Thursday, September 25, 2025

मलयालम के मोहनलाल हिंदी के अमिताभ से कम नहीं

    दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित मलयालम फिल्मों के अभिनेता मोहनलाल ने अपने चार दशक के करियर में कई भाषाओं की फिल्मों में अभिनय किया। भारतीय सिनेमा पर मोहनलाल का प्रभाव बेजोड़ है। परदे पर वे अपनी प्रभावशाली मौजूदगी के लिए जाने जाते हैं। उनकी पहचान देश के सबसे सम्मानित अभिनेताओं में है। यहां तक कि उन्हें मलयाली फिल्मों का अमिताभ बच्चन कहा जाता है। ये समानता काफी हद तक सही भी है। अमिताभ की तरह उनकी संवाद अदायगी और भावनाओं का प्रभावी प्रदर्शन बेजोड़ होता है। मोहनलाल सिर्फ अभिनय ही नहीं करते, वे गीत भी गाते हैं, एक्शन में ही उन्हें महारत है और फिल्म निर्माण में भी उनका दखल है। मोहनलाल की खासियत यह भी है कि उन्होंने मलयालम सिनेमा को राष्ट्रीय पहचान ही नहीं दिलाई, वैश्विक स्तर पर भी प्रसिद्धि दिलाने में वे मददगार रहे। 000      

- हेमंत पाल

     केरल देश के छोटे राज्यों में है और यहां बोली जाने वाली मलयालम भाषा का दायरा भी सीमित है। इस भाषा में फ़िल्में भी बनती है। लेकिन, जब भी मलयालम की फिल्मों का जिक्र होता है, बात एक ही अभिनेता से शुरू होती है और उसी पर ख़त्म भी हो जाती है। ये हैं सर्वकालिक लोकप्रिय अभिनेता मोहनलाल, जिन्हें इस बार भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहेब फाल्के' से नवाजा गया। मोहनलाल वो कलाकार हैं जिन्होंने मलयालम सिनेमा को वैश्विक पहचान दी। उन्होंने न सिर्फ अभिनय के मामले में मलयालम सिनेमा को समृद्ध किया, बल्कि व्यावसायिक रूप से भी मलयालम फिल्म उद्योग को मजबूती दी। फिल्मों के जो दर्शक इस अभिनेता की प्रसिद्धि से वाकिफ नहीं हैं, उनके लिए इतना जानना ही काफी है कि मोहनलाल को मलयाली फिल्मों का अमिताभ बच्चन कहा जाता है। दक्षिण के एक छोटे से राज्य की भाषा के इस अभिनेता को सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान मिलना उनकी इसी अभिनय क्षमता का प्रमाण है। इस अभिनेता ने अपने चार दशक लंबे करियर में करीब 400 फिल्मों में काम किया। उन्होंने सिर्फ मलयालम ही नहीं, तेलगु और तमिल की फिल्मों में भी अपनी छाप छोड़ी है। मोहनलाल की खासियत उनकी सहज अभिनय शैली है, इस वजह से उन्हें देश में अब तक के श्रेष्ठ अभिनेताओं में गिना जाता है। 
     माना जाता है कि महान अभिनेता अपने अभिनय से किरदार के भीतर की उत्तेजना को वास्तविकता और संतुलित अंदाज से प्रस्तुत करते है। यही वजह है कि वे निर्देशकों की उम्मीदों से भी ऊपर प्रदर्शन करते हैं। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में भी मोहनलाल का योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है। वे न केवल एक अभिनेता हैं, बल्कि फिल्म निर्माता, प्लेबैक सिंगर और मार्शल आर्ट की कुशलता वाले योद्धा भी हैं। अभिनय में उनकी असाधारण नैसर्गिकता और भावनाओं की गहराई दर्शकों को अंदर तक उद्वेलित करती है। कथकली और भरतनाट्यम जैसे शास्त्रीय नृत्यों का सहज प्रदर्शन उनकी अद्भुत प्रतिभा का संकेत है। उन्होंने परदे पर कलारी मार्शल आर्ट में अपनी दक्षता भी दिखाई। 
      उन्हें कई राष्ट्रीय और राज्य पुरस्कारों से नवाजा गया। उन्हें भारतीय सिनेमा में पहली बार मानद लेफ्टिनेंट कर्नल की उपाधि भी प्रदान की गई। मोहनलाल मलयाली सिनेमा के बहुमुखी कलाकारों में एक हैं। उनका अभिनय, सांस्कृतिक विविधता के साथ पेशेवर क्षमता में भी अद्वितीय है। उनकी यही विशेषता उन्हें भारतीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खास बनाती है। मलयाली सिनेमा में बेहतरीन फिल्में देने के लिए मोहनलाल को पांच बार नेशनल अवार्ड मिले। 1990 (किरीदम) के लिए स्पेशल ज्यूरी अवार्ड, 1992 में बेस्ट एक्टर (भारतम), 2000 में फीचर फिल्म (वनप्रस्थानम) के लिए, 2000 में बेस्ट एक्टर (वनप्रस्थानम) और 2017 में स्पेशल जूरी (जनता गैराज, मुन्थिरिवल्लिकल थलिर्ककुम्बोल, पुलिमुरुगन) के लिए उन्हें नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया। इसके अलावा इस मलयालम सुपरस्टार को 2001 में पद्मश्री और 2019 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
      दादा साहेब पुरस्कार हासिल करने वाले मोहनलाल दूसरे मलयाली फ़िल्मी सितारे हैं। उनसे पहले मलयालम फिल्म निर्माता अदूर गोपालकृष्णन को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अदूर गोपालकृष्णन को 2004 में यह पुरस्कार मिला। यह पहली बार था, जब किसी मलयालम कलाकार को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। अदूर की एलिप्पथायम, मुखामुखम, मतिलुकल और 'निजालकुथु' जैसी फिल्मों ने मलयालम सिनेमा के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रशंसा भी हासिल की। इसे संयोग ही माना जाना चाहिए कि मोहनलाल और अदूर गोपालकृष्णन दोनों एक ही जिले पथानामथिट्टा जिले से हैं, जो केरल की समृद्ध सिनेमा विरासत का प्रतीक है। एक ने अपने यादगार अभिनय से, तो दूसरे ने अपने अनोखे निर्देशन के जरिए सिनेमा के दर्शकों का दिल जीता। उनकी यह कला केरल की कलात्मक उत्कृष्टता को दर्शाती है। 
    सर्वोच्च सम्मान पाने के बाद मोहनलाल ने कहा कि मुझे यह प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मान पाकर अपार गर्व का अनुभव हो रहा है। मलयालम सिनेमा का प्रतिनिधित्व करते हुए, मैं सबसे कम उम्र के पुरस्कार विजेता और सीमित साधनों से आने वाले दूसरे व्यक्ति के रूप में सम्मानित होने पर अत्यंत सम्मानित महसूस कर रहा हूं। यह मेरा नहीं, बल्कि पूरे मलयालम सिनेमा समुदाय का सम्मान है। मोहनलाल ने इस पुरस्कार को मलयालम सिनेमा की विरासत, रचनात्मकता और सहनशीलता के प्रति एक सामूहिक सम्मान बताया। यह भी कहा कि यह सम्मान उनके लिए जादुई और पवित्र क्षण है। उन्होंने इसे मलयालम सिनेमा के सभी महान कलाकारों, उद्योग और केरल के दर्शकों को समर्पित किया, जिन्होंने वर्षों से उनकी कला को स्नेह और समझ के साथ पोषित किया। मोहनलाल ने कुमारन आशान की एक पंक्ति का उल्लेख करते हुए कहा कि यह फूल केवल धूल में नहीं गिरा, बल्कि जीवन को सुंदरता के साथ जिया। यह पुरस्कार उन सभी कलाकारों को श्रद्धांजलि है, जिन्होंने अपनी प्रतिभा और मेहनत से सिनेमा में अमिट छाप छोड़ी। 
     अभिनय के मामले में मोहनलाल की तुलना अकसर अमिताभ बच्चन से की जाती है, जो सही भी है। अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा का एक ऐसा अभिनेता माना जाता है, जिनकी अभिव्यक्ति में गहराई, गंभीरता और अभिनय शैली की एक अलग छाप है। वे संवाद अदायगी और भावनाओं को बहुत प्रभावी ढंग से प्रदर्शित करते हैं। उसी तरह मोहनलाल में मेथड एक्टिंग के साथ स्टारडम का अद्भुत संयोजन है। वे ट्रेजेडी, कॉमेडी, मेलोड्रामा और रोमांस सभी तरह के कथानकों के साथ न्याय करते हुए सहजता से अभिनय करते हैं। उनकी भावनात्मक अभिव्यक्ति बेहद नैचुरल और प्रेरक कही जाती है। स्वयं अमिताभ बच्चन ने मोहनलाल की सहजता और गहरी भावाभिव्यक्ति की क्षमता की तारीफ की। यही वजह है कि मोहनलाल की गिनती सर्वश्रेष्ठ अभिनेताओं में होती है। जिस तरह अमिताभ बच्चन ने हिंदी सिनेमा को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया, उसी तरह मोहनलाल को भी मलयालम फिल्म उद्योग में महानायक की तरह पूजा जाता है। देश की कई भाषाओं के दिग्गज कलाकारों ने मोहनलाल के अभिनय और उनके मलयालम सिनेमा को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के प्रयासों की सराहना की है। अमिताभ बच्चन ने भी मोहनलाल को बेमिसाल प्रतिभा और प्रेरणादायक कलाकार बताया, जिससे मोहनलाल का हिंदी फिल्मों में भी प्रभाव रहा है। 
    मोहनलाल की फिल्में जैसे 'दृश्यम' और 'एम्पुराण' ने मलयालम सिनेमा को वैश्विक स्तर पर अलग ही पहचान दिलाई है। दोनों कलाकारों ने फिल्मों में साथ भी काम किया है। 2010 में आई फिल्म 'कंधार' में इन दोनों महान कलाकारों ने साथ अभिनय किया। इसलिए कहा जाता है कि मोहनलाल मलयालम फिल्मों के अमिताभ बच्चन हैं। इसमें अमिताभ ने बिना फीस लिए कैमियो किया था, जो उनकी दोस्ती और सम्मान को दर्शाता है। अमिताभ बच्चन की स्टारडम व्यापक है और वे कई पीढ़ियों के लिए आइकन हैं। इसी तरह मोहनलाल भी केरल के सुपरस्टार हैं, जिनकी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड दर्ज किए हैं। उनकी लोकप्रियता मलयालम सिनेमा की सीमाओं से परे है। इस तुलना में दोनों कलाकारों के योगदान और प्रतिभा को उच्च सम्मान के साथ देखा जाता है। वे भारतीय सिनेमा के दो महान स्तंभ माने जाते हैं। उनके अभिनय के तरीके, दर्शकों के दिल में स्थान और फिल्म उद्योग में योगदान के आधार पर दोनों का अलग-अलग महत्व है, जो प्रशंसकों की पसंद पर निर्भर करता है। अमिताभ बच्चन ने मोहनलाल को बेहतरीन अभिनेता माना, जो दोनों के बीच सम्मान दर्शाता है।
     मोहनलाल की लोकप्रियता का संकेत यह भी है कि उन्होंने हिंदी फिल्मों में भी काम किया। इनमें प्रमुख हैं 'कंपनी' (2002) जो मोहनलाल की पहली बॉलीवुड फिल्म थी, जिसके लिए उन्हें 'आईफा' और 'स्टार स्क्रीन अवार्ड' मिले थे। 'राम गोपाल वर्मा की आग' फिल्म 1975 की शोले की रीमेक थी, जिसमें मोहनलाल ने इंस्पेक्टर की भूमिका निभाई। मोहनलाल की कई मशहूर मलयालम फिल्मों को भी हिंदी में डब किया गया, जिनमें 'क्रिमिनल लॉयर शिव-राम' और 'गीतांजली' को काफी पसंद किया गया। इसके अलावा, मोहनलाल की कुछ मलयालम फिल्मों के हिंदी रीमेक भी बनाए गए। जैसे 'किलुक्कम' का रीमेक 'मुस्कुराहट' और 'पूचक्कारु मूक्कुथी' का रीमेक 'हंगामा' है। इसके अलावा उनकी तमिल और मलयालम फिल्मों की हिंदी डब्ड भी लोकप्रिय रही। चार दशक की अभिनय यात्रा के बाद भी मोहनलाल थके नहीं हैं। उन्होंने सम्मान के बाद कहा भी कि वे अब और ज्यादा जिम्मेदारी से अपना काम करेंगे। 
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इंदौर की जमीन स्वच्छ, हवा भी शुद्ध

    देशभर में इंदौर का नाम 'सबसे स्वच्छ शहर' के रूप में है। इस शहर ने लगातार 8 बार देश के स्वच्छ शहर का राष्ट्रीय ख़िताब जीता। पर, इंदौर की चर्चा सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रही। अब इंदौर देश का सबसे साफ हवा वाला शहर भी बन गया। क्योंकि, 'स्वच्छ वायु सर्वेक्षण 2025' में उसे 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में पहला स्थान मिला। यह सर्वेक्षण राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) के तहत किया गया, जिसमें शहरों ने वायु प्रदूषण कम करने के लिए किए प्रयासों का मूल्यांकन किया। उसने स्वच्छता के मामले में भी नंबर वन होने के साथ अब साफ हवा के लिए भी यह सम्मान जीत लिया। 
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- हेमंत पाल
   
