देशकों के साथ काम किया।
    फिल्मों में कास्ट्यूम डिजाइनिंग की अपनी अलग अहमियत होती है। इसमें कल्पना का भी समावेश होता है और कला का भी! कहानी और समयकाल के मुताबिक कलाकारों के लिए कपडे डिजाइन करने की कला ही कास्ट्यूम डिजाइनिंग कहलाती है। भानु ने कई हिंदी फिल्मों में कपड़ों को डिजाइन करके अपनी जगह बनाई थी। उन्हें सबसे पहले 1956 में आई देवआनंद की फिल्म 'सीआइडी' की फिल्म में अपनी कला दिखाने का मौका मिला था। लेकिन, उनको सबसे ज्यादा पहचान मिली रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गाँधी' से! 1983 में भानु को 'गांधी' के लिए ऑस्कर में 'बेस्ट कॉस्ट्यूम डिजाइनर अवॉर्ड' से नवाजा गया था। रिचर्ड एटनबरो ने एक बार कहा था कि मुझे 'गाँधी' बनाने में 17 साल लग गए थे। लेकिन, फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा यानी कास्ट्यूम डिजाइनिंग के लिए भानु अथैया का नाम फाइनल करने में मुझे महज 15 मिनट लगे। उनके आईडिया सुनकर ही मेरे दिमाग ने यह फाइनल कर लिया था कि फिल्म में कॉस्ट्यूम का काम भानु से बेहतर कोई नहीं कर सकता! भानु ने चित्रकारी में गोल्ड मेडेलिस्ट थीं, ये भी एक वजह थी कि रिचर्ड एटनबरो ने उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए चुना था। 
   अथैया ने कोनराड रूक की ‘डेयरिंग सिद्धार्थ’ और कृष्णा शाह की ‘शालीमार’ जैसी अंतरराष्ट्रीय फिल्मों के अलावा जर्मन शॉर्ट फिल्म ‘द क्वाउड डोर’ के लिए भी काम किया था। उन्हें गुलजार की फिल्म ‘लेकिन’ (1990) और आशुतोष गोविरकर की फिल्म ‘लगान’ (2001) के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। 55वें ऑस्कर अवॉर्ड 11 अप्रैल 1983 को आयोजित हुए थे, जिसमें भानु को ऑस्कर मिला था। इसके करीब 26 साल बाद भारत के किसी व्यक्ति को दूसरा ऑस्कर अवॉर्ड मिला जो म्यूजिक डायरेक्टर एआर रहमान लेकर आए थे।
    साल 2012 में भानु अथैया ने ऑस्कर अवॉर्ड की ट्रॉफी 'एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज' को लौटाने की इच्छा व्यक्त की थी! इसके पीछे उनका तर्क था कि इस अनमोल धरोहर की सुरक्षा के लिए उनका परिवार और भारत सरकार सक्षम नहीं हैं। इसलिए ये अवॉर्ड अकादमी के संग्रहालय में ज्यादा सुरक्षित और सुव्यवस्थित रहेगा। वे चाहती थीं कि उनके बाद ऑस्कर की इस ट्रॉफी को लोग देखें! भारत में ऐसे कई अवॉर्ड चोरी हुए हैं। इसलिए भानु चाहती थी कि ये ट्रॉफी हमेशा सुरक्षित रहे! अगर उनकी ये ट्रॉफी ऑस्कर अकादमी के ऑफिस में रखी रहेगी, तो इसे ज़्यादा लोग इसे देख पाएंगे। भानु का कहना था कि मैं कई बार ऑस्कर अकादमी के ऑफिस में गई हूँ। वहाँ मैंने कई लोगों की ट्रॉफी रखी हुई देखी हैं! मुझे बताया गया कि ऑस्कर अवॉर्ड मिलने के बाद कुछ लोगों ने इस ट्राफी की सुरक्षा और सम्मान के लिए इसे अकादमी के ऑफिस को सौंप दिया है।अमेरिकी कॉस्ट्यूम डिजाइनर एडिथ हेड ने भी अपने 8 ऑस्कर ट्रॉफियों को अकादमी में रखवा दिया था! 2010 में अथैया ने कास्ट्यूम डिजाइनिंग पर अपनी किताब 'द आर्ट ऑफ़ कॉस्ट्यूम डिज़ाइन' रिलीज़ की, जिसे हॉर्पर कोलिंस ने प्रकाशित किया था।
   भानु अथैया ने कभी किसी फैशन स्कूल में कॉस्ट्यूट डिजाइन की पढ़ाई नहीं की। उन्होंने महिलाओं की  पत्रिकाओं के लिए फ्रीलांस फैशन इलस्ट्रेटर के रूप में काम किया था। इससे उनकी पहचान बनी और गुरुदत्त ने 1956 में उन्हें 'सीआईडी' से बतौर कॉस्ट्यूम डिजाइनर जिम्मेदारी सौंपी। इसके बाद गुरुदत्त की फिल्म प्यासा (1957), चौदहवीं का चांद (1960) और 'साहिब बीबी और गुलाम' में भी कास्ट्यूम डिजाइनिंग की। इसके अलावा उन्होंने कागज के फूल (1959), वक्त (1965), गाइड (1965), तीसरी मंजिल (1966), पत्थर के सनम (1967), मेरा नाम जोकर (1970), जॉनी मेरा नाम (1970), अनामिका (1973), सत्यम शिवम सुंदरम (1978), कर्ज (1980), राम तेरी गंगा मैली (1985), चांदनी (1989), 1942: अ लव स्टोरी और स्वदेस (2004) जैसी फिल्मों के लिए भी काम किया। 
   भानु का कहना था कि मेरे लिए सिनेमा का काम खुद को अभिव्यक्त करने और मेरी कल्पना को उड़ान देने का एक रास्ता है। यह काम इतनी संपूर्णता लिए हुए होता है, कि मैंने कभी अपना बुटीक खोलने के बारे में भी नहीं सोचा। जबकि, मुझे कई लोगों ने सलाह दी! कई बड़े कलाकार मेरे पास आते थे और फिल्म निर्देशकों से मेरे नाम की सिफारिश करते थे। भानु ने एक साक्षात्कार में बताया था कि नरगिस को मेरे डिजाइनर कपड़े बहुत पसंद थे! उन्होंने कई बार मुझे इसे व्यवसाय बनाने का भी कहा, लेकिन मेरी संतुष्टि फिल्मों के लिए काम करना ही रहा! ऑस्कर जीतने के बाद भानु अथैया ने उस शाम को याद करते हुए कहा था कि 1983 में डोरोथी शिंडलेयर पवेलियन में हो रहे उस समारोह में मेरे साथ कार में फिल्म के लेखक भी थे! उन्होंने तभी कह दिया था कि मुझे लगता है बेस्ट कास्ट्यूम डिजाइन का अवॉर्ड आपको ही मिलेगा! ऑस्कर समारोह में आए दूसरे प्रतियोगी डिज़ाइनर्स का भी यही कहना था कि अवॉर्ड मुझे ही मिलेगा। उत्सुकतावश मैंने पूछा कि आप इतने विश्वास से कैसे कह सकते हैं? इस सवाल पर उन लोगों का जवाब था कि आपकी फिल्म का दायरा बहुत बड़ा है, हम उससे मुकाबला नहीं कर सकेंगे! 
---------------------------------------------------------------------------

