- हेमंत पाल
हमारे यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव को उत्सव की तरह मनाया जाता है। इस उत्सव में राजा बनने के लिए प्रजा को अपने पक्ष में करना पड़ता है। इसके लिए कई तरह के प्रपंच रचे जाते हैं। क्योंकि, फैसला भी इसी बात पर होना है कि किसके पाले में ज्यादा लोग हैं! जिसके पक्ष में ज्यादा हाथ खड़े होंगे, उसे पांच साल राज करने का मौका मिलेगा! इसमें कुछ गलत भी नहीं, इसलिए कि ज्यादा अच्छा प्रलोभन ही जनता को आकर्षित करता है! लेकिन, क्या जरूरी है कि प्रलोभन के रूप में किए गए सभी वादे पूरे हों! ये न तो संभव है और न वादों पर भरोसा ही किया जाता है। अमूमन चुनाव से पहले दो तरह के वादे किए जाते हैं। चुनाव से पहले तो मंच से वादे करके वाहवाही लूटी जाती है। लेकिन, चुनाव की घोषणा के बाद राजनीतिक पार्टियां घोषणा-पत्र में कसम खाकर वादे करती है, कि उन्हें मौका दिया गया तो वे कागज पर लिखे वादे पूरे करेंगे! जबकि, जनता भी इस सच को जानती है कि किए गए और लिखे गए सभी वादे कभी पूरे नहीं होते! दोनों तरह के वादे भ्रमजाल हैं जिन्हें बरसों से जनता पर फेंक कर उन्हें भरमाया जाता रहा है। कुछ राज्यों में वही माहौल फिर सज गया।
देश के तीन हिंदी भाषी राज्यों में राजनीतिक पार्टियों की चुनावी तैयारियां पूरे जोर पर है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उत्साह से लबरेज पार्टियां रोज जनता से कोई न कोई वादा करने से नहीं चूक रही। साढ़े चार साल तक मतदाताओं पर रौब गांठने वाली पार्टियां याचक बनकर खड़ी हो गई। चुनाव की आखिरी छमाही पार्टियों के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है, कि उनकी उनकी पांच साल कि पढ़ाई की अब परीक्षा जो होने वाली है। वे यह भी जानते हैं कि चुनाव से पहले मतदाताओं को जितना भरमा लिया, वही उनके लिए चुनाव में फायदेमंद होगा। जो पार्टियां सत्ता में हैं, उसके नेता घोषणाएं करते नहीं अघा रहे! जो विपक्ष में हैं, वे सत्ता पाने की कोशिश में भविष्य में पूरे किए जाने वाले वादों से काम चला रहे हैं। लेकिन, जनता का रुख तटस्थ है। ऐसे समय में यह पता नहीं चलता कि जनता के मन में क्या है और वे किस पार्टी की बातों से ज्यादा आकर्षित हो रही। वास्तव में लोकतंत्र का खरा सच भी तो यही है, जिसमें राजा को हर पांच साल में जनता के सामने वादों की गठरी के साथ हाथ जोड़कर खड़े होना पड़ता है।
लोकतंत्र में वादे करना नई बात नहीं है। सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए यही वादे तो सीढ़ियां बनते हैं। लेकिन, ये वादे क्या कभी पूरे होंगे, इस तरफ कोई ध्यान नहीं देता। आजकल इसी तरह की राजनीतिक कसमों और वादों का दौर है। कम से कम तीन हिंदी भाषी राज्यों में तो सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ से जनता पर वादों के गोले दागने का काम जोर-शोर से चल रहा है। इस बार चुनावी वादों के केंद्र में महिला, किसान और गैस सिलेंडर ज्यादा दिखाई दे रहे। ख़ास बात यह कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में जंग सीधे मुकाबले की होना है। यहां कोई तीसरी पार्टी चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है, इसलिए वादों की जंग दो ही पार्टियों के बीच लड़ी जा रही। इस बात से इंकार भी नहीं कि बढ़ती महंगाई सबकी आंखों में है, इसलिए वादे भी ऐसे किए जा रहे जो मध्यम वर्ग को राहत देने वाले हों।
