Friday, April 15, 2016

कहाँ से कैसा मोड़ लेगी, मेनन के बाद मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति

   भाजपा के प्रदेश संगठन मंत्री अरविंद मेनन को मध्यप्रदेश की राजनीति से अचानक हटा दिया जाना चौंकाने वाली घटना है! लेकिन, अप्रत्याशित नहीं! वे जिस तरह सत्ता और संगठन के केंद्र में सर्वशक्तिमान ताकत बनकर उभर आए थे, ये होना तय था! मेनन को मध्यप्रदेश से बाहर भेजे जाने के कयास कई दिनों से लगाए जा रहे थे। एक बार तो उन्हें उत्तरप्रदेश की बागडोर सौंपे जाने की ख़बरें भी सुनाई दी! लेकिन, उन्हें पार्टी के दिल्ली मुख्यालय तक समेट दिया जाएगा, ये अंदाजा नहीं था! मेनन को जिस पद पर दिल्ली भेजा गया है, वो नाम का बड़ा पद है, काम का नहीं। उनके तबादले को प्रमोशन भले कहा जा रहा हो, पर वास्तव में ये संगठन से मिली सजा है! मेनन ने प्रदेश में जिस तरह कि राजनीति को पोषित किया, वो कई बड़े नेताओं की आँखों में खटक रहा था! उनको प्रदेश से हटाए जाने की खबर बाहर आने के बाद भाजपा के कई बड़े नेता अंदर ही अंदर खुश हुए! ये इस बात का संकेत है कि अरविंद मेनन के प्रति भाजपा के एक बड़े दायरे में कितनी नाराजी थी!     
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हेमंत पाल 
  बरसों बाद मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति की ये संभवतः सबसे बड़ी घटना रही कि प्रदेश संगठन मंत्री अरविंद मेनन की रवानगी हो गई! उन्हें क्यों हटाया गया? किसके दबाव में हटाया गया? उनको हटाए जाने के बाद प्रदेश की राजनीति में किस तरह का बदलाव आएगा? मेनन जिन लोगों के तारणहार बने थे, अब उनका क्या होगा? ऐसे कई सवाल हवा में हैं, जिनके जवाब तलाशे जा रहे हैं! लेकिन, छनकर जो ख़बरें बाहर आई हैं उससे लगता है कि कहीं न कहीं इस बदलाव में भाजपा के प्रदेश प्रभारी विनय सहस्रबुद्धे की भूमिका रही है। अरविंद मेनन से उनका खामोश युद्ध लम्बे समय से चल रहा था! यही कारण है कि मेनन के तबादले को कहीं न कहीं सहस्रबुद्धे से जोड़कर देखा जा रहा है। उन्होंने कहीं संकेत भी दिए थे कि उन्हें कमजोर समझने की गलती न की जाए! सहस्रबुद्धे ने पहले मेनन की कार्यप्रणाली और उनसे जुड़े विवादों पड़ताल भी की। फिर इस विरोध को सही जगह तक पहुंचाया! क्योंकि, मेनन का विरोध पिछले दो-तीन सालों से हो रहा था, मगर विरोध की ये आवाज सही जगह तक नहीं पहुंच रही थी, यही काम सहस्त्रबुद्धे ने किया!  
  मेनन के दिल्ली गमन के जाने के बाद मध्यप्रदेश की राजनीति में बदलाव अवश्यम्भावी माना जा रहा है। हो सकता है कि मेनन के कुछ करीबियों को हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए! अरविंद मेनन के प्रति वफादार संभागों के संगठन मंत्रियों को बदलने की प्रक्रिया भी शुरू हो सकती है। इसलिए कि मेनन की ही तरह संभाग और जिलों के संगठन मंत्री भी अपने-अपने इलाकों में विधायकों और पार्टी अध्यक्षों और संगठन के अन्य पदाधिकारियों पर नकेल डालकर बैठे थे! मेनन पर अकसर ये आरोप लगता रहा कि उन्होंने अपने नजदीकी लोगों से पार्टी के अंदर एक समानांतर संगठन खड़ा कर लिया था! उनकी ही सुनी जाती थी और वे लोग ही मलाईदार पदों पर विराजे भी जाते रहे! इस सबसे योग्य कार्यकर्ता उपेक्षित हुए! इन नाराज लोगों ने पार्टी मुखिया अमित शाह तक सारी बातें पहुंचाई जो शायद मेनन बिदाई का कारण बनी! 
