- हेमंत पाल
कहने को प्रेम महज ढाई अक्षरों का अफसाना है। लेकिन, यही ढाई अक्षर जब सेल्यूलाइड में ढलकर प्रेम कहानी का रूप लेते हैं तो ढाई घंटे तक दर्शक प्रेम बंधन में जकड़कर प्रेम के सागर में डुबकी लगाता है। परदे पर रूमानियत बिखेरकर पिछले सौ बरसों से फिल्मकार दर्शकों को भरमा ही तो रहे हैं। फिल्मों का प्रेम शाश्वत और अनंतकाल तक चलने वाला सिलसिला है, तभी तो प्रेम में डूबी यह दास्तां सिनेमा में सदियों से गूंज रही है। 'सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा' यह एक तरह से अघोषित गारंटी है कि जब तक सिनेमा रहेगा परदे पर प्रेम यूं ही मचलता रहेगा। क्योंकि, लम्बे समय तक हिंदी फिल्मों के कथानक का मूल आधार प्रेम रहा है। जब फ़िल्में बनना शुरू हुई, तब धार्मिक कथाओं और राजमहलों के षड्यंत्रों के अलावा जिस विषय पर फ़िल्मकारों ने हाथ आजमाए वो प्रेम ही था। लेकिन, वही फ़िल्में सराही गईं, जिनमें प्रेम को गहराई और उससे जुड़ी आस्था का सौम्य चित्रण हुआ। फिल्मी प्रेम लंबे समय तक गंभीरता का लबादा ओढ़े रहा। तब नायक-नायिका को प्रेम का इजहार करने में बहुत कवायद करना पड़ती थी। लेकिन, धीरे-धीरे ये हिचक दूर हुई और फिल्म के गानों से ही प्रेम का इजहार होने लगा।
फिल्मों में प्रेम शाश्वत रहा, लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव भी आया। कभी परदे की ओट से या पेड़ की टहनी सहलाते हुए नायिका अपने प्रेम का इजहार करती थी, कभी नायक इशारे से अपने मन की बात बताते। इसलिए कि तब सामाजिक संस्कार और रीति-रिवाज प्रेम की खुली अभिव्यक्ति की इजाजत नहीं देते थे। प्रेम को अभिव्यक्त करने के तरीकों पर समय और परिस्थितियों का असर पड़ा। शुरुआती दौर की फिल्मों में गीतों के माध्यम से प्रेम का संकेत दिया जाता था। नायक-नायिका दूर से ही आंखों-आंखों में प्रेम का इजहार करते, पर कह नहीं पाते थे। फिर एक दौर ऐसा दौर भी आया, जब प्रेम का दुखांत रूप पसंद किया गया। नायिका विद्रोही हुई, तो नायक भी बेवफा होने लगे। कैशोर्य प्रेम का बगावती अंदाज भी कुछ फिल्मों में दिखा। लेकिन, अब फिल्मों में प्रेम का वो रूप दिखाई देने लगा, जिसमें शाश्वत प्रेम गायब है!
महबूब खान ने 'अंदाज' में दिलीप कुमार, राज कपूर व नरगिस को लेकर त्रिकोणीय प्रेम का नया फार्मूला अपनाया। ये फार्मूला हिट रहा, तो उसी तरह की कई फिल्में बनने लगी। ऐसी फिल्मों में नायिका को संशय की स्थिति में उलझाए रखना, निर्माताओं को ज्यादा भाया। समय के साथ नायक-नायिका की चारित्रिक खूबियां भी बदली। साड़ी का पल्लू मुंह में दबाकर खामोशी से हर दुख सहने वाली नायिका ने अपने व्यक्तित्व को विकसित करना शुरू किया। रिश्तों को चुनने की प्राथमिकता भी उसने ही तय की। अपने समयकाल में फिल्मकार बिमल रॉय ने भी प्रेम की धारा में कई प्रयोग किए। 'सुजाता' की नायिका सामाजिक कारणों से नायक के प्रेम को स्वीकारने से हिचकिचाती है! मगर, 'बंदिनी' की नायिका भविष्य का विकल्प ठुकराकर मुश्किलों से भरे अपने पहले रिश्ते को अपनाती है। 'देवदास' तक आते-आते तो बिमल रॉय ने प्रेम का नया रूप सामने रख दिया। लेकिन, पिछले कुछ सालों से फिल्में अपने पारंपरिक तौर तरीके बदलने लगी है, प्रेम का कथानक भी इससे अछूता नहीं रहा।
