Sunday, December 6, 2015

जीत से उत्साहित कांग्रेस के सामने नई चुनौती है मैहर!

- हेमंत पाल 

  कांग्रेस में इन दिनों उत्साह का माहौल है! लग रहा है जैसे रतलाम-झाबुआ का लोकसभा उपचुनाव जीतकर पार्टी ने कोई बड़ी राजनीतिक जंग जीत ली हो! बधाइयों के दौर चल रहे हैं! कुर्ते-पायजामे फिर कलफ लगकर निकल आए! हर कांग्रेसी नेता को लग रहा है कि अब ज्यादा दिल्ली दूर नहीं! वैसे, जिस तरह कांग्रेस पिछड़ रही थी, ये जीत बहुत मायने रखती है! लगातार कई चुनाव हारने के बाद इस लोकसभा सीट के उपचुनाव की जीत ने पार्टी के लिए रामबाण औषधि का काम किया! ये जीत सिर्फ पार्टी के लिए ही नहीं, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के लिए भी संजीवनी बूटी साबित हुई! अरुण पर पिछले कुछ दिनों से बदलाव की जो तलवार लटकी थी, वो कुछ दिन लिए टल गई लगती है! झाबुआ उपचुनाव के बाद उस आशंका पर विराम तो नहीं लगा, पर आगे जरूर बढ़ गया! क्योंकि, कुछ दिन पहले कमलनाथ को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने की संभावना सामने आई थी! लेकिन, झाबुआ की जबरदस्त जीत ने अरुण यादव के कद में इजाफा तो कर ही दिया है।
  पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रदेश में मोदी लहर पूरे उफान पर थी! इस लहर में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़कर कांग्रेस के बडे-बडे नेता धराशाही हुए! इसी आंधी में कांग्रेस की झाबुआ सीट भी हाथ से चली गई थी! वहीं, उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव, निगम चुनाव, पंचायत चुनाव और उप चुनावो में लगातार कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पडा! लेकिन, बिहार चुनाव के बाद जो माहौल बदला और नरेंद्र मोदी लहर ठंडी पड़ी! बिहार में कांग्रेस को अच्छी सीटें मिली, तो प्रदेश भी उसका असर दिखाई दिया! फिर देवास विधानसभा सीट और रतलाम-झाबुआ लोकसभा सीट का उपचुनाव हुआ! कांग्रेस के खाते में रतलाम-झाबुआ की लोकसभा सीट आई! यह जीवनदान देने वाली जीत साबित हुई! क्योंकि, यहाँ कांतिलाल भूरियां 88 हजार वोटों से विजयी हुए जो पहले एक लाख 8 हज़ार वोटों से हारे थे! अब कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस पर छाया हार का कुहासा छंटने लगा है। निराशा के दिन अब दूर हो चुके हैं! इस सबसे सबसे बड़ा फ़ायदा ये हुआ कि कांग्रेस कार्यकर्ताओ में एक नए जोश का संचार हो गया!
   इस जीत से सबसे ज्यादा उत्साहित अरुण यादव एंड कंपनी है, जिसकी चलाचली की बेला थी! जब से अरुण को मध्यप्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी गई थी, वे कोई चमत्कार नहीं कर पा रहे थे! नगर निगम, नगर पालिका, पंचायत से लेकर अधिकांश उपचुनाव में पार्टी की हार के बाद माना जा रहा था कि अब अरुण यादव  विकेट भी किसी दिन गिरने वाला है! यदि रतलाम-झाबुआ उपचुनाव कांग्रेस के खाते में नहीं जाता तो अरुण यादव का जाना लगभग तय ही था! इसलिए कि चुनावों में लगातार हार के बाद कांग्रेस का एक बड़ा धड़ा अरुण के खिलाफ लामबंद हो गया था! तीन महीने पहले जब प्रदेश कांग्रेस की नई प्रदेश कार्यकारिणी बनी थी! तब भी विरोधियों का एक बड़ा खेमा उसके खिलाफ खड़ा हो गया था! पार्टी के बड़े नेताओं की कार्यकारिणी से विदाई को लेकर मचे घमासान से अरुण यादव भी बैकफुट पर थे! एक बार तो लगा भी था कि शायद नई कार्यकारिणी को भंग करके नई समिति के गठन का फैसला न करना पड़े! पार्टी के कई नेता तो खुलकर पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ खड़े हो गए थे! जबकि, कई दिग्गज पीछे से शह दे रहे थे! शायद यही वजह थी कि उसी दौरान सुस्त और निष्क्रिय जिला अध्यक्षों को हटाने और नए अध्यक्षों की नियुक्ति की सूची को जारी करने से रोक लिया गया! इंदौर, ग्वालियर, रायसेन, दमोह, सीहोर, राजगढ़, डिंडोरी, उज्जैन और रीवा में कांग्रेस के जिला अध्यक्षों का बदलना तय माना जा रहा था! पर, सब थम गया! क्योंकि, अरुण यादव को उनके सलाहकारों ने दो कदम पीछे हटने की सलाह दी! नई प्रदेश कार्यकारिणी को लेकर उपजे विरोध के सुरों के बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया और अजय सिंह के बयान भी सामने आए! उसके बाद जिला अध्यक्षों की सूची इसलिए रोक ली गई है कि कोई और नया विवाद न पनपे!
