Sunday, April 24, 2016

समाज के साथ हमेशा खड़ी रही फ़िल्में

* हेमंत पाल 

   फिल्मों का समाज के प्रति क्या दायित्व है? इस मुद्दे पर अकसर बहस होती रहती है और फिल्मों को कटघरे में खड़ा करने कोशिश होती है! लेकिन, ये भुला दिया जाता है कि आजादी के पहले से फ़िल्मकार अपने दायित्व को लेकर सजग हैं! तब लोगों में आजादी के प्रति जागरूकता फैलाने जैसा काम करना जुर्म था, इसलिए धार्मिक, पौराणिक और सामाजिक कहानियों के जरिए फिल्मकारों ने अपना कर्त्तव्य निभाया! याद किया जाए तो आजादी के पहले वाले मूक सिनेमा के उस दौर में सामाजिक समस्याओं पर कई फिल्में बनाई गईं! छुआछूत की समस्या, विधवा विवाह, बेमेल विवाह, बाल विवाह, वेश्यावृत्ति जैसे जीवंत मुद्दों पर फिल्में बनाई गईं। फिल्मों की कहानियों में गाँव, किसान, मजदूर और बेरोजगारों के जीवन की समस्याओं को भी फिल्मों का विषय बनाया। इन सभी फिल्मों के कथानकों में एक संदेश भी था!   

  यही वो वक़्त था जब अच्छे साहित्य की कई कथाओं पर फ़िल्में बनाई गईं! रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय और प्रेमचंद जैसे लेखकों की कहानियों पर फिल्मों का निर्माण किया गया। इस माध्यम में रचनात्मक संभावना और समाज में व्यापक पहुँच की क्षमता ने लेखकों को इस और आकर्षित किया! ये दृश्य माध्यम था इसलिए उन लोगों की समझ के दायरे में भी था जो पढऩा-लिखना नहीं जानते थे। लेकिन, इस माध्यम की सबसे बड़ी कठिनाई यह थी, कि इसका निर्माण साहित्य लेखन और प्रकाशन की तुलना में महंगा था। नाटकों की तुलना में भी यह बहुत महंगा था। उसका प्रबंध करना भी उस दौर में आसान नहीं था। ऐसी स्थिति में यह भी जरूरी था कि फिल्मकार मनोरंजक फिल्म के जरिए ही उन संदेशों को व्यक्त करें जिन्हें साहित्य अपने ढंग से अभिव्यक्त कर रहा था! 1938  प्रेमचंद के उपन्यास पर तमिल में 'सेवासदन' नाम से फिल्म बनी! हिंदी के अलावा उर्दू के भी कई लेखक फिल्मों से जुड़े। 1945 में तमिल में बनी फिल्म 'मीरा' को हिंदी में भी बनाया गया! कई ऐसे फिल्मकार भी सामने आए जिन्होंने सामाजिक समस्याओं पर फिल्म बनाना ही अपना लक्ष्य बनाया। 1930 के दशक में फिल्म निर्माण में आए इस बदलाव ने कई गंभीर लेखकों को फ़िल्मी कहानियाँ लिखने को प्रेरित किया। 
  आजादी के समय जो फिल्मकार सक्रिय थे, उन्होंने अपने तरीके से उस समय सच्चाई को अपनी फिल्मों का विषय बनाया! बल्कि, उनकी फिल्मों में देश के उस भविष्य की चिंता भी दिखाई देती थी! क्योंकि, वे अपनी फिल्मों को देश के नवनिर्माण में हिस्सेदार बनाना चाहते थे, जो भारतीय संविधान में निहित आदर्शों और मूल्यों पर टिका था! इसका स्वरूप आजादी की लड़ाई के दौरान बना था। फिल्मकारों को देश के निर्माताओं ने कोई क्रांतिकारी एजेंडा नहीं सौंपा था! लेकिन, फिल्मकारों को महसूस हो रहा था कि समतावादी भारत के बनने में भी कई मुश्किलें हैं जिनको दूर करना जरूरी है। औरतों की आजादी, सामाजिक समानता, गरीबी, दलित उत्पीडऩ जैसे समस्याओं के अलावा जमाखोरी, मुनाफाखोरी और लालच के लिए लिप्त रहने वालों से भी समाज को सचेत किया जा सकता है। धार्मिक और सांप्रदायिक वैमनस्य भी इसी तरह की समस्याएं थी, जिनपर फिल्मों का निर्माण हुआ! सिनेमा ने आजादी के बाद के दो दशकों तक इस तरह के कई मुद्दों को अपने अंदाज में उठाया! किसी एक समस्या को फ़िल्मी कथानक में रखते हुए दूसरे मसलों को भी मूल कथा से इस तरह जोड़ देते हैं कि दर्शकों को उससे जोड़ा जा सके! कुछ फिल्मों ने तो रूढ़ी का रूप ले लिया था। जैसे हिंदू और मुस्लिम (या कोई अन्य अल्पसंख्यक) की दोस्ती की कहानी! फिल्म की कथा कोई भी हो, सांप्रदायिक सद्भाव को उसमें जरूर शामिल किया जाता था। क्योंकि, बंटवारे की पीड़ा उस दौर के हर व्यक्ति ने झेली थी! इसलिए ये कहकर फिल्मों को ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि फिल्मकारों ने सिर्फ मनोरंजन की खातिर फिल्मों का निर्माण किया या करते रहे हैं। 
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