  इंदौर की ही बात की जाए तो मेनन के दम पर शैलेंद्र बरुआ सत्ता और संगठन का केंद्र बन गए! उन पर कई तरह की उंगलियां उठी, पर कोई उन्हें डिगा नहीं सका! इनकी छत्रछाया में जिला स्तर पर इसी तरह के संगठन मंत्रियों का राजनीतिक दबदबा रहा! जिलों में बैठे संग़ठन मंत्रियों का प्रभाव भी इतना ज्यादा था कि वे प्रशासन को अपनी मुट्ठी में रखने लगे थे! जिलों में होने वाले टेंडर और ठेके जिला संगठन मंत्रियों की मर्जी से ही दिए जाते थे! हर टेंडर और ठेके में इन जिला संगठन मंत्रियों की हिस्सेदारी तय होती थी! इस सबके बावजूद सब खामोश थे, क्योंकि अरविंद मेनन की टीम से उलझने की हिम्मत न तो भाजपा के पदाधिकारियों में थी न प्रशासन के अफसरों में! हो सकता है, अब इस तरह की घटनाओं की परतें उधड़कर बाहर आएं! इस टीम के कामकाज के रवैये से 'संघ' की छवि को भी आघात लगा! क्योंकि, संघ की हमेशा ही ये कोशिश रही है कि भाजपा के बड़े पदों पर ऐसे लोग काबिज हों, जिनकी छवि साफ सुथरी हो। लेकिन, अब संघ पृष्ठभूमि से भाजपा संगठन में आए पदाधिकारियों पर अकसर पैसे लेने के भी आरोप लगने लगे! 
 जहाँ तक होने वाले राजनीतिक बदलाव की बात है, तो संगठन के साथ ही मोर्चा, प्रकोष्ठों में खाली पड़े पदों पर होने वाली नियुक्तियों में वे लोग लाए जा सकते हैं, जिन्हें अब तक उपेक्षा मिलती रही! मेनन के नजदीकी माने जाने वाले विनोद गोटिया, सत्येंद्र भूषण सिंह, गोविंद आर्य, अजय प्रताप सिंह, अरविंद भदौरिया, मनोरंजन मिश्रा, अमरमणि त्रिपाठी और पुष्पेंद्र प्रताप सिंह जैसे नेताओं का वजन भी कम हो तो आश्चर्य नहीं! तपन भौमिक, विजेंद्र सिसौदिया और विनय दुबे भी हाशिए पर भेजे जा सकते हैं। भाजयुमो प्रदेश अध्यक्ष अमरदीप मौर्य, महिला मोर्चे की अध्यक्ष लता वानखेड़े और लघु उद्योग निगम के अध्यक्ष बाबूसिंह रघुवंशी के अलावा सागर के भाजपा जिला अध्यक्ष राजा दुबे समेत कुछ और जिलों के अध्यक्षों को भी मेनन का अभाव खल सकता है। इंदौर के संभागीय संगठन मंत्री शैलेन्द्र बरुआ, उज्जैन के राकेश डागोर, होशंगाबाद के जितेंद्र लटौरिया और ग्वालियर के प्रदीप जोशी भी बदले जा सकते हैं। कई मनमाने निर्णयों की वजह से भी मेनन विवाद में आए। सागर के महापौर पद के लिए अभय दरे का नाम आगे बढ़ाना! धार जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष राजीव यादव की नियुक्ति और धार जिला भाजपा अध्यक्ष डॉ राज बरफा को बैठना भी उनके मनमाने फैसलों की बानगी रही! रतलाम की महापौर डॉ सुनीता यार्दे के पति तो सरेआम नेताओं और पार्षदों को मेनन का नाम लेकर धमकाते रहे हैं! अब वे सारे लोग जो मेनन के इस तरह के मनमाने फैसलों से प्रभावित होते रहे हैं, मुखर होकर आगे आ सकते हैं।  
  भाजपा की राजनीति में अरविंद मेनन के जाने के साथ-साथ सुहास भगत के आने की भी ख़ुशी देखी गई! दबे छुपे सरकार और संगठन दोनों स्तरों पर दिल ही दिल में लोग खुश नजर आए! ये इस बात का भी संकेत है कि मेनन के प्रति सरकार और संगठन दोनों में नाराजगी का भाव था! मेनन पर पार्टी में गुटबाजी को हवा देने के अकसर आरोप लगते रहे हैं। मेनन के खेमे में उन्हीँ लोगों का सिक्का चलता था, जो उनकी टीम का हिस्सा होते थे! मेनन के कामकाज को इसलिए आपत्तिजनक माना गया, क्योंकि इसी पद पर कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल, माखन सिंह और कप्तान सिंह सोलंकी जैसे संघ के तपे लोग रहे हैं! इस पद की गरिमा मेनन के कारण दो कदम पीछे आई है! 