    जो शहर अभी तक कचरा उन्मूलन के मामले में पूरे देश में नंबर-वन है, वही शहर 'स्वच्छ वायु सर्वेक्षण 2025' में भी शत-प्रतिशत अंक लेकर अव्वल रहा। इंदौर को मिला यह सम्मान शहर के इस क्षेत्र में किए गए प्रयासों जैसे वृक्षारोपण, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, ई-बसों को बढ़ावा देने और सड़कों की नियमित सफाई आदि के लिए दिया गया। यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है, कि कोई शहर लगातार 8 बार स्वच्छता में अव्वल रहा हो और धरातलीय स्वच्छता के साथ वायु गुणवत्ता में भी नंबर वन बन गया। शहर ने पहले ही स्वच्छता के क्षेत्र में अपना स्थान सुनिश्चित किया, फ़िर स्वच्छ वायु सर्वेक्षण में अपनी जीत के साथ साफ हवा में भी अपनी बादशाहत कायम कर ली। माना जा सकता है कि यह सम्मान इंदौर की जनता की जागरूकता और सहभागिता का परिणाम है। एक साथ दो बड़े पुरस्कार मिलना इंदौर के लिए ख़ुशी से ज्यादा गर्व की बात है। 
     'स्वच्छ वायु सर्वेक्षण 2025' में इंदौर की जीत को कई आधार पर श्रेष्ठ आंका गया। इंदौर ने 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की श्रेणी में देशभर में पहला स्थान हासिल किया। अंकों की बात की जाए तो इंदौर को 200 में से पूरे 200 अंक मिले। इंदौर की इस उपलब्धि के लिए महापौर को ट्रॉफी और डेढ़ करोड़ रुपए का पुरस्कार मिला। यूनाइटेड नेशंस द्वारा इंदौर को वेटलैंड सिटी का भी दर्जा दिया गया। इसका पत्र भी पर्यावरण मंत्री ने महापौर को सौंपा। पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने स्वच्छ वायु सर्वेक्षण के जो नतीजे जारी किए, उसमें इंदौर ने इतिहास रचते हुए नंबर वन का तमगा हासिल किया। इंदौर ने 10 लाख से ज्यादा आबादी के वर्ग में 47 शहरों को पछाड़ा। इसके तहत तीन श्रेणी में देश के 130 शहर हैं। इन्हीं में वायु सर्वेक्षण किया गया।
    स्वच्छ वायु सर्वेक्षण आठ बिंदुओं पर किया गया। इसमें पहला है कम से कम ठोस अपशिष्ट जलाना जिसके तहत इंदौर में कचरा जलाने वालों पर सख्ती कर जुर्माना लगाया गया। दूसरे बिंदु में सड़कों को धूल मुक्त बनाने की कार्रवाई के तहत दो दर्जन से ज्यादा स्वीपिंग मशीनों की मदद से 800 किमी लंबी सड़कों की रोज सफाई की जाती है। साथ ही सड़क किनारे मलबा डालने वालों पर भी चालानी कार्रवाई की गई। तीसरा बिंदु था निर्माण और विध्वंस अपशिष्ट से धूल को नियंत्रित करना, जिसके तहत निर्माणाधीन भवनों पर ग्रीन नेट का उपयोग अनिवार्य किया गया। सड़क पर मलबा फेंकने वालों पर सख्त कार्रवाई की गई। इस मलबे से पेवर ब्लॉक बनाने की इकाइयां भी स्थापित की गईं। चौथा बिंदु था वाहनों से होने वाले उत्सर्जन को कम करना, जिसमें  इंदौर ने ई-वाहनों को बढ़ावा देने के लिए शहर में चार्जिंग स्टेशन बनाए, कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट में ई-बसों के उपयोग को प्राथमिकता दी और 'सिग्नल आन-इंजन ऑफ' अभियान चलाया। इसका मतलब है रेड लाइट पर खड़े वाहनों को इंजन बंद करने के लिए प्रेरित करना। 
     इसके पांचवें बिंदु में था उद्योगों से होने वाले उत्सर्जन को कम करना। यहां के उद्योगों में सीएनजी और पीएनजी को बढ़ावा दिया गया। उद्योगों को अपने बॉयलर में कोयले या बायोकोल के बजाय सीएनजी, एलपीजी जैसे स्वच्छ ईंधन के उपयोग के निर्देश दिए गए। सौर ऊर्जा प्लांट स्थापित करने के लिए उद्योगों को प्रेरित किया। छठे बिंदु में अन्य उत्सर्जन यानी शहर में कोयले से चलने वाली भट्टियों को पूरी तरह से प्रतिबंधित किया। होटलों के लकड़ी से चलने वाले तंदूर बंद करवाए गए। नवाचार करते हुए ग्रीन वेस्ट से पैलेट, वेस्ट कपड़े से धागा बनाने जैसे संयंत्र स्थापित किए। जनजागरण इसका सातवां बिंदु था जिसमें लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाए गए। स्वच्छ वायु रैलियां आयोजित की गई और पर्यावरण के लिए उल्लेखनीय कार्य करने वालों को प्रोत्साहित किया गया। आठवां और अंतिम बिंदु था 'पीएम-10 घनत्व' कम करना। इसका आशय यह कि शहर में सतत पौधारोपण किया गया। इसका रिकॉर्ड यह है कि एक दिन में 12 लाख से ज्यादा पौधे रोपने का रिकॉर्ड बनाया। ग्रीन बेल्ट विकसित करने पर सतत काम किया और रोटरी डिवाइडर के साथ बगीचों में भी पौधरोपण किया गया।
      मध्यप्रदेश के मालवा इलाके का यह शहर लगातार 8 बार स्वच्छता के मामले में देश में अपना डंका पीट चुका है, जिसने 'रिड्यूस, रीयूज, रीसाइकिल' (कम करें, पुन: उपयोग करें, पुनर्चक्रण करें) मॉडल को अपनाकर 'शून्य लैंडफिल' शहर का दर्जा हासिल किया। शहर की इस उपलब्धि का श्रेय नगर निगम की प्लानिंग, उसके सफाई कर्मियों की कार्य क्षमता और जनता के साझा प्रयासों को जाता है। इसमें घर-घर कचरा संग्रहण और अपशिष्ट निपटान के सभी मानदंडों को पूरा करना शामिल है। इस बार इंदौर को 'सुपर लीग' में भी शामिल किया गया, जिसमें देश के उन 23 शहरों को जगह दी गई, जो अब तक के सर्वे में पहले, दूसरे या तीसरे स्थान पर रह चुके हैं। इस बार भारत सरकार ने इंदौर और ऐसे शहरों को अलग लीग में रखा और उसके अलावा के शहरों की रैंकिंग की। इस लीग में इंदौर अन्य शहरों में पहले भी सबसे ऊपर थे। इस लीग में आकर भी इंदौर का परिणाम सिरमौर का है। इंदौर के महापौर पुष्यमित्र भार्गव ने कहा कि 'इंदौर फिर सिरमोर' है।  
     देशभर के शहरों के लिए स्वच्छता का मॉडल बन चुका इंदौर नंबर 1 की प्रतियोगिता से बहुत आगे निकल चुका है। अब इंदौर मार्गदर्शक की भूमिका में है और अन्य शहरों को स्वच्छता का पाठ पढ़ाएगा। केंद्र सरकार के स्वच्छता सर्वेक्षण में 2017 से इंदौर पहले नंबर पर आ रहा है। इस शहर को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि दूसरे शहर जब कुछ करने का सोचते हैं, तब तक इंदौर वह काम कर चुका होता है। यह बात स्वच्छता को लेकर भी सही साबित हुई। इंदौर के जनभागीदारी मॉडल की देशभर में तारीफ होती है। नवाचारों की सीरीज, आपसी समन्वय और कुछ नया करने का जज्बा हमें दूसरे शहरों से आगे रखता है। आज जब दूसरे शहर पहले, दूसरे और तीसरे स्थान के लिए जद्दोजहद में लगे हैं। इंदौर लगातार 8 वर्ष अव्वल रहकर खास पायदान पर पहुंच चुका है।
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कालजयी फिल्मों की कारोबारी सफलता के मायने

   कालजयी फ़िल्में वे होती है , जिनमें कलात्मक रूप से उत्कृष्टता हों। वे सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन ही नहीं करती, ये फिल्में ऐसे विषयों से जुड़ी होती हैं, जो मानवीय अनुभव के विभिन्न पहलुओं को सामने लाने का माध्यम भी बनती हैं। इनकी प्रासंगिकता तात्कालिक नहीं होती। ये दशकों बाद भी दर्शकों से जुड़ने में सक्षम होती हैं। कारोबारी रूप से सफल होने और फिल्मों के कालजयी होने में बड़ा अंतर है। जरुरी नहीं कि करोड़ों कमाने वाली फिल्में बाद में भी याद रखी जाए। बॉक्स ऑफिस पर कारोबारी सफलता ध्यान केंद्रित करती हैं, पर सबसे बड़ी सफलता है किसी फिल्म का कालजयी होना। 
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- हेमंत पाल

     फिल्मों की कमाई का कुछ अलग ही अर्थशास्त्र है। आजकल उसी फिल्म को हिट माना जाता है, जो कमाई में करोड़ों का आंकड़ा पार कर ले। लेकिन, फिल्म की कमाई का सीधा सा अर्थशास्त्र यह है कि फिल्म की कुल लागत जिसमें निर्माण से लगाकर मार्केटिंग तक शामिल है उसके बाद कोई फिल्म जितना बिजनेस करती है, उस हिसाब से उसकी कमाई का आकलन किया जाता है। समझने वाली बात ये है कि फिल्म की लागत जितनी कम होगी, उसकी सफलता की संभावना उतनी ज्यादा होगी। लेकिन, करोड़ों की लागत में बनी फिल्मों के साथ रिस्क ज्यादा होती है। यदि दर्शकों ने उन्हें नकार दिया तो सारी निर्माण लागत भी पानी में चली जाती है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि 'आदी पुरुष' की निर्माण लागत 'आदि पुरुष' फिल्म का कुल बजट करीब 500 से 700 करोड़ रुपए था। लेकिन, फिल्म की कमाई कुल मिलाकर लगभग 340-388 करोड़ रुपए हुई। इससे मेकर्स को भारी नुकसान उठाना पड़ा। जबकि, 'सैयारा' फिल्म के निर्माण का बजट लगभग 30-45 करोड़ है और इसने 450 करोड़ से ज्यादा की कमाई की। इसे एक बड़ी व्यावसायिक सफलता माना जा सकता है। 
    सबसे बड़ा सवाल यह कि इतनी निर्माण लागत और कमाई के बावजूद ये फ़िल्में क्या साल-दो साल भी याद की जाएंगी! शायद नहीं, क्योंकि फ़िल्में उनकी महंगी निर्माण लागत या कमाई से नहीं, बल्कि उनके कथानक, निर्देशन और कलाकारों के अभिनय से याद रखी जाती है। यही कारण है कि कई दशकों बाद भी कागज के फूल, मदर इंडिया, मुग़ल-ए-आजम, बॉबी, शोले और दीवार जैसी फिल्मों को आज भी दर्शक याद करते हैं। कई बार फिल्म के व्यावसायिक रूप से सफल न होने के बाद भी उन्हें कथानक की वजह से याद किया जाता है जैसे 'मेरा नाम जोकर' और 'सिलसिला।' मसला फिल्मों की कारोबारी सफलता और उनके कालजयी होने का है! क्योंकि, सौ साल से ज्यादा लंबे फिल्म इतिहास में आज भी ऐसी फ़िल्में उंगली पर गिनी जा सकती है, जो हर दौर में पसंद की जाती है। 'कालजयी' का मतलब है, समय के साथ अपनी प्रासंगिकता और महत्व को बनाए रखना। जबकि, फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सिर्फ कमाई करती हैं। कई फिल्में जो कमाई करती हैं, व्यावसायिक रूप से सफल होती हैं, लेकिन उनकी कहानी या कलात्मकता ऐसी नहीं होती कि उन्हें समय के साथ याद रखा जाए। वहीं, कुछ फिल्में कम बजट में बनीं और कालजयी हुईं।
    करोड़ों का कारोबार करने वाली फिल्में कालजयी इसलिए नहीं बन पाती। क्योंकि, बॉक्स ऑफिस पर सफलता व्यावसायिक पहलुओं जैसे मार्केटिंग, प्रचार और दर्शकों की तात्कालिक पसंद पर निर्भर होती है। जबकि, कालजयी फिल्में समय की कसौटी पर खरी उतरने वाली कला, गहराई और स्थायी सामाजिक प्रासंगिकता से जन्म लेती हैं। बॉक्स ऑफिस पर हिट अक्सर एक विशिष्ट समय की प्रवृत्ति होती है, जो समय के साथ धुंधली हो सकती है। लेकिन, कालजयी फिल्में सार्वभौमिक मानवीय भावनाओं, विचारों और सामाजिक बदलावों को पकड़ती हैं, जो उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी प्रासंगिक बनाती हैं। दरअसल, बॉक्स ऑफिस सफलता के कारक अलग ही हैं। आज के दौर में फिल्में अक्सर बड़ी उम्मीदों और भव्य प्रचार के साथ रिलीज होती हैं, जो तत्काल टिकट-बिक्री को बढ़ाती हैं। उनकी मार्केटिंग और प्रचार का भी आभामंडल रचा जाता है। यही दर्शकों को आकर्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन ये हर बार सफल नहीं होता, इसलिए कि ये तात्कालिक हो सकते हैं। 
    कालजयी फिल्में समय काल के सामाजिक रुझानों, तकनीक नवाचारों या विशिष्ट जनसांख्यिकी को पूरा करती हैं, जो समय के साथ बदल भी सकती हैं। यदि फिल्मों को कालजयी बनाने वाले तत्वों की बात की जाए, तो उनमें कलात्मक गुणवत्ता बेहद जरुरी है। कई व्यावसायिक फिल्में तकनीकी या कलात्मक गहराई की कमी दिखाती हैं। प्रासंगिकता के नजरिए से कहा जाए, तो कालजयी फिल्में सार्वभौमिक विषयों जैसे प्यार, न्याय या मानवीयता की नैतिक दुविधाओं को उजागर करती हैं, जो किसी भी समय में दर्शकों के साथ जुड़ जाती हैं। ऐसी फिल्में जो समाज में गहराई से जुड़ती हैं, महत्वपूर्ण सामाजिक बदलावों को प्रेरित करती हैं या मानवीय अनुभव की नई व्याख्या प्रस्तुत करती हैं और वे लंबे समय तक याद रखी जाती हैं। ऐसी कई फिल्में हैं, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों कमाए, लेकिन कुछ सालों बाद उन्हें भुला दिया गया है, क्योंकि वे किसी विशेष समय की उपज थीं। दूसरी और ऐसी फिल्में भी हैं जिन्होंने रिलीज के समय बड़ी कमाई नहीं की, लेकिन अपनी कलात्मक गुणवत्ता, कहानी और स्थायी विषयों वाले कथानक की वजह से आज भी याद की जाती हैं और देखी जाती हैं।
     यदि हिंदी सिनेमा की कला को गहराई देने वाली कालातीत फिल्मों का जिक्र किया जाए तो 'मदर इंडिया' (1957) जो एक विधवा मां के जीवन की पीड़ा पर आधारित है। इसमें ऐसी मां का संघर्ष को दिखाया गया, जो सामाजिक अन्याय और गरीबी से लड़ते हुए अपने बच्चों का पालन-पोषण करती है। 1977 में आई 'शतरंज के खिलाड़ी' (1857) विद्रोह की पृष्ठभूमि में मानवीय संबंधों को दर्शाया है। सत्यजीत रे की निर्देशित यह फिल्म सिपाही विद्रोह के दौरान दो नवाबों के निजी जीवन और उनके शतरंज के खेल पर आधारित है। 1981 की रेखा की फिल्म 'उमराव जान' (1981) जैसी फिल्म जो एक वैश्या के जीवन की जटिलताएं दिखाती है। यह फिल्म दुखद प्रेम कहानी और उसके जीवन की चुनौतियों वाली कहानी है। ऐसी ही एक कालजयी फिल्म 2001 में आई आमिर खान की 'लगाान' भी है। इसमें गांव वाले अंग्रेजों से क्रिकेट खेलकर और जीतकर अपना लगान माफ़ करवाते है। ऐसी ही एक फिल्म 'पीकू' (2015) है जिसमें पिता-पुत्री के रिश्ते को अनोखे अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है। एक पिता और बेटी के रिश्ते पर आधारित यह फिल्म, उनके अनोखे और हास्यप्रद यात्रा का दस्तावेज है। ये वे फ़िल्में हैं, जो सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करतीं, बल्कि मानवीय भावनाओं, सामाजिक मुद्दों और मानवीय रिश्तों की गहरी समझ को भी प्रस्तुत करती हैं, जिससे वे हमेशा के लिए कालातीत बन जाती हैं।
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Wednesday, September 17, 2025

