Monday, January 29, 2018

भाजपा से कुछ कहते हैं, नगर निकाय चुनाव के ये नतीजे!

    मध्य प्रदेश में भाजपा का जनाधार दलित और आदिवासियों के बीच घटा है! अभी तक ये सिर्फ कहा ही जा रहा था, पर हाल में आदिवासी इलाकों में हुए नगर निकाय चुनाव में भाजपा जिस तरह पिछड़ी है, ये साबित भी हो गया! इस बात को संघ ज्यादा बेहतर ढंग से समझ रहा है। यही कारण है कि पिछले कुछ महीनों से संघ की इस मामले में सक्रियता बढ़ी है। संघ का पूरा फोकस दलित एवं आदिवासियों पर है। संघ का मानना भी है कि जब तक दलित और आदिवासियों को पार्टी से नहीं जोड़ा जाता, भाजपा के जनाधार को मजबूत करना मुश्किल है। आदिवासियों और दलितों में आज भी कांग्रेस की जड़ें अंदर तक है। प्रदेश में इसी साल विधानसभा चुनाव होना हैं, जिसमें आदिवासी और दलित वोटर्स को नजरअंदाज करना भाजपा को महंगा पड़ेगा। इस नजरिए से निकाय चुनाव के ये नतीजे भाजपा से कुछ कहते हैं, बशर्ते भाजपा इस मूक संदेश को समझे!
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हेमंत पाल

