मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपने ही अफसरों के कामकाज के तरीकों और अहंभाव से नाराज हैं! ये बात अब किसी से छुपी नहीं रही! एक मंच से उन्होंने अपनी नाराजी का अहसास भी करवा दिया! मुख्यमंत्री ने न सिर्फ कामकाज पर टिप्पणी की, बल्कि उनकी 'साहबी' पर भी ऊँगली उठाई! खुद को 'परमानेंट' समझने की भावना की भी जमकर चीरफाड़ कर डाली! शिवराज सिंह की ये नाराजी लाजमी है! पर, ये हालात आए कैसे और इन्हें कौन लाया? इन सवालों के जवाब ढूँढना भी जरुरी है। दरअसल, किसी भी व्यवस्था पर नौकरशाही तभी हावी होती है, जब उसे व्यवस्था की खामियां पकड़ में आ जाती है! मध्यप्रदेश में भी यही सब हुआ! एक बात ये भी है कि नौकरशाहों को ट्रेनिंग के दौरान जिस तरह की शिक्षा दी जाती है, वो भी उनके इस अहंभाव का बड़ा कारण है! उन्हें 'राजा' की तरह व्यवहार करने और लोगों को 'प्रजा' समझने की शिक्षा भी उनकी 'साहबी' का बड़ा कारण है! जब तक अंग्रेजों राज से चली आ रही इस पद्धति में सुधार नहीं होगा किसी बड़े बदलाव उम्मीद करना बेमानी है।
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- हेमंत पाल
सरकार के मुखिया और प्रशासन के बीच का सामंजस्य ही किसी सरकार की सफलता का मूलभूत आधार होता है। प्रशासन के अधिकारी मुख्यमंत्री के इशारों को जितना गंभीरता से लेंगे और उसे कार्यरूप में बदलेंगे, उतनी ही सरकार सफल होगी! लेकिन, लगता है मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और अफसरों के बीच का तालमेल कहीं न कहीं गड़बड़ा गया है! इसीलिए वे अफसरों के व्यवहार से नाखुश हैं। 'सिविल सर्विस डे' के मौके पर उन्होंने अफसरों को हिदायत देते हुए घमंड त्यागने की सलाह दी! मुख्यमंत्री ने ये भी कहा कि वे सरकार को 'टेम्पररी' और खुद को 'परमानेंट' समझने की मानसिकता छोड़ें! यहाँ तक टिप्पणी की कि अहंकार में अफसर ये भी भूल जाते हैं कि वे 'सेवक' हैं। अफसरों को यह अहसास भी कराया कि वे एक 'सामान्य आदमी' हैं। क्योँकि, वे ही नहीं समाज के विकास के लिए और लोग भी बेहतर सोच रखते हैं!
उन्होंने दिलीप कुमार की एक फिल्म का गाना 'साला मैं तो साहब बन गया ... ' भी गुनगुनाकर अपनी भावना व्यक्त की! कहा कि आप लोग अपने अंदर से इस भाव को निकाल दीजिए! अफसरों के पास जो अधिकार है, उसका सही उपयोग किया जाए! मुख्यमंत्री ने अपनी नाराजी व्यक्त करते हुए ये भी कहा कि जिसे अधिकार मिल जाता है, वह उसका प्रदर्शन करने से नहीं चूकता! 'साहब' के चैम्बर के बाहर बैठा चपरासी भी मिलने आए व्यक्ति को अपनी 'साहबी' का अहसास करवाता है, जो नहीं होना चाहिए! अपने 35 मिनट के संबोधन में मुख्यमंत्री ने 25 मिनट तक अफसरों को उनकी 'साहबी' का अहसास कराया! बीच-बीच में गीता के श्लोक सुनाकर उन्हें देश और के विकास में सहयोग देने के लिए प्रेरित किया। कहा कि कई अफसर ईमानदारी का ढोल बजाकर काम को इतना पैचीदा बना देते हैं कि उसे बाद वाले अधिकारी को उसे सुलझाने में पसीना आ जाता हैं। फिर सवाल खड़ा होता है कौन कलम फंसाए, इससे तो भगवान बचाए!