शम्मी कपूर ने नायिकाओं को तरसाकर प्रेम किया तो शाहरुख़ ने 'डर' दिखाकर प्रेम का इजहार किया। लेकिन, दिलीप कुमार ने परदे पर प्रेम का अलग ही अंदाज दिखाया, वे दुखांत प्रेम के पर्याय बन गए थे। मेला, अमर, बेवफा, संगदिल, नदिया के पार, मुगले आजम, जोगन और 'देवदास' में दिलीप कुमार ने प्रेम के बिछोह रूप और तड़प को ऐसी शिद्दत से उभारा कि प्रेम सुखद अनुभूति से पीड़ा ज्यादा लगने लगा। देव आनंद ने भी शुरु में दुखी नायक की भूमिका निभाई, पर जल्दी ही अपना अंदाज बदला और प्रेम की मस्ती को उभारा। उन्होंने प्रेम को पीड़ा मानने की परंपरा को तोड़कर ख़ुशी का रूप दिया। वे मधुबाला और नूतन के साथ बिंदास अंदाज में नजर आए। राज कपूर की ‘बरसात’ ने प्रेम की तड़प को अलग तरीके से उभारा। लेकिन, उसके बाद उन्होंने लय बदलकर ‘आवारा’ में प्रेम का नया रूप दिखाया। एक हाथ में वायलिन और दूसरे हाथ में झूलती नरगिस उन्मुक्त प्रेम का प्रतीक बन गईं थी। नायक-नायिका के प्रेम को ग्लैमरस अंदाज में आलिंगनबद्ध करने का सिलसिला इसी फिल्म से शुरू हुआ। इसके बाद तो मुगले आजम, प्रेम कहानी, एक दूजे के लिए और 'लव स्टोरी' जैसी फिल्मों ने प्रेम को अलग ही अंदाज में दिखाना शुरू कर दिया! आज की हिंदी फिल्में भी यही फार्मूला अपना रही है।
देखा गया कि अमीरी-गरीबी का भेद फिल्मी प्रेम में हमेशा दीवार बनकर खड़ा रहा। इस फॉर्मूले को हमेशा आजमाया गया। कुछ फिल्मों में शारीरिक विकलांगता भी बाधा बनी। 'आरजू' में एक पैर कट जाने और 'दो बदन' में नायक के अंधे हो जाने से प्रेम की अनुभूति में खलल पड़ता है। उधर, राज कपूर ने 'बॉबी' में कैशोर्य प्रेम की ऐसी उन्मादी धारा बहाई कि पारिवारिक बंदिशों, दुश्मनी व भेदभाव को अंगूठा दिखाकर प्रेम करने की नई लहर चल पड़ी। लेकिन, बाद में बनी किसी फिल्म को ‘बॉबी’ जैसी सफलता नहीं मिली। कमल हासन की पहली हिंदी फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ में प्रांतीय व भाषाई दीवार बनी। लेकिन, आश्चर्य है कि उत्तर भारतीय नायिका व दक्षिण भारतीय नायक की यह प्रेम कथा हिट होने के बावजूद दोहराई नहीं गई!
फ़िल्मी प्रेम के संदर्भ में मुद्दा यह है कि प्रेम जैसे अनुभूति वाले भाव को परदे पर फूहड़ता और अश्लीलता से क्यों पेश किया जाता है! प्रेम की अभिव्यक्ति के तरीके विकृत क्यों होते जा रहे हैं! प्रेम को एक अधिकार की तरह हासिल करने की कोशिश क्यों होने लगी! 'रांझना' ऐसी फिल्म थी, जिसे लेकर खासी बहस छिड़ी थी। इस फिल्म पर आरोप लगे थे, कि इसमें नायक ने नायिका के पीछे लगने की घटिया मानसिकता का सबूत दिया। लड़कियों से 'रांझना' में छेड़छाड़ के इस विकृत तरीके को महिमा मंडित करने पर शोभा डे और शबाना आजमी ने काफी एतराज भी किया था। ये सवाल भी उठाया था कि ऐसे गलत संदेश देने वाली फिल्मों को सेंसर बोर्ड ने रिलीज कैसे होने दिया! इसी दौरान दीपिका पादुकोण ने इस बहस को और गरमा दिया था कि प्रेम की अभिव्यक्ति के नाम पर हीरोइनों को वस्तु की तरह चित्रित करने की सीमा होनी चाहिए। बात सही है, पर इसका जवाब भी फिल्म वालों को ही ढूँढना है।
------------------------------ ------------------------------ ------------------------------------
No comments:
Post a Comment