- हेमंत पाल
प्रसिद्ध अमेरिकी लघु कथाकार 'ओ हेनरी' की एक चर्चित कहानी ''द लास्ट लीफ' है। इसमें बीमार बच्ची जोहंसी एक बीमार पात्र है, जो निमोनिया से मरने वाली है। वह रोज खिड़की के बाहर एक लता (बेल) से गिरते पत्तों को देखती है। उसे लगता है कि जिस दिन आखिरी पत्ता गिरेगा, वो मर जाएगी। उसके घर के नीचे रहने वाले बूढ़े कलाकार बेहर्मन को जब पता चलता है कि जोहंसी के साथ ऐसा होने वाला है, तो वो उसे बचाने के लिए अपनी कलाकारी से नकली पत्ता बना देता है। एक रात तेज आंधी चलती है। जोहंसी को लगता है कि इस आंधी में आखिरी पत्ता भी गिर जाएगा और वो मर जाएगी। सुबह, जोहंसी देखती है कि बेल के सभी पत्ते गिर गए, पर एक पत्ता बचा है। जोहंसी मान लेती है, कि यह पत्ता उसे बचाने के लिए रुका है। वह अपने आपको जीने के लिए फिर तैयार करती है और उसकी हालत में बहुत सुधार आता है। लेकिन, उस बूढ़े पड़ोसी बेहर्मन की निमोनिया से मौत हो जाती है। वास्तव में जोहंसी को जिंदा रखने के खातिर, शेष बचा पत्ता बेहर्मन की सबसे उत्तम रचना थी।
हिन्दी सिनेमा के सौ साल पुराने दरख्त से लिपटी दिलीप कुमार की जिंदगी ओ' हेनरी की इसी कहानी 'द लास्ट लीफ' के उस पत्ते की तरह थी। लगता है कि कुदरत ने दिलीप कुमार को इस कहानी के एक कलाकार पात्र बेहर्मन की तरह ही उस नन्हीं बीमार जोहंसी यानी फ़िल्मी दुनिया को बचाने के लिए ही बनाया था। उन्होंने अपने अभिनय से हिंदी सिनेमा की शनै-शनै झरती हुई बेल पर वह अंतिम पत्ते के रूप में अपनी मौजूदगी कायम रखी, जो जोहंसी की तरह ही सिनेमा के दर्शकों को यह अहसास कराती थी, कि हिंदी सिनेमा की बेल अभी लहलहा रही है। लेकिन, इस बेल के अंतिम पत्ते के 98वें वसंत में झरते ही हिंदी सिनेमा की बेल मुरझाई सी लगी! सिनेमा की दिलीप कुमार नुमा यह बेल भी खास थी। वो घनी पत्तियों से लदे दरख्त की तरह नहीं थी। बल्कि, इस बेल पर 1944 से लेकर 2021 तक 77 साल के दरम्यान लगभग 63 पत्तियां खिली और यह आखिरी पत्ता भी 1998 से अभी तक टंगा हुआ था। यह पत्ता अहसास करा रहा था, कि वे किसी अमरबेल का एक हिस्सा हैं।
कई सितारे ऐसे हैं, जिनके छोटे से फिल्मी करियर में डेढ़ सौ से ज्यादा फिल्में होने के बावजूद सिने इतिहास में उनका वजूद कायम नहीं रह पाया। लेकिन, 77 साल के करियर में महज 63 फिल्में करने और 1998 के बाद परदे से दूर रहने के 23 साल बाद भी जो लोगों के दिलों में दिलीप कुमार धड़कन की तरह धड़कते रहे! यह तो कुदरत का करिश्मा ही कहा जाएगा। वरना फिल्मी दुनिया ऐसी जगह है, जहां एक मोड़ से गुजरते हुए दूसरे मोड़ तक जाने तक ही कलाकार अपना नाम और काम सब कुछ गंवा चुका होता है। इस ट्रेजडी किंग ने हर किरदार को शिद्दत से जिया। वो राजकुमार हो, किसान हो, विश्वासघाती प्रेमी हो या फिर कठोर पिता। उसके लिए परदे के सभी किरदार जिंदगी की तरह थे, जिसे उन्होंने सहजता और कौशल से जीवंत किया। 1960 में 'मुगले आजम' में सख्त और अनुशासित पिता के सामने मोहब्बत के लिए विद्रोही बेटे की भूमिका निभाने वाले दिलीप कुमार ने बीस साल बाद 1980 में 'शक्ति' में उसी शिद्दत से अनुशासन प्रिय बाप का किरदार भी निभाया!
