Wednesday, September 3, 2025

एक ही दिन रिलीज हुई दो फिल्मों की दास्तां

- हेमंत पाल

      हिंदी फिल्मों का इतिहास बड़ा विचित्र है। इसके पन्नों पर कई ऐसी सच्चाई दर्ज है, जो अविश्वसनीय होने के साथ कभी दोबारा नहीं घटी। ऐसी ही एक अनोखी बात 50 साल पहले घटी थी, उसके बाद ऐसा फिर नहीं हुआ। मामला है 1975 के 15 अगस्त के दिन रिलीज हुई फ़िल्म 'शोले' और 'जय संतोषी मां' का। दोनों फिल्मों के कथानक एक-दूसरे के विपरीत थे। 'शोले' की कहानी हिंसा और मारधाड़ से भरपूर थी और 'जय संतोषी मां' पूरी तरह धार्मिक फिल्म। 'शोले' बड़े कलाकारों, बड़े डायरेक्टर और नामचीन कहानीकार की फिल्म थी। जबकि, 'जय संतोषी मां' में कोई भी 'बड़ा' नहीं था। यहां तक कि जिस देवी पर फिल्म का कथानक रचा गया था, वो भी ऐसी नहीं थी जिन्हें सब पूजते या जानते हों। आशय यह कि वे हिंदू देवी-देवताओं की तरह संतोषी माता को जानने वाले बहुत कम भक्त थे। 
       दोनों फ़िल्में एक ही दिन रिलीज हुई और दोनों की शुरुआत ठंडी रही। 'शोले' में धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन और संजीव कुमार के अलावा हेमा मालिनी और जया भादुड़ी जैसे कलाकार थे। जबकि, संतोषी मां में कोई भी ऐसा कलाकार नहीं था, जिसे दर्शक पहले से जानते हों। 'शोले' की निर्माण लागत करीब 30 करोड़ आंकी गई, जबकि 'जय संतोषी मां' कुछ लाख में बनी थी। कुछ दिन बाद जैसे चमत्कार हो गया। 'शोले' ने धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ी, उधर 'जय संतोषी मां' की लोकप्रियता ने आसमान फाड़ दिया। वास्तव में ये चमत्कार ही तो था। ऐसा चमत्कार जो दोबारा नहीं हुआ। बॉक्स ऑफिस के नजरिए से आकलन किया जाए, तो 'जय संतोषी मां' कमाई के मामले में 'शोले' से बहुत आगे थी। क्योंकि, 'शोले' का बजट ज्यादा था, इसलिए उसकी कमाई को भी उसी हिसाब से देखा जाएगा। उसके सामने 'जय संतोषी मां' बहुत कम बजट में बनी थी, तो उसकी कमाई का आकलन भी कई गुना ज्यादा था। इतना कि आज भी उस रिकॉर्ड को कोई तोड़ नहीं सका।                     
      'जय संतोषी' मां ने फिल्म के जानकारों की धारणा बदल दी थी। क्योंकि, फिल्म की पहले शो की बिक्री 56 रुपए  दूसरे में 64 और शाम के शो की कमाई 98 रुपए रही थी। नाइट शो का कलेक्शन मुश्किल से सौ रुपए हुआ था। लेकिन, सोमवार की सुबह जो हलचल शुरू हुई, उससे सब चमत्कृत थे। जिस भी थियेटर में फिल्म लगी, वहां दर्शक टूट पड़े। शो के बीच में उछाली गई चिल्लर बटोरकर थियेटर की सफाई करने वाले मालामाल हो गए। इस फिल्म ने अपनी लागत से कई गुना बिजनेस करके 'शोले' जैसी फिल्म को टक्कर दी थी! दोनों फिल्मों के कथानक में विरोधाभास था। इसके बावजूद 'जय संतोषी माँ' का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन 'शोले' के मुकाबले ज्यादा था! 