Saturday, July 3, 2021

तेरी मिट्टी में मिल जांवा, गुल बन के मैं खिल जांवा

- हेमंत पाल

   'दो बीघा जमीन' का शंभू हो, 'मदर इंडिया' की राधा हो, 'लगान का भुवन हो या फिर 'पीपली लाइव' का नत्था! फिल्म के इन सभी किरदारों में एक बात सामान्य थी, कि वे परदे पर अपनी माटी के लिए लड़े। फिल्म के दर्शकों को भावनात्मक रूप से कहानी के किरदार से जोड़ने और उनकी आँखों की पोर गीली करने में ऐसे किरदार हमेशा ही सफल रहते हैं। यही कारण है कि थोड़े बहुत अंतराल के बाद फिल्मकार माटी या धरती को याद करके ऐसी फिल्में बनाते रहे हैं। ये फ़िल्में दर्शकों को उद्वेलित कर सिनेमा हाल में तालियां और बाॅक्स ऑफिस पर पैसा बटोरने में कामयाब भी होती है। बीते जमाने की बात करें, तो हमारी माटी हमेशा ही बाॅक्स ऑफिस के लिए सोना उगलती रही। आज भी फिल्मी माटी में सोना और हीरे-मोती उगलने की परम्परा बदस्तूर कायम किए हैं। महबूब खान की फिल्म 'मदर इंडिया' भी देश की मिट्टी से ही जुड़ी थी। इस फिल्म में माटी की महक उसके रंग और उससे रिसता लहू सब कुछ इतनी शिद्दत के साथ फिल्माया गया था कि पूरी फिल्म के दौरान दर्शक माटी से जुड़ा पाता है। ऐसी फिल्मों में दो बीघा जमीन, लगान और 'पीपली लाइव' को भी याद किया जा सकता है, जिसकी कहानियां सीधे जमीन यानी मिट्टी से जुड़ी थीं।    
    1953 में आई बिमल रॉय की फिल्म 'दो बीघा जमीन' किसानों की अंतहीन दुर्दशा की कहानी थी। यह फिल्म एक किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) को लेकर गढ़ी गई थी, जिसके पास दो बीघा जमीन है। इससे ही शंभू और उसके परिवार का गुजर बसर होता है। लेकिन, गांव का जमींदार कारखाने के लिए अपनी गांव की जमीन बेचना चाहता है। इस जमीन के बीच शंभू की दो बीघा जमीन का टुकड़ा भी है और जमींदार को पूरा भरोसा है कि वह जमीन के इस टुकड़े को किसी न किसी तरह हथिया लेगा। जमींदार और शंभू के बीच का द्वन्द ही फिल्म की कहानी है। आमिर खान 2010 में बनाई फिल्म 'पीपली लाइव' भी गांव के किसान नत्थू सिंह उर्फ नत्था की कहानी है, जो अपनी बीमार माँ के इलाज के लिए कर्ज लेता है और चुका नहीं पाता। कर्ज न चुकाने से नत्था को अपनी जमीन पर सरकारी कब्जे का डर सताता है। इस बीच सरकार उन किसानों के परिवार को मुआवजे का ऐलान करती है, जिन्होंने कर्ज न चुकाने की वजह से आत्महत्या कर ली। अपनी पुश्तैनी जमीन छिनने के डर से नत्था का बड़ा भाई आत्महत्या करने की बात करता है, ताकि मुआवजे की रकम से उधार चुकाया जा सके और नत्था अपने बच्चों की पढ़ाई पूरी कर सके। नत्था इस आइडिया को खुद पर अमल करने का फैसला करता है। इसके अलावा हीरा-मोती, परख और 'गोदान' माटी की ही कहानियों पर बनी फ़िल्में थी। ऐसी ही कहानियों से प्रेरित होकर मनोज कुमार ने 'उपकार' में माटी के माध्यम से देश प्रेम का संदेश देने की कोशिश की थी। 
      फिल्मों में माटी का उपयोग कर दर्शकों की भावना उभारने के कई प्रयास हुए। कहीं नायक विदेश से आकर देश की मिट्टी से जुड़कर रहने और यहीं काम करने लगता है। कहीं वह अपने माथे पर माटी का तिलक लगाकर दर्शकों की तालियां बटोरने में कामयाब रहता है। कहीं माटी के बंटवारे को लेकर दर्शकों के बीच एक तनावपूर्ण स्थिति कायम की जाती है। कहीं-कहीं माटी के सौंदर्य की झलक दिखाकर दर्शकों का दिल खुश करने के हथकंडे अपनाए जाते हैं। 'स्वदेश' को याद कीजिए, जिसमें नायक शाहरुख़ खान अमेरिका से आकर गांव की मिट्टी में रम जाता है। 'आ अब लौट चलें' में राजेश खन्ना भी बरसों विदेश में रहने के बाद बेटे के कहने पर लौट आता है। ऐसी कई फिल्मों का विषय माटी से जुड़ा होता है।