Monday, October 12, 2020

ये उपचुनाव नहीं, सिंधिया की राजनीतिक प्रतिष्ठा का दांव!

- हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश की राजनीति के केंद्र में इन दिनों ज्योतिरादित्य सिंधिया छाए हुए हैं। क्योंकि, ये उनके राजनीतिक जीवन का सबसे प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव है। उनके 19 विश्वस्त साथियों के बहाने उनकी साख दांव पर लगी है। इसे उनकी राजनीति की अग्निपरीक्षा भी माना जा सकता! यदि वे इस परीक्षा में सफल होते हैं, तो उनके लिए भाजपा के नए दरवाजे खुल जाएंगे! पर, यदि ऐसा नहीं होता है, तो उपचुनाव की हार का सारा खामियाजा सिंधिया पर थोपा जाना तय है! ऐसे में उनके साथी भी उनसे कन्नी काट सकते हैं। उपचुनाव की 28 में से 19 सीटें ऐसी हैं, जो सीधे सिंधिया-घराने के प्रभाव में है। भाजपा ने भी इनका दारोमदार पूरी तरह से सिंधिया को सौंप दिया। इन सीटों पर भाजपा की जीत का श्रेय यदि सिंधिया के खाते में दर्ज होगा, तो हार का खामियाजा भी उन्हें झेलना है। उपचुनाव के नतीजे सिर्फ शिवराज सरकार को स्थायित्व नहीं देंगे, सिंधिया की भविष्य की राजनीति के लिए भी ये निर्णायक हैं!       
000 
 
