कालजयी फ़िल्में वे होती है , जिनमें कलात्मक रूप से उत्कृष्टता हों। वे सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन ही नहीं करती, ये फिल्में ऐसे विषयों से जुड़ी होती हैं, जो मानवीय अनुभव के विभिन्न पहलुओं को सामने लाने का माध्यम भी बनती हैं। इनकी प्रासंगिकता तात्कालिक नहीं होती। ये दशकों बाद भी दर्शकों से जुड़ने में सक्षम होती हैं। कारोबारी रूप से सफल होने और फिल्मों के कालजयी होने में बड़ा अंतर है। जरुरी नहीं कि करोड़ों कमाने वाली फिल्में बाद में भी याद रखी जाए। बॉक्स ऑफिस पर कारोबारी सफलता ध्यान केंद्रित करती हैं, पर सबसे बड़ी सफलता है किसी फिल्म का कालजयी होना।
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- हेमंत पाल
फिल्मों की कमाई का कुछ अलग ही अर्थशास्त्र है। आजकल उसी फिल्म को हिट माना जाता है, जो कमाई में करोड़ों का आंकड़ा पार कर ले। लेकिन, फिल्म की कमाई का सीधा सा अर्थशास्त्र यह है कि फिल्म की कुल लागत जिसमें निर्माण से लगाकर मार्केटिंग तक शामिल है उसके बाद कोई फिल्म जितना बिजनेस करती है, उस हिसाब से उसकी कमाई का आकलन किया जाता है। समझने वाली बात ये है कि फिल्म की लागत जितनी कम होगी, उसकी सफलता की संभावना उतनी ज्यादा होगी। लेकिन, करोड़ों की लागत में बनी फिल्मों के साथ रिस्क ज्यादा होती है। यदि दर्शकों ने उन्हें नकार दिया तो सारी निर्माण लागत भी पानी में चली जाती है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि 'आदी पुरुष' की निर्माण लागत 'आदि पुरुष' फिल्म का कुल बजट करीब 500 से 700 करोड़ रुपए था। लेकिन, फिल्म की कमाई कुल मिलाकर लगभग 340-388 करोड़ रुपए हुई। इससे मेकर्स को भारी नुकसान उठाना पड़ा। जबकि, 'सैयारा' फिल्म के निर्माण का बजट लगभग 30-45 करोड़ है और इसने 450 करोड़ से ज्यादा की कमाई की। इसे एक बड़ी व्यावसायिक सफलता माना जा सकता है।
सबसे बड़ा सवाल यह कि इतनी निर्माण लागत और कमाई के बावजूद ये फ़िल्में क्या साल-दो साल भी याद की जाएंगी! शायद नहीं, क्योंकि फ़िल्में उनकी महंगी निर्माण लागत या कमाई से नहीं, बल्कि उनके कथानक, निर्देशन और कलाकारों के अभिनय से याद रखी जाती है। यही कारण है कि कई दशकों बाद भी कागज के फूल, मदर इंडिया, मुग़ल-ए-आजम, बॉबी, शोले और दीवार जैसी फिल्मों को आज भी दर्शक याद करते हैं। कई बार फिल्म के व्यावसायिक रूप से सफल न होने के बाद भी उन्हें कथानक की वजह से याद किया जाता है जैसे 'मेरा नाम जोकर' और 'सिलसिला।' मसला फिल्मों की कारोबारी सफलता और उनके कालजयी होने का है! क्योंकि, सौ साल से ज्यादा लंबे फिल्म इतिहास में आज भी ऐसी फ़िल्में उंगली पर गिनी जा सकती है, जो हर दौर में पसंद की जाती है। 'कालजयी' का मतलब है, समय के साथ अपनी प्रासंगिकता और महत्व को बनाए रखना। जबकि, फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सिर्फ कमाई करती हैं। कई फिल्में जो कमाई करती हैं, व्यावसायिक रूप से सफल होती हैं, लेकिन उनकी कहानी या कलात्मकता ऐसी नहीं होती कि उन्हें समय के साथ याद रखा जाए। वहीं, कुछ फिल्में कम बजट में बनीं और कालजयी हुईं।