कांवड़ यात्रा में मौत का तांडव, मुकदमा 'डीजे' पर

    सीहोर के कुबेरेश्वर धाम में कांवड़ यात्रा में 7 लोगों की मौत हो गई। इन मौतों का कारण भगदड़ या हादसा नहीं, बल्कि दम घुटना था। लेकिन, प्रशासन ने मामला दर्ज किया सात डीजे संचालकों पर। यानी कांवड़ यात्रा में मौत इसलिए हुई कि डीजे जोर से बज रहा था। जबकि, सवाल उठता है कि प्रशासन ने बिना इंतजाम के लाखों की भीड़ क्यों इकट्ठा होने दी, जिससे यह बदइंतजामी हुई! सरकार भी चुप है, यहां तक कि किसी मंत्री ने भी इतनी बड़ी घटना पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। यह पहली बार नहीं हुआ जब कुबेरेश्वर धाम में ऐसी घटना हुई है। इससे पहले भी रुद्राक्ष वितरण में दो महिलाओं की दबने से मौत हुई थी। सरकार की खामोशी सवाल खड़ा करती है। सरकार का पं प्रदीप मिश्रा को इतना समर्थन क्यों और किससे मिल रहा है। क्या 7 लोगों की मौत का कारण डीजे ही था।
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- हेमंत पाल

    कांवड़ यात्रा श्रद्धालुओं की मौत का कारण बन जाए, अमूमन ऐसा नहीं होता। लेकिन, मध्यप्रदेश के सीहोर जिले में बने भगवान शंकर के कुबरेश्वर धाम में यही हुआ, जब बदइंतजामी के कारण श्रद्धालुओं की मौत हुई। लाखों की भीड़ तो इकट्ठा कर ली, पर उनको संभालने के कोई इंतजाम नहीं थे। आश्चर्य की बात है कि प्रशासन ने भी इतनी भीड़ इकट्ठा करने की इजाजत क्यों दी! जबकि, यहां इतनी भीड़ के व्यवस्थित होने, रुकने और कावड़ यात्रा निकालने के कोई इंतजाम नहीं थे। यदि प्रशासन को इस बात का अंदाजा था, तो उसने आयोजकों से यह सवाल क्यों नहीं किया कि इस भीड़ को किस तरह व्यवस्थित किया जाएगा!
     इसी तरह का एक हादसा पहले भी हो चुका है, जब रुद्राक्ष वितरण को लेकर इंदौर-भोपाल मार्ग जाम हो गया था और दो महिलाओं की मौत हुई थी। अब मौतों की संख्या 6 हो गई। अभी भी पुलिस ने डीजे की आवाज को इन मौतों का कारण माना, जो आश्चर्यजनक है। न तो आयोजकों पर कोई कार्रवाई की गई और न किसी जिम्मेदार को गिरफ्तार किया गया! मुद्दा यह भी है कि इंदौर-भोपाल मार्ग पर यात्रा करने वालों का इस कावड़ यात्रा से कोई वास्ता नहीं था। फिर क्या कारण है कि प्रशासन ने उस मार्ग को इस यात्रा से मुक्त नहीं रखा। क्योंकि कावड़ यात्रा की वजह से इस मार्ग कर लोग घंटों परेशान हुए।
     मामला यह भी है कि जब मध्य प्रदेश में डीजे पर प्रतिबंध है और इस पर कई जगह सख्त कार्रवाई हो चुकी है। तो फिर इस आयोजन में देशभर के डीजे इकट्ठा करके इतना हो हल्ला करने पर नियंत्रण क्यों नहीं किया गया! प्रशासन को प्रदीप मिश्रा से भी इस मामले में पूछताछ करना चाहिए, जिनकी अपील पर लोग इकट्ठा हुए! आखिर, प्रशासन और पुलिस को कौनसा भय है जो 6 मौतों के बाद भी आयोजकों को बेदाग छोड़ दिया और डीजे संचालकों को दोषी माना जा रहा।
     शिव पुराण कथा वाचक प्रदीप मिश्रा के कुबेरेश्वर धाम में मौतों का सिलसिला जारी है। कुबेरेश्वर धाम में रुद्राक्ष वितरण के दौरान मंगलवार को मची भगदड़ में 2 महिलाओं की मौत हुई। उसके बाद बुधवार को हुई तीन मौतें हुईं। जबकि, गुरुवार को एक और मौत के बाद तीन दिन में कुल 7 लोगों की मौत हो गई। वहीं कुछ लोग अस्पताल में भर्ती हैं। तीन दिन में हुई 5 मौतों के बाद गुरुवार सुबह भी उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के बडा टोला निवासी 22 साल के युवक उपेंद्र की मौत हो गई। इसके बाद प्रशासन अब एक्शन मोड़ में आ गया। उसने कांवड़ यात्रा में कानफोड़ू संगीत बजा रहे डीजे पर कार्रवाई की है। दरअसल, ये सभी मौतें कुबरेश्वर धाम में बुधवार को निकाली गई कांवड़ यात्रा के दौरान हुईं, जिसमें शामिल होने के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंचे। यात्रा की वजह से मंगलवार देर रात से ही यहां इंदौर-भोपाल हाईवे पर लंबा जाम लगा रहा।
प्रशासन की नींद देर से खुली
    कांवड़ यात्रा की भीड़ में लाखों लोगों के इकट्ठा होने के बाद हुई इन मौतों के बाद गुरुवार सुबह प्रशासन सख्त एक्शन मोड में आया। 7 डीजे वालों पर कोलाहल अधिनियम के तहत कार्रवाई करते हुए 7 अलग-अलग एफआईआर दर्ज करने का निर्णय लिया गया। बुधवार को निकली कावड़ यात्रा में तेज आवाज में बजने वाले सात डीजे शामिल थे। यह डीजे भोपाल-इंदौर हाईवे पर 11 किमी लंबे रूट में लगाए गए थे। बुधवार को यात्रा के दौरान प्रशासन, पुलिस व अधिकारी भी मौजूद रहे। लेकिन, किसी ने डीजे पर कोई रोक नहीं लगाई। लेकिन, जब इन मौतों पर देशभर की मीडिया में खबरें छपी और मानवाधिकार आयोग ने स्वत संज्ञान लिया तो गुरुवार सुबह से प्रशासन ने सख्ती बरती।
डीजे पर सख्ती, तो कैसे बजने दिए
     मुख्यमंत्री बनते ही डॉ मोहन यादव ने डीजे पर सख्ती की थी। उन्होंने शपथ लेते ही तेज साउंड सिस्टम पर रोक लगाने के आदेश दिए थे। इसके बाद कई धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर भी उतारे गए थे। लेकिन, बुधवार की यात्रा में देशभर से मंगाए गए डीजे खुलेआम तेज आवाज में बजते रहे, जिनमें सीहोर का बाबा डीजे, झारखंड का सार्जन डीजे, यूपी का रावण डीजे, एमजे साउंड मेरठ, दिल्ली का कसाना डीजे, छत्तीसगढ़ का पावर जोन, महाराष्ट्र का प्रशांत डीजे और गुजरात का त्रिनेत्र डीजे शामिल थे।
       सीहोर जिले के कुबेरेश्वर धाम में निकाली जा रही कांवड़ यात्रा में शामिल होने देशभर से लाखो की संख्या में श्रद्धालु पहुंचे है। कांवड़ यात्रा में पहुंचे श्रद्धालुओं ने बताया कि कांवड़ यात्रा में आए हैं। भीड़ तो इतनी है कि पैर रखने की भी जगह नहीं है। यहां आने-जाने वाली गाड़ियों में लोग खचाखच भरे हुए हैं। इन गाड़ियों में सांस तक नहीं ले पा रहे।' इससे पहले यहां मंगलवार और बुधवार को 5 लोगों की मौत हो गई थी, वहीं 3 घायल लोगों का इलाज के लिए जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अब मामले को लेकर मानव अधिकार आयोग ने संज्ञान लिया है और कुबेरेश्वर धाम की व्यवस्थाओं को लेकर सवाल पूछे हैं जिसका जवाब प्रशासन को 15 दिनों में देना होगा।
कांवड़ यात्रा या मौत का तांडव
     सीहोर में कथा वाचक पंडित प्रदीप मिश्रा द्वारा आयोजित भव्य कांवड़ यात्रा बुधवार सुबह सीवन नदी के तट से शुरू हुई और 11 किलोमीटर चलकर कुबेरेश्वर धाम तक पहुंची। इस दौरान हेलिकॉप्टर से कांवड़ियों पर फूल बरसाए गए। बताया जा रहा है कि कुबेरेश्वर धाम में रुद्राक्ष वितरण के दौरान मंगलवार को भगदड़ मची थी, जिसमें 2 महिलाओं की मौत हुई, इसके बाद बुधवार को हुई तीन मौतें घबराहट और चक्कर आने के साथ हार्ट अटैक से बताई जा रही है। जबकि, गुरुवार को एक और मौत के बाद तीन दिन में कुल 6 लोगों की मौत हो चुकी है। वहीं कुछ लोगों का उपचार अस्पताल में चल रहा है।
इन श्रद्धालुओं की हुई मौत
      मंगलवार दोपहर भीड़ में दबने से दो महिलाओं की मौत हो गई थी। उनकी पहचान बुधवार को हुई। इनमें से एक मृतक ओम नगर राजकोट गुजरात की रहने वाली थीं। जिनकी पहचान जसवंती बेन (56 वर्ष) पति चंदू भाई के रूप में हुई। जबकि, दूसरी मृतक महिला फिरोजाबाद उत्तर प्रदेश की रहने वाली थी और उनकी पहचान संगीता गुप्ता (48 वर्ष) पति मनोज गुप्ता के रूप में हुई है। वहीं बुधवार को कुबेरेश्वर धाम में जान गंवाने वाले तीन लोगों की पहचान चतुर सिंह (50 वर्ष) पिता भूरा निवासी पंचमहल गुजरात और ईश्वर सिंह (65 वर्ष) निवासी रोहतक हरियाणा के रूप में हुई है। एक अन्य मृतक की पहचान दिलीप सिंह (57 वर्ष) निवासी रायपुर के रूप में हुई है। बताया जा रहा है कि दिलीप सिंह की मौत हार्ट अटैक से हुई। वहीं दो अन्य व्यक्तियों में से एक की मौत कुबेरेश्वर धाम में अचानक चक्कर आकर गिरने से हुई, जबकि दूसरे व्यक्ति की मौत एक होटल के सामने खड़े-खड़े गिर जाने से हुई। गुरुवार सुबह गोरखपुर जिले के बडा टोला उत्तर प्रदेश निवासी उपेंद्र (22 वर्ष) की हुई है जिसका शव जिला अस्पताल पहुंचाया गया है।
    कुबेरेश्वर धाम में मची भगदड़ में दो महिलाओं की मौत के मामले में मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग के कार्यवाहक अध्यक्ष राजीव कुमार टंडन ने संज्ञान लिया और संबंधितों से जवाब मांगा। उन्होंने कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक से जांच कराकर भीड़ प्रबंधन की क्‍या व्‍यवस्‍था थी, घायलों के इलाज में क्या कार्यवाही की गई, मृतकों को क्या आर्थिक सहायता दी गई, इस संबंध में 15 दिनों में रिपोर्ट मांगी है।
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75 के मोदी, उसके बाद क्या?

     राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के एक बयान ने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया। नागपुर में एक किताब के विमोचन में उन्होंने कहा कि '75 की उम्र के बाद नेताओं को रिटायर हो जाना चाहिए!' इस बयान ने देश की सियासत में नई बहस छेड़ दी। कांग्रेस, विपक्ष और राजनीतिक विश्लेषक इस बयान को सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ संघ का इशारा मान रहे हैं, जो इसी साल सितम्बर में 75 साल के हो जाएंगे। कांग्रेस के नेताओं ने सोशल मीडिया पर चुटकी लेते हुए कहा कि अब प्रधानमंत्री मोदी को भी पार्टी के '75 साल में रिटायरमेंट वाले फार्मूले पर चलना चाहिए, जैसा कि भाजपा ने पहले कई वरिष्ठ नेताओं के साथ किया।
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- हेमंत पाल

    र संघचालक मोहन भागवत ने 9 जुलाई को नागपुर में आरएसएस के एक विचारक दिवंगत मोरोपंत पिंगले को समर्पित एक किताब के विमोचन के मौके पर कहा कि 'जब आप 75 के हो जाते हैं, इसका मतलब है कि अब आपको रुक जाना चाहिए और दूसरों को रास्ता देना चाहिए।' 'मोरोपंत पिंगले: द आर्किटेक्ट ऑफ हिंदू रिसर्जेंट नाम के पुस्तक का विमोचन करते हुए कहा कि एक बार पिंगले ने कहा था कि 75 वर्ष के होने के बाद अगर आपको शॉल देकर सम्मानित किया जाता है, इसका मतलब है कि आपको अब रुक जाना चाहिए, आपकी आयु हो चुकी है; हट जाइए और दूसरों को आगे आने दीजिए।' मोहन भागवत के इस बयान के बाद कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियों ने नरेंद्र मोदी के लिए संघ का इशारा समझा।
    जब बयान पर विवाद बढ़ा तो संघ ने सफाई दी, कि मोहन भागवत का बयान किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं, बल्कि मोरोपंत पिंगले के जीवन से जुड़ा था। हालांकि, विपक्ष और जनता के बीच यह बहस और तेज हो गई कि क्या आरएसएस अब भाजपा और मोदी के नेतृत्व में बदलाव चाहता है! नरेंद्र मोदी की अगुवाई में जब 2014 में केंद्र में सरकार बनी, पार्टी ने एक अघोषित परंपरा विकसित की। परंपरा यह कि 75 साल के हो जाने पर इसके नेता राजनीति रिटायरमेंट ले लेते हैं। बीजेपी के कई पूर्व सांसदों, राज्यपालों को इस वजह से न तो टिकट मिला और न उनका कार्यकाल बढ़ाया गया।
    यही कारण है कि मोहन भागवत की टिप्पणी को नरेंद्र मोदी के संभावित रिटायरमेंट से जोड़कर देखा जा रहा है। भागवत ने कहा कि '75 साल मतलब उम्र हो गई।' इसी साल 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी 75 साल के होने वाले हैं। इसे सिर्फ संयोग मानकर टाला नहीं जा सकता। क्योंकि, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत गलती से तो ऐसा बयान देने से रहे। उनका सुझाव है कि नेताओं को 75 साल पूरे होने पर रिटायर हो जाना चाहिए। खुद भागवत भी इस साल 75 साल के होने वाले हैं। मोहन भागवत के इस बयान पर कांग्रेस ने चुटकी ली।
    संघ से भाजपा में आए एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने भी इस इशारे को पूरी तरह गलत नहीं कहा। पहले तो उन्होंने यही कहा कि मोहन भागवत ने वही कहा, जो सनातन संस्कृति है। लेकिन, बाद में कहा कि नरेंद्र मोदी भी उतने ही प्रामाणिक स्वयंसेवक हैं, जितने मोहन भागवत। अभी भागवत सरसंघचालक हैं और मोदी जी ने उनकी बातों को आदेश माना, तो वे ऐसा कर सकते हैं। लेकिन, नरेंद्र मोदी खुद सक्षम हैं और उन्हें लगेगा कि ऐसा करने का यह सही समय आ चुका, तो वे स्वयं ऐसा करने में सक्षम है। इसके लिए उन्हें भागवत की सलाह की जरूरत नहीं है।
     जब ये प्रसंग चर्चा में आया तो लोगों ने पुराने संदर्भ तलाशने शुरू किए। लोगों ने भागवत के बयान को मोदी के उस बयान से जोड़ा जब उन्होंने कहा था 'हम तो फकीर आदमी हैं झोला लेके चल पड़ेंगे।' यह बात नोटबंदी के फैसले के करीब एक महीने बाद की है। उस समय देश में विरोधी खेमे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। नोटबंदी की वजह से लोगों को होने वाली मुश्किलों की बात गरम थी। 3 दिसंबर 2016 को मोदी ने उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में 'परिवर्तन रैली' को संबोधित किया। उत्तर प्रदेश 2017 के विधानसभा चुनावों के लिए तैयार हो रहा था। मोदी ने नोटबंदी को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक अभियान बताते हुए अपने विरोधियों पर यह कहकर निशाना साधा था 'हम तो फकीर आदमी हैं झोला लेके चल पड़ेंगे जी।'
   दरअसल, वे कह रहे थे, कि वह तो राष्ट्र सेवा कर रहे हैं। इसके लिए वे हर अंजाम भुगतने के लिए तैयार हैं, उनके पास खोने को कुछ नहीं है। लेकिन भ्रष्टाचारियों को छोड़ने वाले नहीं। संघ की सफाई को सही माना जाए तो मोहन भागवत का इशारा किसकी तरफ हैं, यह राजनीतिक जिज्ञासा का बड़ा विषय बन गया। इसलिए कि समझा जाता है कि संघ का काम ही इशारा करना है। समय-समय पर वह अपना यह उत्तरदायित्व निभाता भी रहता है। मतलब, कहीं न कहीं सरसंघचालक अपने लिए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दोनों के लिए यह इशारा कर सकते हैं। बस बात समझने की है।
इस विवाद में कांग्रेस क्या बोली
    मोहन भागवत के बयान के बाद उसका छिद्रान्वेषण करने में कांग्रेस सबसे आगे रही। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा कि मोदी को सरसंघचालक ने याद दिला दिया गया कि 17 सितंबर 2025 को वे 75 साल के हो जाएंगे। लेकिन प्रधानमंत्री सरसंघचालक से भी कह सकते हैं कि वे भी तो 11 सितंबर 2025 को 75 के हो जाएंगे! एक तीर, दो निशाने!' उधर, कर्नाटक कांग्रेस के विधायक बेलूर गोपालकृष्ण ने मोदी सरकार के मंत्री नितिन गडकरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आदर्श उत्तराधिकारी बताया है। उन्होंने पीएम मोदी को 75 वर्ष की आयु में पद छोड़ने की सलाह देते हुए कहा कि गडकरी को देश का अगला प्रधानमंत्री होना चाहिए। क्योंकि, वे आम आदमी के साथ हैं। उन्होंने देश के विकास के लिए अच्छे कार्य किए हैं, जैसे कि हाईवे और अन्य चीजों के संदर्भ में। देश के लोग उनकी सेवा और उनके व्यक्तित्व को जानते हैं।
     उन्होंने देश के गरीबों के प्रति चिंता व्यक्त की और कहा था कि अमीर और अमीर हो रहे हैं। इसको देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि उनके पास देश के विकास का एक विचार है। ऐसे लोगों को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए। मोहन भागवत ने संकेत दिया है कि जो 75 वर्ष के हैं, उन्हें पद छोड़ना होगा। इसलिए मुझे लगता है कि गडकरी का समय आ गया। उन्होंने यह भी दावा किया कि वरिष्ठ भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा को 75 वर्ष की आयु में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था। फिर मोदी से अलग व्यवहार क्यों? क्या येदियुरप्पा को पद छोड़ने के लिए मोदी के निर्देश पर मजबूर नहीं किया गया था! मोहन भागवत ने यही कहा कि 75 वर्ष की आयु के बाद किसी को भी सत्ता में नहीं रहना चाहिए और दूसरों को अवसर दिया जाना चाहिए, इसलिए मुझे लगता है कि गडकरी को यह अवसर दिया जाएगा।
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बर्बाद होते अफगानिस्तान का दर्द भरा सिनेमा

   अफगानिस्तान का अब अपना कोई मूल स्वरूप नहीं रहा। इस धरती पर आतंकवादी संगठन का कब्जा है। दुनियाभर में इस देश को लेकर कई तरह की चर्चा है। वैदेशिक रिश्तों को लेकर ऐसी चिंता स्वाभाविक है, पर कोई यहां की संस्कृति, सभ्यता और यहां के सिनेमा को लेकर बात नहीं कर रहा। कई सालों से ये देश आतंकवाद ग्रस्त रहा, इसलिए ये समझा जाता है, कि यहां मनोरंजन के लिए सिनेमा जैसा कोई माध्यम शायद ही जीवित हो! लेकिन, ऐसा नहीं है। यहाँ भी सिनेमा की अपनी मजबूत जड़ें हैं, जिसके पास अपने ज्यादा बेहतर किस्से-कहानियां हैं।

