Thursday, July 8, 2021

मौन की कोख से जन्मी अभिनय की नई भाषा

- हेमंत पाल


   दिलीप कुमार के साथ फिल्म इतिहास का एक अध्याय समाप्त हो गया। उनका अभिनय हिंदी फिल्मों में मील का ऐसा पत्थर माना जाता है, जिसके आसपास अभिनय का पूरा संसार चक्कर लगाता है। आज के कई बड़े अभिनेता जिस तरह का लाउड अभिनय करते हैं, दिलीप कुमार हमेशा उससे बचते रहे! उनके अभिनय में ऐसा ठहराव था, जो देखने वाले की आँखों के जरिए दिल में उतर जाता था। वे मौन की भाषा बोलते थे। आखिर किसे पता था कि एक यही शख़्स फ़िल्म प्रेमियों को मौन की ऐसी भाषा सिखा देगा जो उसकी पहचान बन जाएगी। वे आँखों से ऐसा अभिनय करते थे, जो कई पन्नों के डायलॉग भी असर नहीं कर सकते। पचास सालों के फिल्म करियर में महज 63 फिल्मों में अभिनय करके उन्होंने जो मुकाम हांसिल किया, जो 200 फ़िल्में करने वाले आज के अभिनेता कभी नहीं पा सकते! शायद यही कारण था कि जाने-माने फ़िल्मकार सत्यजीत रे ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ 'मेथड अभिनेता' का ख़िताब दिया था।  
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      दिलीप कुमार के फ़िल्मी करियर की शुरुआत उस समय हुई, जब अभिनय करने वालों पर पारसी थियेटर का ख़ासा असर था। सभी अभिनेता लाउड एक्टिंग करते थे। लेकिन, दिलीप कुमार कभी इससे प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने चिल्लाकर संवाद बोलने से परहेज किया और अपने अलग तरह के अभिनय से दर्शकों के दिल में जगह बनाई। उन्होंने शायद ही किसी फिल्म में चिल्लाकर अभिनय किया हो। फुसफुसाकर बोलने के साथ अभिनय की बारीकियों को परदे पर उतारकर उन्होंने जो पहचान बनाई वो उनकी अदाकारी बन गई। संवाद बोलने के बीच उनके पॉज देने और अचानक मौन होकर आँखों से अभिनय करने की उनकी अदा ने दर्शकों पर जबरदस्त असर डाला। इसका सबसे सटीक प्रमाण था 'मुगले आजम' में पृथ्वीराज कपूर के सामने उनका ठहरा हुआ अभिनय! पृथ्वीराज कपूर की आवाज में खराश थी और वे बहुत जोर से संवाद बोलते थे! 'मुगले आजम' में ये अकबर के किरदार की जरुरत भी थी, पर शहज़ादा सलीम की भूमिका में दिलीप कुमार ने कभी ऊँची आवाज में कोई संवाद नहीं बोला! उन्होंने ऊँची आवाज में बोले बिना सहज, सौम्य लेकिन दृढ़ आवाज़ में संवाद बोले और दर्शकों को ताली बजाने पर मजबूर किया। 
   राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार को हिंदी फिल्मों की त्रिमूर्ति कहा जाता था। किंतु, अभिनय की जो बहुमुखी प्रतिभा दिलीप कुमार के अभिनय में थी, वो इन दोनों कलाकारों में नहीं थी। जिस दौर में दिलीप कुमार अभिनय करते थे, तब हर बड़ा अभिनेता किसी न किसी हॉलीवुड अभिनेता से प्रेरित रहता था। राज कपूर ने चार्ली चैपलिन से प्रभावित थे, तो देव आनंद ने ग्रेगरी पेक की तरह अभिनय किया और कभी भी उन अदाओं से बाहर नहीं निकल सके। लेकिन, दिलीप कुमार ने कभी किसी की कॉपी नहीं की और अपना अलग ही अंदाज बनाया। 'गंगा जमना' में एक गांव के युवक का किरदार बखूबी से निभाया तो 'मुग़ले आज़म' में उनका अभिनय देखकर कोई कह नहीं सकता था कि मुग़ल शहज़ादे का अंदाज दिखाने में उन्होंने कोई कमी रखी। 