'शोले' में गब्बर सिंह की गोलियां खून बिखेर रही थी, जबकि 'जय संतोषी माँ' में दर्शक सिनेमाघर में आरती गा रहे थे। दर्शकों ने इसे फिल्म की तरह नहीं लिया, बल्कि सिनेमाघर को मंदिर की तरह पूजने लगे थे। दर्शक हॉल में चप्पल-जूते पहनकर नहीं आते! श्रद्धा इतनी उमड़ती थी, कि आरती के वक़्त लोग सीट से खड़े होकर तालियां बजाते और सिक्के चढ़ाने लगते थे! गांवों और शहरों में हर जगह श्रद्धा का सैलाब उमड़ पड़ा था। संतोषी माता की व्रत कथा सुनी और सुनाई जाने लगी! गुड़-चने का प्रसाद बंटने लगा। 
    दर्शकों के लिए ‘जय संतोषी माँ' एक धार्मिक फिल्म नहीं, बल्कि जीवन को प्रभावित करने वाला प्रसंग था। यह सब देश के सैकड़ों छोटे शहरों और गांवों में महीनों तक दोहराया गया। पहली बार निर्देशक बने विजय शर्मा की इस फिल्म ने जो इतिहास बनाया, वो आजतक नहीं टूटा। 1975 की ट्रेड गाइड की सालाना रिपोर्ट में ‘जय संतोषी मां' और ‘शोले' को ‘दीवार' से ऊपर ब्लॉकबस्टर का दर्जा मिला था। कई शहरों में इस फिल्म ने गोल्डन और सिल्वर जुबली मनाई। 'फिल्म इन्फॉर्मेशन पत्रिका' के अनुसार, बंबई के मलाड में महिलाओं के लिए सुबह 9 बजे का अलग शो शुरू किया गया था। इस फिल्म का असर सिर्फ कमाई तक सीमित नहीं था। ‘जय संतोषी मां' ने फिल्मों के कमजोर पड़ते बाजार में नई जान फूंकी थी। फिल्म में संतोषी माता का किरदार निभाने वाली अनीता गुहा ने एक इंटरव्यू में अपना अनुभव साझा किया था। इसके मुताबिक मुंबई के बांद्रा में माइथोलॉजिकल फिल्मों का मार्केट नहीं था, वहां ऐसी फिल्में नहीं चलती थीं। लेकिन, ‘जय संतोषी मां’ उसी इलाके के सिनेमाघर में 50 हफ्तों तक चली।  
    अब जिक्र हिंदी सिनेमा की कल्ट फिल्म 'शोले' का। यह ऐसी फिल्म है, जिसे पचास साल पहले से आजतक हर वर्ग के दर्शक ने सराहा। सलीम-जावेद की जोड़ी की लिखी यह फिल्म 204 मिनट लंबी है। इसमें सितारों की लम्बी चौड़ी फौज है, जिनमें  संजीव कुमार, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी, अमजद खान, हेलेन, सचिन, एके हंगल, विजू खोटे, मैक मोहन, सहित कई कलाकार शामिल है। फिल्म के लिए हैदराबाद के नजदीक पूरा एक गांव रामगढ़ बसाया गया था जो आज भी अस्तित्व में है। फिल्म का संगीत आरडी बर्मन ने तैयार किया था और इसे 70 एमएम और स्टीरियोफोनिक साउंड में फिल्माया गया था। दरअसल, 'शोले' जैसी फिल्म बनाना आसान नहीं था। रमेश सिप्पी ने इस फिल्म की मेकिंग का किस्सा एक इंटरव्यू में बताया, जो भी अपने आप में अविश्वसनीय कहा जाएगा।