  राजनीति के मामले में भाजपा का जवाब नहीं! अपनी हार में भी जीत खोज लेना और फिर उसी का जश्न मनाकर झूम लेना, कोई भाजपा से सीखे! फिलहाल निकाय चुनाव में भाजपा पिछड़कर भी संतुष्टि का भाव दिखा रही है। कभी वो कांग्रेस से बराबरी पर आने पर ख़ुशी व्यक्त करती है कभी 43%-43% वोट की बराबरी करके! इन चुनाव में वोटों का प्रतिशत कुछ भी हो, पर इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि भाजपा इन चुनावों में पिछड़ी है। तीन विधानसभा चुनाव जीतकर भाजपा मध्यप्रदेश में राज कर रही है। लेकिन, इस बार पार्टी की हालत कुछ पतली है। क्योंकि, पहले कुछ विधानसभा उपचुनाव में पार्टी को हार का मुँह देखना पड़ा, अब नगर निकाय चुनाव में भी भाजपा को मायूसी ही हाथ लगी! सत्ताधारी भाजपा और कांग्रेस दोनों को 9-9 स्थानों पर जीत मिली! जबकि, अनूपपुर की जैतहरी नगर परिषद निर्दलीय और भाजपा की बागी उम्मीदवार के खाते में गई। भाजपा और कांग्रेस मुकाबला भले बराबरी पर छूटा हो, पर हार तो भाजपा की ही हुई! इसलिए कि भाजपा जिस 'कांग्रेस मुक्त भारत' का सपना देख रही थी, वही कांग्रेस उसे चुनौती देती नजर आ रही है।
   सामान्यतः बड़े चुनाव से जनता का नजरिया ज्यादा बेहतर ढंग से समझ में नहीं आता! छोटे चुनाव ही जनता की नब्ज का सही संकेत देते हैं! भाजपा ने इस हार को दिखावे के लिए हल्के में लिया हो, पर वास्तव में इन नतीजों की गंभीरता से पार्टी वाकिफ है। इसलिए कि निकाय चुनाव के ये नतीजे प्रदेश के वोटर्स का मूड बताते हैं! प्रदेश का राजनीतिक भविष्य भांपने के लिए भी ये चुनाव नतीजे बहुत कुछ कहते हैं! ये बात इसलिए कि भाजपा ने इन चुनावों में मुख्यमंत्री समेत प्रदेश के पार्टी पदाधिकारियों को भी मोर्चे पर लगाया था। किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि नतीजे इतना उलट जाएंगे! भाजपा अपने कमजोर प्रदर्शन के लिए कई कारण गिना रही है। जबकि, कांग्रेस का निष्कर्ष है कि ये भाजपा सरकार की असफलता पर जनता का फैसला है! 
  नगर निकाय चुनाव के ये नतीजे मरती हुई कांग्रेस को संजीवनी मिलने जैसे हैं। लेकिन, भाजपा सरकार खिलाफ एंटी-इंकम्बेंसी जैसा माहौल दिखाई देने के बावजूद कांग्रेस में गुटबाजी कम नहीं हो रही! राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बन जाने के बाद भी अभी तक ये साफ़ नहीं हो रहा कि चुनाव की कमान किसके हाथ में रहेगी? अरुण यादव ही प्रदेश में पार्टी के खेवनहार बने रहेंगे या उनकी जगह कोई नया चेहरा आएगा! इस बात पर भी मतभेद हो सकते हैं कि ये भाजपा की हार है या कांग्रेस की जीत? इसलिए बेहतर हो कि कांग्रेस नगर निकाय चुनाव में मिली जीत को अपनी जीत की तरह न देखे, बल्कि ये भाजपा की हार है। प्रदेश में भाजपा के गिरते ग्राफ को कांग्रेस इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में कितना भुना पाएगी, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा! लेकिन, कांग्रेस यदि वास्तव में विधानसभा चुनाव में कोई चुनौती बनना चाहती है तो उसे सत्ता का विकल्प बनकर वोटर्स के सामने आना पड़ेगा!