  मेनन की राजनीति को परखने वालों का ये मानना है कि उनके व्यवहार में संघ प्रचारकों जैसी विनम्रता, सौम्यता का नितांत अभाव देखा जाता रहा! उनकी भाषा, भावभंगिमा और व्यवहार से भी कई लोगों को आपत्ति थी! मेनन के कामकाज की स्टाइल संघ प्रचारकों से अलग थी। संघ से जुड़े प्रचारकों का आचरण और व्यवहार सहज होता है, वो कभी मेनन में दिखाई नहीं दिया! लेकिन, पद के भय के कारण लोग खामोश रहे! शायद यही कारण है कि उनकी बिदाई से पार्टी और सरकार में बैठे लोग खुश दिखे! अरविंद मेनन, मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का जिस तरह तालमेल था, कई नेताओं को उससे आपत्ति थी! क्योकि, उनकी शिकायत हमेशा अनसुनी रह जाती थी!
   अरविंद मेनन की बिदाई की ख़बरें पहले भी कई बार सुनाई दी, पर वे सही नहीं निकली! फिर, अचानक ऐसा क्या हुआ जो संघ की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा? वास्तव में संघ के बड़े पदाधिकारी मेनन के कामकाज की शैली से नाराज थे। जिलों और मंडलों में पदस्थ मंत्री स्थानीय विधायकों और पार्टी अध्यक्षों पर हावी हो गए थे। ये परंपरा संघ और भाजपा दोनों की विचारधारा के विपरीत नजर आई! मेनन के क्रियाकलाप भी संघ की शैली से अलग थे। इसलिए कि संगठन महामंत्री बनने से पहले मेनन संघ के प्रचारक नहीं रहे! जबकि, संघ अपनी छवि को लेकर बेहद सतर्क रहता है! जब मेनन के खिलाफ शिकवा शिकायतों का दौर शुरू हुआ तो संघ पदाधिकारियों को महसूस हुआ कि संगठन महामंत्री का पद पर किसी गैर-प्रचारक को सौंपना सही नहीं रहा! इसलिए कि गैर-प्रचारक रहे संगठन मंत्री संगठन और संघ के बजाए कुछ लोगों के ख़ास बनकर रह जाते हैं। अरविंद मेनन भी कभी संघ प्रचारक नहीं रहे। तत्कालीन क्षेत्रीय प्रचारक विनोद ने मेनन को 2010 में प्रचारक का दर्जा दिया और भाजपा के इस पूणर्कालिक कार्यकर्ता का प्रमोशन संघ प्रचारक के रुप में कर दिया! मेनन संभवतः पहले ऐसे प्रदेश संगठन महामंत्री रहे, जिन्होंने भाजपा से संघ में इंट्री की और प्रचारक का दर्जा पाया! जबकि, परम्परा के मुताबिक संघ अपने सभी अनुषांगिक संगठनों पर प्रचारकों या पूणर्कालिक कार्यकर्ताओं के जरिए नियंत्रण बनाकर रखता है। जबकि, मेनन के मामले में संघ उलटा चला!  
 संघ से जुड़े लोग अपने दायित्वों के प्रति खांटी होते हैं। वे पद से मोह नहीं पालते, लेकिन जब से ये खबर गर्म हुई थी कि मेनन को प्रदेश से बाहर भेज जा सकता है! उन्होंने यहीं बने रहने के लिए सारा जोर लगा दिया! किन्तु, अपनी कोशिशों में वे कामयाब नहीं हो सके! यहाँ तक ख़बरें उडी कि पहले उन्हें उत्तर प्रदेश में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी जाने वाली थी! लेकिन, उन्हें वो काम भी नहीं दिया गया! एक बात ये भी कि मेनन के तबादले को उनकी उपलब्धि की तरह प्रोजेक्ट किया गया! बताया गया कि वे दिल्ली मुख्यालय में 22 प्रकल्पों के मुखिया होंगे! ये सही भी है, पर किसी राज्य के संगठन मंत्री का दबदबा इस तरह के किसी भी पद से कहीं ज्यादा अहमियत वाला होता है! अब तो सारी नजरें इस बात पर टिकी हैं कि सत्ता और संगठन में बैठे उन लोगों का क्या होगा जिनपर अरविंद मेनन का वरदहस्त रहा है!  
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