करोड़ों का कारोबार करने वाली फिल्में कालजयी इसलिए नहीं बन पाती। क्योंकि, बॉक्स ऑफिस पर सफलता व्यावसायिक पहलुओं जैसे मार्केटिंग, प्रचार और दर्शकों की तात्कालिक पसंद पर निर्भर होती है। जबकि, कालजयी फिल्में समय की कसौटी पर खरी उतरने वाली कला, गहराई और स्थायी सामाजिक प्रासंगिकता से जन्म लेती हैं। बॉक्स ऑफिस पर हिट अक्सर एक विशिष्ट समय की प्रवृत्ति होती है, जो समय के साथ धुंधली हो सकती है। लेकिन, कालजयी फिल्में सार्वभौमिक मानवीय भावनाओं, विचारों और सामाजिक बदलावों को पकड़ती हैं, जो उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी प्रासंगिक बनाती हैं। दरअसल, बॉक्स ऑफिस सफलता के कारक अलग ही हैं। आज के दौर में फिल्में अक्सर बड़ी उम्मीदों और भव्य प्रचार के साथ रिलीज होती हैं, जो तत्काल टिकट-बिक्री को बढ़ाती हैं। उनकी मार्केटिंग और प्रचार का भी आभामंडल रचा जाता है। यही दर्शकों को आकर्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन ये हर बार सफल नहीं होता, इसलिए कि ये तात्कालिक हो सकते हैं।
कालजयी फिल्में समय काल के सामाजिक रुझानों, तकनीक नवाचारों या विशिष्ट जनसांख्यिकी को पूरा करती हैं, जो समय के साथ बदल भी सकती हैं। यदि फिल्मों को कालजयी बनाने वाले तत्वों की बात की जाए, तो उनमें कलात्मक गुणवत्ता बेहद जरुरी है। कई व्यावसायिक फिल्में तकनीकी या कलात्मक गहराई की कमी दिखाती हैं। प्रासंगिकता के नजरिए से कहा जाए, तो कालजयी फिल्में सार्वभौमिक विषयों जैसे प्यार, न्याय या मानवीयता की नैतिक दुविधाओं को उजागर करती हैं, जो किसी भी समय में दर्शकों के साथ जुड़ जाती हैं। ऐसी फिल्में जो समाज में गहराई से जुड़ती हैं, महत्वपूर्ण सामाजिक बदलावों को प्रेरित करती हैं या मानवीय अनुभव की नई व्याख्या प्रस्तुत करती हैं और वे लंबे समय तक याद रखी जाती हैं। ऐसी कई फिल्में हैं, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर करोड़ों कमाए, लेकिन कुछ सालों बाद उन्हें भुला दिया गया है, क्योंकि वे किसी विशेष समय की उपज थीं। दूसरी और ऐसी फिल्में भी हैं जिन्होंने रिलीज के समय बड़ी कमाई नहीं की, लेकिन अपनी कलात्मक गुणवत्ता, कहानी और स्थायी विषयों वाले कथानक की वजह से आज भी याद की जाती हैं और देखी जाती हैं।
यदि हिंदी सिनेमा की कला को गहराई देने वाली कालातीत फिल्मों का जिक्र किया जाए तो 'मदर इंडिया' (1957) जो एक विधवा मां के जीवन की पीड़ा पर आधारित है। इसमें ऐसी मां का संघर्ष को दिखाया गया, जो सामाजिक अन्याय और गरीबी से लड़ते हुए अपने बच्चों का पालन-पोषण करती है। 1977 में आई 'शतरंज के खिलाड़ी' (1857) विद्रोह की पृष्ठभूमि में मानवीय संबंधों को दर्शाया है। सत्यजीत रे की निर्देशित यह फिल्म सिपाही विद्रोह के दौरान दो नवाबों के निजी जीवन और उनके शतरंज के खेल पर आधारित है। 1981 की रेखा की फिल्म 'उमराव जान' (1981) जैसी फिल्म जो एक वैश्या के जीवन की जटिलताएं दिखाती है। यह फिल्म दुखद प्रेम कहानी और उसके जीवन की चुनौतियों वाली कहानी है। ऐसी ही एक कालजयी फिल्म 2001 में आई आमिर खान की 'लगाान' भी है। इसमें गांव वाले अंग्रेजों से क्रिकेट खेलकर और जीतकर अपना लगान माफ़ करवाते है। ऐसी ही एक फिल्म 'पीकू' (2015) है जिसमें पिता-पुत्री के रिश्ते को अनोखे अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है। एक पिता और बेटी के रिश्ते पर आधारित यह फिल्म, उनके अनोखे और हास्यप्रद यात्रा का दस्तावेज है। ये वे फ़िल्में हैं, जो सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करतीं, बल्कि मानवीय भावनाओं, सामाजिक मुद्दों और मानवीय रिश्तों की गहरी समझ को भी प्रस्तुत करती हैं, जिससे वे हमेशा के लिए कालातीत बन जाती हैं।
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