  विधानसभा चुनाव से पहले कोलारस और मुंगावली में होने वाले दो विधानसभा उपचुनाव को भाजपा की राजनीतिक नब्ज टटोलने वाला संकेत समझा जा रहा है। ये दोनों स्थान कांग्रेस विधायक महेन्द्रसिंह कालूखेड़ा और रामसिंह यादव के निधन से खाली हुई हैं। ये दोनों सीटें कांग्रेस ने 2013 में मोदी की प्रचंड लहर में जीतीं थी! प्रदेश में भाजपा के लहलहाते समंदर में कांग्रेस के जो चंद टापू बचे थे, ये दोनों सीटें उनमें से थीं। अब जबकि, हर तरह की आँधी और लहर ठंडी पड़ चुकी है, यहाँ कांग्रेस की स्थिति बेहतर मानी-जानी चाहिए। ये इलाका ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव वाला है, इसलिए ये सीटें जीतना उनकी भी साख का सवाल है। यही कारण है कि वे इस उपचुनाव की अधिसूचना जारी होने के पहले से इन दोनों इलाकों में सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। भाजपा कोलारस और मुंगावली में अपनी स्थिति को समझ रही है, यही कारण है कि उसके जीत के दावों में दम दिखाई नहीं दे रहा!       
  हाल ही में प्रदेश में 19 स्थानों पर नगर निकाय चुनाव हुए। भाजपा ने सेंधवा, पीथमपुर, नगर पालिका परिषद और ओंकारेश्वर, पलसूद, पानसेमल, कुक्षी, डही और धामनोद नगर परिषद सीट पर कब्जा किया। वहीं कांग्रेस ने धार, राघौगढ़ व नगर पालिका परिषद और अंजड़, खेतिया, धरमपुरी, राजगढ़, सरदारपुर नगर परिषद पर जीत दर्ज की। अनूपपुर की जैतहरी नगर परिषद सीट पर निर्दलीय नवरत्नी शुक्ला विजयी हुए। नगर निकाय चुनाव में सबसे दिलचस्प नतीजे धार जिले के रहे, जहाँ 9 में से 5 पर कांग्रेस के नगर अध्यक्ष जीते और 4 पर भाजपा के! यहाँ चार भाजपा शासित विधानसभा सीटों के मुख्यालयों पर ही भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा! धार से नीना वर्मा, धरमपुरी से कालूसिंह ठाकुर, मनावर से रंजना बघेल और सरदारपुर से वेलसिंह भूरिया भाजपा विधायक है। कुक्षी में कांग्रेस के विधायक हनी बघेल के होते हुए जरूर भाजपा का अध्यक्ष पद उम्मीदवार विजयी रहा! वो भी इसलिए कि यहाँ से मनावर विधायक रंजना बघेल ने अपने पति मुकाम सिंह को खड़ा किया था और मनावर छोड़कर सारा जोर यहीं लगाया!
  धार सहित मनावर, राजगढ़, सरदारपुर, धरमपुरी सभी में कांग्रेस ने भाजपा से सत्ता छीनी। वहीं भाजपा ने पीथमपुर सहित डही, कुक्षी, धामनोद में सत्ता पर कब्जा किया। धार में भाजपा की लुटिया तो एक बागी उम्मीदवार अशोक जैन ने ही डुबो दी! ये बगावत ऐसी भी नहीं थी, जिसे रोका नहीं जा सकता था, लेकिन इसके लिए पर्याप्त प्रयास नहीं हुए! जबकि, स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि इस बगावत से भाजपा को बड़ा नुकसान होगा! भाजपा के लिए चिंता की बात इसलिए भी है कि इन निकाय चुनाव में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर भी नतीजे उम्मीद  मुताबिक नहीं रहे! इन चुनावों में कांग्रेस के किसी बड़े नेता ने प्रचार नहीं किया, जबकि मुख्यमंत्री ने अधिकांश चुनाव क्षेत्रों में रोड शो तक किए, पर वे भी वोटर्स को लुभा नहीं सके! सरदारपुर में अपनी ही ड्यूटी में लगे एक जवान को धकेलकर उन्होंने नया विवाद जरूर खड़ा कर लिया। 
   इन चुनाव को छोटा या स्थानीय बताकर भाजपा हार की अनदेखी नहीं कर सकती! चुनाव छोटे जरूर थे, मगर इससे संकेत मिलता है कि प्रदेश में भाजपा की जमीनी हकीकत बदल रही है। पार्टी की पकड़ में अब वो कसावट नहीं रही, जिसके दावे किए जाते हैं। इन नतीजों से अगले विधानसभा चुनाव को भांपना तो अभी जल्दबाजी होगी! मगर ये सरकार में बैठे नुमाइंदों को झकझोरने के लिए काफी है कि अब संभलने का वक़्त है! घोषणाओं से लोगों को ज्यादा दिन तक भरमाया नहीं जा सकता! लोग अब जमीन पर उन घोषणाओं की हकीकत देखना चाहते हैं! दरअसल, ये चुनाव भाजपा की पकड़ ढीला हो ने का इशारा तो हैं ही, सरकार को सजग होने की भी सलाह है। लेकिन, इन चुनाव से कांग्रेस का उत्साह जरूर दोगुना हुआ है।
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Sunday, January 21, 2018