- हेमंत पाल

     रसों से अफगानिस्तान के लोग कई तरह की पीड़ाओं से जूझ रहे हैं। उनकी कहानियों में दर्द का हिस्सा ज्यादा और मनोरंजन कम है! यही वजह है कि इस देश के सिनेमा कल्चर को लेकर कम ही बातचीत होती है। अफगानिस्तान में जिस तरह से आतंकवादी संगठन ने कब्ज़ा किया, वहां का फिल्म उद्योग तहस-नहस हो गया। लेकिन, फिर भी वे अफगानी फिल्मकारों के सोच को नहीं दबा सके। इतने दबाव और हिंसा के बाद भी आश्चर्य की बात है कि अफगानिस्तान में बनी ज्यादातर फिल्में तालिबानी कट्टरपंथ के खिलाफ बनी! दरअसल, ये उनका सिनेमाई  गुस्सा है। क्योंकि, तालिबानियों के सत्ता में आते ही वहां की कला, साहित्य, सिनेमा और संस्कृति एक तरह से खत्म हो गई। दुनिया में सिनेमा के मामले में भारत सबसे समृद्ध है। जबकि, उसके आसपास के देशों में ये माध्यम उतना ही कमजोर। सालों से भारत में बना सिनेमा ही अफगानिस्तान के लोगों का भी मनोरंजन कर रहा है। ऐसे में इस देश में भी भारतीय फिल्मों का बाजार सालों से सजा है। 
   अफगानी लोगों ने भारत की फिल्मों और यहां के कलाकारों को इतना आत्मसात कर लिया कि वे सभी इन्हें अपने लगने लगे। अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ खान, सलमान खान के साथ माधुरी दीक्षित और कैटरीना कैफ भी वहाँ बेहद लोकप्रिय हैं। इनमें भी अमिताभ और कैटरीना के तो वहाँ पोस्टर बिकने की खबर है। अफगानिस्तान और भारत के रिश्ते भी बहुत गहरे रहे हैं। यहां तक कि दोनों देशों की संस्कृति और सभ्यता भी कहीं न कहीं जुड़ी है। शायद भारतीय फिल्मों के प्रति इसी आसक्ति का ही असर है कि रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी 'काबुलीवाला' पर 1957 में पहले बंगाली में तपन सिन्हा और बाद में 1961 में हिंदी में हेमेन गुप्ता सहित कई निर्देशकों ने सफल फिल्में बनाई। अफगानिस्तान में 2007 में हॉलीवुड की फिल्म 'द काइट रनर' बनी। उससे पहले 1975 में फीरोज खान ने धर्मात्मा, मुकुल आनंद ने 1992 में 'खुदा गवाह' और कबीर खान ने 2006 में 'काबुल एक्सप्रेस' फिल्म बनाई।
    1968 में जब अफगानिस्तान में फ़िल्में बनना शुरू हुई, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों पर प्रकाश डालते हुए वृत्तचित्र और समाचार फ़िल्में बनाई जाने लगीं थी। इन फिल्मों को भारत में भी फीचर फिल्मों से पहले सिनेमाघरों में दिखाया जाता! नए दौर में अफगान कलाकारों को लेकर काबुल में बनाई गई पहली फीचर फिल्म थी 'लाइक ईगल्स' जिसमें जहीर वैदा और नाजिया ने अभिनय किया था। इसके बाद अफगान फिल्मकारों ने 'एज' नाम से तीन भाग वाली फिल्म बनाई थी। इसमें स्मगलर, शूटर्स और 'फ्राइडे नाइट' शामिल थे। इस दौर की दो अन्य फिल्में 'विलेज ट्यून्स' और 'डिफिकल्ट डेज' हैं। इन सभी फिल्मों को ब्लैक एंड व्हाइट बनाया गया था। इस युग के फिल्म कलाकारों में खान अका सोरूर, रफीक सादिक, अजीजुल्लाह हदफ, मशाल होनारयार और परवीन सनतगर शामिल थे। 80 के दशक की शुरुआत में अफगानिस्तान में निर्मित पहली रंगीन फिल्में थी रन अवे (फरार), लव एपिक (हमासा ए इशग), सबूर सोल्जर (सबूर सरबाज), ऐश (खाके स्टार) और 'लास्ट विशेज' थीं। ये फिल्में हालांकि तकनीकी रूप से उतनी कुशल नहीं थी, जितनी भारत या अन्य देशों में बनती है। लेकिन ये फ़िल्में अफगानी जिंदगी के साथ तालमेल बैठाती थीं। क्योंकि, वे उनके जीवन को दिखाती थीं।
     1996 में जब तालिबानियों ने जब वहां की सत्ता में दखल देना शुरू किया, तो सबसे पहले सिनेमाघरों पर हमले किए गए। कई फिल्में जला दी गईं। तालिबानियों ने लोगों के टीवी देखने से भी लोगों को रोक दिया, सिनेमाघर बंद कर दिए गए। बाद में ये सिनेमाघर चाय की दुकानें बन गए या रेस्तरां। कुछ सिनेमाघर खंडहर हो गए। अफगान फिल्मकार के हबीबुल्लाह अली ने तालिबानियों से फिल्मों के विनाश को रोकने के लिए हजारों फिल्मों को भूमिगत कर दिया या कमरों में छुपा दिया। 2002 में तालिबान आतंक के बाद पहली फिल्म 'टेली ड्रॉप' फिल्म बनाई गई। इससे पहले यहाँ बनने वाली फिल्म थी 'ओरजू' जो 1995 में बनी थी। 1996 में यहाँ तालिबानियों ने कब्ज़ा कर लिया तो सिनेमा की गतिविधियां बंद हो गई।
    अफगानिस्तान में सबसे पहले सिनेमा लाने का श्रेय वहां के राजा (अमीर) हबीबुल्ला खान (1901-1919) को दिया जाता है। उन्होंने दरबार में प्रोजेक्टर से कुछ फिल्में दिखाई थी। तब वहाँ प्रोजेक्टर को 'जादुई लालटेन' कहा जाता था। जनता के लिए उन्होंने काबुल के पास पघमान शहर में पहली बार 1923 में एक मूक फिल्म के प्रदर्शन भी किया था। लेकिन, अफगानिस्तान में सिनेमा का निर्माण बेहद अस्त व्यस्त रहा। 1946 में बनी 'लव एंड फ्रेंडशिप को पहली फीचर फिल्म माना जाता है। उसके बाद ज्यादातर डाक्यूमेंट्री ही बनी। 1990 में छिड़े गृहयुद्ध और 1996 में तालिबानियों के सत्ता में आने के बाद वहाँ फ़िल्में बनाना और देखना प्रतिबंधित कर दिया।
    जहां तक अफगानी फिल्मों की दुनिया में पहचान बनने का सवाल है, तो वह थी 2003 में बनी सिद्दिक बर्मक की फिल्म 'ओसामा!' इस फिल्म को कांस फिल्म समारोह समेत कई बड़े फिल्म फेस्टिवल में अवॉर्ड मिले। बताते हैं कि इस फिल्म ने 39 लाख डॉलर का कारोबार किया था। इसके बाद 2004 में आई अतीक रहीमी की फिल्म 'अर्थ एंड एशेज (खाकेस्तार-ओ-खाक) का वर्ल्ड प्रीमियर 57वें कांस फिल्म फेस्टिवल के 'अन सर्टेन रिगार्ड' खंड में हुआ। यह 13 साल की लड़की (मरीना गोलबहारी) की कहानी है, जो अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए लड़का बनकर ओसामा नाम से काम करती है। उसके परिवार में कोई मर्द नहीं बचा था। वह माँ के साथ एक अस्पताल में काम करती थी, जिसे बाद में तालिबानियों ने बंद कर दिया। औरतों के काम करने पर रोक लगा दी और लड़कों को पकड़कर इस्लामी ट्रेनिंग कैंप भेजने लगे। एक दिन ओसामा को भी पकड़ लिया गया। वहां राज खुलने पर उसे बुरी तरह यातनाएं दी गईं। बाद में एक बूढ़े के साथ उसकी जबरन शादी करा दी जाती है।
     इसके बाद जिस फिल्म की चर्चा होती है, वह थी 2011 में आई ईरानी फिल्मकार वाहिद मौसेन की फिल्म 'गोल चेहरे!'  यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित थी। जिसमें लोगों ने जान पर खेलकर तालिबानियों के हमले से कई फिल्मों के दुर्लभ प्रिंट बचाए थे। एक उन्मादी सिनेमा प्रेमी अशरफ खान गोल चेहरे नाम का एक सिनेमा हॉल चलाते थे, जिसे तालिबानियों ने जलाकर नष्ट कर दिया था। वे इस सिनेमा हॉल को फिर शुरू करना चाहते हैं। सत्यजीत राय की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' से सिनेमा हॉल का उद्घाटन होता है। लेकिन, जैसे ही फिल्म शुरू होती है, तालिबानी सिनेमा हॉल को बम से उड़ा देते हैं। अशरफ खान को मार देते हैं और सभी फिल्मों को जला देने का फतवा देते हैं। लेकिन, एक विधवा डॉक्टर रूखसारा दुर्लभ फिल्मों को बचाने में कामयाब हो जाती है। एक बार फिर गोल चेहरे सिनेमा हॉल बनता है और 'शतरंज के खिलाड़ी' से ही उसका उद्घाटन होता है। फिल्म का ये कथानक हिंदी फिल्मों को लेकर अफगानियों की दीवानगी बताता है।
     लम्बे समय बाद दुनिया में यहां की फिल्मों की चर्चा मोहसिन मखमलबफ की 2001 में आई फिल्म 'कंधार' से हुई। 20 से ज्यादा फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म दिखाई गई। इसके बाद 2003 की फिल्म 'ऐट फाइव इन द आफ्टरनून' भी चर्चा में आई। फिल्म की कहानी एक अफगान लड़की पर केंद्रित थी, जो परिवार की इच्छा के खिलाफ स्कूल जाती है। वह भविष्य में अफगानिस्तान का राष्ट्रपति बनने का सपना भी देखती है। अतीक रहीमी की 2004 में आई फिल्म 'अर्थ एंड एशेज' का मूल नाम 'खाकेस्तार ओ खाक' था। यह फिल्म अफगानिस्तान में चल रहे गृहयुद्ध से हुए विनाश में मनुष्यता खोजने की सिनेमाई कोशिश है। फिल्म में दादा और पोते की आंखों की आँखों के दृश्य ही फिल्म की असली ताकत है। अफगानिस्तान पर अमेरिकी बमबारी से बर्बाद हुए देश को लैंडस्केप की तरह फिल्माया गया था।
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Sunday, September 7, 2025

देश के सबसे स्वच्छ शहर में दो नापाक हरकत

     इंदौर शहर की पहचान पूरे देश में साफ़ और स्वच्छ 
शहर  के रूप में है। इस शहर ने लगातार आठ बार स्वच्छता 
का खिताब जीता। इसके अलावा यहां के स्वाद की भी 
कुछ अलग पहचान हैं। लेकिन, कुछ फैक्टर ऐसे हैं, 
जो उसकी इस छवि पर दाग लगने से बाज नहीं आए। उन्हीं में 
से एक है दो महिलाओं की शातिर दिमाग की हरकतें। 
संयोग माना जाना चाहिए की दोनों घटनाएं 12 दिन बाद 
उजागर हुई। लेकिन, दोनों घटनाओं को जिस तरह दो 
महिलाओं ने साजिश में गूंथा, वह अपने आप में आश्चर्य करने 
वाली बात है। ये दोनों न तो अपराधी हैं और न उनका 
बैकग्राउंड इस तरह का है, पर दोनों ही मामलों को खंगाला 
जाए तो घटना हर कदम किसी अपराध फिल्म की स्क्रिप्ट 
नजर आता है। 
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- हेमंत पाल

     इंदौर में करीब 3 महीने में दो ऐसी घटनाएं हुई, जिन्होंने पूरे देश में इंदौर की एक अलग छवि निर्मित की। यह छवि है आपराधिक कृत्य वाली और यह करने वाली भी दो महिलाएं हैं। जिनकी उम्र 30 साल की भी नहीं हुई। पहले सोनम रघुवंशी का नाम आया जिसकी 11 मई को राजा रघुवंशी से शादी हुई थी और उसने अपने प्रेमी के साथ शादी के पहले ही साजिश रचकर पति राजा रघुवंशी को हनीमून ट्रिप पर शिलांग में सुपारी देकर मरवा दिया। इसके बाद अर्चना तिवारी सामने आई। इस महिला ने परिवार के शादी के दबाव के आगे झुकने के बजाए खुद को परिदृश्य से गायब करने की चाल चली। राखी पर अपने घर कटनी जाते समय वे रास्ते में ट्रेन से बेहद शातिराना तरीके से गायब हो गई। उसके गायब होने की साजिश में एक लड़का सारांश सामने आया। रेलवे पुलिस परेशान रही। उसे नर्मदा और जंगल में तलाश किया गया। लेकिन, बाद में पुलिस ने लिंक जोड़कर 12 दिन बाद उसे भारत-नेपाल की सीमा पर पकड़ लिया। 
      पहले कटनी की रहने वाली और इंदौर में रहकर जज की तैयारी कर रही 29 साल की अर्चना तिवारी की गुमशुदगी और फिर यूपी-नेपाल बॉर्डर से बरामद होने की गुत्थी को समझा जाए। रेलवे पुलिस जांच में जो परतें सामने आई, उसने साफ कर दिया कि यह कोई अपहरण या हादसा नहीं, बल्कि खुद अर्चना की बनाई गई साजिश वाली कहानी थी। समाज में महिलाओं की एक अलग छवि है। इसलिए सहज भरोसा नहीं होता कि कोई मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की खुद को शादी से बचाने के लिए इतनी गहरी साजिश रच सकती है। इस घटना ने लोगों की इस धारणा खंडित तो किया है। अर्चना घर वालों के इस फैसले से नाराज थी कि उसकी शादी एक पटवारी से की जा रही है, जबकि वो सिविल जज बनने की तैयारी कर रही थी। सवाल उठता है कि उसने विरोध न करके अपने आपको परिदृश्य से गायब करने का षड़यंत्र क्यों और किसके कहने पर किया। 
     यदि पूरे घटनाक्रम पर नजर दौड़ाई जाए, तो एक बात साफ़ नजर आती है कि जिस तरह फुलप्रूफ षड्यंत्र रचा गया, वो किसी सामान्य लड़की के बस की बात शायद नहीं हो सकती, पर सच यही है सारी कहानी अर्चना ने ही बनाई। 7 अगस्त की रात अर्चना इंदौर से नर्मदा एक्सप्रेस ट्रेन से कटनी के लिए रवाना हुई थी। परिवार को उसने बताया था कि वे राखी पर कटनी आ रही हैं। लेकिन, वहां नहीं पहुंची। देर रात उसका मोबाइल बंद हो गया। परिवार ने भोपाल के रानी कमलापति जीआरपी थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई। रेलवे पुलिस जांच में सामने आया कि अर्चना ने गुम होने की योजना पहले से बना रखी थी। वकील होने के नाते उसे कानून और जांच प्रक्रिया की बारीकियां पता थीं। उसने सोचा कि अगर मामला जीआरपी में दर्ज होगा, तो उस पर गहन जांच नहीं होगी।
    इसी सोच के तहत इटारसी के पास जंगल में अर्चना ने अपना मोबाइल फोन फेंक दिया, ताकि लोकेशन ट्रेस न हो सके। उसने सारांश के साथी के साथ ट्रेन से उतरने के बाद ऐसा रास्ता चुना, जहां टोल टैक्स और सीसीटीवी कैमरे न हो। इस सफर में सारांश दूरी बनाकर उसके साथ रहा। इस पूरे घटनाक्रम में अर्चना के दो दोस्तों सारांश और ड्राइवर तेजेंद्र की अहम भूमिका रही। सारांश से अर्चना की पहचान इंदौर में पढ़ाई के दौरान हुई थी। तेजेंद्र ड्राइवर था, जो अर्चना को बाहर ले जाया करता था। उसी ने बीच रास्ते में ट्रेन में अर्चना को साड़ी और कपड़े दिए। तीनों ने मिलकर तय किया कि गुमशुदगी का नाटक करना आसान रहेगा। तेजेंद्र और सारांश की मदद से अर्चना इटारसी से निकलकर शुजालपुर पहुंची। वहां से उन्होंने लंबा रूट लिया ताकि किसी टोल प्लाजा या कैमरे में न आए। 
    शुजालपुर से इंदौर होते हुए वे बुरहानपुर गईं। वहां से हैदराबाद और फिर जोधपुर होते हुए दिल्ली पहुंची। इसके बाद सारांश के साथ 14 अगस्त को नेपाल चली गई। इस दौरान अर्चना ने नई सिम कार्ड या फोन भी मध्य प्रदेश से नहीं लिया, ताकि कहीं भी उनकी ट्रैकिंग न हो सके। आसानी से समझा जा सकता है कि ये किसी सामान्य लड़की के दिमाग की उपज नहीं हो सकती। जांच टीम ने सैकड़ों सीसीटीवी फुटेज खंगाले। बड़ा सुराग तब मिला, जब अर्चना की कॉल डिटेल रिकॉर्ड (सीडीआर) में एक नंबर पर लंबे समय तक बातचीत दर्ज हुई, वह नंबर सारांश का निकला। वहीं से पुलिस ने कड़ियां जोड़नी शुरू की। सारांश को हिरासत में लेकर पूछताछ की गई तो पूरा राज खुल गया और अर्चना को नेपाल बॉर्डर से पकड़ा गया। अर्चना ने कहा कि सारांश के साथ उनके कोई प्रेम संबंध नहीं हैं। वह सिर्फ उनका दोस्त है, जिसने इस पूरी योजना में मदद की। यह भले ही अर्चना का पक्ष हो, पर कोई इस बात पर भरोसा नहीं कर रहा कि दोनों के बीच सिर्फ 'दोस्ती' का संबंध है।   
 