मुख्यमंत्री की ये चिंता और हिदायतें सामान्य नहीं हैं! सरकार के मुखिया के रूप में उन्होंने अफसरों को जिस भाषा में अंदाज में सलाह दी है, वो एक गंभीर मसला है! जबकि, शिवराज सिंह के बारे में अकसर कहा जाता है कि वे नौकरशाही पर काबू करने में नाकाम रहे हैं। उनके राज में अफसर कुछ ज्यादा ही निरंकुश और लापरवाह गए! पार्टी के भीतर भी कहा जाता है कि वे नौकरशाही के प्रति बेहद लचीले हैं। यही कारण है कि अफसर पूरी व्यवस्था पर हावी हो गए। लेकिन, अपनी छवि के विपरीत मुख्यमंत्री ने जिस तरह के तेवर दिखाए, वो समझ से परे है! उन्होंने अफसरों को साफ़ शब्दों स्पष्ट रूप से समझा दिया कि जनता हित के वाले कामकाज में अड़ंगेबाजी ना करें! ये भी एक तरह का अपराध ही है। मुद्दे की बात ये है कि मुख्यमंत्री ने अफसरों को ये हिदायतें बंद कमरे में न देकर सार्वजनिक रूप से दी! ऐसा करके उन्होंने ये दर्शा भी दिया कि कहीं न कहीं वे भी नौकरशाही में व्याप्त कथित श्रेष्ठता के अहंभाव से आहत हैं!
इस सबके पीछे एक कारण ये भी है कि राजनीतिक कारणों से लिए जाने वाले कई फैसलों के अमल में भी नौकरशाही अड़ंगे लगाती रही है। जब ये बात बाहर आती है, तो ऊँगली सरकार के मुखिया पर उठती है और उनकी योग्यता पर शंका की जाती है! इस कारण व्यवस्था से भी लोगों का भरोसा उठता है। मुख्यमंत्री ने अपनी नाराजी में 'कन्यादान योजना' का भी जिक्र किया। कहा कि मुख्यमंत्री बनने के बाद जब मैनें अफसरों को यह आइडिया दिया तो उन्होंने इसे तत्काल खारिज कर दिया! अफसरों का कहना था कि विवाह कराना सरकार का काम नही है। कुछ ऐसा ही रवैया 'लाड़ली लक्ष्मी योजना' के बारे में भी था! लेकिन, आज ये दोनों ही योजनाएं प्रदेश में तो सफल हुई ही है, केंद्र और कई अन्य राज्यों में भी इसे लागू किया गया हैं।
मुख्यमंत्री की एक दिन की नाराजी से अफसरों में कोई बदलाव आएगा, ऐसा नहीं लगता! मुख्यमंत्री की चिंता स्वाभाविक और तार्किक है, पर इससे कुछ बदलेगा इस बात का अंदाजा नहीं लगता! देश में राजनीतिकों को रोज ही लोग कटघरे में खड़ा किया जाता है। लेकिन, नौकरशाही की निरंकुशता और मनमानी पर कम ही टिप्पणी की जाती है! मीडिया भी अफसरों से करीबी बनाने के लोभ से नहीं बच पाता! इसलिए कि मीडिया को भी पता है कि यही व्यवस्था स्थाई है! नेतागिरी तो आती-जाती रहती है। सरकारें तो आती-जाती रहती हैं! लेकिन, चपरासी से लगाकर चीफ सेक्रेटरी तक की नौकरी हमेशा बरक़रार रहती है। बात सही भी है! सरकार के निर्णयों को अमल में लाने और व्यवस्था के मुताबिक क्या संभव है और क्या नहीं, ये तय करने का फैसला तो वल्लभ भवन में ही होता हैं।
सवाल उठता है कि मुख्यमंत्री को कब, कहाँ और कैसे यह महसूस हुआ कि उनकी सरकार पर नौकरशाही हावी हो रही है! ऐसे में वे महज सरकार के मुखिया बनकर रह गए हैं! सरसरी तौर पर इसका कारण मुख्यमंत्री के कुछ फैसलों की फाइलों के रोके जाने से जुड़ा है। यही कारण है कि उन्होंने अफसरों की इस आदत पर भी निशाना साधा! कहा कि देखा गया है कि जरुरी फाइलें अकसर अफसरों की टेबल पर पड़ी रहती हैं। वे फाइलों पर दस्तखत करने से भी बचते हैं। अफसरों को समझना चाहिए कि फाइलों को रोकना भी एक तरह का अपराध हैं। उन्होंने नसीहत देते हुए ये भी कहा कि अफसर सरकारी नौकरी से बाहर निकलें! ढर्रे पर काम करने वाले अफसर प्रदेश पर बोझ हैं। मौका मिला है तो इसे मिशन के रूप में लेकर प्रदेश के हित में काम करें।