'आलम आरा' ने बोलना नहीं, गाना भी सिखाया!


- हेमंत पाल

 फिल्मों में आज संगीत की अपनी पकड़ है। फिल्म चले न चले संगीत बेचकर भी निर्माता मोटी कमाई कर लेते हैं अब वो जमाना भी गया जब गायकों में लता मंगेशकर, किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी की मोनोपॉली चलती थी! अब हर फिल्म के साथ एक नया गायक जन्म लेता है। लेकिन, एक दौर ऐसा भी था जब फिल्मों में लाइव गीतगाये जाते थे। लोग भले ही बोलती फिल्मों की शुरुआत आलम आरा (1931) को मानते हों, पर इसी फिल्म ने हिंदी सिनेमा को उसका पहला फिल्मी गीत भी दिया! इसफिल्म में सात गाने थे और पहले गीत के बोल थे 'दे दे खुदा के नाम पे जिसे वजीर मोहम्मद खान ने गाया था। इस गीत को हिंदुस्तानी सिनेमा के इतिहास में का पहलाफिल्म गीत कहा जाता है। लेकिन, कोई नहीं जानता कि इस गीत को लिखा किसने था! 
   इस फिल्म का संगीत फिरोजशाह मिस्त्री ने दिया था। फिल्म में इस गीत को फकीर की भूमिका निभाने और गाने वाले वजीर मोहम्मद खान पर फिल्माया गया था। तब 29 साल के इस एक्टर ने बूढ़े फकीर की भूमिका निभाई थी और गीत को लाइव रिकॉर्ड किया गया था। किन्तु, आज ये गीत देखा नहीं जा सकता, क्योंकि 'आलम आरा' फिल्मका कोई प्रिंट ही उपलब्ध नहीं है! पर, वजीर मोहम्मद खान को यही किरदार निभाते और यही गीत गाते हुए बाद में दो बार बनी इसी फिल्म में देखा जा सकता हैं। आजकई पुरानी फिल्मों के गानों को नए तरीके से संगीतबद्ध करके फिल्माया जाता है! देखा जाए तो ये परंपरा तो बरसों पुरानी है!  
  'आलम आरा' से को लेकर एक दिलचस्प तथ्य यह भी रहा है कि इसे बाद में दो बार फिर बनाया गया! एक बार 1956 में और दूसरी बार 1973 में! दोनों ही बार इसमें नएकलाकार, निर्देशक व संगीतकार थे। लेकिन, फकीर का किरदार वजीर मोहम्मद ने ही निभाया! दूसरी बार बनी 'आलम आरा' में पहली वाली के बनने के 25 साल बादबानी थी। तीसरी बार जब 'आलम आरा' बनी तो वजीर मोहम्मद 70 के थे। बाद में बनी दोनों 'आलम आरा' फिल्मों में भी वजीर मोहम्मद पहली फिल्म की ही तरह फकीरके किरदार में नायिका के दरवाजे पर दस्तक देते हैं। वे भीख मांगते वक़्त वही गीत गुनगुनाते हैं, जो पहली वाली 'आलम आरा' में उन्होंने गया था। 
   उस समय भारतीय फिल्मों में पार्श्व गायन शुरु नहीं हुआ था, इसलिए इस गीत को हारमोनियम और तबले के संगीत की संगत के साथ सजीव रिकॉर्ड किया गया था। यहसिर्फ एक सवाक फिल्म नहीं थी, बल्कि यह बोलने और गाने वाली फिल्म थी जिसमें बोलना कम और गाना अधिक था। इस फिल्म में कई गीत थे और इसने फिल्मों में गानेके द्वारा कहानी को कहे जाने या बढा़ए जाने की परम्परा का सूत्रपात किया था। फिल्म के निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने साउंड रिकॉर्डिंग का काम भी खुद ही संभाला था।फिल्म का छायांकन सिंगल कैमरे से किया गया था, जो ध्वनि को सीधे फिल्म पर दर्ज करते थे। 
  उस समय साउंडप्रूफ स्टूडियो उपलब्ध नहीं थे, इसलिए दिन के शोर-शराबे से बचने के लिए इसकी ज्यादातर शूटिंग रात में की गई थी। शूटिंग के समय एक्टर्स के पासमाइक्रोफ़ोन छुपाकर रखा जाता था। 'आलम आरा' एक राजकुमार और बंजारन लड़की की प्रेम कथा थी। जिसे जोसफ डेविड ने लिखा था जो पारसी नाटक पर आधारितथी। जोसफ डेविड ने बाद में ईरानी की फिल्म कंपनी में लेखक का काम किया था। फिल्म की कहानी कुमारपुर नगर के शाही परिवार पर आधारित थी। अर्देशिर ने यह फिल्म अंग्रेज़ी फिल्म 'शो बोट' को देखकर बनाई थी।
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Thursday, January 18, 2018

