Friday, April 29, 2016

मध्यप्रदेश में दलित राजनीति के दलदल में फंसे दल


हेमंत पाल 
   डॉ भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती पर इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने महू से दलितों पर दौरे डालने की कोशिश की! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान महू आए और बाबा साहेब आंबेडकर का गुणगान किया। उधर, कांग्रेस  के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया और प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव ने भी आम्बेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण की औपचारिकता निभाई! दोनों हीं पार्टियों में दलितों के प्रति प्रेम उमड़ आया! वास्तव में ये कोई दिली प्रेम नहीं, दलित वोट बैंक को भरमाने की कोशिश भर है! प्रदेश में दो साल बाद विधानसभा चुनाव होना है। इसलिए कांग्रेस और भाजपा दोनों अभी से दलित वोट बैंक को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं! आंबेडकर जयंती पर पिछले दो सालों से जो राजनीति हो रही है, वो इसी रणनीति का हिस्सा है। पहले कांग्रेस ने डॉ. आम्बेडकर की 125वी जयंती जोरशोर से पूरे देश मे मनाने का संकल्प लिया था। इसकी घोषणा पूर्व केंद्रीय मंत्री सुशीलकुमार शिंदे ने की! पिछली बार राहुल गांधी ने महू बड़ी सभा करके अपने इरादे जाहिर भी किए! इस बार भाजपा ने महू में पूरा माहौल अपने कब्जे में करने में कसर नहीं छोड़ी!  
   भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने दलित समाज तक अपनी पहुंच बनाने की कोशिशों के तहत आंबेडकर जयंती को माध्यम बनाया! भाजपा को अपनी इस कोशिश के प्रति गंभीरता दिखाना इसलिए भी जरुरी है कि हाल ही में बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा बुरी तरह हारी है। बिहार में दलित और महादलित समुदायों को लुभाने का भाजपा का प्रयास बुरी तरह विफल हुआ! पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश और बिहार में जरूर जातियों की बेड़ियां टूटी थीं! दलितों के एक बड़े तबके ने भाजपा प्रति अपना विश्वास प्रकट किया था, लेकिन बिहार चुनाव के नतीजों ने इस भ्रम को चकनाचूर कर दिया। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस ने आजादी के बाद 67 सालों में आंबडेकर को क्या सम्मान दिया? जबकि, इन 67 सालोंं में 57 साल कांग्रेस की सरकार रही! अपने तर्क में भाजपा पहले अटल बिहारी वाजपेयी और बाद में नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा सरकारों की और से डॉ आंबेडकर के सम्मान में उठाए गए कदमों को गिनाती है। केंद्र सरकार ने आंबडेकर की 125वीं जयंती मनाने के लिए 16 काम शुरू किए हैं। उनमें 14 अप्रैल को 'राष्ट्रीय बंधुत्व भाव समरसता दिवस' के रूप में मनाना! उन पर डाक टिकट और सिक्के जारी करना। दिल्ली के अलीपुर में 99 करोड़ रुपए की लागत से आंबडेकर स्मारक की स्थापना करना शामिल है। 
   संयोग माना जाए या कोई रणनीति, जब भी केंद्र या किसी राज्य में भाजपा सत्ता में आई दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों उत्पीड़न के मामले बढे हैं। जब भी दलितों और पिछड़ों ने अपनी आवाज उठाई, उसे दबाने की कोशिशें भी हुई! कहा जाता है कि दलित उत्पीड़न का विरोध चुनावी नारे के रूप में इस्तेमाल करने वाली भाजपा की नीतियां और नीयत हमेशा से दलित विरोधी रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक गोलवरकर की किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स' में वर्ण-व्यवस्था की कुरीतियों की जिस तरह पैरवी की गई है, उससे भारतीय संविधान और इसके निर्माताओं का मखौल ही उड़ाया गया! भारत के संविधान की पहचान बाबा साहेब आंबेडकर से जुड़ी है, उससे यही साबित होता है कि संघ और भाजपा की विचारधारा और एजेंडे में समतामूलक समाज की अवधारणा के लिए कोई जगह नहीं है। देखा जाए तो भाजपा में सांप्रदायिकता भड़काने वाले कथित साधुओं, साध्वियों और समाज को तोड़ने के हिमायती नेताओं की काफी अहमियत है! लेकिन, दलित व पिछड़ों के लिए पूरा जीवन लगा देने वाले डॉ आंबेडकर , श्रीनारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, पेरियार जैसे लोगों के नाम सिर्फ चुनावी नारों तक ही सीमित हैl 