   28 विधानसभा सीटों पर मध्यप्रदेश में हो रहे उपचुनाव दो बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के उम्मीदवारों के बीच की महज सियासी जंग नहीं है। ये उपचुनाव सीधे-सीधे ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने के फैसले को सही और गलत ठहराने का इम्तिहान है। यदि कारण है कि कांग्रेस ने 'गद्दार' और 'खुद्दार' के नारे को हवा दी है। लेकिन, पलड़ा किस तरह झुकेगा ये कहना मुश्किल हैं, क्योंकि उपचुनाव वाले क्षेत्रों के मतदाता खामोश हैं। वे सबकी सुन तो रहे हैं, पर बोल नहीं रहे! ये उपचुनाव सिंधिया के सियासी फैसले के अलावा भाजपा के लिए भी नाक का सवाल बन गया! क्योंकि, सिंधिया गुट की बगावत ने भाजपा को जो फ़ायदा दिलाया, इस उपचुनाव के नतीजे से उस पर जनता की मुहर लगेगी। कांग्रेस यदि मतदाताओं से सहानुभूति के नाम पर वोट मांग रही है, तो भाजपा और सिंधिया ने कांग्रेस की 15 महीने की सरकार के फैसलों को कटघरे में खड़ा करके अपने पक्ष में वोट देने की अपील की है। मतदाता का एक वोट कई सारे फैसलों को सही और गलत ठहराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा।      
    प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका है, जब 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं! जबकि, सामान्य स्थिति में विधायकों के निधन से सिर्फ 3 सीटें खाली हुई हैं। बाकी की 25 सीटों पर कांग्रेस से बगावत के कारण उपचुनाव के हालात बने! सिंधिया समर्थक 19 विधायकों के साथ 3 और विधायकों ने कांग्रेस से विद्रोह किया था और ये संख्या 22 हो गई थी! बाद में 3 और विधायकों ने बहती गंगा में हाथ धोकर भाजपा का झंडा थाम लिया। कांग्रेस के मुताबिक उनके विधायकों की बगावत में पैसों का लेन-देन बड़ा मुद्दा है। इसमें कितनी सच्चाई है, इसके प्रमाण किसी के पास नहीं है। ये महज आरोप है! पर, आज नहीं तो कल इस पर से परदा जरूर उठेगा कि किस प्रलोभन में 22 विधायकों ने पाला बदला! यदि कोई बड़ा स्वार्थ नहीं था, तो ये बहुत बड़ी बात है कि सिर्फ सिंधिया से प्रतिबद्धता कारण 19 विधायकों ने जनादेश को ठुकराकर उनका साथ दिया! पर, यदि उपचुनाव के बाद विपरीत नतीजे आते हैं और यही प्रतिबद्धता बरक़रार रहती है, तो फिर इसे झुककर सलाम किया जाना चाहिए! अमूमन राजनीति में ऐसा त्याग कभी देखा नहीं गया। 
   उपचुनाव के नतीजे विपरीत रहने पर यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक भविष्य का नुकसान हो सकता हैं, तो नतीजे पक्ष में रहने पर उन्हें भाजपा का बड़ा नेता बनने से भी रोक नहीं सकता! स्पष्ट कहा जा सकता है, कि उपचुनाव से यदि शिवराजसिंह की सरकार को स्थायित्व मिलेगा, तो सिंधिया की राजनीति भी यहीं से नया मोड़ लेगी। उनका राजनीतिक कद, उनकी प्रतिष्ठा, उनकी रणनीति, उनके समर्थक और सिंधिया परिवार का दबदबा सबकुछ उनके 19 समर्थकों की हार-जीत से तय होगा। 28 में से जो 19 सिंधिया समर्थक इस समय मैदान में हैं, उनमें सबसे ज्यादा 16 ग्वालियर-चम्बल संभाग की सीटें हैं! यहाँ चुनाव प्रचार और मुद्दों में सिंधिया ही आगे हैं। ये वो इलाका है, जहाँ 300 सालों से सिंधिया-परिवार का दबदबा है। आजादी के बाद से ही यहाँ 'महल की राजनीति' का सम्मान रहा है! पर, अब ये सबकुछ 16 सीटों पर सिमट गया। शेष 3 सीटें (बदनावर, सांवेर और हाटपिपलिया) मालवा क्षेत्र की है। यदि इसमें से ज्यादातर सीटें उनके समर्थकों ने जीत ली, तो वे भाजपा और मध्यप्रदेश की राजनीति के केंद्र में होंगे और उनके भविष्य की दिशा भी तय हो जाएगी! पर, यदि ऐसा नहीं होता है तो उनका भविष्य मुश्किल में होगा! क्योंकि, जिस तरह के दावे करके वे भाजपा में आए हैं, उन्हें सही साबित करना भी उनकी ही जिम्मेदारी है।    
     भाजपा ने भी उन 19 सीटों का दारोमदार पूरी तरह सिंधिया को सौंप दिया है, जहाँ से उनके समर्थक भाजपा के उम्मीदवार हैं। यदि ज्यादातर उम्मीदवार ये उपचुनाव जीत गए, तो वे सिंधिया का कद इतना बड़ा कर देंगे कि प्रदेश भाजपा के कई नेता उनके सामने बौने नजर आएंगे! ये खतरा भाजपा के वे नेता भी समझ रहे हैं, जिनका राजनीतिक भविष्य सिंधिया समर्थकों की हार-जीत से तय होने वाला है। उन्हें इस बात का भी अच्छी तरह से अहसास है कि संघ और भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे बढ़ाने में कोई कमी नहीं रखेगा! नतीजे यदि सिंधिया के पक्ष में आते हैं, तो वे भाजपा में निर्णायक की भूमिका में नजर आ सकते हैं। पर, यदि संभावनाएं प्रबल हैं, तो खतरे भी उतने ही बड़े हैं। ये चुनौती सिर्फ ज्योतिरादित्य सिंधिया अकेले तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसे 'सिंधिया परिवार' की प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जा रहा है।    
   उपचुनाव के पक्षधर नतीजे यदि सिंधिया को केंद्र में मंत्री पद देंगे, तो राज्य की राजनीति में भी वे भाजपा के शीर्ष नेताओं में एक होंगे। क्योंकि, इस बहाने वे ये साबित करने में भी कामयाब होंगे कि राजनीति में पार्टी के अंदर गुट बनाकर चलने के क्या फायदे हैं! लेकिन, नतीजों के विपरीत होने पर राजनीति को लेकर उनके बहुत सारे भ्रम तो टूटेंगे, उनके गुट को भी बंटने से नहीं रोका जा सकेगा! क्योंकि, उपचुनाव हारने वाले पर न तो भाजपा अगले चुनाव में दांव लगाएगी और न सिंधिया का दबाव उनके लिए कोई फ़ायदा दिला सकेगा! इन उपचुनाव में सिंधिया के लिए उनके चार समर्थकों की जीत  सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा वाली है। तुलसी सिलावट (सांवेर), गोविंद राजपूत (सुरखी), इमरती देवी (डबरा) और प्रद्युम्नसिंह तोमर (ग्वालियर) को सिंधिया के सबसे नजदीक समझा जाता है। यदि ये 4 सीटें भाजपा ने सिंधिया के दम पर जीत ली, तो वो एक बड़ा गढ़ फतह कर लेगी! जबकि, कांग्रेस ने इन चारों को हराने पर अपना पूरा ध्यान लगा रखा है! इनमें से तुलसी सिलावट और गोविंद राजपूत के मंत्री पद की अवधि 20 अक्टूबर को ख़त्म हो रही है! यानी उन्हें बिना मंत्री रहे ही  उपचुनाव लड़ना होगा, जो आसान नहीं है। आचार संहिता की बाध्यता के कारण भाजपा चाहकर भी इन्हें दोबारा मंत्री नहीं बना सकती! इन्हीं सारी अड़चनों से सिंधिया समर्थकों को पार पाकर जंग जीतना है!                   
------------------------------------------------------------------

