Friday, August 4, 2023

जो आदिवासियों के दिल में उतरेगा, बाजी उसके हाथ!

    इस बार का विधानसभा चुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए कांटा-जोड़ है। भाजपा के सामने बड़ी चुनौती अपने आदिवासी वोट बैंक को बचाने की है। जबकि, कांग्रेस को अपना खोया हुआ जनाधार फिर से पाना है। भाजपा ने इंदौर में अमित शाह के जरिए बूथ कार्यकर्ताओं को उत्साहित किया, तो कांग्रेस ने चुनाव अभियान की जिम्मेदारी ही आदिवासी नया कांतिलाल भूरिया को सौंप दी। भाजपा अभी तक ऐसा कोई साहसिक प्रयोग नहीं कर सकी। जबकि, प्रदेश में तीसरा बड़ा वोट बैंक आदिवासियों का ही हैं। अमित शाह ने इसी गणित को समझकर कार्यकर्ताओं को जीत का फार्मूला दिया। लेकिन, भाजपा की ये फौरी कवायद से बाजी नहीं पलटेगी। उसे आदिवासियों के दिल में उतरना होगा, तभी कुछ हो सकेगा। 
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 - हेमंत पाल
 
    भाजपा ने मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव की रणनीति, तैयारी और प्रबंधन को पूरी तरह से अपनी टीम के हाथों सौंप दिया। उन्होंने समझ लिया कि प्रदेश संगठन इतना सक्षम नहीं है कि उसके भरोसे इस बार का मध्यप्रदेश का चुनाव छोड़ा जाए! भाजपा के लिए यह प्रदेश इसलिए महत्वपूर्ण है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा बहुमत पाने से वंचित रही और कांग्रेस ने सरकार बना ली थी। इस बार भाजपा कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। यही कारण है कि इस बार सारी कमान अमित और उनकी विश्वस्त टीम ने अपने हाथ में आ गई। मुद्दे की बात यह कि भाजपा की पिछली हार में शाह मालवा-निमाड़ की 66 सीटों की बड़ी भूमिका रही थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जिन 22 विधायकों ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामा उनमें से 7 विधायक मालवा-निमाड़ क्षेत्र के ही थे।       
      2018 के चुनाव नतीजों से साफ़ हो गया था कि मालवा-निमाड़ में भाजपा को 20 साल में इतना बड़ा नुकसान कभी नहीं हुआ। 66 सीटों में से भाजपा को 28 सीटें मिली थी। जबकि, 2013 के चुनाव में 57 सीटें जीती। भाजपा को यहां सीधे 29 सीटों का नुकसान हुआ। इसमें इंदौर संभाग में 5 साल में ही भाजपा की 18 सीट तो उज्जैन संभाग में 11 सीटें कम हो गई। इंदौर संभाग में जो सीटें भाजपा के खाते में गई, उसमें ज्यादातर शहरी क्षेत्रों की हैं। इंदौर की चार सीटें शहरी विधानसभा की हैं, तो धार शहर की सीट नीना वर्मा बचा पाईं। झाबुआ में कांग्रेस के प्रत्याशी विक्रांत भूरिया अपने ही बागी जेवियर मेढ़ा के कारण हारे। खंडवा शहर और बड़वानी शहर की सीट भाजपा के खाते में गई, तो ग्रामीण में पंधाना, हरसूद और महू की सीट ही भाजपा जीत पाई।
    2003 के विधानसभा चुनाव के बाद से आदिवासी इलाकों में कांग्रेस की स्थिति लगातार कमजोर हुई! इसकी वजह रही आदिवासी वोटों का विभाजन। प्रदेश में भील-भिलाला आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा है। आदिवासियों का यह समूह निमाड़-मालवा में बसता है। पिछले दो दशक में मालवा-निमाड़ के आदिवासी अंचल में भाजपा अपनी स्थिति मजबूत करती रही है। मालवा-निमाड़ आदिवासी बहुत इलाका है और यहां भील, भिलाला, पाटलिया, बारेला जाति के वोटर हैं। यहां की 22 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है। लेकिन, 6 सामान्य सीटों पर भी आदिवासी वोटरों की संख्या 25 हजार से ज्यादा है। इसका आशय यह कि वे हार-जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 
   भाजपा के सामने इस बार सबसे बड़ी चुनौती अपने आदिवासी वोट बैंक को बचाने की है और इसके लिए वो हर संभव उपाय भी कर रहे हैं। प्रदेश में तीसरा बड़ा वोट बैंक आदिवासियों का ही है। 21% आदिवासी आबादी के लिए प्रदेश में 47 सीटें आरक्षित हैं। मालवा-निमाड़ की 22 आदिवासी सीटों का फैसला 80% आदिवासी वोटरों और 15% ओबीसी के हवाले हैं। इलाके में सबसे ज्यादा 40% भिलाला, 35% भील और 5% पाटलिया और बारेला वोटर हैं। इन सीटों पर सवर्ण वोटरों की संख्या मात्र 5% हैं। अमित शाह ने इसी गणित को समझकर इंदौर में भाजपा के बूथ कार्यकर्ताओं की बैठक ली और जीत का फार्मूला दिया। लेकिन, ये सारी कवायद इतनी आसान नहीं है, जो दिखाई दे रही है।  
     भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए मालवा-निमाड़ की जमीन राजनीतिक रूप उर्वरा रही। यहां जिस भी पार्टी की वोटों की फसल लहलहाई, उसे प्रदेश में सत्ता की चाभी मिली। ठीक उसी तरह जैसे उत्तर प्रदेश की जीत को दिल्ली के लिए दरवाजे का खुलना माना जाता है। मालवा-निमाड़ को भाजपा का गढ़ जरूर कहा जाता रहा, लेकिन, कांग्रेस ने 2018 में यहां बेहतरीन प्रदर्शन करके भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया था। भाजपा को प्रदेश के अन्य हिस्सों में अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद सिर्फ मालवा-निमाड़ ने झटका दिया। यही कारण रहा कि भाजपा को सत्ता नहीं मिल सकी। बाद में बदली हुई परिस्थितियों में कांग्रेस सत्ता से भले बेदखल हो गई, पर इस इलाके के मतदाताओं के मूड को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। भाजपा के हाथ प्रदेश की कमान फिर लग गई, पर चुनौतियां कम नहीं हुई। यही कारण है कि 2018 के चुनाव नतीजों को ध्यान में रखते हुए भाजपा यहां कुछ ज्यादा ही सक्रिय दिखाई दे रही है। क्योंकि, राजधानी में सरकार जरूर बदली, मतदाताओं के दिल नहीं!
     इस क्षेत्र के दो संभाग (इंदौर और उज्जैन) में विधानसभा की 66 सीटें आती हैं। प्रदेश की राजनीति में इसका बड़ा महत्व है। 2020 में सत्ता बदलाव के बाद से यहां चेहरे बदले हुए हैं। जो कभी विरोध में थे, वे अब सत्ताधारी पार्टी के पोस्टरों पर छाए हैं। कुछ पुराने चेहरे इस परिदृश्य से बिल्कुल गायब हो गए। माना जा रहा कि बदली हुई परिस्थितियों में दोनों दलों को काफी मशक्कत करनी होगी। मालवा-निमाड़ में खोई जमीन को तलाशने के लिए भाजपा लगातार कोशिश में है। उसके बड़े नेता लगातार यहां सक्रिय है। खुद मुख्यमंत्री यहां की आदिवासी सीटों पर लगातार अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। इस इलाके को लेकर भाजपा क्या सोचती है, इसका अंदाजा भाजपा की सक्रियता से पता चलता है। मुख्यमंत्री कई योजनाओं की घोषणा कर चुके हैं। उधर, कांग्रेस भी सदस्यता अभियान के जरिए अच्छा खासा ग्राउंड वर्क कर चुकी है। कांग्रेस के सामने अगले विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती 2018 के नतीजों की पुनरावृत्ति करना है। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह भी यहां खासी सक्रियता दिखा रहे हैं।
    इंदौर और उज्जैन इन दो संभागों में बंटे मालवा-निमाड़ की कुल 66 सीटें हैं। इनमें 15 जिले इंदौर संभाग  हैं। इंदौर के साथ ये जिले है धार, खरगोन, खंडवा, बुरहानपुर, बड़वानी, झाबुआ, अलीराजपुर, उज्जैन, रतलाम, मंदसौर, शाजापुर, देवास, नीमच और आगर-मालवा आते हैं। भाजपा के पास यहां 57 सीटें थी, जबकि कांग्रेस सिर्फ 9 सीटों पर सिमट गई थी। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 27, कांग्रेस 36 कांग्रेस और 3 सीटें निर्दलीय के पास गई थी। भाजपा में इस इलाके में आदिवासी समुदाय को हिन्दुत्व की धारा से जोड़ने का काफी प्रयास किए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठन कई दशकों से कर रहे हैं। आदिवासियों को वनवासी नाम का संबोधन उन्हें भगवान श्री राम से जोड़ने के मकसद से ही दिया गया। धार-झाबुआ के घने आदिवासी इलाकों में हनुमान चालीसा बांटने और पाठ करने के कई कार्यक्रम चले। जनगणना में भी संघ की पूरी कोशिश रही कि आदिवासी अपने धर्म के कॉलम में हिंदू अंकित कराएं। लेकिन,आदिवासी आरक्षण खत्म होने के डर से अपने आपको हिंदू नहीं कहते!
   मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव में अभी 6 महीने बाकी हैं। लेकिन, पिछले चुनाव में आदिवासी क्षेत्रों में हुए नुकसान का खामियाजा भाजपा को अपनी डेढ़ दशक पुरानी सरकार गंवाकर चुकाना पड़ा था। भाजपा इस बार के विधानसभा चुनाव में सत्ता गंवाने का खतरा उठाने की स्थिति में नहीं है। प्रदेश के विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर 2023 में हैं। भाजपा मानकर चल रही है कि 'जयस' आदिवासी संगठन की कांग्रेस से दूरी बनने से ही इलाके में उसकी पकड़ मजबूत होगी। संगठन के पांच लाख से अधिक युवा सदस्य हैं और इनका असर पड़ोसी राज्य राजस्थान में भी है।
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