Friday, April 1, 2016

जनसेवकों का वेतन बढ़ा, पर क्या उतनी जिम्मेदारियां भी?


- हेमंत पाल  

    प्रदेश के विधायक, मंत्री और यहाँ तक कि मुख्यमंत्री भी अपना वेतन और भत्ते बढ़ाकर खुश हैं! शायद वे अकेले सर्व शक्तिमान ताकत हैं, जिन्हें अपना वेतन बढ़ाने के लिए किसी से पूछना नहीं पड़ता! अपना परफॉर्मेंस नहीं दिखाना पड़ता और न साबित करना पड़ता है कि उनका वेतन क्यों बढ़ाया जाना चाहिए! सवाल ये उठता है कि ये जन प्रतिनिधि क्या इस वेतन वृद्धि के योग्य हैं? क्या इन्हें इनकी जिम्मेदारी का अहसास है? और क्या जिस जनता ने इन्हें चुनकर भेज है वो इस वेतन वृद्धि को सही मानती है? मुद्दा ये है कि न तो कोई इनसे पूछने वाला है और न ये किसी के प्रति जवाबदेह हैं! हर मुद्दे पर सरकार को घेरने वाले विपक्षी विधायक भी वेतन और भत्तों के बढ़ाए जाने के मामले में अपना हाथ खड़ा करने में देर नहीं करते! अब कोई नानाजी देशमुख जैसा व्यक्ति भी नहीं है, जो जन प्रतिनिधियों ज्यादा सुख-सुविधाएँ देने को लेकर आपत्ति उठाए! 
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   मध्यप्रदेश में आर्थिक तंगी के बावजूद सरकार के मंत्री और विधायकों के वेतन-भत्ते समेत विधायक निधि बढ़ा दी गई! अभी विधायकों को 71 हजार रुपए मिलते थे। इसे बढ़ाकर 1.10 लाख रुपए कर दिया गया। विधायकों का मूल वेतन 10 हजार रुपए था, जो अब 20 हजार हो जाएगा। निर्वाचन भत्ता भी 25 हजार से बढ़ाकर 50 हजार कर दिया गया। बढ़े हुए वेतन का फायदा 1100 पूर्व विधायकों को भी मिलेगा! इसी अनुपात में मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री का वेतन भी बढ़ गया। वहीं, एक अप्रैल से विधायकों की निधि भी बढ़ गई। विधायकों को अभी क्षेत्र विकास के लिए हर साल 77 लाख रुपए और 3 लाख रुपए स्वेच्छानुदान के मिलते थे। अब यह राशि बढ़कर करीब 2 करोड़ हो गई।
  वास्तव में मंत्रियों, विधायकों का वेतन बढ़ना किसी विवाद का मुद्दा नहीं है! बहस इस बात पर होना चाहिए कि ये जन प्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी के प्रति कितने गंभीर हैं और अपना दायित्व ठीक से निभा रहे हैं या नहीं? संविधान इन जन प्रतिनिधियों को कानून बनाने का अधिकार देता है। विधानसभा की भी जिम्मेदारी नागरिकों की भलाई के लिए कानून बनाना और सरकार का नियंत्रण करना है। यह जिम्मेदारी विधानसभा के सदस्यों की होती है। वे इस जिम्मेदारी को सिर्फ हाथ उठाकर या पक्ष और विपक्ष में वोट देकर पूरा नहीं कर सकते! विभिन्न मुद्दों पर राय बनाने के लिए उसके बारे में जानकारी की जरूरत होती है। यह समय और श्रम साध्य काम है। इस काम को गंभीरता से लिया जाए, तो कोई जन प्रतिनिधि कुछ और काम कर ही नहीं पाएगा! यहाँ तक कि अपनी और अपने परिवार की आजीविका भी नहीं चला पाएगा! यही कारण है कि दुनियाभर में जनप्रतिनिधियों को पारिश्रमिक देने का रिवाज है, ताकि सिर्फ पैसे वाले लोग ही संसद और विधानसभा के सदस्य न बनें और जन प्रतिनिधित्व में निहित स्वार्थों का ही बोलबाला न हो जाए! यही कारण है कि जन प्रतिनिधियों को वेतन और सुविधाएँ दी जाती है।
  मुद्दे की बात ये भी है कि विधायकों और मंत्रियों की वेतन वृद्धि उस समय की गई जब प्रदेश सरकार पर कई हज़ार करोड़ का कर्ज है! वित्त मंत्री जयंत मलैया ने विधानसभा में अभी 4 मार्च को स्वीकार किया था कि राज्य पर 31 मार्च 2015 तक कुल कर्ज 82 हजार 261 करोड़ 50 लाख रुपए है। जबकि, इससे पहले 31 मार्च 2003 की स्थिति में ये कर्ज 20 हजार 147 करोड़ 34 लाख रुपए का कर्ज था। वित्त मंत्री के मुताबिक इसमें बाजार, केन्द्र सरकार एवं अन्य संस्थाओं से लिया कर्ज शामिल है। यह आंकड़े 31 मार्च 2015 तक के हैं। प्रदेश की आबादी सवा सात करोड़ है। इस हिसाब से प्रदेश के हर व्यक्ति पर करीब साढ़े 15 हजार रुपए का कर्ज हो गया! प्रदेश की खस्ताहाल वित्तीय हालत पर भी वित्त मंत्री जयंत मलैया ने अपनी सफाई दी! उन्होंने माना कि राज्य की माली हालत ठीक नहीं है। प्रदेश में पिछले तीन साल से लगातार पड़ रहे सूखे के चलते सरकार के राजस्व आय में भारी कमी आई! लिहाजा प्रदेश के वित्तीय हालत भी कमजोर होती जा रही है। इन हालातों के मद्देनजर सरकार ने केवल खास जरुरत के विकास कामों पर ही जोर देने का फैसला किया है। कई विकास कार्य भी रोक दिए गए। ऐसे में विधायक निधि और विधायकों और मंत्रियों के वेतन में 55% की बढ़ौतरी न्यायोचित है?
