Sunday, July 18, 2021

हिंदी सिनेमा का ऐतिहासिक कालखंड

हेमंत पाल

    देश में सिनेमा को सौ साल से ज्यादा हो गए। इस दौरान बहुत कुछ बदला। समय, काल, परिस्थितियों के साथ देश ने बरसों की गुलामी के बाद आजादी भी देखी। इस दौरान फ़िल्में श्वेत-श्याम से रंगीन हो गई! सिनेमा के निर्माण की प्रक्रिया, कलाकारों का अभिनय, नए जमाने के कथानकों के साथ फिल्म संगीत में भी क्रांति आ गई! लेकिन, फिर भी दर्शकों को में अभी भी संतुष्टि का वो भाव नहीं आया, जो इतने सालों में आना था। निर्माण की बेहतरी के साथ फिल्मों से कमाई बढ़ी, पर दर्शक संतुष्ट नहीं है! उसे लगता है कि कहीं कोई कमी तो है! यही कारण है कि कई फ़िल्में जोरदार प्रचार और नामी कलाकारों के बाद भी दर्शकों के दिल को नहीं छू पाती! जबकि, कुछ ऐसी फिल्मों को दर्शक पसंद करते हैं, जिनके बारे में पहले से अनुमान नहीं लगाया जाता! ऐसे में सवाल उठता है कि सौ साल से ज्यादा लम्बे इतिहास में क्या कोई ऐसा दौर आया, जिसे सिनेमा का स्वर्णिम काल कहा जाए! इस सवाल के निश्चित रूप से अलग-अलग जवाब हो सकते हैं! क्योंकि, दर्शकों की रूचि भी एक सी नहीं होती! फिर इस सवाल का सही जवाब यही है, कि जिस समयकाल में कालजयी फ़िल्में ज्यादा बनी, वही स्वर्णिम दौर कहा जाएगा!           
    सिनेमा की शुरुआत के बाद करीब चार दशक से ज्यादा समय देश की गुलामी का समय था! कई घोषित और अघोषित बंदिशें थीं। फिल्मकारों के लिए निर्माण के आधुनिक संसाधन जुटाना भी आसान नहीं था। फिल्म की ज्यादातर कहानियां भी धार्मिक कथाओं और राजा की कथाओं तक केंद्रित थीं। सामाजिक बेड़ियों के कारण लम्बे समय तक महिला कलाकारों का फिल्मों में काम करना संभव नहीं हुआ! धीरे-धीरे हालात सामान्य हुए। आजादी के बाद सिनेमा ने भी करवट ली! ये वो दौर था, जब देश आजाद था और सामाजिक सोच बदल रहा था! फिल्मकारों के सामने भी नई कहानियों के विकल्प थे। इसलिए कहा जा सकता है कि 1951 से 1960 का दशक हिंदी सिनेमा का सबसे बेहतरीन युग था। इन दस सालों में बहुत कुछ ऐसा हुआ, जो बीते चार दशकों में नहीं हुआ और न बाद के सात दशकों में! इस समय को बेहतरीन इसलिए कहा जा सकता है, कि इस दौरान मुगले आजम, मदर इंडिया, प्यासा, कागज के फूल, दो बीघा जमीन, आवारा और 'दो आंखें बारह हाथ' जैसी कालजयी फ़िल्में बनी। ये वो फ़िल्में थीं, जो निर्माण, कथानक और अभिनय सभी में बेजोड़ थीं। आज भी इन फिल्मों को श्रेष्ठता के मामले में मील का पत्थर माना जाता है। संगीतकार नौशाद, शंकर जयकिशन और एसडी बर्मन और गायक, गायिकाएं लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, आशा भौंसले, किशोर कुमार और मुकेश की मखमली आवाज भी इसी स्वर्णिम काल की देन है। 
    इसे हिंदी फिल्मों का आदर्शवादी दौर भी कहा जाता है। इस दौर का नायक प्यार करने में तो पीछे नहीं था! पर, परिवार के दबाव, सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रतिबद्धता के आगे वो प्यार की कुर्बानी देने में भी पीछे नहीं हटा! आवारा, मदर इंडिया, जागते रहो, श्री 420, झाँसी की रानी, परिणीता, बिराज बहू, यहूदी, बैजू बावरा और 'जागृति' जैसी फिल्में इसी समय में बनी। ये गुरुदत्त, बिमल राय, राज कपूर, महबूब खान, दिलीप कुमार, चेतन आनंद, देव आनंद और ख्वाजा अहमद अब्बास का समय था। राज कपूर जैसे अनोखे फ़िल्मकार ने भी इसी दशक में फिल्म निर्माण और निर्देशन की शुरुआत की। यह कहना गलत नहीं होगा कि सिनेमा के नायक को असली ताकत भी इसी दशक में मिली। आजादी के बाद देश का सोच भी आकार ले रहा था, इसलिए ये समाज के आदर्शवाद का भी समय था। फिल्मकारों ने समस्या प्रधान फिल्मों की तरफ भी रुख किया और सामाजिक भेदभाव, जातिवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, फासीवाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ फिल्में बनाई। सिनेमा के परदे पर वे सारे सपने नजर आने लगे, जो आजाद देश के आदर्श समाज के लिए देखे गए थे। बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा जमीन' ऐसे ही सपनों की फ़िल्म थी। ये फिल्म राष्ट्र विकास के मॉडल और उसके बीच समाज के दो वर्गों के बीच सांठगांठ को सामने लाने वाली थी। इस फिल्म का नायक कर्ज की रकम चुकाने के लिए रोजगार की तलाश में गांव से कलकत्ता जाता है। कहा जाता है कि आधुनिकता ही समृद्धि लाती है।