  मध्यप्रदेश देश के उन चंद बड़े राज्यों में एक हैं जहाँ दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की राजनीतिक रूप से पहचान नहीं बन सकी! उत्तर प्रदेश और बिहार में पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और दलितों ने अपनी जो ताकत दिखाई, वैसा मध्यप्रदेश में नहीं हो सका! वो भी ऐसी स्थिति में जबकि प्रदेश में करीब 20% आदिवासी और करीब 15% दलित आबादी है। प्रदेश के कुछ इलाकों में पिछडा वर्ग भी चुनावी नतीजे बदलने की हैसियत रखते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है इस वर्ग में राजनीतिक जागरूकता का अभाव! प्रदेश का अधिकांश हिस्सा जागीरदारों के चंगुल में रहा है। प्रदेश के गठन से पहले उसके ज़्यादातर हिस्से राजे-रजवाड़ों के अधीन रहे हैं। रजवाड़ों ने कभी भी इस वर्ग में राजनीतिक जागरूकता को उभरने का मौका नहीं दिया और दबाकर रखा है। 
  ये भी एक प्रमुख कारण है कि मध्यप्रदेश में दलितों, आदिवासियों, और पिछड़े वर्ग के सशक्त राजनीतिक आंदोलनों की कमी रही! नतीजा ये हुआ कि इस वर्ग से कभी कोई नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आया! कुछ हद तक भौगोलिक स्थितियों को भी इसके लिए ज़िम्मेदार माना जा सकता हैं। क्योंकि, आदिवासी इलाका बिखरा हुआ है, इस वजह से कोई सशक्त नेतृत्व पनप नहीं पाया! हालांकि, कांग्रेस में शिवभानुसिंह सोलंकी, जमुना देवी, अरविंद नेताम, उर्मिला सिंह और कांतिलाल भूरिया बड़े पदों पर रहे हैं! पिछडा वर्ग के अरुण यादव अभी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं। जबकि, भाजपा में दिलीप सिंह भूरिया, फग्गन सिंह कुलस्ते जैसे आदिवासी नेता सामने आए हैं। लेकिन, कोई भी नेतृत्व के शिखर तक नहीं पहुंचा!
 1990 के दशक में हिंदी भाषी इलाकों में दलित और पिछड़े वर्ग के असंतोष को दबाने के लिए कांग्रेस ने आदिवासियों और दलितों के लिए विशेष पैकेजों की घोषणा की थी! इसके बाद दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश में 'दलित एजेंडा' जैसा क़दम उठाया! दरअसल, कांग्रेस ने ये कोशिश दलितों और आदिवासियों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए थी! लेकिन, राजनीतिक स्तर पर उन्हें सशक्त करने के लिए ऐसा कुछ नहीं किया! भाजपा को भी बिहार की हार और उत्तर प्रदेश में चुनाव की निकटता के कारण दलितों के प्रति गंभीरता दर्शाने जरुरत पड़ी! दोनों प्रमुख दल इन वर्गों के प्रति अपनी जवाबदेही इसलिए भी नहीं समझते कि मध्यप्रदेश में आदिवासियों और दलितों में कोई तालमेल नहीं हैं। इससे यहां कोई संयुक्त आंदोलन उभरकर सामने नहीं आ पाया! 
  मध्य प्रदेश में एक बड़ा हिस्सा पिछड़ी जातियों का भी है। लेकिन, इस वर्ग ने कभी एक झंडे के नीचे अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने की कभी कोई कोशिश नहीं की! कांग्रेस के सुभाष यादव, भाजपा के शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती इसी पिछड़े वर्ग की देन हैं! लेकिन, इनके उभरने के पीछे सबसे बड़ा इनका राजनीतिक कौशल है, न कि पिछड़े वर्ग की मदद! यहाँ आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों की अच्छी खासी संख्या होने के बाद भी राजनीति पर लम्बे समय तक सवर्णों का कब्ज़ा रहा है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने आदिवासियों और पिछड़ों को पहचान देने के लिए साझेदार तो बनाया, पर सिर्फ वोट बैंक को बेलैंस करने के लिए! 
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