सोनम रघुवंशी की कहानी
   अब दूसरी लड़की सोनम रघुवंशी की कहानी, जिसने साजिश रचने में किसी जासूसी फिल्मों की कहानी को मात कर दिया। शुरुआत हुई 11 मई से जब राजा रघुवंशी और सोनम रघुवंशी की परिवार की राजी-मर्जी से शादी हुई। दोनों का परिवार खुश था। दोस्तों में भी उत्साह था। यह एक साधारण विवाह था, पर क्या पता था कि कुछ ही दिनों में यह शादी देशभर में सुर्खी बन जाएगी। इंदौर से हनीमून के लिए मेघालय के शिलांग गए इस नवविवाहित जोड़े राजा और सोनम की कहानी ने पूरे देश को झकझोर दिया। एक सपनों भरा हनीमून, जो खुशी और उत्साह का प्रतीक होना चाहिए था, भयानक त्रासदी और रहस्यमयी हत्याकांड में बदल गया। शादी के 9 दिन बाद ही यह जोड़ा हनीमून के लिए पश्चिम बंगाल रवाना हुआ। फिर अचानक शिलांग पहुंच गया। दिलचस्प बात यह कि हनीमून की प्लानिंग सोनम ने खुद की। टिकट से लेकर होटल बुकिंग तक सब कुछ सोनम के नाम से हुआ। पुलिस को यहीं से साजिश की नींव रखी नजर आई। 
    राजा और सोनम मेघालय के शिलांग में डबल डेकर लिविंग रूट ब्रिज, नोंग्रियाट गांव घूमने गए। यही वह जगह थी, जो इस हत्याकांड का साइलेंट गवाह बना। उसी दिन दोनों अचानक लापता हो गए।  फिर न राजा का पता चला, न सोनम का, जिसके बाद परिवार परेशान हो उठा। उनकी किराए की स्कूटी एक सुनसान जगह पर लावारिस मिली। लापता नव विवाहित दंपत्ति पर केस दर्ज किया गया। दोनों का कोई सुराग नहीं था। मीडिया ने इस मामले को लापता कपल के रोमांचक एंगल से रिपोर्ट करना शुरू कर दिया। 
    2 जून को राजा का शव एक खाई में मिला। शव की हालत बुरी तरह खराब थी कि पहचान करना मुश्किल था। लेकिन, राजा के हाथ पर गुदे 'राजा' टैटू ने उसकी पहचान पक्की कर दी। पोस्टमार्टम में हत्या की पुष्टि हो गई। राजा की मौत सिर में गहरी चोट और धक्का देने से हुई थी। राजा का शव मिलने के बाद सोनम के गायब होने के शक को अलग एंगल से देखा गया। पर, किसी ने यह नहीं सोचा था कि इस पूरी साजिश की मास्टरमाइंड सोनम है और इसके पीछे उसकी चाल राजा से पीछा छुड़ाना और अपने प्रेमी राज कुशवाह से शादी करना है। 9 जून को सोनम गाजीपुर में नाटकीय परिस्थिति में पकड़ी गई। उसे एक ढाबे से गिरफ्तार किया गया। 
      लेकिन, तब तक पुलिस ने साजिश के सारे पत्ते खोल दिए और ऐसी स्थिति में सोनम ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया। उसने पुलिस के सामने जो खुलासे किए, वो चौंकाने वाले थे। हनीमून ट्रिप पर पति की हत्या करवाने की उसकी साजिश उसने इस तरह रची थी कि किसी को भरोसा नहीं हो रहा था कि शादी के 10 दिन बाद वो ऐसा खौफनाक कारनामा कर सकती है। ये दो घटनाएं बताती है कि जमाना बदल रहा है। षड्यंत्र रचकर कोई बड़ी वारदात करना अब सिर्फ आपराधिक सोच वाले लोगों की बपौती नहीं रह गया। अबला और कोमलांगी समझी जाने वाली मध्यमवर्गीय परिवार की पढ़ी-लिखी लड़कियां भी साजिश रचकर उसे बड़ी घटना कर सकती हैं। 
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Wednesday, September 3, 2025

हीरो की पहचान बदलने वाले रजनीकांत

     रजनीकांत फिल्मों के वो सितारे हैं, जिनके सामने परदे का हर सितारा मंद पड़ जाता है। इसलिए नहीं कि वे बहुत हैंडसम हैं, बल्कि वे सिर्फ सिनेमा के परदे पर ही यह किरदार निभाते हैं। वे वो हीरो है जिसने कभी अपना असली चेहरा नहीं छुपाया। वे जैसे हैं, निजी जिंदगी में भी वही नजर आते हैं। वे हीरो सिर्फ परदे पर हैं, असल में नहीं। निजी जिंदगी में मेकअप करके नहीं रहते। उन्हें दर्शक जैसा परदे पर देखते हैं, वे असल में उससे बिल्कुल अलग हैं। इन दिनों उनकी फिल्म 'कुली' का जलवा है। वैसे कुली नाम से रजनीकांत का आज से नहीं बल्कि 5 दशक पुराना नाता है। वे फिल्मों में आने से पहले कुली गिरी भी करते थे और बस कंडक्टर थे। उन्हें सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान 'दादा साहब फाल्के अवॉर्ड' से भी नवाजा का चुका है।
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- हेमंत पाल 

   देश की फिल्म इंडस्ट्री में दो ही ऐसे सितारे हैं, जो बेजोड़ हैं। उनके सामने हिंदी फिल्मों के सलमान खान, शाहरुख़ खान आमिर खान और दक्षिण के जूनियर एनटीआर, प्रभाष और पुष्पा का हीरो अल्लू अर्जुन भी बहुत पीछे हैं। ये हैं दक्षिण भारत की फिल्मों में सुपर स्टार रजनीकांत और हिंदी फिल्मों के अमिताभ बच्चन। लेकिन, यदि इन दोनों में से भी किसी एक को चुनना हो, तो निःसंदेह वो नाम होगा रजनीकांत का। वे बहुत कम फ़िल्में करते हैं, पर जब परदे पर आते हैं, तो मनोरंजन का धमाका हो जाता है। उनकी नई फिल्म 'कुली' ने भी कुछ ऐसा ही किया। इसका प्रमाण है कि दो सप्ताह में ही ये फिल्म 500 करोड़ क्लब में शामिल हो गई। 'कुली' के अलावा भी रजनीकांत की कई फिल्में 500 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी हैं। 
    2018 में आई रजनीकांत की फिल्म '2.0' में एमी जैक्सन और ऐश्वर्या राय अहम किरदार में नजर आए थे। इस फिल्म ने वर्ल्ड वाइड करीब 700 करोड़ की कमाई की और बॉक्स ऑफिस पर हंगामा कर दिया था। 2023 की फिल्म 'जेलर' भी रजनीकांत की बड़ी हिट फिल्म साबित हुई। एक्शन और कॉमेडी से भरपूर इस फिल्म को दर्शकों ने खूब पसंद किया। फिल्म में जैकी श्रॉफ, तमन्ना भाटिया और मोहनलाल जैसे बड़े सितारे भी थे। इस फिल्म ने वर्ल्डवाइड 650 करोड़ से ज्यादा की कमाई की थी। रजनीकांत की नई फिल्म 'कुली' में उनके साथ आमिर खान ने इसमें खास कैमियो किया है। इस फिल्म ने दो सप्ताह में ही 500 करोड़ का बिजनेस कर लिया। खास बात ये कि रजनीकांत की फिल्मों का जादू सिर्फ साउथ तक सीमित नहीं है। दुनियाभर में उनके फैंस उनकी फिल्में देखने उमड़ते हैं। 
     रजनीकांत को फिल्मों में करीब 50 साल हो गए। इसके बाद भी उनकी पॉपुलैरिटी किसी से छिपी नहीं है। 1975 में फिल्म 'कथा संगम' से डेब्यू करने वाले रजनीकांत को उनके चाहने वाले भगवान के समान पूजते हैं। उनके मंदिर भी बने, जहां उनकी मूर्ति लगी है। उनकी फिल्मों का जलवा ये है कि उनके फैंस और दर्शक फिल्म की समीक्षा का इंतजार नहीं करते, बल्कि देखने पहुंच जाते हैं। इसके बावजूद रजनीकांत अपने सुपरस्टार स्टेटस को पचा नहीं पाते। वे जनता के बीच सामान्य आदमी की तरह दिखते हैं। सिनेमा की चमक दमक वाली दुनिया से दूर ही रहते हैं। 
    असल जिंदगी में उन्हें देखना, किसी आसपास के आम आदमी को देखने जैसा है। परदे पर वे जितने गुस्से में दिखते हैं अपने विरोधियों को अपने स्टाइल और एक्शन से धूल चटाते नजर आते हैं। लेकिन, असलियत में शायद ही किसी को उन्होंने थप्पड़ भी मारा हो। रजनीकांत अपनी सामान्य जीवनशैली और मासूमियत का चेहरा हैं। मुंबई के फ़िल्मी हीरो से रजनीकांत बहुत अलग हैं। वे आधे गंजे, कानों पर बालों का गुच्छा लिए, दाग वाली चमड़ी के साथ घूमते हैं। कभी अपना असली चेहरा छुपाने की कोशिश नहीं करते। वास्तव में तो रजनीकांत हीरो के उस चेहरे का अपवाद हैं, जो लोग बरसों से परदे पर देखते आए हैं।  रजनीकांत ने बरसों से चली आ रही फिल्म इंडस्ट्री की उन वर्जनाओं को तोड़ा है, जो हीरो के लिए मानक थी। वे जब फिल्मों में हीरो बने, तब गोरे चिट्टे और स्मार्ट हीरो का ही जमाना था। ऐसे में सांवले हीरो को इसलिए स्वीकारा गया कि उनमें कुछ अलग स्वैग है। उन्होंने तब खुद को एमजी रामचंद्रन और शिवाजी गणेशन की लाइन में खुद को खड़ा किया। एमजी रामचंद्रन और रजनीकांत में एक बड़ा फर्क था।
     एमजीआर अपनी परदे की छवि को असल ज़िंदगी में भी उतार लाए थे और वो लोगों को लुभाने की कोशिश करते, लेकिन रजनीकांत ने ऐसा कभी नहीं किया। उन्होंने खुद को दबे हुए लोगों का हीरो बना लिया। वे उस समाज के लोगों के लिए आवाज उठाते नजर आए जो दबे हुए थे। फिर चाहे वो 'रंजीत' का दलित हीरो 'काला' हो या विदेश में फंसे भारतीयों का मसीहा 'कबाली।' रजनीकांत की ज्यादातर फिल्मों के कथानकों में वे उनके साथ खड़े नजर आए जिनके साथ कोई नहीं था। दरअसल, वे सिनेमा के परदे के वो हीरो हैं, जिन्हें एक दमदार साथी की तलाश होती है। चार दशक से ज्यादा समय से वे सिनेमा का ये सबसे लोकप्रिय सितारा सिर्फ तमिल का सुपरस्टार नहीं है। 74 साल की उम्र में भी रजनीकांत बड़े परदे पर वो कारनामा कर रहे हैं, जिनके सामने उनसे कई साल छोटे हीरो भी दबे से नजर आते हैं। रजनीकांत नई फिल्म ‘कुली’ से परदे के सरताज बने हुए हैं। 
    नई फिल्म 'कुली' सिर्फ फिल्म का नाम नहीं है। बल्कि इस कुली शब्द से उनका संबंध 50 साल पहले भी रहा जब रजनीकांत कुली और बस कंडक्टर का काम कर रहे थे। यह काम करते हुए उन्हें कई बार लोगों की झिड़कियां भी सुनना पड़ती थी। एक बार उन्होंने एक शख्स का सामान टैंपो में रखा तो उन्हें दो रुपये मिले थे। अभिनेता के मुताबिक जिस शख्स का उन्होंने सामान रखा था वो उनका कॉलेज का दोस्त था, जिसे रजनीकांत बहुत चिढ़ाते थे। दोस्त ने रजनीकांत से कहा था कि तू ये क्या नौटंकी कर रहा है! इसके बाद रजनीकांत रोने लगे थे। बेंगलुरु में जन्मे रजनीकांत ने 1975 में पहली बार एक्टिंग में डेब्यू किया। उन्हें परदे पर लाने में रजनीकांत के दोस्त राज बहादुर में बहुत मदद की। दादा साहब फाल्के अवॉर्ड लेते वक्त भी रजनीकांत ने अपने दोस्त राज बहादुर को याद किया और धन्यवाद कहा। राज बहादुर ने ही रजनीकांत को मद्रास फिल्म इंस्टीट्यूट में दाखिला लेने के लिए के लिए मोटिवेट किया। उनके लिए ऐसा कर पाना आसान नहीं था। तब ये और कुछ और दोस्त उनकी मदद के लिए आगे आए, जो उनकी ही तरह बस कंडक्टर थे। एक्टिंग सीखने के दौरान ही इन्होंने तमिल भी सीखी।
  इसी बीच रजनीकांत की मुलाकात फिल्म डायरेक्टर के बालचंद्र से हुई। इन्होंने ही रजनीकांत को फिल्म 'अपूर्वा रागनगाल' में मौका दिया। इसमें कमल हासन और श्रीविद्या भी थीं। हालांकि, इसमें इनका छोटा-सा नेगेटिव रोल था। इसके बाद इन्हें शुरुआती दो-तीन साल तक ऐसे में ही रोल मिले। नेगेटिव कैरेक्टर प्ले करने के बाद रजनीकांत पहली बार अपनी विलेन की इमेज तोड़ते हुए फिल्म 'भुवन ओरु केल्विकुरी' में बतौर हीरो नजर आए थे। मुथुरमम और रजनीकांत की जोड़ी ऑडियंस को खूब पसंद आई और इन्होंने करीब 25 फिल्मों में काम किया।
    1978 में आई रजनीकांत की 'बिल्ला' बहुत सफल हुई थी, जो अमिताभ बच्चन की हिट 'डॉन' की रीमेक थी। तमिलनाडु सरकार ने उन्हें पहली बार 'मुंदरू मूगम' के लिए साल 1982 में बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड दिया था। फिल्म 'बातशा' से रजनीकांत सुपरस्टार बने थे, जो साल 1995 में रिलीज हुई थी। इसने बॉक्स ऑफिस के कई रिकॉर्ड तोड़े थे। तमिल फिल्मों को इंटरनेशनल स्टेज तक पहुंचाने में भी रजनीकांत की बड़ी भूमिका रही। 'मुथू' जापान में रिलीज होने वाली पहली तमिल फिल्म थी। इसके बाद साल 2017 में इनकी 'चंद्रमुखी' तुर्की और जर्मन में रिलीज हुई थी। 'शिवाजी' इनकी पहली फिल्म है जो ब्रिटेन और साउथ अफ्रीका में बॉक्स ऑफिस पर टॉप पर थी।
   अपने करियर के शुरूआती 10 सालों में ही रजनीकांत ने 100 फिल्मों का आंकड़ा पूरा कर लिया था। उन्होंने 100वीं फिल्म 'श्री राघवेंद्र' में हिंदू संत राघवेंद्र स्वामी की भूमिका निभाई थी। फिल्मों में आने से पहले रजनीकांत ने अभिनय की शुरुआत कन्नड़ नाटकों से की। इन्होंने दुर्योधन की भूमिका निभाई थी, जिससे ये बहुत लोकप्रियता मिली। पहली बार तमिल फिल्मों में एनिमेशन इंट्रोड्यूस करने का श्रेय भी इसी हीरो के खाते में दर्ज है। 'राजा चायना रोजा' पहली फिल्म थी, जिसमें एनिमेशन शामिल किया गया। रजनीकांत ने तमिल, हिंदी, मलयालम, कन्नड़ और तेलुगु के साथ एक बांग्ला फिल्म में भी काम किया है। बांग्ला फिल्म का नाम 'भाग्य देवता' था। इनकी पहली हिंदी फिल्म 'अंधा कानून' की जिसमें अमिताभ बच्चन हीरो थे।  
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एक ही दिन रिलीज हुई दो फिल्मों की दास्तां