सरकारों का फैसला अब सोशल मीडिया ही करेगा!


    भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार सोशल मीडिया की चुनावी नतीज़ों पर छाप स्पष्ट नज़र आ रही है। क्योंकि, आज लोगों के जीवन में सोशल मीडिया इतने गहरे तक रच-बस गया है कि उससे अलग होकर कुछ सोचना संभव नहीं! ऐसे में सोशल मीडिया के राजनीतिक प्रभाव से भी इंकार नहीं है! आने वाले चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका के महत्वपूर्ण होने को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। बल्कि, कहा जा सकता है कि चुनाव में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की हार-जीत भी यही मीडिया तय करेगा! वैसे पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की 'इमेज मेकिंग' का एक बड़ा काम सोशल मीडिया ने ही किया था! अब 5 साल बाद ये मीडिया कहीं ज्यादा विस्तृत हो गया है। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया क्या गुल खिलाएगा! अब किसी अन्य मीडिया पर चुनाव प्रचार का असर नहीं रह गया! क्योंकि, सोशल मीडिया  कारण पार्टी और उम्मीदवार की अच्छाई और बुराई किसी से छुपी नहीं रहती!    
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हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान शांत और सौम्य व्यवहार वाले माने जाते हैं। हाल ही में उनका एक वीडियो सामने आया, जिसमें उन्होंने धार जिले के सरदारपुर में निकाय चुनाव के दौरान रोड शो के दौरान साथ चल रहे अपने सुरक्षाकर्मी को धक्का दे दिया। इसी जिले के मनावर में भाजपा विधायक रंजना बघेल ने निकाय चुनाव के मतदान की पर्ची बाँटने वाली टेबल से भाजपा का झंडा निकलने वाले पुलिसकर्मी को डांटकर भगा दिया। धरमपुरी में नगर परिषद् चुनाव के भाजपा उम्मीदवार का स्वागत जूतों का हार पहनकर किया गया! आगर-मालवा में एकात्म यात्रा के झंडे थामने को लेकर सांसद मनोहर उंटवाल और विधायक गोपाल परमार के बीच मारपीट हुई। ये वो घटनाएं हैं, जो सोशल मीडिया के जरिये लोगों के सामने आई और उसपर व्यापक प्रतिक्रिया हुई! दस साल पहले किसी ने सोचा नहीं था कि चुनाव प्रचार या किसी कार्यक्रम में अव्यवस्था की ख़बरें चंद मिनटों में सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक पहुँच जाएगी!  
    हमारे देश में सोशल मीडिया में चुनाव प्रचार का पहला प्रयोग पिछले लोकसभा चुनाव (2014) में शुरू हुआ! नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष के रूप में प्रोजेक्ट करने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही थी। अब वह समय आ गया, जब चुनाव इंटरनेट पर लड़े जाएंगे! देश में 'फेसबुक' यूज़र्स की संख्या 17 करोड़ के करीब पहुँच चुकी है! यानी देश का हर 9वां व्यक्ति महीने में कम से कम एक बार 'फेसबुक' का इस्तेमाल करता है। यही स्थिति 'व्हाट्सएप्प' की भी है। इसके यूजर्स की संख्या भी 16 करोड़ के पार है। अमेरिका के बाद भारत 'फेसबुक' का सबसे बड़ा बाजार बन गया! भारत में 'व्हाट्सएप्प' तो वैसे भी दुनिया में सबसे बड़ा बाजार है। अधिकांश राजनीतिक दल सोशल मीडिया पर अपने प्रचार में करोड़ों खर्च कर रहे हैं। स्पष्ट है कि वे अपना पैसा पानी में तो नहीं डाल रहे हैं! फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर या यूट्यूब जैसे मीडिया पर राजनीतिक दलों का भरोसा है, उसके पीछे मॉस मीडिया की एक थ्योरी काम कर रही है। इसके मुताबिक, लोग जानकारी या विचारों के लिए इस मीडिया के जरिए किसी ओपीनियन मेकर को चुनते हैं। उसी की बात सुनी और कई बार मानी भी जाती है। इसे 'टू स्टेप थ्योरी' कहा जाता हैं। 
  इस बार के गुजरात चुनाव ने भी सोशल मीडिया को नई दिशा दी! कैंपेन, वायरल सेक्स सीडी कंटेंट और नेताओं के बयानों पर जोक इस बार के गुजरात चुनाव का अहम हिस्सा रहे हैं। यह चुनाव इस बार जमीन से ज्यादा सोशल मीडिया पर लड़ा गया। भाजपा ने राज्य में लोगों तक सीधी पहुंच के लिए 45 हज़ार व्हाट्सएप्प ग्रुप तैयार किए थे। कांग्रेस ने भी सोशल मीडिया पर कंटेंट भेजने के लिए इस मीडिया को समझने वाले कार्यकर्ताओं का सहारा लिया। यह सब 'विकास पागल हो गया है' जैसे कैंपेन के साथ शुरू हुआ! कहते हैं कि जब एक युवा ने एक ट्रक को डिवाइडर से टकराते देखा और अचानक से यह जुमला उनके दिमाग में आया। उसने इसे' फेसबुक' पर पोस्ट कर दिया। यह हैशटैग फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सअप पर चलने लगा और कांग्रेस ने तुरंत इसे पकड़ लिया। भाजपा ने इसका जवाब देते हुए नारा पोस्ट किया 'मैं हूँ विकास!'  
