Tuesday, August 15, 2023

सिनेमा में आजादी के रंग और बंटवारे की त्रासद सच्चाई!

- हेमंत पाल

    फिल्मों में फार्मूलों की कमी नहीं है। जब भी कोई फिल्म दर्शकों की पसंद पर खरी उतरती है, तो उसी विषय पर केंद्रित फ़िल्में बनाने की होड़ सी लग जाती है। फिल्मकारों को लगता है कि दर्शकों को यदि एक फिल्म पसंद आई, तो वे दूसरी को भी उसी कसौटी पर कसेंगे। मोहब्बत, बदला, परिवार, डाकू और कॉमेडी के अलावा देशभक्ति भी ऐसा ही फार्मूला है, जो फिल्मकारों की पसंद में हमेशा खरा उतरा। लेकिन, फिल्मों में देशभक्ति को अलग-अलग तरीकों से भुनाया गया। आमिर खान की लगान, शाहरुख़ खान की चक दे इंडिया और सनी देओल की 'ग़दर : एक प्रेम कथा' में भी देशभक्ति का तड़का लगा। युद्धकाल की एक घटना को आधार बनाकर बनी 'बॉर्डर' जैसी फिल्मों में भी देश प्रेम दर्शाया था। फिल्मों ने देश के विभाजन के उन दृश्यों को भी परदे पर उतारा, जो उस दौर को देखने वालों ने किताबों में दर्ज किए थे। 
    बंटवारे की त्रासदी पर कई फिल्में बनाई गई, ताकि आजादी के बाद में जन्मे लोग उस दौर की विभीषिका और सच को जान सकें। इस दर्द को सबसे पहले 1949 में आई फिल्म 'लाहौर' में दिखाया गया। फिल्म में देश के विभाजन के समय एक युवती का अपहरण कर उसे पाकिस्तान में रख लिया जाता है। जबकि, उसका प्रेमी भारत आ जाता है। बाद में वह अपनी प्रेमिका को खोजने पाकिस्तान जाता है। सनी देओल की फिल्म 'ग़दर' भी कुछ इसी तरह की कहानी पर बनी। इसके बाद 1961 में आई फिल्म 'धर्मपुत्र' बंटवारे और धर्म आधारित दंगों पर बनाई गई। इस फिल्म का गाना ‘तू हिंदू न बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ दोनों धर्मों की एकता को दर्शाता है।
    लम्बे अरसे बाद 1973 में फिल्म 'गरम हवा' को बंटवारे पर बनी अब तक की बेहतरीन फिल्मों में गिना जाता है। इसमें एक मुस्लिम परिवार की कहानी थी, जो इस सोच में उलझ जाते हैं, कि बंटवारे के बाद किस देश में रहा जाए। यह फिल्म इस्मत चुगताई की उर्दू लघु कहानी पर आधारित थी। बंटवारे पर 1988 में भीष्म साहनी ने 'तमस' बनाई, जो उन्हीं के उपन्यास पर आधारित थी। यह फिल्म रावलपिंडी में हुए दंगों की सच्ची घटनाओं की आंखों-देखी थी। इससे पहले 1986 में गोविंद निहलानी इसी नाम (तमस) से सीरियल भी बना चुके थे। इसके बाद 1998 में खुशवंत सिंह के उपन्यास पर 'ट्रेन टू पाकिस्तान' बनी। यह पाकिस्तानी शहर मनो माजरा के पास एक रेलवे लाइन के किनारे बसे गांव की कहानी थी। यह गांव पहले सिख बहुल था और मुस्लिमों की आबादी कम थी। लोग वहां मिलकर रहते थे। पर, बंटवारे के बाद उस शहर की स्थिति और जगहों की तरह ही बदल जाती है और दंगे होते हैं।