लोकतंत्र में वादे करना नई बात नहीं है। सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए यही वादे तो सीढ़ियां बनते हैं। लेकिन, ये वादे क्या कभी पूरे होंगे, इस तरफ कोई ध्यान नहीं देता। आजकल इसी तरह की राजनीतिक कसमों और वादों का दौर है। कम से कम तीन हिंदी भाषी राज्यों में तो सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ से जनता पर वादों के गोले दागने का काम जोर-शोर से चल रहा है। इस बार चुनावी वादों के केंद्र में महिला, किसान और गैस सिलेंडर ज्यादा दिखाई दे रहे। ख़ास बात यह कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में जंग सीधे मुकाबले की होना है। यहां कोई तीसरी पार्टी चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है, इसलिए वादों की जंग दो ही पार्टियों के बीच लड़ी जा रही। इस बात से इंकार भी नहीं कि बढ़ती महंगाई सबकी आंखों में है, इसलिए वादे भी ऐसे किए जा रहे जो मध्यम वर्ग को राहत देने वाले हों।
सभी पार्टियों के निशाने पर महिलाएं ही ज्यादा है। उन्हीं को केंद्र में रखकर योजनाओं का सारा खाका तैयार किया जा रहा। चुनाव वाले सभी राज्यों में कमजोर वर्ग की महिलाओं को आर्थिक मदद देने की होड़ सी लग गई। इसलिए कि राजनीतिक चिंतकों ने अब ये अच्छी तरह समझ लिया कि घर की महिलाओं को टारगेट करके यदि वादों की थाली परोसी जाए, तो उससे पूरा परिवार प्रभावित होगा। ऐसे में इसका लाभ भी वोट के रूप में सामने आएगा! ये सोच कितनी सही है, ये तो चुनाव के बाद ही सामने आएगा, पर मतदाताओं को भरमाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। ये पहली बार नहीं हो रहा, हर बार यही होता है। जिस भी राज्य में चुनाव का माहौल बनता है, राजनीतिक पार्टियां अपने वादों का भ्रमजाल फैलाना शुरू कर देती हैं। जिसके जाल में आकर्षक दाने होंगे, वो जंग जीत ले जाएगा!
हमारे देश में चुनावी वादों पर न तो कोई बंदिश है, न कोई सीमा रेखा और न कोई कानूनी बाध्यता कि जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा। फिर वे चुनाव से पहले किए गए वादे हों या चुनावी घोषणा-पत्र में लिखी गई बातें। चुनाव के नतीजे आते ही राजनीतिक पार्टियों की प्राथमिकता बदलते देर नहीं लगती। याचक की मुद्रा में खड़े नेता भी आंखे फेरकर खड़े हो जाते हैं। इसलिए कि उन्हें पता है कि अब पांच साल वे वादों के बंधन से मुक्त हैं। यदि वादों पर सवाल भी किए जाते हैं, तो उनके पास जवाब होता है कि वादों को पूरा करने के लिए अभी पांच साल का वक़्त है। ये सही भी है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियां अलादीन का चिराग घिसकर तो वादों को पूरा करने का दावा भी नहीं करती! अब फिर कुछ राज्यों में चुनावी घटाएं छाने के साथ वादों की बौछार शुरू हो गई। ऐसे में भीगने वाली जनता को फैसला करना है कि उन्हें क्या करना है। क्योंकि, पांच साल के लिए हो रही परीक्षा की उत्तर पुस्तिका तो उन्हें ही बांचना है!
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हमारे देश में चुनावी वादों पर न तो कोई बंदिश है, न कोई सीमा रेखा और न कोई कानूनी बाध्यता कि जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा। फिर वे चुनाव से पहले किए गए वादे हों या चुनावी घोषणा-पत्र में लिखी गई बातें। चुनाव के नतीजे आते ही राजनीतिक पार्टियों की प्राथमिकता बदलते देर नहीं लगती। याचक की मुद्रा में खड़े नेता भी आंखे फेरकर खड़े हो जाते हैं। इसलिए कि उन्हें पता है कि अब पांच साल वे वादों के बंधन से मुक्त हैं। यदि वादों पर सवाल भी किए जाते हैं, तो उनके पास जवाब होता है कि वादों को पूरा करने के लिए अभी पांच साल का वक़्त है। ये सही भी है, क्योंकि राजनीतिक पार्टियां अलादीन का चिराग घिसकर तो वादों को पूरा करने का दावा भी नहीं करती! अब फिर कुछ राज्यों में चुनावी घटाएं छाने के साथ वादों की बौछार शुरू हो गई। ऐसे में भीगने वाली जनता को फैसला करना है कि उन्हें क्या करना है। क्योंकि, पांच साल के लिए हो रही परीक्षा की उत्तर पुस्तिका तो उन्हें ही बांचना है!
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