     प्रेम में पगी कालजयी फिल्मों की बात की जाए तो बिमल रॉय ने 'देवदास' और गुरुदत्त ने 'प्यासा' बनाकर इसकी शुरुआत की! लेकिन, फिर भी इस दशक में प्रेम प्रधान फिल्मों का अभाव देखा गया। क्योंकि, इस समय में सामाजिक बंधन, मर्यादा और नैतिकता का जोर ज्यादा था। 1951 में बनी राज कपूर की 'आवारा' हिट साबित हुई। 'आन' और 'चोरी-चोरी' भी ऐसी फ़िल्में थीं, जो आज भी याद की जाती है। 1954 में वी शांताराम की 'झनक झनक पायल बाजे' भी पसंद की गई। हिंदी की कई श्रेष्ठ फिल्में इसी दौर की देन रही। फिल्मों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों की शुरुआत भी इसी दशक में 1954 से हुई। अभिनेता देवानंद की 'सीआईडी' और 'फंटूश' इसी समय की सफल फ़िल्में थीं। 1957 में आई महबूब खान की 'मदर इंडिया' ने तो इतिहास बना दिया। ये इस दशक की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म तो थी, ऑस्कर के लिए विदेशी भाषा श्रेणी में भारत की तरफ नामित होने वाली भी पहली फिल्म बनी। हिंदी सिनेमा का ये महत्वपूर्ण पड़ाव था। दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला की 'नया दौर' भी इसी दशक में आई! 1957 में रिलीज हुई गुरुदत्त की 'प्यासा' भी कालजयी फिल्मों में एक थी। इस फ़िल्म को तो 'टाइम' पत्रिका ने दुनिया की 100 श्रेष्ठ फिल्मों में शामिल किया है। दो आंखें बारह हाथ, पेइंग गेस्ट, मधुमती, चलती का नाम गाड़ी, फागुन, हावड़ा ब्रिज, दिल्ली का ठग, अनाड़ी, पैगाम, नवरंग और 'धूल का फूल' जैसी फिल्में भी इस दशक की फेहरिस्त में हैं। 
     बलराज साहनी, अशोक कुमार और शम्मी कपूर की फिल्मों को जबरदस्त सफलता मिली। वहीं सत्यजीत रॉय, विमल राय, गुरुदत्त, महबूब खान, वी शांताराम, के आसिफ, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे महान फिल्मकारों ने भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाई। साथ ही यश चोपड़ा, मनमोहन देसाई, विजय आनंद, ऋषिकेश मुखर्जी, शक्ति सामंत जैसे फिल्मकारो ने इसी दशक में सिनेमा की दुनिया में कदम रखा। फिल्मों में बरसों तक अपनी अदाओं से दर्शकों को हंसने के लिए मजबूर करने वाले जॉनी वॉकर, महमूद, आईएस जौहर, किशोर कुमार, भगवान दादा, मुकरी, गोप जैसे कलाकारों ने भी इसी काल में मनोरंजन की दुनिया में कदम रखा। अपनी खलनायकी से दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देने वाले प्राण, केएन सिंह, जीवन, कन्हैया लाल और मदनपुरी भी परदे पर दिखाई दिए। 
     इसी समय 'काली घटा' से बीना राय ने अपने फिल्म करियर की शुरुआत की और बाद में प्रेमनाथ की पत्नी बनी। लता मंगेशकर और आशा भोंसले ने फिल्म 'दामन' के लिए पहली बार युगल गीत 'ये रुकी रुकी हवाएं, ये बुझे-बुझे सितारे' गीत गाया। 1951 मे प्रर्दशित आवारा के गीत 'घर आया मेरा परदेसी' में राजकपूर और नरगिस पर पहला स्वप्न दृश्य फिल्माया गया था। राज कपूर ने प्रेम के जिस फ़िल्मी चलन की शुरूात की, वह अपने पूरे शबाब पर आया। 1960 में आई ऐतिहासिक फिल्म 'मुगले आजम' आज भी बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती है। 'मुगले आजम' 5 अगस्त 1960 को देश के डेढ़ सौ सिनेमाघरों में एक साथ लगने वाली पहली हिंदी फ़िल्म थी। बरसात की रात, कोहिनूर, चौदहवीं का चांद, जिस देश में गंगा बहती है, दिल अपना और प्रीत पराई जैसी फिल्मों ने भी बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कारोबार किया। 1961 में आई 'जंगली' से शम्मी कपूर स्टार बने और सायरा बानो ने पहली बार परदे पर कदम रखा। इसके बाद के दौर में फिल्मों का दृष्टिकोण यथार्थपरक हो गया। बाद के दशक में फिल्मों के साथ दर्शकों का सोच भी यथार्थ की तरफ दौड़ने के साथ रंगीन हो गया!
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