इसे भी आश्चर्य माना जाना चाहिए कि दिलीप कुमार के परिवार को लम्बे समय तक यही पता नहीं था कि उनके साहबजादे क्या करते हैं! हो सकता है और किसी काम की खबर हो, पर वो फिल्मों में काम कर रहे हैं, इस बात की जानकारी नहीं थी। लेकिन, जब 'जुगनू' रिलीज हुई, तो ये राज खुल गया। राज कपूर के दादा बशेश्वरनाथ कपूर और दिलीप कुमार के पिता गुलाम सरवर कहीं सैर पर जा रहे थे। दोनों में पेशावर से ही पुराना याराना था। इसी सैर के दौरान बशेश्वरनाथ ने दिलीप के पिता को रास्ते में लगा 'जुगनू' फिल्म का पोस्टर दिखाया जिसमें उनके बेटे दिलीप कुमार का फोटो लगा था। उनके पिता को ये अच्छा नहीं लगा, क्योंकि तब ये काम इज्जतदार खानदान के बच्चे नहीं किया करते थे। पिता ने अपने बेटे से बात करना बंद कर दी। बाद में पृथ्वीराज कपूर के समझाने पर मामला शांत हुआ।
ये भी गौर करने वाली बात है कि सिनेमा के ब्लैक एंड व्हाइट से रंगीन होने के समयकाल को जोड़ने वाली वे आखिरी कड़ी थे। उस दौर का उनका कोई समकालीन कलाकार अब नहीं है। राज कपूर और देव आनंद के साथ उनकी जो त्रिमूर्ति थी, उसकी भी वे आखिरी मूर्ति थे। लेकिन, उन्होंने राज कपूर और देव आनंद के मुकाबले बहुत कम फ़िल्में की! पर, कालजयी अभिनय की बात की जाए, तो उसमें दिलीप कुमार का कोई सानी नहीं! राज और देव को शायद ही कोई अपना आदर्श मानता हो, पर दिलीप को अपना आदर्श मानने वालों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। मगर, अपनी त्रिमूर्ति की दो मूर्तियों की तरह उन्होंने फ़िल्में बनाने में कोई रूचि नहीं दिखाई। इसके अलावा उनके बाद फिल्मों में आए राजेंद्र कुमार और राजकुमार तो कई साल पहले ही अलविदा कह गए। कहा जा सकता है, कि अब कोई ऐसा कलाकार नहीं बचा, जिसने हिंदी सिनेमा का शुरूआती और आज का दौर देखा हो! अपने फ़िल्मी सफर में किरदारों के ब्लैक एंड व्हाइट से उनके रंगीन होने तक के सफर को दिलीप कुमार ने कई भूमिकाओं में जिया। उनका वैचारिक और गंभीर नायक का सफर देश के बदलते समय के साथ नए मुकाम गढ़ता हुआ ही आगे बढ़ा है।
इस कलाकार की एक और खासियत थी, जिस पर लोगों का कम ही ध्यान गया होगा! वे देश और समाज के बदलते समय का भी प्रतीक थे। आजादी से पहले परदे पर अवतरित दिलीप कुमार ने 40 और 50 के दशक में उहापोह में फंसे उस भारतीय नौजवान की छवि को जीवंत किया जिसके सामने भविष्य का सवाल खड़ा था। तब नेहरू का दौर था और दिलीप कुमार ने ‘शहीद’ और ‘नया दौर’ जैसी फिल्मों से खुद को नेहरूवादी नायक के रूप में उभारा! इसलिए कि तब समाज को ऐसी आदर्श की जरूरत थी। लेकिन, 60 के दशक में दिलीप कुमार ने 'गंगा जमुना' के साथ आदर्श नायक की छवि को खंडित किया। लेकिन, फिर वे असफल प्रेमी के किरदार की गिरफ्त में ऐसे आए कि उसमे फंसते ही चले गए। इस तरह के किरदारों ने उन्हें अभिनय के शिखर पर तो पहुँचाया, पर गहरे अवसाद में भी धकेल दिया। वे उस अंधे कुएं में उतर गए, जहां से बाहर आने के लिए उन्हें अपने लिए नए किरदार गढ़ना पड़े। राम और श्याम, गोपी और 'सगीना' ऐसे ही किरदार थे, जिन्होंने दर्शकों को गुदगुदाने का काम किया और दिलीप कुमार को अवसाद से निकाला। दिलीप कुमार की आत्मकथा ‘द सबस्टांस एंड द शैडो' की प्रस्तावना में सायरा बानो ने लिखा है 'उनकी धर्मनिरपेक्ष मान्यताएं सीधे उनके दिल से और सभी धर्मों, जातियों, समुदायों तथा वर्गों के प्रति उनके सम्मान से निकलती है।' ये बात सच भी है। 1990 के दशक में जब मुंबई सांप्रदायिक हिंसा से जल रहा था, तब वे शांति के प्रतीक के रूप में सामने आए थे। 1993 के दंगों के दौरान तो उन्होंने अपने घर के दरवाजे मदद के लिए खोल दिए थे। ऐसे बहुत से किस्से हैं, जो उन्हें बेहतरीन कलाकार के साथ इंसान दर्शाते हैं।
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