Saturday, October 17, 2020

परदे की कास्ट्यूम कला का पूर्णविराम

हेमंत पाल

   फिल्मों के बारे में एक सामान्य दर्शक की रूचि उस फिल्म के कलाकार, निर्देशक और संगीतकार को जानने से ज्यादा नहीं होती! वास्तव में दर्शक को इससे ज्यादा जानने की जरूरत भी नहीं है। ऐसे में किसी फिल्म के कास्ट्यूम डिज़ाइनर के बारे में उसे जानकारी होने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। लेकिन, इस दुरूह पहचान में भी भानु अथैया ने अपनी जगह बनाई! अब, जबकि वे इस दुनिया से बिदा हो गईं, उन्हें याद करने के लिए किसी को दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं डालना पड़ा! क्योंकि, 'गाँधी' में कास्ट्यूम डिजाइन करने उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जो पहचान बनाई थी, वो आज भी ताजा है। वे अपने पीछे हिंदी फिल्मों में कॉस्ट्यूम डिजाइन की बहुत बड़ी विरासत छोड़ गई हैं। उन्होंने 'गाँधी' फिल्म के जरिए देश के लिए पहला 'ऑस्कर अवॉर्ड' पाया था। भानु ने हॉलीवुड में भी अपनी कला का जलवा दिखाया और कई विदेशी फिल्मकारों के साथ काम किया। कॉस्टयूम डिजाइनर के तौर पर भानु अथैया ने पाँच दशक के करियर में 100 से भी ज्यादा फिल्मों में योगदान दिया। उनकी आखिरी फिल्म थी आमिर खान की 'लगान' और शाहरुख खान की 'स्वदेस' जिसमें उन्होंने अपनी कला दिखाई थी। भानु ने अपने करियर में गुरुदत्त, राज कपूर, यश चोपड़ा, आशुतोष गोवारिकर, गुलजार से लगाकर आमिर खान की फिल्मों समेत कई बड़े निर्देशकों के साथ काम किया।
    फिल्मों में कास्ट्यूम डिजाइनिंग की अपनी अलग अहमियत होती है। इसमें कल्पना का भी समावेश होता है और कला का भी! कहानी और समयकाल के मुताबिक कलाकारों के लिए कपडे डिजाइन करने की कला ही कास्ट्यूम डिजाइनिंग कहलाती है। भानु ने कई हिंदी फिल्मों में कपड़ों को डिजाइन करके अपनी जगह बनाई थी। उन्हें सबसे पहले 1956 में आई देवआनंद की फिल्म 'सीआइडी' की फिल्म में अपनी कला दिखाने का मौका मिला था। लेकिन, उनको सबसे ज्यादा पहचान मिली रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गाँधी' से! 1983 में भानु को 'गांधी' के लिए ऑस्कर में 'बेस्ट कॉस्ट्यूम डिजाइनर अवॉर्ड' से नवाजा गया था। रिचर्ड एटनबरो ने एक बार कहा था कि मुझे 'गाँधी' बनाने में 17 साल लग गए थे। लेकिन, फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा यानी कास्ट्यूम डिजाइनिंग के लिए भानु अथैया का नाम फाइनल करने में मुझे महज 15 मिनट लगे। उनके आईडिया सुनकर ही मेरे दिमाग ने यह फाइनल कर लिया था कि फिल्म में कॉस्ट्यूम का काम भानु से बेहतर कोई नहीं कर सकता! भानु ने चित्रकारी में गोल्ड मेडेलिस्ट थीं, ये भी एक वजह थी कि रिचर्ड एटनबरो ने उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए चुना था। 
   अथैया ने कोनराड रूक की ‘डेयरिंग सिद्धार्थ’ और कृष्णा शाह की ‘शालीमार’ जैसी अंतरराष्ट्रीय फिल्मों के अलावा जर्मन शॉर्ट फिल्म ‘द क्वाउड डोर’ के लिए भी काम किया था। उन्हें गुलजार की फिल्म ‘लेकिन’ (1990) और आशुतोष गोविरकर की फिल्म ‘लगान’ (2001) के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। 55वें ऑस्कर अवॉर्ड 11 अप्रैल 1983 को आयोजित हुए थे, जिसमें भानु को ऑस्कर मिला था। इसके करीब 26 साल बाद भारत के किसी व्यक्ति को दूसरा ऑस्कर अवॉर्ड मिला जो म्यूजिक डायरेक्टर एआर रहमान लेकर आए थे।