      नायक और नायिका को माटी पुत्र या माटी पुत्री बनाकर पेश किए जाने की परम्परा भी चलती आई! यह बात अलग है कि अधिकांश फिल्मों में केवल औपचारिकता निभाई जाती है। नायक अगर किसान है, तो उसके खेत की फसल को साहुकार हड़पने का प्रयास करता है। नायक जब इसका विरोध करता है, तो पुलिस उसे किसी मामले में पकड़कर हवालात में बंद कर देती है। ऐसे प्रकरण कई फिल्मों में देखे गए। पुरानी फिल्मों में माटी पुत्र बनने का काम केवल दिलीप कुमार को ही ज्यादा रास आया है। उसके बाद राजेंद्र कुमार को किसान के रूप में देखा गया। राज कपूर और देव आनंद ने तो शायद ही किसी फिल्म में किसान की तरह धोती पहनी हो! आपातकाल के समय देशभक्ति पर आधारित फिल्म 'माटी मेरे देश की' विवादों के कारण प्रदर्शित नहीं हो सकी थी। यह गुलशन ग्रोवर की पहली फिल्म थी और इसमें उन्होंने एक फौजी की भूमिका निभाई थी। यह फिल्म तो प्रदर्शित नहीं हो सकी थी, लेकिन महेंद्र कपूर का गाया फिल्म का एक गीत काफी लोकप्रिय हुआ। 'मेरे देश का हर एक बच्चा इस माटी का लाल है।' 
   फिल्मों के मध्ययुग में जब माटी से जुड़ी फिल्में आई, तो राजकुमार, जितेन्द्र, धर्मेन्द्र, राजेन्द्र कुमार, ऋषि कपूर, सलमान, शाहरूख खान और गोविंदा से लगाकर अमिताभ बच्चन ने माटी पुत्र बनकर इस भावना का मखौल उड़ाया। ये सभी नाम के लिए माटी पुत्र थे, लेकिन इनकी भूमिका कुछ रीलों तक ही सीमित रही। इसके बाद ये शहर पहुंचकर मिट्टी से सने कपड़े उतारकर साला मैं तो साहब बन गया की तर्ज पर अपनी छबि बदलकर नायिका के साथ पेड़ों के इर्द-गिर्द प्रेम गीत गाने लगे। फिल्मों के साथ मिट्टी ही नहीं जुड़ी, कुछ सितारे ऐसे भी हैं जिनके साथ मिट्टी का नाता जुड़ गया। ये कलाकार ऐसे हैं, जो सितारों की भीड़ में अपना अलग वजूद रखते हैं। अभय देओल, धर्मेंद्र और ऋषि कपूर जैसे कुछ कलाकार इसी श्रेणी में आते हैं, जो समय के बदलते दौर में भी अपनी जगह पर अडिग रहे। यही कारण है कि इन कलाकारों को मिट्टी पकड़ सितारे कहा गया है।
      हिन्दी फिल्मों के शीर्षकों में भी माटी जमकर महकी। मिट्टी, धरती, मिट्टी और सोना, धरती कहे पुकार के, माटी मांगे खून, माटी की कसम, धरती मैया, धरती पुत्र और 'मिट्टी के खिलौने' जैसी फिल्मों में केवल नाम ही था, फिल्म कहीं से भी माटी से जुड़ी नहीं लगी। इसी तरह फिल्मी गीतों में भी माटी और धरती का भरपूर उपयोग किया गया। इनमें मेरे देश की धरती सोना उगले, धरती सुनहरी अंबर नीला, धरती चांद सितारे, धरती कहे पुकार के, धरती मेरी माता पिता आसमान, धरती का प्यार पले, धरती की रानी, एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, यह माटी कहेगी सबकी कहानियां, मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए, तेरी मिट्टी में मिल जांवा जैसे गीतों ने खासी लोकप्रियता बटोरी है। डरावनी फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाले रामसे ब्रदर्स ने अपनी पहली हॉरर फिल्म 1972 में 'दो गज जमीन के नीचे' बनाई थी। एक्शन और रोमांटिक फिल्मों से उब चुके दर्शकों को ऐसी फिल्मों से नई तरह का मनोरंजन मिला था। उनका ये फार्मूला सफल रहा। लेकिन, अब नए दौर के सिनेमा में मिट्टी से जुड़ी कहानियां दर्शकों और फिल्मकारों की रुचि से बाहर हो गई है। 
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