     दो देशों के बंटवारे को रिचर्ड एटिनबरा की 1982 में आई 'गांधी' में भी दिखाया गया था। 'गांधी' के करीब 18 साल बाद 2000 में आई कमल हासन के निर्देशन में बनी 'हे राम' भी विभाजन की त्रासदी पर बनी। इसमें भी देश विभाजन के दर्द को महसूस कराया गया। 1999 में आई सनी देओल और अमीषा पटेल की फिल्म 'गदर : एक प्रेम कथा' बंटवारे के समय की प्रेम कहानी थी। इस फिल्म का सीक्वल हाल ही में रिलीज हुआ। 1999 की दीपा मेहता की फिल्म '1947 अर्थ' का कथानक भी कुछ इसी तरह का था। इसमें आजादी के समय में देश के विभाजन से पहले और उस दौर में लाहौर की स्थिति को परदे पर दिखाया था। गुरिंदर चड्ढा की फिल्म 'पार्टीशन' (2017) भी आजादी और विभाजन की दास्तां पर आधारित है। इस फिल्म में विभाजन से पहले 1945 की सच्ची घटनाओं का जिक्र है। 'फ्रीडम एट मिडनाइट' किताब पर बनी फिल्‍म को अंग्रेजी में 'द वायसराय हाउस' नाम से बनाया गया।
   डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में 2003 में बनी फिल्म 'पिंजर' भी महिलाओं के कसक की कहानी थी। यह पंजाबी की मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम के उपन्यास पर बनी थी। इसमें बंटवारे के वक्त एक युवती अपने परिवार से बिछड़ जाती है। उसे किसी धर्म का युवक अपने पास रखता है और उससे शादी करता है। इस पूरी फिल्म में बंटवारे की विभीषिका झेल रही महिलाओं के अंतर्द्वंद की कहानी थी। 2003 में भारत-पाकिस्तान के रिश्तों पर आधारित फिल्म 'खामोश पानी' दोनों देशों में एक साथ रिलीज हुई थी। लेकिन, अब इस मुद्दे पर गंभीर फ़िल्में बनना लगभग बंद हो गया! बनती भी हैं, तो फार्मूला फ़िल्में जिनमें नायक पाकिस्तान जाकर हेंडपम्प उखाड़ देता है! आजादी के बाद करीब दो दशक तक बनी फिल्मों में देशभक्ति के किस्सों को कई तरह से दोहराया जाता रहा। इन फिल्मों में दिलीप कुमार की 'शहीद' प्रमुख थी। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद एक ऐसा दौर जरूर ऐसा आया, जब चेतन आनंद ने इस विषय पर 'हकीकत' जैसी सार्थक फिल्म बनाई। लेकिन, उसके बाद देशभक्ति के नाम पर जो कुछ परोसा गया, उसमें ऐसी भक्ति की भावना करीब-करीब नदारद ही रही। 
    भगतसिंह के चरित्र पर बनी 'शहीद' की सफलता ने मनोज कुमार को फिल्में हिट करने का एक फार्मूला जरूर दे दिया। इस दौर के बाद देशभक्ति के नाम से जितनी फ़िल्में बनी, उनमें फिल्मकारों ने इस बात का ध्यान रखा कि यदि दर्शकों की भावनाएं यदि किसी विषय पर भड़कती है, तो वो है पाकिस्तान विरोध! जेपी दत्ता ने भारत और पाकिस्तान युद्ध पर आधारित फिल्म 'बॉर्डर' बनाई! कथित देशभक्ति के नाम पर इन दिनों बनाई जाने वाली फिल्मों का एक ही लक्ष्य होता है, जितना हो सके पाकिस्तान की फजीहत दिखाई जाए! क्योंकि, देशभक्ति का यही सबसे हिट फार्मूला भी है।  निर्माता निर्देशक अनिल शर्मा ने 'गदर : एक प्रेम कथा' में 'हिंदुस्तान जिंदाबाद था, हिंदुस्तान जिंदाबाद है और हिंदुस्तान जिंदाबाद रहेगा' जैसे डायलॉग लिखकर खूब तालियां पिटवाई। उसके बाद आमिर खान की 'सरफरोश' में भी देशभक्ति का वही पुराना तड़का था। 
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