Saturday, October 10, 2020

हिंदी सिनेमा के प्रथम पुरुष!

हेमंत पाल

    यदि आपसे ये पूछा जाए कि हिंदी सिनेमा में अमिताभ बच्चन नहीं होते तो क्या होता! निश्चित रूप से सवाल सुनकर कोई भी दो पल को ठिठकेगा जरूर! जवाब ये भी हो सकता है, कि वे नहीं होते तो कोई और होता! लेकिन, अमिताभ के होने से सिनेमा में जो पूर्णता आई, उससे कोई कैसे इंकार करेगा!  अमिताभ बच्चन सिनेमा की दुनिया का ऐसा नाम है, जिसके बिना हिंदी फिल्मों का जिक्र अधूरा है। वे बरसों से दर्शकों के दिलों पर राज कर रहे हैं। वे ऐसे कलाकार हैं, जिन्हें तीन पीढ़ियां जानती है। लेकिन, उनके आलोचकों की भी कमी नहीं है! ये स्वाभाविक भी है! क्योंकि, असहमत होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन, अमिताभ के अभिनय, काम के प्रति उनके समर्पण और विवादों से दूर रहने की उनकी आदत को लेकर यदि कोई उंगली उठाए तो उसे सही नहीं कहा जा सकता!
      अब अमिताभ कालजयी हो चुके हैं। अपने अभिनय के दम पर उन्होंने अपनी जगह न सिर्फ बनाई, बल्कि उस शीर्ष पर काबिज हैं। वे जहाँ खड़े हैं, उसके आसपास भी कोई दिखाई नहीं देता! वे बीती आधी सदी से शिखर नायक हैं। न सिर्फ देश के हिंदी फिल्मों के दर्शक उन्हें अपना रोल मॉडल मानते हैं, ब्रिटेन, अमेरिका, सऊदी अरब, मिस्र, जॉर्डन, मलेशिया और पूरे अफ्रीका में अमिताभ का जलवा है। वे दुनिया के हर उस देश में लोकप्रिय हैं, जहां भारतीय मूल के लोग बसे हैं। जहाँ भी लोग हिंदी फ़िल्में पसंद करते हैं, वहां अमिताभ उन लोगों के दिलों में बसे हैं। लेकिन, उन्होंने ये मुकाम आसानी से नहीं पाया। वे आज अभिनय के जिस शिखर पर हैं, वहां पहुंचने में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे। शुरुआती असफलता के बाद उन्होंने सफलता का स्वाद चखा! लेकिन, फिर असफलताओं का एक ऐसा लम्बा दौर भी आया जिसका सफल काफी हिचकोले भरा था। लेकिन, वे उन थपेड़ों से भी संभल गए और अब लोकप्रियता की उस पायदान पर हैं, जहाँ उनका कोई विकल्प नहीं दिखता! 
      एक्शन का अमिताभ से बचपन से ही रिश्ता रहा है। उनके मुंडन के दिन ही अमिताभ के घर के दरवाजे पर एक सांड आया, जो उन्हें पटखनी देकर चला गया था। उससे उनके सिर में गहरा घाव हो गया और कई टांके लगे थे। अपने जीवन में अमिताभ एयरफोर्स में इंजीनियर बनना चाहते थे! पर, नियति को कुछ और ही मंजूर था। उन्होंने शुरूआती दौर में कोलकाता की एक शिपिंग कंपनी में बतौर एग्जीक्यूटिव काम किया। आज भले ही लोग उनकी गंभीर आवाज़ के दीवाने हैं, कभी इसी आवाज़ की वजह से ऑल इंडिया रेडियो ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन, उन्होंने कोलकाता में रेडियो अनाउंसर के तौर पर काम किया। अमिताभ अपने संघर्ष के दिनों को आज भी नहीं भूले। उन्होंने कई रातें मुंबई के मरीन ड्राइव के पास की बेंच पर बिताई। वे आज जब उस जगह के आसपास से गुजरते हैं, तो काफी भावुक हो जाते हैं।
   अमिताभ की हिंदी को लेकर अकसर उनकी प्रशंसा की जाती है। निश्चित रूप से ये उनके पिता की साहित्यिक पहचान का ही प्रभाव है। अमिताभ का रिश्ता एक साहित्यिक पृष्ठभूमि वाले परिवार से है। पिता की तरह उन्हें भी लिखने-पढ़ने का शौक है। फ़िल्मी दुनिया जैसे दिखावटी माहौल में रहते हुए भी उन्हें साफ़-सुथरी हिंदी बोलना पसंद है। टीवी पर उनके शो 'कौन बनेगा करोड़पति' में वे जिस तरह की हिंदी का प्रयोग करते हैं, उसे पसंद करने वालों की कमी नहीं। वे अपनी भाषा को लेकर बेहद गंभीर रहते हैं। कभी देखा नहीं गया कि उन्होंने सार्वजनिक रूप दोयम दर्जे की भाषा का प्रयोग किया हो या उनकी किसी बात पर उंगलियां उठी हों! वे हमेशा मानक हिंदी बोलते हैं। उनके शब्दों का उच्चारण अस्पष्ट नहीं होता और न वे खिचड़ी भाषा बोलते हैं। उन्होंने भाषा को स्तरीय और सुसंस्कृत बनाए रखा। वे अपनी फिल्मों के जरिए गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी लेकर जाने में सफल रहे! ऐसे क्षेत्रों में भी लोग उनकी फिल्मों के संवाद बोलते सुनाई दे जाएंगे, जहाँ हिंदी नहीं बोली जाती। 
   शुरू से ही अमिताभ की जिंदगी में उतार-चढाव आते रहे। फिल्मों दुनिया में भी सफलता और असफलता का लम्बा दौर चला! 'सात हिंदुस्तानी' से जो दौर शुरू हुआ, वो हिचकोले खाता रहा! ‘जंजीर’ की सफलता ने उनकी जिंदगी बदल दी! इस फिल्म ने उन्हें ‘एंग्री यंग मैन’ का ख़िताब भी दिया। जिसे अमिताभ ने दीवार, शोले, त्रिशूल, काला पत्थर, अमर अकबर एंथोनी, डॉन, लावारिस और ‘मुकद्दर का सिकंदर’ जैसी मारधाड़ वाली फिल्मों में जमकर भुनाया। लेकिन, फिर वे परदे से एकदम गायब से हो गए। कई फ़िल्में फ्लॉप हुई! किंतु, इसके बाद का समय ऐसा आया जिसने नए अमिताभ को जन्म दिया। आज हमारे सामने परदे की दुनिया का वही प्रथम पुरुष खड़ा है, जिसके जिक्र के बिना हिंदी फिल्म इतिहास का कोई अध्याय पूरा नहीं होता!
--------------------------------------------------------------------------------