    जब देश आजाद हुआ उस वक़्त जनता और जन प्रतिनिधियों में ज्यादा फर्क नही था। ज्यादातर सांसद, विधायक और मंत्री आम लोगों जैसा ही व्यवहार करते थे! हर तरह से जनता के करीब दिखाई देते थे। लेकिन, धीरे-धीरे जन प्रतिनिधियों का रुतबा बढ़ता गया। उनके वेतन-भत्तो, सुख-सुविधाओ पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया गया! जिससे वे जनता से ऊपर उठते गए! ऐसे में जनता वहीं की वहीँ रह गई। जनप्रतिनिधियों का प्रभाव भी बढता चला गया! विकास के अलावा जनता के निजी कामकाज में भी उनका हस्तक्षेप बढ़ गया। ऐसे में जनता और उनके चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच दूरी बढ़ गई! जनता और जन प्रतिनिधियों के बीच दूरी बढ़ने का मुद्दा समाजसेवी नानाजी देशमुख ने सबसे पहले उठाया था। उन्होंने ही जन प्रतिनिधियों के निरंतर बढते वेतन, सुविधाओं आदि पर सवाल खडा किया था। आज यह स्थिति ज्यादा भयावह है। जनता की नजर में अपने ही चुने हुए प्रतिनिधि का सम्मान नहीं रहा! जबकि, इसी देश में लालबहादुर शास्त्री और अटल बिहारी वाजपेई जैसे जन प्रतिनिधि भी हुए हैं, जिन्हें आदर्श मान जाता था! आजकल तो ज्यादातर जन ही अपने प्रतिनिधी से बेहद नाराज हैं। जनता को लगता है कि अब राजनीति सिर्फ अपनी किस्मत चमकाने के सबसे आसान धंधा है!
  यही कारण है कि वास्तविक जन प्रतिनिधियों के अलावा फिल्म कलाकार भी राजनीति में आने लगे! जिन्हें अपने डूबते करियर को बचाना है। वे बिजनेसमैन आ रहे हैं जिन्हें अपने व्यापार को बचाने के साथ बढाना भी है। वे अफसर भी राजनीति की चौखट पर खड़े नजर आते हैं, जिनकी महत्वाकांक्षाएं नौकरी में बची रही। ये लोग अपनी वाक पटुता, धनबल, प्रभाव और वादों से जनता को ललचाकर सत्ता हांसिल कर लेते हैं। यह जन का अपने प्रतिनिधी के प्रति अविश्वास का वक़्त है! ये अविश्वास उस समय और बढ़ जाता है जब उसे लगता है कि हमारी तकलीफों को दूर करने के रास्ते खोजने के बजाए उनका प्रतिनिधि अपनी जेब भरने में लगा है! कुछ हद तक जनता भी इसके लिए काफी जिम्मेदार है! उसे अपना प्रतिनिधि का चुनाव करते वक़्त गंभीर होना पड़ेगा! फिल्मी हस्तियों, बिजनेसमैनों, नेताओ के पुत्र पुत्री और अमीरों को बतौर प्रतिनिधि नहीं चुनना चाहिए! आशय यही कि हमें अपनी जागरुकता को बढ़ाना होगा, तभी हम ऐसे प्रतिनिधि को चुन पाएंगे, जो खुद की सुख-सुविधाओं और वेतन का ध्यान रखने के बजाए उस जनता को सर्वोपरि माने, जिसने उसे चुनकर सदन में भेजा है।
  पिछले एक दशक में विधायकों, सांसदों एवं पंचायत प्रतिनिधियों के वेतन बढ़े, निधि बढ़ी एवं अधिकार भी बढ़े! लेकिन, ये भी ध्यान देने वाली बात है कि करीब 13 साल बाद भी दैनिक वेतनभोगी अब तक नियमित नहीं हो पाए! जबकि, इन्हें नियमित करने का आदेश हाईकोर्ट भी दे चुका है। जब विधायक निधि बढ़ गई, विधायकों का वेतन बढ़ गया। उधर, सांसदों का वेतन भी ढाई लाख हो गया। उनकी सांसद निधि भी 5 करोड़ रुपए तक पहुँच गई। पंचायत प्रतिनिधियों का वेतन, निधि एवं अधिकार भी बढ़ा दिए गए। पिछले कुछ सालों में प्राचार्यों का वेतन भी तीन बार बढ़ा! लेकिन, 13 साल से दैनिक वेतनभोगी अपने नियमितीकरण की लड़ाई ही लड़ रहे हैं! उनकी आजतक किसी ने नहीं सुनी! प्रदेश में लगभग 55 हजार दैनिक वेतन भोगी हैं। उनके नियमित होने पर उनका वेतन लगभग 20 हजार रुपए हो जाएगा। अप्रैल 2006 और जनवरी 2015 में कोर्ट ने दैनिक वेतन भोगियों के पक्ष फैसला देते हुए सरकार को निर्देश दिए थे। हाईकोर्ट ने सरकार को 2 महीने की मोहलत दी है। लेकिन,अभी तक हुआ कुछ नहीं! विपक्ष में बैठे विधायक भी इस मुद्दे पर खामोश हैं। क्या जन प्रतिनिधियों का कर्तव्य नहीं कि वे सदन में दैनिक वेतन भोगियों के लिए आवाज उठाएं? ये अकेला मुद्दा नहीं है, ऐसे कई मामले हैं जिन्हें लेकर विधायक खामोश रहते हैं।
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