दूसरा कारण संघ द्वारा उठाई गई आपत्ति भी है। कुछ दिनों पहले 'संघ' के बड़े पदाधिकारियों ने भी मुख्यमंत्री को प्रदेश के अफसरों के बढ़ते अहंकार और निरंकुशता की शिकायत की थी। इसके अलावा एक कारण जो मुख्यमंत्री ने हाल ही में खुद ही महसूस कर लिया! शिवराज सिंह ने अफसरों को बिना शाही सेवाओं के सूखाग्रस्त गांवों का दौरा करने के निर्देश दिए थे! राज्य सरकार ने आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अफसरों के गांव के इस दौरे को लेकर कुछ नियम भी तय किए थे! कहा गया था कि सूखा प्रभावित इलाकों का दौरा करने वाले अफसर बिना सरकारी सेवाओं के किसानों के बीच जाएँ! विभागों का सहारा लिए बिना ही गांव का दौरा करें और वहीँ रात बिताएं! लेकिन, अफसरों ने मुख्यमंत्री के निर्देशों की अनसुनी की और लावजमें के साथ गांव पहुंचे! ज्यादातर ने तो खानापूरी के लिए दौरा किया और रात से पहले ही गांव से निकल लिए! कुछ गेस्ट हॉउस और होटलों में रुके! शिकायतें तो यहाँ तक थीं कि अफसरों ने सूखा प्रभावित गांवों के इस सरकारी दौरे को सपरिवार 'रूरल टूरिज्म' की तरह एन्जॉय किया! अफसरों की इस संवेदनहीनता को मीडिया ने भी जमकर उछाला था! तब भी मुख्यमंत्री की नाराजी सामने तो आई थी, लेकिन इतने सख्त रूप में नहीं!
संभव है उन्होंने इन सारे हालातों को समझकर ही अफसरों को अपना अहंकार छोड़ने और सरकार के निर्देशों को गंभीरता से न लेने की हिदायत दी है। देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के सात दशक बाद भी आजतक अंग्रेजी राज की नौकरशाही परंपरा को ढोया जा रहा है। क्या अभी भी वो वक़्त नहीं आया, जब नौकरशाही का भी लोकतंत्रीकरण किया जाना चाहिए? कुर्सियों पर बैठे अधिकांश अफसर अपने गुरुर में मदमस्त हैं! अधिकांश पर उनके पद का अहंकार हमेशा हावी रहता है। इन्तेहां तो तब हो जाती है, जब 'साहब' के साथ ही 'मेम साहब' और उनके बच्चे भी ये अहंकार दिखाने लगते हैं। इन हालातों में बदलाव जरुरी है। किंतु, जरूरी होगा सत्ता में बैठे नेता भी अपने आपको सुधारें! क्योंकि, उनकी सत्ता रौब की चाह ही नौकरशाही को पूरी व्यवस्था पर हावी होने का मौका देती है। दरअसल, अफसर तबके का पूरा ध्यान अपने ऐश्वर्य वाले रहन-सहन और सुरक्षित भविष्य तक सीमित रहता है। पहले आर्ट संकाय से जुड़े और प्रोफ़ेसर तबके के लोग ही प्रशासनिक सेवा में आते थे! लेकिन, अब हालात उलट गए हैं। पेशेवर सोच के हावी होने से प्रशासन में रूखापन एवं निरंकुशता दोनों बढ़े हैं। क्योँकि, अब तो डॉक्टर, इंजीनियर, मैनजमेंट, फाइनेंस और आईटी के पारंगत लोग आईएएस और आईपीएस बन रहे हैं। इस कारण प्रशासनिक सेवाओं में ग्लैमर आ गया है और सेवाभाव, संवेदनशीलता लुप्त हो गई! अब मुख्यमंत्री से तो वे अपने खून तक में पहुँच चुका अहंकार छोड़ने से रहे!
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