Sunday, December 13, 2015

टीवी के परदे का सजा सुसंस्कृत समाज



हेमंत पाल 

   एक सुसंस्कृत समाज की जो कल्पना हमारे दिल में होती है, वो उस टीवी वाले समाज से बिल्कुल अलग होता है, जो सीरियलों में दिखाई जाती है। आजकल हर टीवी सीरियल में ऐसा परिवार दिखाए जाने का चलन है, जिसमें सामंजस्य को छोड़कर षड्यंत्रों और साजिशों का जाल बिछा होता है। हर परिवार की कोई एक बहू खलपात्र की तरह परिवार को तोड़ती है। दूसरी संस्कारित, शोषित और पीड़ित होती है। एक स्त्री परिवार की गरिमा और अस्मिता को ताक में रखने का कई मौका नहीं छोड़ती! दूसरी उसे रोकने या उसकी गलतियों को ढांकने की कोशिश करती रहती है। एक स्त्री कई पुरूषों से संबंध रखती है, एक से अधिक बार विवाह करती है और वो सारे कर्म करती है, कभी फिल्मों में जो चरित्र अजित और अमजद खान जैसे खलनायक करते थे! ये भूमिका हर टीवी सीरियल में आजकल स्त्री पात्र कर रही हैं! इस तरह के चरित्रों के बिना तो आजकल सीरियल की कहानी ही पूरी ही नहीं होती! 
   भारतीय संस्कृति में स्त्री की सोच क्या यही है? जबकि, स्त्री को तो हमारे समाज में ममता की मूर्ति कहा जाता है। भारतीय स्त्री एक मकान को घर बनाती है, घरों को तोड़ती नहीं! लेकिन, आज के टीवी सीरियलों में स्त्री के मूल चरित्र को किनारे करके अलग ही पहचान बनाने की कोशिश की जा रही है। भारतीय स्त्री की गरिमा को ताक में रखकर उसे बिकाऊ बनाने वाले फार्मूले की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है! इसका एक पहलू ये भी है कि कुछ टीवी सीरियलों में महिलाओं की प्रताड़ना को सफलता का आधार बनाया जा रहा है! एक तरफ देश में महिला सशक्तिकरण को लेकर शोर हो रहा है, महिलाओं के सम्मान की रक्षा पर आवाज तेज होने लगी है! लेकिन, टीवी सीरियल या तो महिलाओं को पीड़ित शोषित और प्रताड़ित होते दिखा रहे हैं या उसे साजिशों का सूत्रधार दर्शा रहे हैं! वक़्त के साथ स्थितियां बदली हैं! लेकिन, सीरियल अभी भी सामाजिक और पारिवारिक साजिशों के कुचक्र से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं! इनमें शोषण करने वाली महिलाएं भी हैं और  और शोषित होने वाली भी। देखा जाए टीवी के ये सीरियल बरसो से चली आ रही परंपराओं और संस्कारों के नाम पर दमन और साजिशों को हवा ही दे रहे हैं। 
   जब टीवी पर सीरियलों का चलन शुरू हुआ, तब से वह मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय माध्यम बन गया! चैनलों की संख्या बढ़ने के साथ ही सीरियलों का रूप भी बदल गया। उनमें संपन्नता और ग्लैमर का रंग भरने लगा। तभी से टीवी सीरियलों में बेतुकी पारिवारिक स्थितियां गढ़कर उन्हें महीनों और सालों तक घसीटने का सिलसिला शुरू हो गया। जबकि, शुरू में सीरियलों की समय अवधि आम तौर पर तय होती थी। ऐसी स्थिति में सबसे आसान होता है कथानक को परिवार और महिलाओं पर केंद्रित कर दिया जाए! ज्यादातर सीरियलों में महिला किरदार कामकाजी न होकर गृहणी के रूपे में गढे जाते हैं। घरों में होने वाली उठापटक काफी तड़क-भड़क  के साथ परोसी जाती है। जिनमें महिला किरदार अहम भूमिका निभाते नजर आते हैं। इन सीरियलों में परंपरा के नाम पर मनगढंत कथानक परोसा जा रहा है। फिर आधारहीन कल्पनाशीलता के नाम पर इनमें कई गैर जिम्मेदाराना बातें दिखाई जाती हैं। हद से ज्यादा खुलापन और और सामाजिक रिश्तों की मर्यादा से खिलवाड़ आज के हर सीरियल की कहानी का हिस्सा है। आश्चर्य इस बात का कि यह सब कुछ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के नाम पर पेश किया जा रहा है। जिसका विचारों और संस्कारों पर गहरा असर पड रहा है। बहुत से सीरियलों में विवाहेत्तर संबंधों को प्रमुखता से दर्शाया जाता है। 
  भारतीय भाषा और साज सज्जा में दिखाये जाने वाले महिला पात्रों को व्यवहारिक स्तर पर ऐसे कुटिल, कपटी और षडयंत्रकारी रूप में टेलीविजन के पर्दे पर उतारा जा रहा है, जो हकीकत के सांचे में फिट नहीं बैठते। विवाह संस्कार हमारी सामाजिक संस्कृति की सबसे बड़ी खासियत रही है। जबकि, इन सीरियलों में शादी जैसे गंभीर विषय को भी मनमाने ढंग से दिखाया जाता है। भारतीय सभ्यता ,संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर दिखाई जा रही ये कहानियां परंपरागत मान्यताओं, अवमूल्यन और सामाजिक सांस्कृतिक विकृति को जन्म दे रही है। 
   बड़े-बड़े घरों में आलीशान रहन-सहन और हर वक्त गहनों से सजी, धजी रहने वाली महिला किरदारों की जीवन शैली एक आम औरत को हीनभावना और उग्रता जैसी सौगातें दे रही है। इन सीरियलों में पारिवारिक संस्कारों की तो बहुत सी बातें कही जाती है, पर पात्रों की जीवन शैली और दिखाई जाने वाली घटनाओं का देखकर महसूस होता है कि इनके जरिए कुछ नई धारणाएं, नए मूल्य गढ़े जा रहे हैं। ऐसे मूल्य जिनका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं होता! 
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