- हेमंत पाल

      हिंदी फिल्मों का इतिहास बड़ा विचित्र है। इसके पन्नों पर कई ऐसी सच्चाई दर्ज है, जो अविश्वसनीय होने के साथ कभी दोबारा नहीं घटी। ऐसी ही एक अनोखी बात 50 साल पहले घटी थी, उसके बाद ऐसा फिर नहीं हुआ। मामला है 1975 के 15 अगस्त के दिन रिलीज हुई फ़िल्म 'शोले' और 'जय संतोषी मां' का। दोनों फिल्मों के कथानक एक-दूसरे के विपरीत थे। 'शोले' की कहानी हिंसा और मारधाड़ से भरपूर थी और 'जय संतोषी मां' पूरी तरह धार्मिक फिल्म। 'शोले' बड़े कलाकारों, बड़े डायरेक्टर और नामचीन कहानीकार की फिल्म थी। जबकि, 'जय संतोषी मां' में कोई भी 'बड़ा' नहीं था। यहां तक कि जिस देवी पर फिल्म का कथानक रचा गया था, वो भी ऐसी नहीं थी जिन्हें सब पूजते या जानते हों। आशय यह कि वे हिंदू देवी-देवताओं की तरह संतोषी माता को जानने वाले बहुत कम भक्त थे। 
       दोनों फ़िल्में एक ही दिन रिलीज हुई और दोनों की शुरुआत ठंडी रही। 'शोले' में धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन और संजीव कुमार के अलावा हेमा मालिनी और जया भादुड़ी जैसे कलाकार थे। जबकि, संतोषी मां में कोई भी ऐसा कलाकार नहीं था, जिसे दर्शक पहले से जानते हों। 'शोले' की निर्माण लागत करीब 30 करोड़ आंकी गई, जबकि 'जय संतोषी मां' कुछ लाख में बनी थी। कुछ दिन बाद जैसे चमत्कार हो गया। 'शोले' ने धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ी, उधर 'जय संतोषी मां' की लोकप्रियता ने आसमान फाड़ दिया। वास्तव में ये चमत्कार ही तो था। ऐसा चमत्कार जो दोबारा नहीं हुआ। बॉक्स ऑफिस के नजरिए से आकलन किया जाए, तो 'जय संतोषी मां' कमाई के मामले में 'शोले' से बहुत आगे थी। क्योंकि, 'शोले' का बजट ज्यादा था, इसलिए उसकी कमाई को भी उसी हिसाब से देखा जाएगा। उसके सामने 'जय संतोषी मां' बहुत कम बजट में बनी थी, तो उसकी कमाई का आकलन भी कई गुना ज्यादा था। इतना कि आज भी उस रिकॉर्ड को कोई तोड़ नहीं सका।                     
      'जय संतोषी' मां ने फिल्म के जानकारों की धारणा बदल दी थी। क्योंकि, फिल्म की पहले शो की बिक्री 56 रुपए  दूसरे में 64 और शाम के शो की कमाई 98 रुपए रही थी। नाइट शो का कलेक्शन मुश्किल से सौ रुपए हुआ था। लेकिन, सोमवार की सुबह जो हलचल शुरू हुई, उससे सब चमत्कृत थे। जिस भी थियेटर में फिल्म लगी, वहां दर्शक टूट पड़े। शो के बीच में उछाली गई चिल्लर बटोरकर थियेटर की सफाई करने वाले मालामाल हो गए। इस फिल्म ने अपनी लागत से कई गुना बिजनेस करके 'शोले' जैसी फिल्म को टक्कर दी थी! दोनों फिल्मों के कथानक में विरोधाभास था। इसके बावजूद 'जय संतोषी माँ' का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 'शोले' के मुकाबले ज्यादा था! 'शोले' में गब्बर सिंह की गोलियां खून बिखेर रही थी, जबकि 'जय संतोषी माँ' में दर्शक सिनेमाघर में आरती गा रहे थे। दर्शकों ने इसे फिल्म की तरह नहीं लिया, बल्कि सिनेमाघर को मंदिर की तरह पूजने लगे थे। दर्शक हॉल में चप्पल-जूते पहनकर नहीं आते! श्रद्धा इतनी उमड़ती थी, कि आरती के वक़्त लोग सीट से खड़े होकर तालियां बजाते और सिक्के चढ़ाने लगते थे! गांवों और शहरों में हर जगह श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़ा था। संतोषी माता की व्रत कथा सुनी और सुनाई जाने लगी! गुड़-चने का प्रसाद बंटने लगा। 
    दर्शकों के लिए ‘जय संतोषी माँ' एक धार्मिक फिल्म नहीं, बल्कि जीवन को प्रभावित करने वाला प्रसंग था। यह सब देश के सैकड़ों छोटे शहरों और गांवों में महीनों तक दोहराया गया। पहली बार निर्देशक बने विजय शर्मा की इस फिल्म ने जो इतिहास बनाया, वो आजतक नहीं टूटा। 1975 की ट्रेड गाइड की सालाना रिपोर्ट में ‘जय संतोषी मां' और ‘शोले' को ‘दीवार' से ऊपर ब्लॉकबस्टर का दर्जा मिला था। कई शहरों में इस फिल्म ने गोल्डन और सिल्वर जुबली मनाई। 'फिल्म इन्फॉर्मेशन पत्रिका' के अनुसार, बंबई के मलाड में महिलाओं के लिए सुबह 9 बजे का अलग शो शुरू किया गया था। इस फिल्म का असर सिर्फ कमाई तक सीमित नहीं था। ‘जय संतोषी मां' ने फिल्मों के कमजोर पड़ते बाजार में नई जान फूंकी थी। फिल्म में संतोषी माता का किरदार निभाने वाली अनीता गुहा ने एक इंटरव्यू में अपना अनुभव साझा किया था। इसके मुताबिक मुंबई के बांद्रा में माइथोलॉजिकल फिल्मों का मार्केट नहीं था, वहां ऐसी फिल्में नहीं चलती थीं। लेकिन, ‘जय संतोषी मां’ उसी इलाके के सिनेमाघर में 50 हफ्तों तक चली।  
    अब जिक्र हिंदी सिनेमा की कल्ट फिल्म 'शोले' का। यह ऐसी फिल्म है, जिसे पचास साल पहले से आजतक हर वर्ग के दर्शक ने सराहा। सलीम-जावेद की जोड़ी की लिखी यह फिल्म 204 मिनट लंबी है। इसमें सितारों की लम्बी चौड़ी फौज है, जिनमें  संजीव कुमार, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी, अमजद खान, हेलेन, सचिन, एके हंगल, विजू खोटे, मैक मोहन, सहित कई कलाकार शामिल है। फिल्म के लिए हैदराबाद के नजदीक पूरा एक गांव रामगढ़ बसाया गया था जो आज भी अस्तित्व में है। फिल्म का संगीत आरडी बर्मन ने तैयार किया था और इसे 70 एमएम और स्टीरियोफोनिक साउंड में फिल्माया गया था। दरअसल, 'शोले' जैसी फिल्म बनाना आसान नहीं था। रमेश सिप्पी ने इस फिल्म की मेकिंग का किस्सा एक इंटरव्यू में बताया, जो भी अपने आप में अविश्वसनीय कहा जाएगा।
      रमेश सिप्पी के मुताबिक 'शोले' की रायटर जोड़ी सलीम-जावेद एक दिन उनके पास आए, तब वे एक फिल्म की शूटिंग में बहुत व्यस्त थे। उन्होंने कहा कि एक कहानी है, जरा सुन लो। मैंने कहा कि बाद में सुनूंगा तो दोनों बोल पड़े, अभी सुनना पड़ेगी। बस दो मिनट का टाइम चाहिए। मेरे हां कहते ही दोनों ने कहानी सुनाना शुरू कर दी। उन्होंने पूरी कहानी वाकई में दो मिनट में सुना दी। रमेश सिप्पी को भी कहानी अच्छी लगी। 'शोले' की कहानी फायनल करने के लिए सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी दो महीने से ज्यादा समय तक एक ही कमरे में रहे। न दिन देखा न रात। फिल्म के एक-एक हिस्से और सीन के बारे में विचार शुरू किया गया। तीनों बार-बार कागज फाड़ते और नए सिरे से लिखते। आखिरकार तीनों की मेहनत रंग लाई और 'शोले' की पूरी स्क्रिप्ट पूरी कर ली गई। सिप्पी ने बताया कि जब हमने अमजद खान को लेकर गब्बर सिंह की शूटिंग शुरू की, तो सबसे बड़ी परेशानी यह आई कि गब्बर की दहशत को कैसे दिखाया जाए, ताकि दर्शक भी सिहर जाएं। संगीतकार आरडी बर्मन साहब ने अमजद खान के अपीयरेंस के लिए एक खास तरह का बैकग्राउंड म्यूजिक भी रचा। 
     गब्बर की डाकू वाली वर्दी वगैरह सब कुछ का इंतजाम कर लिया गया। मगर जब वह पहली बार परदे पर आता है, तो पहाड़ी पर चलते हुए उसके साथ एक बेल्ट से भी चट्टान से टकराते हुए एक खौफनाक आवाज निकलती है। इसके लिए हमें बहुत ही परेशानी उठानी पड़ी। गब्बर के लिए खास बेल्ट की तलाश शुरू हुई। मुंबई के भंगार बेचने वालों के यहां  जा-जाकर पुरानी बेल्ट की तलाश करनी शुरू कर दी। खोज करीब एक हफ्ते तक चली। पूरे मुंबई से करीब 200 बेल्ट जुटाए। इसे लेकर शूटिंग वाली जगह पर लेकर आए। जब बेल्ट को अमजद खान को दिया और उनसे चट्टान पर चलते हुए बेल्ट को घसीटने के अंदाज में चलते। जब अमजद खान उस बेल्ट को लेकर चलते, तो उससे खास किस्म की खौफनाक आवाज आती। उनका डायलॉग था 'कितने आदमी थे!'
    ये दोनों फ़िल्में इसलिए भी यादगार बन गई, क्योंकि दोनों फिल्मों का दर्शक वर्ग बिल्कुल अलग था। 'शोले' को हिंदी फिल्मों के ऐसे शौक़ीन दर्शकों ने पसंद किया जिन्हें फार्मूला फ़िल्में पसंद थी। इसके अलावा धर्मेंद्र, अमिताभ और संजीव कुमार के अलावा हेमा मालिनी जैसे कलाकारों को पसंद करने वालों की भी लंबी फ़ौज थी। आपातकाल के उस दौर में ऐसी फ़िल्में बनना आसान नहीं था, फिर भी फिल्म बनी और चली। जबकि, 'जय संतोषी मां' के दर्शकों में महिलाओं की संख्या ज्यादा रही। ग्रामीण इलाकों में तो इस फिल्म ने तूफान मचा दिया था। वास्तव में यह फिल्म मनोरंजन का माध्यम न होकर आस्था का सैलाब था। एक ध्यान देने वाली बात यह भी कि 'शोले' और 'जय संतोषी मां' ने एक दूसरे की सफलता को कहीं प्रभावित नहीं किया और न दर्शक ही छीने। दोनों फिल्मों को पसंद करने वाला वर्ग भी अलग था। लेकिन, व्यावसायिक सफलता के मामले में 'जय संतोषी मां' का पलड़ा भारी रहा। क्योंकि, कम बजट में बनी फिल्म का कमाई का आंकड़ा बहुत ज्यादा था। खास बात यह कि आज भी इन दोनों फिल्मों को याद किया जाता है।               
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भव्य रूप में फिर अवतरित होंगे 'राम'