Monday, October 5, 2020

तलवार भांजने उतरे दलबदलू और मौकापरस्त चेहरे!

  मध्यप्रदेश में सियासी जंग का माहौल बन गया। हुंकार शुरू हो गई! रणभेदी बज चुकी है। एक तरफ की सेना के ज्यादातर सेनापति घोषित हो गए! दूसरी तरफ के सेनापति घोषित तो नहीं हुए, पर कौन होंगे ये पहले से तय है। बहुत से चेहरे वही हैं, जो कुछ महीने पहले सामने वाली सेना में थे! लेकिन, दोनों ही तरफ के ज्यादातर सेनापतियों की अपनी सेना के प्रति समर्पण की कसमें नहीं खाई जा सकती! पहले उनकी प्रतिबद्धताएं कुछ और थीं, अब और है! लेकिन, जो भी सेनापति अपनी सेना के लिए आगे आकर तलवार भांजेंगे, उनकी जीत इस बात पर भी निर्भर है कि उनके साथी कितना साथ देते हैं। ये सियासती जंग इसलिए महत्वपूर्ण कि जो भी सेना जीत का परचम लहराएगी वही प्रदेश पर राज करेगी। इन दोनों सेनाओं की जंग के बीच एक तीसरी सेना ने भी हथियार तो उठाए, पर उनकी मौजूदगी कोई कमाल कर सकेगी, ऐसा नहीं लगता! 