  गुजरात के करीब एक करोड़ इंटरनेट सब्सक्राइबर्स और स्मार्टफोन की पहुंच के कारण पार्टियों ने गुजरात चुनाव में सोशल मीडिया को काफी गंभीरता से लिया। पार्टी ने गुजरात चुनाव में मुख्य तौर पर सोशल मीडिया के दो प्लेटफॉर्म 'व्हाट्सएप्प' और 'फेसबुक' पर काफी फोकस किया। चुनाव से पहले गुजरात में कांग्रेस और भाजपा के फॉलोअर्स की संख्या करीब दो लाख थी! लेकिन, भाजपा गुजरात की व्यूवरशिप बढ़कर 25 लाख हो गई। भाजपा के लिए सोशल मीडिया का राजनीतिक मैसेज पूरी तरह नरेंद्र मोदी, अमित शाह और विजय रूपाणी के भाषणों पर बनाए गए विडियो पर आधारित था। जहां तक हार्दिक पटेल की बात है, तो उनकी सोशल मीडिया की टीम में 700 युवा थे। ये 'व्हाट्सएप्प' के अलग-अलग ग्रुपों और 'फेसबुक' पेज पर काम कर रहे थे। पिछली बार हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भी सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण रोल रहा था! पार्टी की कोर टीम के साथ देशभर में दस अलग-अलग स्थानों पर भी सोशल मीडिया टीम भी सक्रिय थी। साथ ही ट्विटर टीम से 200 से अधिक स्वयंसेवक सीधे तौर पर जुड़े थे। सोशल मीडिया की कोर टीम ने इसके इस्तेमाल का प्रशिक्षण भी दिया। विरोधी पार्टियों जब नेताओं पर हमला करने में व्यस्त थी, तब 'आप' ने स्थानीय मुद्दों को ज़्यादा तरज़ीह दी। 
   जिस सोशल मीडिया ने चार साल पहले नरेंद्र मोदी को राजनीति के शिखर पर बैठाया था। इन दिनों सोशल मीडिया में चल रही जुमलेबाजी में उसी मोदी-सरकार की नीतियों और काम की जमकर खिंचाई हो रही है। भाजपा को सोशल मीडिया का अच्छा खिलाड़ी माना जाता है, लेकिन अब पार्टी के लिए सोशल मीडिया को हैंडल करना मुश्किल हो रहा है! ऐसी ही कुछ स्थिति मध्यप्रदेश में भी है, जहाँ सरकार और पार्टी पर लगातार हमले हो रहे हैं। पार्टी को चिंता है कि उसकी बिगड़ती छवि देश के अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी असर डाल सकती है। 2018 में छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, मेघालय. मिजोरम, नगालैंड, राजस्थान और त्रिपुरा में चुनाव होने वाले हैं। भाजपा को सोशल मीडिया की मंझी हुई खिलाड़ी माना जाता है। पार्टी ऑनलाइन स्पेस में अच्छी खासी जगह रखती हैं, इसका ट्विटर बेहद ही एक्टिव है और सोशल मीडिया पर भी इसके मैसेज लोगों को आकर्षित करते हैं। ट्रोलिंग में भी पार्टी का जवाब नहीं, लेकिन पार्टी के लिए ऑनलाइन स्पेस में हो रही आलोचना और विरोध अब परेशानी बन गया है। 
  चुनाव में सोशल मीडिया भारत में नया प्रयोग है। पर, अमेरिकी चुनाव में ये काफी साल पहले ही अपने प्रभाव का ख़म ठोंक चुका है। 2008 का अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव दुनिया का पहला ऐसा चुनाव था, जिसके बारे में कहा गया था कि इसे पूरी तरह सोशल मीडिया पर लड़ा गया! बराक ओबामा की 'ट्विटर' और 'फेसबुक' टीम ने उनका एजेंडा वोटरों तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इससे पहले तक कहा जाता था कि अमेरिकी चुनाव टेलीविजन पर लड़े जाते हैं। तब चुनाव के नतीजे उम्मीदवारों की टीवी बहस में उनकी परफॉर्मेंस से ही तय हो जाते थे। लेकिन, अब यह ट्रेंड बदल चुका है। मॉस कम्युनिकेशन की दृष्टि से 2008 अमेरिका के लिए एक टर्निंग पॉइंट रहा। इसके बाद वहाँ चुनाव का चेहरा ही बदल गया। अमेरिका में सोशल मीडिया के प्रभाव का ही असर था कि निर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा की ह्वाइट हाउस में हुई पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहली बार एक ब्लॉगर को भी बुलाया गया था। तब यह पहली बार हुआ था, पर अब यह आम चलन है। 
  2018 के विधान सभा चुनाओं को मद्दे नज़र रखते हुए मध्यप्रदेश मे आम आदमी पार्टी ने बड़ी ही तेजी से सोशल मीडिया में अपनी जगह बनाई है। हाल ही में संपन्न दूसरे राज्यों के चुनावों का विश्लेषण करने पर साफ़ होता है कि अब सोशल मीडिया पूरे चुनावी कैंपेन का एक बहुत महतवपूर्ण हिस्सा है। कई बार तो ये निर्णायक भूमिका भी अदा कर रहा है। मध्य प्रदेश में पार्टी के हर कार्यक्रम की जानकारी, गतिविधियाँ, प्रदर्शन और मध्य प्रदेश सरकार के घोटाले देश के सामने आ रहे हैं। यूथ वोटर या फर्स्ट टाइम वोटर तक पार्टी की विचार धारा और दिल्ली सरकार के काम को पहुँचाने में यह टीम जी जान से जुटी हुई है। इस परिदृश्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि अब वोटर्स को प्रचार से रिझाना या भरमाना पार्टियों के लिए संभव नहीं है। आज हर वोटर्स के हाथ में ऐंड्रोइड मोबाइल फ़ोन है जो सबकी खबर रखता है। अगला चुनाव तो वही जीतेगा, जो सोशल मीडिया पर वोटर्स का दिल जीतेगा!  
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Monday, January 15, 2018