     हिंदी सिनेमा में 'रामकथा' और 'महाभारत' दो ऐसे पौराणिक प्रसंग हैं, जो फिल्म इतिहास में दर्शकों के सबसे पसंदीदा विषय रहे। फिल्म निर्माण के शुरुआती दौर में सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म रामायण पर आधारित 'लंका दहन ही थी। इसके बाद भी राम, सीता, हनुमान और रावण इन चार पात्रों पर केंद्रित कथानक हर दशक में फ़िल्में बनती और पसंद की जाती रही। इसी एक कथा को कई बार अलग-अलग प्रसंग जरिए परदे पर उतारा गया। सिर्फ बड़े परदे पर ही नहीं, छोटे परदे पर भी राम-रावण कथा कई बार फिल्माई गई। अब बड़े परदे पर राम कथा को लेकर सबसे भव्य और महंगा प्रयोग हो रहा है। बताते हैं कि 400 करोड़ के बजट पर दो भागों में 'रामायणम' नाम से बड़े कलाकारों को लेकर फिल्म बनाई जा रही है। 

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- हेमंत पाल

     धार्मिक कथाओं में हिंदी सिनेमा का सबसे लोकप्रिय पात्र भगवान राम हैं। सवा सौ साल पहले सिनेमा के शैशव काल में फिल्मकारों ने रामकथा के सहारे ही अपनी नैया पार लगाई थी। क्योंकि, तब माइथोलॉजिकल कथाओं के जरिए ही दर्शकों को सिनेमाघरों तक लाया जाता था। यही वजह है कि भगवान राम की कथा को जनता तक पहुंचाने में सिनेमा के योगदान को बहुत बड़ा माना जाता है। बड़े परदे पर राम जी कि कथा का सिलसिला उस दौर में ही शुरू हो गया था, जब भारत में फिल्में बनना शुरू हुई। लेकिन, तब उनमें आवाज नहीं होती थी। हिंदी सिनेमा के पुरोधा कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के ने मूक फिल्मों के दौर में 1917 में ‘लंका दहन’ से राम नाम का जो पौधा लगाया था, उसे जीवी साने ने 1920 में ‘राम जन्म’ से आगे बढ़ाया। फिर वी शांताराम ने 1932 में ‘अयोध्या का राजा’ से इस परंपरा को गति दी, तो विजय भट्ट ने 1942 में ‘भरत मिलाप’ और 1943 में ‘राम राज्य’ से इसे सिनेमा के लिए एक आसान और दर्शकों का पसंदीदा विषय बना दिया।
    बताते हैं कि दादासाहब ने जब सिनेमा हॉल में 'द लाइफ ऑफ क्राइस्ट' (1906) देखी, तो परदे पर जीसस के चमत्कार देखकर उन्हें लगा कि इसी तरह भारतीय देवताओं राम और कृष्ण की कहानियां भी परदे पर आ सकती हैं। इसी विचार के साथ उन्होंने 'मूविंग पिक्चर्स' के बिजनेस में कदम रखा। भारतीय माइथोलॉजी पर आधारित 'राजा हरिश्चंद्र' बनाने के बाद दादा साहब ने अपनी दूसरी फिल्म की कहानी के लिए रामकथा को चुना। सिनेमा में इस कथानक को उतारने की ये पहली कोशिश ‘लंका दहन’ जबरदस्त कामयाब हुई और बाद के सालों में इसने, हिंदी फिल्मों से लेकर साउथ तक के कई फिल्ममेकर्स को इस तरह की फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। 
     देखा गया कि फिल्म इतिहास के हर दशक में किसी न किसी रूप में राम परदे पर अवतरित होते रहे हैं। शुरुआती दिनों में ‘अयोध्या चा राजा’ ने टॉकीजों में दर्शकों की श्रद्धा बरसाकर इस परंपरा को बढ़ाया। कहा जा सकता है कि सिनेमा में कोई चले या नहीं, राम का नाम हमेशा अपना असर दिखाता रहा। इसके बाद 1961 में बाबूभाई मिस्त्री की 'संपूर्ण रामायण' ने फिर दर्शकों को टॉकीज में सियाराम बुलवा दिया था। इस फिल्म में रावण और हनुमान को हवा में उड़ता दिखाकर, लंका दहन और राम-रावण युद्ध के युद्ध के दृश्य फिल्माकर दर्शकों को नया अनुभव दिया था। रावण की भूमिका बीएम व्यास ने रावण बनकर अपने आपको उस ज़माने का चर्चित खलनायक साबित किया था, जो आसान बात नहीं थी। राम, रामायण और हनुमान पर केंद्रित फिल्मों के इतिहास के बाद अब एक बार फिर बड़े परदे पर राम भगवान अवतरित हो रहे हैं। सिनेमा में राम को लेकर कई बार प्रयोग हुए हैं। राम, सीता और रावण की कहानी बरसों से सुनी और सुनाई जाती रही है। फिर भी इसे लेकर दर्शकों की उत्सुकता बनी है। इसलिए कि उसका प्रस्तुतीकरण हमेशा ही चौंकाने वाला रहा।
   नितेश तिवारी की 4000 करोड़ की फिल्म 'रामायण' को लेकर क्रेज़ होने का कारण इसके कलाकारों के साथ इसका भव्य प्रस्तुतीकरण भी है। इसमें राम का किरदार रणबीर कपूर और रावण का दक्षिण के सितारे यश निभा रहे हैं। सनी देओल जैसे कलाकार का हनुमान का किरदार निभाना भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। इस 'रामायण' फिल्म की पहली झलक को जिस तरह पसंद किया गया, वो इस बात का प्रमाण है, कि इस फिल्म के निर्माण का स्तर क्या होगा। इसके रिलीज हुए पहले टीजर में रणबीर कपूर और यश की पहली झलक देखने को मिली। दो हिस्सों में बनने वाली इस फिल्म का पहला हिस्सा अगले साल (2026) में परदे पर आएगा।
     नितेश तिवारी की इस फिल्म के बजट ने हर किसी को हैरानी में डाल दिया। फिल्म के प्रोड्यूसर नमित मल्होत्रा ने हाल ही में खुलासा किया कि इस मोस्ट अवेटेड माइथोलॉजिकल फिल्म का बजट 4000 करोड़ रुपए है। ये भारत की अब तक की सबसे महंगी फिल्म होगी। फिल्म से इतनी कमाई हो सकेगी या नहीं अभी इस बारे में संशय है। वैसे बॉक्स ऑफिस का फार्मूला है, कि किसी भी फिल्म को हिट होने के लिए उसे अपनी लागत से दोगुना कमाई करना होती है। यदि 'रामायणम' के बारे में बात की जाए को दोनों पार्ट्स को हिट होने के लिए 8000 करोड़ रुपए कमाना पड़ेंगे। लेकिन, जिस तरह फिल्म का निर्माण हो रहा है, ये आंकड़ा बड़ा नहीं लग रहा।  
    'रामायण' को इतने बड़े खर्च से बनाने का फैसला इसलिए आश्चर्य की बात है, कि फिल्म के मूल कथानक से देश का बच्चा बच्चा वाकिफ है। राम-रावण युद्ध का हर दृश्य दर्शक कई बार फिल्मों और सीरियल में देख चुके हैं। उसी को फिर फिल्माया जाएगा, वो भी बिना किसी बदलाव के। क्योंकि, भगवान राम जैसे किरदार की लोकप्रियता का आलम यह है कि फिल्म जगत के 112 साल के इतिहास में हर दशक में सिनेमा के परदे व टीवी पर किसी-न-किसी रूप में राम अवतरित होते रहे हैं। गिनती लगाई जाए, तो अभी तक 50 से ज्यादा फिल्में और 18 टीवी शो इसी रामकथा पर बन चुके हैं। इनमें 17 हिंदी में और तेलुगु में सबसे ज्यादा 18 फिल्में बनी। अभी तक देश में अलग-अलग भाषाओं में जितनी भी पौराणिक फिल्में बनी, उनमें राम-रावण युद्ध पर बनी फिल्में ही सबसे ज्यादा पसंद की गई। याद किया जाए तो रामानंद सागर के सीरियल 'रामायण' ने तो दर्शकों की श्रद्धा के रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। 1980 व 1990 का दशक इसी सीरियल के नाम रहा।
    रामकथा पर आधारित अधिकांश फिल्मों ने अच्छी कमाई की। 1917 में दादा साहब फाल्के के निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘लंका दहन’ (1917) देखने वाले दर्शकों की सिनेमाघर के बाहर कतार लगी रहती थी। मूक फिल्मों के दौर में भी रामकथा पर बनी 'लंका दहन' ऐसी फिल्म आई थी, जिसने दर्शकों की लाइन लगवाई थी। मुंबई के थिएटर्स में ये फिल्म 23 हफ्तों तक चली। इससे ऐसी कमाई हुई थी कि पैसों से लदे बोरे बैलगाड़ी पर प्रोड्यूसर के घर भेजे जाते थे। 'लंका दहन' में अन्ना सालुंके ने सिनेमा के इतिहास का पहला डबल रोल किया था। उन्होंने इस फिल्म में राम के साथ सीता का भी किरदार निभाया था। उन्होंने फिल्म में राम व सीता दोनों के किरदारों को अपने बेहतरीन अभिनय से जीवंत बनाया था। क्योंकि, उस दौर में महिलाओं का फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं समझा जाता था। इसलिए महिलाओं के किरदार भी पुरुष निभाया करते थे। इससे पहले दादा साहब फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ में अन्ना सालुंके तारामती का किरदार निभा चुके थे। यही वजह रही कि फाल्के ने सीता की भूमिका भी उन्हीं को सौंपी। 
    मूक फिल्मों के समय में राम का किरदार निभाने वाले अभिनेताओं में 'राम राज्य' के हीरो प्रेम अदीब को सबसे ज्यादा पसंद किया जाता रहा। उनके फोटो पर भगवान की तरह माला चढ़ाई जाती थी। इसी तरह 'संपूर्ण रामायण' में राम का किरदार निभाकर महिपाल भी चर्चित हुए। फिल्मों के लंबे दौर के बाद दूरदर्शन पर 'रामायण' सीरियल में राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल को तो देशभर में राम के अवतार के रूप में ही देखा जाने लगा था। आज भी उनकी यही छवि है। 1997 में प्रसारित लोकप्रिय सीरियल 'जय हनुमान' में अभिनेता सिराज मुस्तफा खान ने भगवान राम का किरदार निभाया था। उन्हें भी लोगों ने पसंद किया। मूक फिल्मों के दौर में तो खलील अहमद भी 1920 से 1940 तक सक्रिय रहे। उन्होंने सती पार्वती, महासती अनुसुया, रुक्मिणी हरण, लंका नी लाडी और द्रौपदी जैसी फिल्मों में कृष्ण व राम के किरदार निभाए थे। 
     वर्ष 1942 में आयी भरत मिलाप और वर्ष 1943 में रिलीज हुई राम राज्य में प्रेम अदीब ने ही प्रभु राम की भूमिका निभाई थी। इन दोनों फिल्मों ने उनको उस दौर का एक सफल अभिनेता बनाया था। उनकी निभाई राम की भूमिका लोगों को बेहद पसंद आई। यही वजह रही कि इसके बाद रामायण की कथा पर बनी 6 फिल्मों रामबाण (1948), राम विवाह (1949), रामनवमी (1956), राम हनुमान युद्ध (1957), राम लक्ष्मण (1957), राम भक्त विभीषण (1958) जैसी फिल्मों में वे राम बने। प्रेम अदीब ने तो 'राम राज्य' की शूटिंग के दौरान नॉनवेज तक खाना छोड़ दिया था। 
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