000 

- हेमंत पाल 
   
   प्रदेश में उपचुनाव के लिए कांग्रेस ने 28 में से 24 सीटों के उम्मीदवार घोषित कर दिए! बाकी बची 4 सीटें कुछ पेंच होने से रूक गईं! जबकि, भाजपा की 3 सीट छोड़कर 25 उम्मीदवार तय हैं, पर घोषित नहीं! ख़ास बात यह कि दोनों ही पार्टियों में बहुत से उम्मीदवार दलबदलू हैं या मौकापरस्त! ऐसी स्थिति में जब वे मैदान में आएंगे, उन्हें खुले और अंदरूनी दोनों तरफ से विरोध का सामना करना पड़ेगा। दोनों ही पार्टियों को यही चिंता सता रही है! इस स्थिति से बचने के लिए दोनों पार्टियां अपने समर्पित कार्यकर्ताओं को समझाने और सक्रिय करने की कोशिश में लगी हैं। इसका सबसे बड़ी वजह है कि ये उपचुनाव प्रदेश में सरकार का भविष्य निर्धारित करेंगे! चुनाव के नतीजों से तय होगा कि मध्यप्रदेश में भाजपा की शिवराज सरकार चलती रहेगी या कमलनाथ कांग्रेस के सत्ता-रथ पर सवार होकर फिर लौटेंगे! 
   उपचुनाव की स्थितियों के मुताबिक भाजपा को अपने 28 उम्मीदवारों की घोषणा पहले करना थी! क्योंकि, 25 सीटों पर कौन योग्य है, ये तो पार्टी को विचार ही नहीं करना था! जबकि, कांग्रेस ने चुनाव की घोषणा से पहले ही अधिकांश उम्मीदवार सामने खड़े कर दिए! लेकिन, 15 उम्मीदवारों की पहली लिस्ट में 6 ऐसे चेहरे हैं, जो दल बदलकर उम्मीदवार बने हैं। ये भाजपा या बसपा से कांग्रेस में आए हैं। कांग्रेस की दूसरी सूची में 9 उम्मीदवार घोषित किए गए। इनमें भी तीन ऐसे चेहरे हैं, जो भाजपा से कांग्रेस की नाव में बैठे हैं। कांग्रेस ने 24 में से 9 ऐसे उम्मीदवारों पर दांव लगाया, जिनमें 7 भाजपा से आए हैं और 2 बसपा से! कांग्रेस का कहना है कि हमने इन्हें अपने पार्टी सर्वे में जीतने वाले चेहरे पाया है! कहा नहीं जा सकता कि कांग्रेस ने जिन्हें अपने सर्वे में योग्य पाया है, उन्हें उस क्षेत्र में मतदाता भी योग्य समझें! संभव है कि दल बदलकर चुनाव लड़ने वालों को विरोध का सामना करना पड़े। लेकिन, भाजपा में ऐसे उम्मीदवारों भरमार हैं। वास्तव में ये चुनाव ऐसे चेहरों के बीच होना है,जो या तो दलबदलू हैं या फिर जिन्होंने मौका देखकर पाला बदला है। 
   बसपा के पूर्व विधायक, प्रदेश अध्यक्ष रहे और कुछ महीने पहले कांग्रेस के राज्यसभा उम्मीदवार रहे फूलसिंह बरैयां को कांग्रेस ने भांडेर सीट से टिकट दिया है। उनके सामने होंगी कांग्रेस से भाजपा में आने वाली रक्षा सरौनिया! दोनों ही अपनी मूल राजनीतिक विचारधारा से हटकर आमने-सामने हैं।
यही स्थिति करैरा सीट पर हैं, कांग्रेस के टिकट पर प्रागीलाल जाटव को उम्मीदवार बनाया है। वे दो बार बसपा से चुनाव लड़ चुके हैं। यदि भाजपा ने कोई बदलाव नहीं किया तो उनका मुकाबला जसवंत जाटव से होगा, जो सिंधिया टीम का हिस्सा हैं। बमौरी सीट से कांग्रेस ने अपने सर्वे में कन्हैयालाल अग्रवाल को जीतने वाला उम्मीदवार समझा है। जबकि, वे पहले भाजपा में थे और मंत्री भी रहे हैं। उनका मुकाबला महेंद्रसिंह सिसौदिया से होना तय है, जो सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा आए हैं। कांग्रेस ने सांवेर से प्रेमचंद गुड्डू और डबरा से सुरेश राजे को मैदान में उतारा है! ये दोनों ही दलबदलू हैं। डबरा के कांग्रेस उम्मीदवार वास्तव में भाजपा की संभावित उम्मीदवार और मंत्री इमरती देवी के समधी हैं। वे पहले भाजपा के टिकट पर चुनाव भी लड़ चुके हैं। बाद में इमरती देवी ही उन्हें कांग्रेस में लेकर आई थीं। अंबाह से भाजपा के संभावित उम्मीदवार कमलेश जाटव के सामने कांग्रेस ने जिसे उम्मीदवार बनाया है, वे सत्यप्रकाश सखवार बसपा से कांग्रेस में आए हैं। 
