Tuesday, October 20, 2020

संस्कारहीन चुनावी राजनीति की अमर्यादित भाषा शैली!

  मध्यप्रदेश की 28 विधानसभा सीटों के उप चुनाव का राजनीतिक घटनाक्रम देखकर लगता है कि अब राजनीति पूरी तरह दिशाहीन होकर भटक गई! प्रचार में कोई भी पार्टी अपनी उपलब्धि या भविष्य की योजनाओं की बात नहीं कर रही! सारा जोर एक-दूसरे पर लांछन लगाने और अमर्यादित भाषा बोलने तक सीमित हो गया! इसमें कोई भी पार्टी पीछे नहीं है। कीचड़ उछालने का अंतहीन खेल शुरू हो गया। कटाक्ष वाली घटिया भाषा को चुनाव प्रचार समझ लिया गया! खुद को ईमानदार और दूसरे को चोर कहने में कोई संकोच नहीं हो रहा! वास्तव में ये स्तरीय राजनीति की भाषा नहीं है! अभी तक मध्यप्रदेश इससे अछूता था। पर, अब ये गंदगी यहाँ भी बरसने लगी! मीडिया भी चटखारे लेकर ऐसे भाषणों को सुर्खियां बना रहा है! 
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- हेमंत पाल 

    चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में सत्ता की दावेदार पार्टियों के बीच भाषा बहकने की घटनाएं आम होती जा रही है। प्रचार की ये वो गंदगी है, जिसे रोकने की कोई भी कोशिश अब तक कामयाब नहीं हो सकी! क्योंकि, पार्टियों के बड़े से लगाकर छोटे नेता तक यही भाषा बोल रहे हैं, तो कार्यकर्ता भी वही बोलने लगते हैं। क्योंकि, उन्हें लगता है कि यही सही भाषा होगी! हमारे यहाँ शब्द को ब्रह्म मानने की परंपरा है। लेकिन, राजनीति में इसी ब्रह्म शब्द की जो हालत हो रही है, उससे सभी वाकिफ हैं। राजनीति में प्रचार की भाषा ने समाज में जो भावना पैदा की है, उसने ही हिंसा की स्थितियों को जन्म दिया। इसी तरह की भाषा ने ग़ैर-संस्थागत शक्तियों को भी सड़क पर हिंसात्मक स्थितियां बनाई हैं। राजनीति में चुनाव प्रचार की इसी असभ्य भाषा ने हिंसा को उकसाया और उसे मॉब लिंचिंग तक ले आया। जिस तरह के कटाक्ष किए जाने लगे हैं, वो गलियों से ज्यादा बुरी भाषा है। कुछ समाजों में गालियां उनकी संस्कृति का हिस्सा हैं, लेकिन अब ये उस समाज में भी शरीक हो गए जिसका प्रतिनिधित्व राजनीति करती है। 
    राजनीति की मौजूदा भाषा ने समाज में भय के साथ आक्रामकता पैदा की है! ऐसी ही किसी मानसिकता से समाज में मॉब लिंचिंग का जन्म हुआ है। इसलिए कि राजनीति में जब भाषा की मर्यादा के बंधन टूटते हैं, तो सबसे ज्यादा महिलाओं को ही निशाने बनाया जाता है। चुनाव प्रचार में भाषा के गिरते स्तर से महिलाएँ सबसे ज्यादा दुखी हैं। जब राजनीति के मंचों पर ऐसी भाषा का उपयोग किया जाएगा, तो कैसा समाज बनेगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। राजनीति में महिलाओं के प्रति सोच इतनी गंदी हो गई है, कि योग्य महिलाएं भी इससे कतराने लगी हैं। जो महिलाएँ सोचती थीं, कि वे आधी आबादी हैं और राजनीति के मैदान में पुरूषों के साथ कदमताल करने में समर्थ हैं, वे चिंतित हो गईं! इसलिए कि सबसे ज्यादा कटाक्ष उन पर किए जाते हैं। खुद को ऊंचा और दूसरे को नीचा दिखाकर, जातियों पर टिप्पणी करने से तात्कालिक फ़ायदा तो मिल सकता है, इससे लोकतंत्र दरकने लगता है।
   लोकतंत्र में शब्दों की अपनी मर्यादा होती है? जरुरी नहीं कि प्रतिद्वंदी को गालियां देकर ही वोट कबाड़ने की जुगत जमाई जाए! नेताओं और उनके गुर्गों को ये भाषाई हमले सही लगते हों, पर भद्र समाज इसे पसंद नहीं करता! सभ्य भाषा में भी आक्षेप लगाए जा सकते हैं! लेकिन, लगता है मध्यप्रदेश में दोनों पार्टियों के बड़े नेताओं ने भी मर्यादा और शर्म छोड़ दी! मंच के सामने मौजूद गिनती भर लोगों को उद्वलित करने के लिए बाजारू भाषा बोली जा रही है। अनुभव बताता है कि ऐसी स्थिति में जनता की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं होती! ज्यादातर जनादेश गालियों के खिलाफ गए हैं। 