      रमेश सिप्पी के मुताबिक 'शोले' की रायटर जोड़ी सलीम-जावेद एक दिन उनके पास आए, तब वे एक फिल्म की शूटिंग में बहुत व्यस्त थे। उन्होंने कहा कि एक कहानी है, जरा सुन लो। मैंने कहा कि बाद में सुनूंगा तो दोनों बोल पड़े, अभी सुनना पड़ेगी। बस दो मिनट का टाइम चाहिए। मेरे हां कहते ही दोनों ने कहानी सुनाना शुरू कर दी। उन्होंने पूरी कहानी वाकई में दो मिनट में सुना दी। रमेश सिप्पी को भी कहानी अच्छी लगी। 'शोले' की कहानी फायनल करने के लिए सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी दो महीने से ज्यादा समय तक एक ही कमरे में रहे। न दिन देखा न रात। फिल्म के एक-एक हिस्से और सीन के बारे में विचार शुरू किया गया। तीनों बार-बार कागज फाड़ते और नए सिरे से लिखते। आखिरकार तीनों की मेहनत रंग लाई और 'शोले' की पूरी स्क्रिप्ट पूरी कर ली गई। सिप्पी ने बताया कि जब हमने अमजद खान को लेकर गब्बर सिंह की शूटिंग शुरू की, तो सबसे बड़ी परेशानी यह आई कि गब्बर की दहशत को कैसे दिखाया जाए, ताकि दर्शक भी सिहर जाएं। संगीतकार आरडी बर्मन साहब ने अमजद खान के अपीयरेंस के लिए एक खास तरह का बैकग्राउंड म्यूजिक भी रचा। 
     गब्बर की डाकू वाली वर्दी वगैरह सब कुछ का इंतजाम कर लिया गया। मगर जब वह पहली बार परदे पर आता है, तो पहाड़ी पर चलते हुए उसके साथ एक बेल्ट से भी चट्टान से टकराते हुए एक खौफनाक आवाज निकलती है। इसके लिए हमें बहुत ही परेशानी उठानी पड़ी। गब्बर के लिए खास बेल्ट की तलाश शुरू हुई। मुंबई के भंगार बेचने वालों के यहां  जा-जाकर पुरानी बेल्ट की तलाश करनी शुरू कर दी। खोज करीब एक हफ्ते तक चली। पूरे मुंबई से करीब 200 बेल्ट जुटाए। इसे लेकर शूटिंग वाली जगह पर लेकर आए। जब बेल्ट को अमजद खान को दिया और उनसे चट्टान पर चलते हुए बेल्ट को घसीटने के अंदाज में चलते। जब अमजद खान उस बेल्ट को लेकर चलते, तो उससे खास किस्म की खौफनाक आवाज आती। उनका डायलॉग था 'कितने आदमी थे!'
    ये दोनों फ़िल्में इसलिए भी यादगार बन गई, क्योंकि दोनों फिल्मों का दर्शक वर्ग बिल्कुल अलग था। 'शोले' को हिंदी फिल्मों के ऐसे शौक़ीन दर्शकों ने पसंद किया जिन्हें फार्मूला फ़िल्में पसंद थी। इसके अलावा धर्मेंद्र, अमिताभ और संजीव कुमार के अलावा हेमा मालिनी जैसे कलाकारों को पसंद करने वालों की भी लंबी फ़ौज थी। आपातकाल के उस दौर में ऐसी फ़िल्में बनना आसान नहीं था, फिर भी फिल्म बनी और चली। जबकि, 'जय संतोषी मां' के दर्शकों में महिलाओं की संख्या ज्यादा रही। ग्रामीण इलाकों में तो इस फिल्म ने तूफान मचा दिया था। वास्तव में यह फिल्म मनोरंजन का माध्यम न होकर आस्था का सैलाब था। एक ध्यान देने वाली बात यह भी कि 'शोले' और 'जय संतोषी मां' ने एक दूसरे की सफलता को कहीं प्रभावित नहीं किया और न दर्शक ही छीने। दोनों फिल्मों को पसंद करने वाला वर्ग भी अलग था। लेकिन, व्यावसायिक सफलता के मामले में 'जय संतोषी मां' का पलड़ा भारी रहा। क्योंकि, कम बजट में बनी फिल्म का कमाई का आंकड़ा बहुत ज्यादा था। खास बात यह कि आज भी इन दोनों फिल्मों को याद किया जाता है।               
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