   अब ये मान लेना कि रतलाम-झाबुआ की जीत से अरुण यादव सुरक्षित हो गए हैं और अब उन्हें बदले जाने के आसार ख़त्म हो गए हैं, ये सोचना जल्दबाजी होगी! इसलिए कि कहीं न कहीं पार्टी दिग्गजों को ये पाठ पढ़ाने वाले भी सक्रिय हैं कि ये जीत कांतिलाल भूरिया की अपनी निजी पकड़ और मोदी-आँधी के ठंडा पड़ने के कारण हुई! यदि वास्तव में कांग्रेस मजबूत होकर उभर रही है, तो देवास उपचुनाव की सीट भी कांग्रेस की झोली में जाना थी! देवास में भाजपा की लीड तो करीब बीस हज़ार घटी, पर सीट पर पार्टी का कब्ज़ा बरक़रार रहा! ख़बरों पर भरोसा किया जाए, तो दिल्ली में कमलनाथ की ताजपोशी का माहौल बनने लगा है! ये बात जरूर है कि जो घोषणा जल्दी होने के आसार थे, वो थोड़ी टल गई है! इस बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम भी प्रदेश अध्यक्ष के लिए चलाने कोशिश की गई! लेकिन, विधानसभा चुनाव में उनको प्रचार की बागडोर सौंपने से ही पार्टी को जो खामियाजा भुगतना पड़ा, वो 'सच' सामने आ गया! उनके सामंती अंदाज के किस्से और किसी से सलाह न लेने की आदत के कारण शायद पार्टी ने ये प्रयोग करने से परहेज किया!
  रतलाम लोकसभा सीट भाजपा से छीनने के बाद कांग्रेस अब पूरा जोर मैहर विधानसभा सीट को अपने पास रखने लिए लगाएगी! अरुण यादव का ध्यान अब पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश फूंकने और पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में रहेगा! इस काम को अंजाम देने के लिए वे 15 से 20 दिसंबर के बीच 'जनविश्वास पदयात्रा' भी शुरू कर रहे हैं! ये उनकी पदयात्रा का ये चौथा चरण होगा। दरअसल, मैहर उपचुनाव अरुण यादव के लिए सबसे कड़ी परीक्षा होगी! यदि वे इस परीक्षा को पास कर लेते हैं, तो शायद पार्टी हाईकमान उनके बारे में कोई नया विचार करे! प्रदेश अध्यक्ष ने मैहर उपचुनाव को लेकर हाल ही में संगठन की और से अब तक की तैयारियों की समीक्षा भी की और कहा कि रतलाम चुनाव में कांतिलाल भूरिया की छवि के साथ कांग्रेस की एकजुटता, बड़े नेताओं की हिस्सेदारी का भी फायदा मिला। इसे मैहर उपचुनाव में भी दोहराया जाएगा। प्रत्याशी चयन में सभी की सहमति के साथ जीतने की क्षमता सबसे बड़ी भूमिका निभाएगा!
  मध्यप्रदेश में पिछडा वर्ग का कुल प्रतिशत 56 है। इनमें भी पिछडा वर्ग की कुल जनसंख्या में 7 प्रतिशत से अधिक यादव है। जब अरुण यादव को पार्टी की कमान सौंपी गई थी, तब कांग्रेस इस फॉर्मूले पर काम कर रही थी कि मध्यप्रदेश में अध्यक्ष लेकर सभी प्रयोग हो गए, क्यों न ओबीसी कार्ड भी खेला जाए! इसलिए कि भाजपा ने बारह साल के शासन में तीन मुख्यमंत्री उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह चौहान कुर्सी सौंपी और तीनों ही ओबीसी से आते हैं। अरुण यादव के बहाने कांग्रेस का इसी वोट बैंक में जनाधार बढ़ाने का प्रयास था! पर, अभी तक ऐसा नहीं लगा कि कार्ड से तुरुप का कोई इक्का निकला हो! झाबुआ की जीत से उत्साहित होना तो कांग्रेस का हक़ है, पर इसे यदि मैहर में दोहराया नहीं गया, तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा!
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