'बिग बॉस' के रियल होने पर संदेह!

- हेमंत पाल


    टेलीविजन का एक लोकप्रिय रियलिटी शो 'बिग बॉस' है। मूलतः ये शो नीदरलैंड में पहली बार टीवी के लिए बना, लेकिन वहाँ इसका नाम 'बिग ब्रदर' है। नीदरलैंड और इंडियन टेलीविजन के अलावा ब्रिटेन समेत कई देशों में ये रियलिटी शो वहाँ के सेलिब्रिटी को लेकर बनाया गया। इंडिया में सेलिब्रिटी का मतलब फिल्म और टीवी के कलाकार होते हैं, इसलिए यहाँ वे ही इस शो के प्रतियोगी बनते रहे। अभी तक इस शो के दस सीजन हो चुके हैं और ग्यारवां सीजन अपने अंत की तरफ है। इस शो में करीब 15 प्रतियोगी तीन महीने के लिए एक बड़े से घर में बंद रहते हैं। इन पर एक आभासी व्यक्ति सौ से ज्यादा कैमरों से नजर रखता है, जिसे 'बिग बॉस' के नाम से जाना जाता है। इस व्यक्ति की मौजूदगी बस इसकी आवाज़ से ही प्रतीत होती है।
  इस शो का कांसेप्ट इन सेलिब्रिटी की रियल-लाइफ को दर्शकों के सामने लाना है! पिछले बार से सेलिब्रिटी के साथ कुछ आम लोगों को भी इस शो में शामिल किया गया था, ताकि एक स्वस्थ मुकाबला सामने आए! तीन महीने तक कोई भी अपने मूल चरित्र को छुपाकर नहीं रख सकता और न एक्टिंग कर सकता है! इस आधार पर कहा जाता है कि 'बिग बॉस' में दर्शक वही देखते हैं, जो वास्तव में कैमरों के सामने घटता है! अभी तक यही समझा भी जा रहा था। लेकिन, क्या वास्तव में यही सच है? इस बार के 'बिग बॉस' सीजन में एक प्रतियोगी हिना खान ने शो के करीब आधे समय में एक ऐसी बात कही थी, जो शो के रियल होने पर ऊँगली उठाती है! हिना ने किसी बात पर परेशान होकर प्रियांक शर्मा और लव त्यागी से कहा था 'जब तक तुम हो, तब तक तो ठीक है, उसके बाद क्या होगा?' यानी उन्हें इस बात का पता है कि वे शो में फाइनल तक जाएंगी! इसे संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि वे अब शो की फाइनल प्रतियोगी बन गई और प्रियांक, लव दोनों शो से बाहर हो गए!    
   इससे लगता है कि क्या 'बिग बॉस' रियल नहीं पूरी तरह फिक्स है? हिना की इस बात से लगा था कि उन्हें अपने किरदार की पूरी जानकारी है! वे घर में शुरू से ही ग्रुप में खेली हैं। ऐसे में उन्हें चिंता थी, कि उनके ग्रुप के सदस्यों के बाहर होने के बाद बाकी घरवाले उनका क्या हश्र करेंगे? यदि ऐसा नहीं है, तो हिना पर उस आभासी 'बिग बॉस' ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की, जिसकी नजर से कोई बच नहीं पाता! हिना ने शो में शुरू से जिस तरह का व्यवहार किया है, उसे देखकर लगता है कि उन्हें अपने रोल की पूरी जानकारी है! उन्हें पता है कि वे कहाँ तक जाएंगी। उनके आगे-पीछे घूमने वाले घर के सदस्यों ने भी कई बार इस बात को भांपा है। सवाल है कि यदि हिना को इस बात की जानकारी है, तो संभव है बाकी लोग भी शो के 'रियल' और 'फेक' होने के बारे में जानते होंगे! 
  शो से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं, जो इसके रियल होने पर संदेह जताते हैं। क्या सेलिब्रिटी छोटी-छोटी बातों पर ऐसे ही झगड़ते है? क्या 'बिग बॉस' में दिखाई जानी वाली प्रेम कहानियाँ सच्ची होती हैं? प्रतियोगी बनकर आए सेलिब्रिटी 'बिग बॉस' की आवाज़ सुनकर भीगी बिल्ली क्यों बन जाते हैं? यदि हिना पर उठाई गई ऊँगली में कुछ सच्चाई है, तो ये संभावना भी है कि वे जानती हैं कि शो कौन जीतेगा! क्योंकि, अंतिम चार प्रतियोगियों को शॉपिंग मॉल ले जाकर प्रशंसकों के बीच उनकी लोकप्रियता आंकने के एक टॉस्क के बाद हिना बार-बार ये कहती नजर आ रही हैं कि शिल्पा शिंदे ये शो जीत रही है! इसलिए कि वहाँ लाइव-वोटिंग में शिल्पा को सबसे ज्यादा वोट मिले! यदि शिल्पा ये शो जीतती हैं तो इस बात में कोई शंका नहीं रह जाएगी कि 'बिग बॉस' के घर में कुछ भी रियल नहीं होता, सभी प्रतियोगी सिर्फ एक्टिंग करते हैं! 
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Friday, January 12, 2018

कांग्रेस के लिए हालात बेहतर, लेकिन पार्टी अभी तैयार नहीं!

   कांग्रेस इन दिनों उत्साहित है। उसे अहसास हो गया है कि प्रदेश की भाजपा सरकार की जमीन दरक रही है! बढ़ती अफसरशाही और उम्मीदों पर खरा न उतरने से जनता उससे नाराज है। नगर पंचायतों और नगर पालिकाओं जैसे छोटे चुनाव में भी भाजपा पिछड़ रही है! हाल ही में भाजपा दो विधानसभा उपचुनाव भी हारी है। गुजरात के चुनाव नतीजे भी भाजपा की उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे। मीडिया में ख़बरें भी है कि लोग अब बदलाव चाहते हैं! लेकिन, सामने कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा! लोग कांग्रेस की तरफ आस लगाए हैं, पर कांग्रेस ऐसा कुछ नहीं कर रही, जो लोगों की उम्मीद बँधाए! लोग कांग्रेस को भाजपा के विकल्प के रूप में देख तो रहे हैं, पर कांग्रेस खुद विकल्प बनने को तैयार दिखाई नहीं दे रही! लंबे अरसे से प्रदेश में कांग्रेस सुप्त अवस्था में है! अब जबकि, हालात कांग्रेस की तरफ झुकते दिखाई दे रहे हैं, खुद कांग्रेस अपनी खोल में समाती जा रही है।  