     कांग्रेस की दूसरी सूची में जौरा से पंकज उपाध्याय, सुमावली से अजब कुशवाह, ग्वालियर (पूर्व) से सतीश सिकरवार, पोहरी से हरिवल्लभ शुक्ला, मुंगावली से कन्हैयाराम लोधी, सुरखी से पारूल साहू, मांधाता से उत्तमराज नारायण सिंह, बदनावर से अभिषेक सिंह टिंकू बना और सुवासरा से राकेश पाटीदार को उम्मीदवार बनाया गया। दूसरी सूची में सतीश सिकरवार, अजब कुशवाह एवं पारूल साहू उपचुनाव के लोभ में भाजपा से कांग्रेस में आए हैं। लेकिन, बदनावर से उम्मीदवार बदला जाना तय समझा जा रहा है। क्योंकि, अभिषेक सिंह को कांग्रेस ने अपने सर्वे में भले जिताऊ समझा हो, पर वास्तव में वो अनजाना चेहरा है! 
   विधानसभा की कुल 230 सीटों में भाजपा के 107 विधायक हैं! जबकि, कांग्रेस के 88, चार निर्दलीय, दो बसपा एवं एक विधायक सपा का है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 28 सीटों में से 12 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित किए हैं। बसपा ने ग्वालियर-चंबल इलाके के 8 उम्मीदवारों की घोषणा सबसे पहले करके अपनी मौजूदगी का अहसास करा दिया था। लेकिन, उत्तरप्रदेश से बाहर बसपा चुनाव के प्रति गंभीर कभी नहीं लगी! वो हमेशा वोट-कटवा पार्टी की तरह मैदान उतरती है। 2018 के मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में बसपा को 5% वोट मिले और उसके 2 उम्मीदवार जीते थे। लेकिन, बसपा को मालवा-निमाड़ इलाके में कोई खास तवज्जो कभी नहीं मिली। इस पार्टी की हमेशा ही कोशिश रही है, कि किसी एक पार्टी को बहुमत न मिले और उसके इक्का-दुक्का विधायक संतुलन की राजनीति की कीमत वसूलें! इस बार 28 सीटों के उपचुनाव में भी ऐसे हालात बन सकते हैं, इसलिए मायावती ने अपनी पार्टी को सक्रिय कर दिया। 
   बहुजन समाज पार्टी ने पहली सूची में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की आठ सीटों से उम्मीदवारों की घोषणा की। ये वो सीटें हैं, जहाँ से बसपा को हमेशा ही अच्छे वोट मिलते रहे हैं। पार्टी ने जौरा से सोनाराम कुशवाह, मुरैना से रामप्रकाश राजोरिया, मेहगांव से योगेश मेघसिंह नरवरिया, पोहरी से कैलाश कुशवाहा (सभी सामान्य सीट), अंबाह से भानुप्रताप सखवार, गोहद से जसवंत पटवारी, डबरा से संतोष गौड़ और करैरा से राजेन्द्र जाटव (सभी अनुसूचित जाति सीट) को उपचुनाव के लिए उम्मीदवार बनाया है!  प्रदेश में 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में बसपा ने दो सीटें जीती थीं। ये दोनों ही विधायक अपनी राजनीतिक परंपरा के तहत पहले कांग्रेस के साथ थे, बाद में भाजपा के समर्थन में आ गए। 
   बसपा ने दूसरी सूची में मालवा-निमाड़ की 4 सीटों के लिए उम्मीदवार घोषित किए हैं। इनमें 2 सीटें आरक्षित और 2 सामान्य है। सांवेर (सुरक्षित) से विक्रम सिंह गेहलोत, मांधाता सीट से जितेंद्र वाशिन्दे, सुवासरा से शंकरलाल चौहान और आगर-मालवा (सुरक्षित) सीट से गजेंद्र बंजारिया को उम्मीदवार बनाया है। सांवेर सीट से विक्रम गेहलोत को टिकट देकर बसपा ने मुकाबले को दिलचस्प जरूर बना दिया। उन्हें बलई समाज के वोट काटने के लिए उतारा है। क्योंकि, यहाँ से दोनों प्रमुख उम्मीदवार तुलसी सिलावट और प्रेमचंद गुड्डू खटीक समाज से हैं। लेकिन, यहाँ बलई मतदाता इतने हैं कि वे नतीजा बदल सकते हैं। इस समाज की हमेशा ही टिकट की मांग रही है, पर न तो कांग्रेस ने टिकट दिया और न भाजपा ने! यही कारण रहा कि इस बार समाज ने बसपा के साथ मिलकर दांव लगाया है। वे जीत न सकें, पर कांग्रेस और भाजपा की नाक में दम तो कर ही सकते हैं।  
-----------------------------------------------------