   भाषा की सभ्यता ही समाज को आपस में जोड़ती है, स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ये जरूरी भी है। लेकिन, लगता है आज की राजनीति में नैतिकता और सिद्धांत पूरी तरह गायब हो गए। यहाँ विचार कम और व्यक्तिगत हमले हावी होने लगे! यदि ये स्थिति अदने नेताओं में होती तो उसे समझा जा सकता था। क्योंकि, उनमें परिपक्वता नहीं होती! किंतु, अब बड़े नेताओं ने भी नाम लेकर व्यक्तिगत हमले शुरू कर दिए। चुनाव प्रचार में जनता की सहानुभूति के लिए इनका इस्तेमाल करने की कोशिश होती है, लेकिन कई बार दांव उल्टा पड़ जाता है। आज राजनीति जिस मुकाम पर पहुंची है, वहां बड़े नेताओं में सीधे टकराव की स्थिति बढ़ी है। स्वस्थ चुनाव फ़िलहाल लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। क्योंकि, हर राजनीतिक पार्टी के नेता मंच पर प्रतिद्वंदी पार्टी के नेताओं को दुश्मन समझने लगे हैं। उन्हें लगता है कि वे जितने अपशब्द बोलेंगे, सुनने वाले उतने ज्यादा प्रभावित होंगे और उनका वोट बैंक मजबूत होगा। लेकिन, ये क्षणिक आवेश वाली बात होती है। नेता के मंच से उतरने के बाद उसकी अच्छी बातों को कोई याद नहीं रखता, पर उसकी अमर्यादित भाषा की आलोचना जरूर होने लगती है। 
    नेताओं की भाषा लगातार मर्यादा की सीमा लांघ रही है। इसके साथ ही राजनीति में भाषा का स्तर गिर रहा है। यही कारण है कि राजनीति के मूल स्वभाव में काफी गिरावट आई! नेता भी अपने संस्कारों का परिचय अपने आचरण से देने में बाज नहीं आ रहे। भाषा की गिरती मर्यादा ने भी साबित कर दिया कि हम टेक्नोलॉजी में कितना भी एडवांस हो जाएं, सामाजिक धरातल पर हम बहुत तेजी से गर्त में जा रहे हैं। मंचों के अलावा सोशल मीडिया पर अब ऐसे शब्दों का इस्तेमाल होता दिखाई देने लगा है, जो असंस्कारित है। उसे सीधी भाषा में गाली बकना कहना भी गलत नहीं होगा। मतदाताओं को बरगलाने के लिए नेताओं की बदजुबानी जिस तरह आसमान छूने लगी है, वो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। राजनीति के मंच से जिस तरह की अमर्यादित और स्तरहीन भाषा बोली रही है, वह उस लोकतंत्र की शिक्षा नहीं है, जिसका पाठ पढ़ाया जाता रहा है। इससे सिर्फ सामाजिक ढांचा ही नहीं दरक रहा, पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
    आज नेताओं के चुनावी भाषण एक-दूसरे को चेलैंज देने, आरोप लगाने और निजी लांछन तक सीमित होते जा रहे हैं। बड़े नेताओं से भाषण में जिस संयम और शालीनता की उम्मीद जाती है, वो पूरी तरह तिरोहित हो गई! 1996 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट कहा था 'राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेताओं की बड़ी जिम्मेदारी है, कि वे अपनी भाषा का ऐसा उपयोग करें, जिससे उनसे नीचे वालों को प्रेरणा मिले।' लेकिन, भाषा की ये गंदगी ऊपर से ही नीचे आई है। अब तो संसद तक में ऐसे तंज कसे जाते हैं, जो सामाजिक धरातल पर स्तरीय नहीं कहे जा सकते! ऐसी भाषा बोलने में कोई भी पीछे नहीं रहता! यही भाषा वहां से निकलकर मीडिया में आती है और फिर मंच पर! कुछ नेता हमेशा अपने बिगड़े बोलों के कारण सुर्खियों में बने रहते हैं। उन्हें लगता है कि वे जितना कटाक्ष करेंगे, मीडिया में उन्हें उतनी तवज्जो मिलेगी! चुनावी रैलियों या सोशल मीडिया पर विवादास्पद टिप्पणियां करके ये लोग सुर्ख़ियों में रहना चाहते हैं। ये दोष किसी एक पार्टी को नहीं दिया जा सकता, हर पार्टी के नेता इसमें शामिल रहे हैं। 
 स्तरहीन भाषा को बढ़ाने में मीडिया की भी खासी भूमिका रही है! इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का दायरा बढ़ने के बाद ये चलन कुछ ज्यादा ही बढ़ा है। क्योंकि, मीडिया ने ऐसे नेताओं की बातों को ज्यादा चटपटे ढंग से पेश करना शुरू कर दिया। इससे उन्हें लगने लगा कि चर्चा रहने के लिए द्विअर्थी, स्तरहीन भाषा और अमर्यादित बातें ज्यादा बोली जाएं, तो जनता के बीच उनकी लोकप्रियता छलांग मारने लगेगी। लेकिन, अब ये जनता यानी मतदाताओं को तय करना है कि वे किसे चुनें! अच्छा हो, कि अमर्यादित भाषा बोलने वाले नेताओं का सामाजिक बहिष्कार किया जाए, फिर वे किसी भी पार्टी के क्यों न हों! राजनीतिक मंच से असंस्कारित भाषा बोलने वाले नेताओं के खिलाफ कानूनी प्रावधान किए जाना अब जरूरी लगने लगा है। जब ऐसी सख्ती होगी, तभी नेताओं की भाषा पर भी अंकुश लगेगा। 
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