    बॉम्बे टॉकिज की मालकिन देविका रानी से हुई उनकी मुलाकात ने जीवन की धारा ही बदल दी। 40 के दशक में देविका रानी हिंदी फ़िल्मी दुनिया का एक बड़ा नाम था। जब वे फिल्म निर्माण में आई तो फिल्मों का एक बड़ा तबका उनके इर्द-गिर्द मंडराने लगा! लेकिन, उन्होंने दिलीप कुमार की प्रतिभा को पहचान लिया था। उन्होंने यूसुफ़ खान को 'दिलीप कुमार' बनाकर एक इतिहास रच दिया, जिसका आखिरी अध्याय आज पूरा हुआ। एक फ़िल्म की शूटिंग देखने बॉम्बे टॉकीज़ गए युसूफ खान से देविका रानी ने उनसे पूछा था कि क्या आप उर्दू जानते हैं! यूसुफ़ के हाँ कहने पर उन्होंने पूछा कि क्या आप अभिनय करना पसंद करेंगे! युसूफ को भी इसी पल का इंतजार था। इसके बाद जो हुआ, वो हिंदी फिल्म जगत के इतिहास में दर्ज हो गया।  
    देविका रानी का विचार था कि रोमांटिक फिल्मों के नायक का नाम भी रोमांटिक होना चाहिए। यूसुफ़ खान जैसा परंपरागत मुस्लिम नाम जमेगा नहीं। जब उनसे पूछा गया तो वे भी इसके लिए राजी हो गए। उस समय बॉम्बे टॉकीज़ में काम करने वाले और बाद में हिंदी के बड़े कवि भगवतीचरण वर्मा ने उन्हें तीन नाम सुझाए जहांगीर, वासुदेव और दिलीप कुमार। यूसुफ़ खान ने दिलीप कुमार चुना। गौर करने वाली बात ये भी है कि अपने पूरे करियर में दिलीप कुमार ने सिर्फ 'मुगले आजम' में मुस्लिम किरदार निभाया।  
   पांच दशक से ज्यादा समय तक चले अपने करियर में दिलीप कुमार ने 63 फ़िल्मों में काम किया। ख़ास बात ये कि उनकी हर फिल्म का किरदार अपने आपमें अनोखा होता था। अभिनय की बारीकियों में डूबना दिलीप कुमार की आदत रही। लेकिन, एक बार अभिनय में डूबना उनके लिए मुश्किल भी बन गया। कई फिल्मों में उन्होंने मरने का अभिनय किया। एक ऐसा दौर था, जब हर दूसरी फिल्म में उनकी मौत का दृश्य होता था। वे मौत के सीन को इतनी गंभीरता से फिल्माते थे, कि उसमें जीवंतता लगती थी। एक समय आया कि मरने का अभिनय करते-करते दिलीप कुमार अवसाद का शिकार हो गए। हालात ये हो गई कि उन्हें इलाज के लिए लंदन जाना पड़ा। डॉक्टरों की सलाह थी कि वे ट्रैजिक फ़िल्में छोड़कर सामान्य या कॉमेडी फ़िल्में करें और अभिनय को दिल पर न लें। लंदन में लौटकर दिलीप कुमार ने कोहिनूर, आज़ाद और 'राम और श्याम' जैसी सामान्य फ़िल्में की, जिनमें हास्य भी था। 
   दिलीप कुमार अभिनय में वास्तविकता दिखाने के लिए हर वो कोशिश करना चाहते थे, जो फिल्म में उनके किरदार की जरुरत थी। 'कोहिनूर' फिल्म के के एक गाने में उन्हें हाथ में सितार लेना था। वे नहीं चाहते थे कि कोई उनकी कमजोरी पकड़े, तो उन्होंने उस्ताद अब्दुल हलीम जाफ़र ख़ान से सितार बजाना तक सीखा। ये सब इसलिए किया गया कि आखिर सितार को पकड़ा कैसे जाता है। सितार के तार से कई बार उनकी उंगलियाँ भी कटी, पर लगन तब भी नहीं छूटी। 'नया दौर' की शूटिंग के दौरान उन्होंने तांगा चलाने वाले से बकायदा तांगा चलाने की ट्रेनिंग ली। अभिनय की इन्हीं बारीकियों ने उन्हें वो दिलीप कुमार बनाया, जो अभिनय की पाठशाला बना और जिससे अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान जैसे अभिनेता निकले। 
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