- हेमंत पाल
बॉलीवुड में हर साल सैकड़ों फ़िल्में बनती हैं। सबके कथानक तो अलग-अलग होते हैं, पर इनके फॉर्मूले में कोई अंतर नहीं होता। एक कहानी, कुछ गाने, बीच में इंटरवल और फिल्म का अंत सकारात्मक! इससे अलग कुछ नहीं होता! लेकिन, जिस फ़िल्मकार ने इससे अलग हटकर कुछ किया, वो फिल्म इतिहास में दर्ज हो गया! बिना गानों वाली फिल्म, एक पात्रीय अभिनय वाली फिल्म और एक रात की कहानी पर फिल्म बनाने जैसे प्रयोगों के अलावा बिना इंटरवल वाली फिल्म बनाना भी ऐसा ही अनोखा प्रयोग है। सौ सालों से ज्यादा के हिंदी फिल्म इतिहास में ऐसी फ़िल्में बहुत कम बनी, जिसमें कोई इंटरवल नहीं था! ऐसा करने का सिर्फ यही मकसद था कि दर्शकों को फिल्म के कथानक के रोमांच से बांधकर रखना! इस प्रयोग को जिस भी फिल्म में अपनाया गया, उस फिल्म में इस बात का भी ध्यान रखा गया कि फिल्म की लम्बाई ज्यादा न हो! क्योंकि, ढाई-तीन घंटे तक दर्शकों को किसी सनसनी या रोमाँच में बांधकर नहीं रखा जा सकता! याद किया जाए, तो सिर्फ तीन ही फ़िल्में याद आती है, जिनमें दर्शकों को आधी फिल्म के बाद सीट से उठने का मौका नहीं दिया गया। लेकिन, इस प्रयोग में सफल होने वाली राजेश खन्ना की पहली फिल्म थी।
संभवतः यश चोपड़ा पहले ऐसे फ़िल्मकार थे, जिन्होंने बिना इंटरवल के 'इत्तेफ़ाक' (1969) बनाने का साहस किया था। इसके पीछे उनका सोच था कि दर्शकों को फिल्म की कहानी इतना बांध ले कि वे सीट से न उठें! वास्तव में ऐसा हुआ भी था। ये एक ऐसी मर्डर मिस्ट्री थी, जिसमें न तो इंटरवल था और न कोई गाना! फिल्म का कथानक अंग्रेजी नाटक ‘साइनपोस्ट टु मर्डर’ से प्रेरित था। इस फिल्म में राजेश खन्ना ने एक पेंटर की भूमिका निभाई थी, जिस पर अपनी पत्नी अरूणा ईरानी को मारने का इल्जाम लगता है। पुलिस से बचने के लिए राजेश खन्ना जिस घर में घुसते हैं, उस घर की मालकिन (नंदा) ने भी अपने पति की हत्या करके उसकी लाश को घर में छुपाया था! फिल्म का रोमांच ऐसा था कि दर्शकों को इंटरवल न होने का अहसास ही नहीं हुआ! यश चोपड़ा ने ये फिल्म एक गुजराती नाटक 'धूमस' देखकर बनाई थी, जो अंग्रेजी नाटक का रूपांतरण था! ये फिल्म मात्र 20 दिन में बनी थी और पसंद भी की गई थी।
पहली फिल्म के बरसों बाद 2010 में बिना ब्रेक का फार्मूला आमिर खान ने अपनी फिल्म 'धोबी घाट' में अपनाया! सीमित बजट और लीक से हटकर बनी इस फिल्म को आमिर की पत्नी किरण राव ने डायरेक्ट किया था। इसमें आमिर खान के अलावा कोई नामचीन चेहरा नहीं था। लेकिन, फिल्म का कथानक इतना सशक्त था कि दर्शक डेढ़ घंटा बंधकर रहे! ये फिल्म चार अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए किरदारों की कहानी है, जो कुछ नया करना चाहते हैं। ये चारों एक-दूसरे से अलग हैं! फिर भी आपस में जुड़े हैं। वे मुंबई की बुराई करते हैं, लेकिन इससे दूर भी नहीं रह पाते! उनके दर्द के पीछे उनका अतीत छुपा है। वे बहुत कुछ करना चाहते हैं! पर, मन मसोसकर रह जाते हैं! मान लेते हैं कि यही उनकी जिंदगी और नियति है! मोनिका डोगरा जो बैंकर लेकिन उसे फोटोग्राफी पसंद है। आमिर खान ने अपना जीवन चित्रकारी को समर्पित कर रखा है! किंतु, उसका जीवन कला और सोच के बीच बंटा हुआ है। कृति मल्होत्रा ने ऐसा किरदार निभाया, जो अपने भाई से दूर होकर दुखी है! अंदर से दुखी होकर भी वो सबके सामने खुश होने नाटक करती है! चौथा किरदार प्रतीक बब्बर है, जो धोबी है, लेकिन उसे हीरो बनने का जुनून है। वो सलमान खान को अपना फेवरेट मंटा है। लेकिन, यह नहीं जानता कि जीवन में आसानी से कुछ नहीं मिलता!
2016 में आई 'ट्रैप्ड' भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें इंटरवल नहीं था। फिल्म के नाम से ही स्पष्ट है कि इसकी कहानी किसी पात्र के कहीं फंसे होने पर केंद्रित होगी। मुंबई के एक खाली पड़े अपार्टमेंट में राजकुमार राव फंस जाता है। वहाँ कोई सुविधा नहीं होती। उसके पास न तो खाने को कुछ होता है, न बिजली होती है न पानी! वहां कॉकरोच और चूहों की भरमार होती है। अपने फंसे होने की सूचना देने के लिए राजकुमार राव क्या-क्या हथकंडे करता है, यही इस फिल्म का रोमांच था। मुंबई जैसे शहर में कोई कहीं फंस जाए और उसे निकलने में इतनी जद्दोजहद करना पड़े, ये आसानी से हज़म होने वाली बात नहीं है! फिल्म में हल्की सी झलक हॉलीवुड की फिल्मों जैसी जरूर मिली थी, पर फिल्म ठेठ मुम्बइया स्टाइल की थी। फंसे होने की पीड़ा हो राजकुमार राव ने बखूबी निभाया था, पर कथानक की कमजोरी फिल्म को बचा नहीं सकी थी।
इन तीन फिल्मों के अलावा किसी ने इस तरह का प्रयोग किया हो, ये याद नहीं आता! पर, राजकपूर ने दो ऐसी फ़िल्में बनाई जिनमें दो इंटरवल थे। पहले बनाई 'संगम' (1964) फिर बनाई 'मेरा नाम जोकर' (1970) जैसी फिल्म भी बनाई जिसकी लम्बाई इतनी थी कि उसमें दो इंटरवल करना पड़े थे। इस फेहरिस्त में भीष्म साहनी के उपन्यास पर बनी तमस, जेपी दत्ता की 'एलओसी' और राजश्री की 'मैंने प्यार किया' के अलावा 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' का नाम लिया जा सकता है। विवादस्पद कहानी होने के कारण 'तमस' को टीवी पर सीरियल की तरह दिखाया गया। 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' के दो हिस्से करना पड़े और फिल्म की लम्बाई कम करना पड़ी।
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