    साल 2012 में भानु अथैया ने ऑस्कर अवॉर्ड की ट्रॉफी 'एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज' को लौटाने की इच्छा व्यक्त की थी! इसके पीछे उनका तर्क था कि इस अनमोल धरोहर की सुरक्षा के लिए उनका परिवार और भारत सरकार सक्षम नहीं हैं। इसलिए ये अवॉर्ड अकादमी के संग्रहालय में ज्यादा सुरक्षित और सुव्यवस्थित रहेगा। वे चाहती थीं कि उनके बाद ऑस्कर की इस ट्रॉफी को लोग देखें! भारत में ऐसे कई अवॉर्ड चोरी हुए हैं। इसलिए भानु चाहती थी कि ये ट्रॉफी हमेशा सुरक्षित रहे! अगर उनकी ये ट्रॉफी ऑस्कर अकादमी के ऑफिस में रखी रहेगी, तो इसे ज़्यादा लोग इसे देख पाएंगे। भानु का कहना था कि मैं कई बार ऑस्कर अकादमी के ऑफिस में गई हूँ। वहाँ मैंने कई लोगों की ट्रॉफी रखी हुई देखी हैं! मुझे बताया गया कि ऑस्कर अवॉर्ड मिलने के बाद कुछ लोगों ने इस ट्राफी की सुरक्षा और सम्मान के लिए इसे अकादमी के ऑफिस को सौंप दिया है।अमेरिकी कॉस्ट्यूम डिजाइनर एडिथ हेड ने भी अपने 8 ऑस्कर ट्रॉफियों को अकादमी में रखवा दिया था! 2010 में अथैया ने कास्ट्यूम डिजाइनिंग पर अपनी किताब 'द आर्ट ऑफ़ कॉस्ट्यूम डिज़ाइन' रिलीज़ की, जिसे हॉर्पर कोलिंस ने प्रकाशित किया था।
   भानु अथैया ने कभी किसी फैशन स्कूल में कॉस्ट्यूट डिजाइन की पढ़ाई नहीं की। उन्होंने महिलाओं की  पत्रिकाओं के लिए फ्रीलांस फैशन इलस्ट्रेटर के रूप में काम किया था। इससे उनकी पहचान बनी और गुरुदत्त ने 1956 में उन्हें 'सीआईडी' से बतौर कॉस्ट्यूम डिजाइनर जिम्मेदारी सौंपी। इसके बाद गुरुदत्त की फिल्म प्यासा (1957), चौदहवीं का चांद (1960) और 'साहिब बीबी और गुलाम' में भी कास्ट्यूम डिजाइनिंग की। इसके अलावा उन्होंने कागज के फूल (1959), वक्त (1965), गाइड (1965), तीसरी मंजिल (1966), पत्थर के सनम (1967), मेरा नाम जोकर (1970), जॉनी मेरा नाम (1970), अनामिका (1973), सत्यम शिवम सुंदरम (1978), कर्ज (1980), राम तेरी गंगा मैली (1985), चांदनी (1989), 1942: अ लव स्टोरी और स्वदेस (2004) जैसी फिल्मों के लिए भी काम किया। 
   भानु का कहना था कि मेरे लिए सिनेमा का काम खुद को अभिव्यक्त करने और मेरी कल्पना को उड़ान देने का एक रास्ता है। यह काम इतनी संपूर्णता लिए हुए होता है, कि मैंने कभी अपना बुटीक खोलने के बारे में भी नहीं सोचा। जबकि, मुझे कई लोगों ने सलाह दी! कई बड़े कलाकार मेरे पास आते थे और फिल्म निर्देशकों से मेरे नाम की सिफारिश करते थे। भानु ने एक साक्षात्कार में बताया था कि नरगिस को मेरे डिजाइनर कपड़े बहुत पसंद थे! उन्होंने कई बार मुझे इसे व्यवसाय बनाने का भी कहा, लेकिन मेरी संतुष्टि फिल्मों के लिए काम करना ही रहा! ऑस्कर जीतने के बाद भानु अथैया ने उस शाम को याद करते हुए कहा था कि 1983 में डोरोथी शिंडलेयर पवेलियन में हो रहे उस समारोह में मेरे साथ कार में फिल्म के लेखक भी थे! उन्होंने तभी कह दिया था कि मुझे लगता है बेस्ट कास्ट्यूम डिजाइन का अवॉर्ड आपको ही मिलेगा! ऑस्कर समारोह में आए दूसरे प्रतियोगी डिज़ाइनर्स का भी यही कहना था कि अवॉर्ड मुझे ही मिलेगा। उत्सुकतावश मैंने पूछा कि आप इतने विश्वास से कैसे कह सकते हैं? इस सवाल पर उन लोगों का जवाब था कि आपकी फिल्म का दायरा बहुत बड़ा है, हम उससे मुकाबला नहीं कर सकेंगे! 
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