Sunday, October 4, 2020

परदे के कैनवस पर 'यश' की प्रेमकथाएं!  

हेमंत पाल
     जब से हिंदी फिल्म निर्माण का दौर शुरू हुआ, फ़िल्मकारों ने अपनी पसंद और दर्शकों के मिजाज के मुताबिक फिल्म बनाना शुरू किया। शुरूआती दौर में धर्म आधारित कहानियों पर कई फ़िल्में बनी। उस समय 'रामायण' और 'महाभारत' के प्रसंग ही ऐसे विषय थे, जिन्होंने दर्शकों को सिनेमाघर तक आने के लिए मजबूर किया। लेकिन, धीरे-धीरे प्रेम कहानियां दर्शकों की पहली पसंद बनी। बॉलीवुड में प्रेम कथाओं को पसंद करने वालों का नया दर्शक वर्ग खड़ा हो गया। परदे पर कई खूबसूरत प्रेम कहानियों को जीवंत किया गया। किंतु, बॉलीवुड को यश चोपड़ा नाम का एक ऐसा फ़िल्मकार मिला, जिसने फिल्मों में प्रेम की परिभाषा ही बदल दी! उन्होंने फिल्मों में प्रेम कहानियों को सेलुलॉइड पर उकेरने का नजरिया हमेशा के लिए ही बदल दिया। 
    आजादी के बाद जब धार्मिक फिल्मों से दर्शक उबने लगे तो आजादी की कहानियों को फिल्मों के विषय बनाया। लेकिन, धीरे-धीरे निर्माता, निर्देशकों ने दर्शकों की पसंद के मुताबिक खुद को ढालना शुरू किया और 60 के दशक के आते-आते प्रेम को वरीयता दी जाने लगी! राजकपूर की आरके फिल्म्स, चेतन आनंद और देवआनंद की नवकेतन, रामानंद सागर की सागर आर्ट और यश चोपड़ा की यशराज फिल्म्स ने कुछ ऐसे विषय चुनना शुरू किए, जिसमें उनकी महारथ थी! रोमांस इन सभी का सबसे ज्यादा पसंदीदा विषय था, पर उसके प्रस्तुतीकरण का सबका अपना अंदाज अलग था। इनमें यश चोपड़ा अकेले ऐसे फ़िल्मकार थे, जिन्होंने पारिवारिक पृष्ठभूमि में प्रेम को गढ़ा! लेकिन, बीच में 'दीवार' जैसी एक्शन फिल्म भी बनाई, जो हिंदी फिल्म इतिहास में मील का पत्थर बनी! उन्होंने 'कभी-कभी' में अमिताभ बच्चन को प्रेमी की तरह पेश किया तो 'दीवार' से उसी अमिताभ को 'एंग्री मैन' बना दिया। इस जोड़ी ने ‘कभी कभी’ और ‘त्रिशूल’ जैसी फिल्में भी दी।                
    अपने पांच दशक के करियर में यश चोपड़ा ने परदे पर प्रेम की नई परिभाषा को गढ़ा है। ख़ास बात ये कि उनकी फिल्मों में प्रेम नदी के नैसर्गिक बहाव की तरह बहता दिखाई देता है! कभी ऐसा नहीं हुआ कि फिल्म के किसी प्रेम दृश्य को देखकर नजरें चुराना पड़ी हो! ये उनके निर्देशन का ही कमाल था कि अपने निर्देशन की पहली फिल्म 'दाग' में उन्होंने राजेश खन्ना से हत्या भी करवाई, पर प्रेम के धरातल में उस पात्र को कहीं कमजोर नहीं पड़ने दिया। इसलिए कि वे दर्शकों की नब्ज को अच्छी तरह पहचानते थे। किस दौर में दर्शक को मनोरंजन की कौनसी खुराक चाहिए, ये उन्हें पता था। उनका करियर भाई बीआर चोपड़ा के साथ अलग तरह की फिल्मों के साथ शुरू हुआ था! यश चोपड़ा की पहली सबसे फिल्म ‘वक़्त’ को माना जाता है! 1965 में आई इस फिल्म से ही फिल्मों में मल्टी स्टार का चलन शुरू हुआ। किंतु, उन्हें सिलसिला, चांदनी, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे और 'वीर जारा' जैसी प्रेम में पगी फिल्मों के लिए याद किया जाएगा।
    अपने करियर के शुरूआती दौर में यश चोपड़ा ने पारिवारिक कहानियों में एक्शन को जोड़कर फ़िल्में बनाई! यही कारण है कि 'दीवार' और 'त्रिशूल' पूरी तरह एक्शन फ़िल्में थीं, पर उसे पारिवारिक कहानियों के धागे में पिरोया गया था! दोनों ही फिल्मों में अमिताभ ने ऐसे विद्रोही बेटे का किरदार निभाया जो माँ की ममता से बंधा रहता है। 'त्रिशूल' में एक गाना था 'मोहब्बत बड़े काम की चीज है, ये कुदरत के ईनाम की चीज है!' अमिताभ और शशि कपूर पर इस गाने में प्रेम को बेकार और बेदाम की चीज भी बताया गया था! लेकिन, यश चोपड़ा ज्यादा दिन प्रेम के जादू से अलग नहीं रह सके। उन्होंने ‘चांदनी’ से रोमांटिक फिल्मों की शुरूआत की, तो फिर पीछे नहीं मुड़े! इसके बाद अनिल कपूर और श्रीदेवी को लेकर ‘लम्हे’ में नया प्रयोग भी किया। लेकिन, उनकी प्रेम की पारी में उनके साथी बने शाहरुख़ खान! उनके साथ 1993 में उनका सफर ‘डर’ के साथ शुरू हुआ था। शाहरुख ने एक पागल प्रेमी की ऐसी भूमिका निभाई थी, जिसका आज भी कोई जोड़ नहीं मिलता! 
     यश चोपड़ा ने फिल्म निर्माण में दर्शकों के मूड और वक़्त की नजाकत का भी बहुत ध्यान रखा! यही कारण है कि उनकी फ़िल्में समयकाल से जुड़ी लगती थीं। जब लोगों के बीच अमिताभ बच्चन और रेखा के बीच पनपता प्रेम और जया बच्चन की आपत्ति चर्चा में थी, उन्होंने इन तीनों को लेकर 'सिलसिला बनाई! फिल्म की कहानी इन तीनों की असल जिंदगी से अलग थी, पर रेखा और जया के बीच का तनाव और अमिताभ का दो हिस्सों में बंटा हर दर्शक ने महसूस किया। फिल्म के दो पात्रों के बीच पनपता प्रेम और पति-पत्नी के रिश्तों में बढ़ती उलझन को दर्शकों ने उनकी असल जिंदगी से जोड़कर देखा। लोगों को ये भी लगा कि यह सिर्फ फिल्म के रची गई प्रेम कहानी नहीं, बल्कि दो दिलों के मिलने और बिछुड़ने की असली दास्तान है। विवाहेत्तर रिश्तों पर बनी इस फिल्म में अमिताभ और रेखा की केमिस्ट्री चर्चा में रही। ऐसे में तीसरे कोण पर खड़ी जया को देखकर दर्शकों की आँखें भी गीली हुई! दर्शकों के लिए ये फिल्म नहीं, सच्ची कहानी का फिल्मांकन जैसा था। तब कहा गया था कि इन तीनों को साथ लेकर यश चोपड़ा ही फिल्म बना सकते थे!  
     यश चोपड़ा की आखिरी फिल्म थी ‘जब तक है जान!’ अपने 80वें जन्मदिन के मौके पर 2018 में उन्होंने कहा था कि ये उनकी अंतिम फिल्म है। अब वे फिल्मों से बिदा होकर परिवार के साथ रहेंगे! इस फिल्म के पूरा होने से पहले ही वे काम से तो मुक्त हो गए! लेकिन, परिवार के साथ नहीं रह सके! 21 अक्टूबर, 2012 को प्रेम का ये चितेरा अपनी कूंची साथ लेकर चला गया! 
----------------------------------------------------------------------------------