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- हेमंत पाल

   कांग्रेस हाईकमान की लाख कोशिशों के बाद भी कांग्रेस पार्टी में गुटबाजी ख़त्म नहीं हो रही! ये जानते हुए भी कि जब तक लोगों को कांग्रेस एक नहीं दिखाई देगी, किसी बेहतर नतीजे की उम्मीद नहीं की जा सकती! कांग्रेस के नेताओं के पास जब कोई काम नहीं होता, तो वे गुटबाजी का खेल खेलने लगते हैं। लेकिन, फिलहाल पार्टी को खुलकर सामने आना चाहिए, तो वो फिर उसी राह पर है। 'मिशन 2018' के लिए पार्टी किसी भी मोर्चे पर गंभीर दिखाई नहीं दे रही! अभी तक यही तय नहीं है कि पार्टी किस चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ने का मन बना भी रही है या नहीं! कुछ दिनों पहले हलचल सुनाई दी थी कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को शिवराजसिंह चौहान के मुकाबले में सामने रखकर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी, पर पार्टी के नए प्रभारी महासचिव दीपक बावरिया ने इस संभावना को नकार दिया! उन्होंने कहा कि पार्टी किसी को भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाएगी! लेकिन, ये कांग्रेस का अतिआत्मविश्वास ही आत्मघाती ही साबित होगा!
   कांग्रेस की गुटबाजी का संदेश जनता के बीच तो दो दशकों से पहुंच रहा है। राहुल गाँधी के हाथ में पार्टी की कमान आने के बाद लगा कि कुछ बदलाव आएगा, लेकिन अब वो उम्मीद भी धूमिल हो गई! ये भी तय हो गया कि गुटबाजी का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर प्रदेश में लम्बे समय से माहौल गरमाया जा रहा है। उनके नाम उछलने के पीछे निश्चित रूप से हाईकमान की सहमति भी होगी। इन नेताओं की सक्रियता के बीच ऐसे नजारे भी दिखे, जो संकेत दे रहे थे कि पार्टी अगले विधानसभा चुनाव को लेकर कमर कस चुकी है, पर जिस तरह से समय निकल रहा है, हालात ठीक दिखाई नहीं दे रहे! भाजपा सत्ता में रहते हुए भी 'मिशन 2018' के लिए कमर कस चुकी है, पर कांग्रेस अभी भी चुप है! अभी भी कांग्रेस के गुटों में बंटने का जो संदेश लोगों के बीच जा रहा है, वह अच्छा नहीं है। इन्हीं हालातों की वजह से जनता बार-बार कांग्रेस को नकारती आ रही है। यदि इस बार भी कांग्रेस नहीं संभली, तो उसे फिर उसी मोड़ पर खड़े होने को मजबूर होना पड़ेगा, जहाँ वो 2003 में थी! 
   अनुमान लगाया जा रहा था कि कांग्रेस 'मिशन-2018' के लिए किसी नए चेहरे को आगे बढ़ा सकती है। इस लिस्ट में ज्योतिरादित्य सिंधिया को सबसे ऊपर देखा जा रहा था। उनमें वो स्पार्क भी है, जिसकी आज कांग्रेस को जरुरत है! लेकिन, उनके आने से कई कांग्रेसियों का भविष्य अंधकार में चला जाएगा, इसलिए उन्हें बार-बार पीछे किया जा रहा है। प्रदेश के युवा विधायकों व कुछ चुनिंदा युवा पदाधिकारियों के साथ राहुल गांधी ने इस बारे में मंत्रणा भी की! पर, लगता नहीं कि इससे कुछ होगा! अभी भी प्रदेश की राजनीति बहुत कुछ ज्योतिरादित्य के इर्द-गिर्द ही घूमती है। कभी उनका विरोध उनको ख़बरों में बनाए रखता है, कभी उनके समर्थक उनकी हवा बनाने में सफल हो जाते हैं। यदि उन्हें आगे किया जाता है, तो निश्चित ही अच्छे नतीजों की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन, पार्टी अभी भी किस सोच में है, समझ नहीं आ रहा! पिछले करीब 8 महीने से ज्योतिरादित्य का नाम चल रहा है, पर फैसले जैसी कोई घड़ी अभी तक सामने नहीं आई!   
  मध्यप्रदेश में भाजपा लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतकर में है। 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा को मतदाताओं ने दो तिहाई से ज्यादा बहुमत देकर सत्ता में बैठाया था। उसके बाद कुछ समय के लिए बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने! उसके बाद से शिवराजसिंह चौहान प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में काबिज हैं। भाजपा ने तीनों विधानसभा चुनाव अपने बलबूते पर कम और कांग्रेस के नाकारापन के कारण ही जीते! अब भाजपा सरकार भी लोगों की उम्मीदें उस सक्षमता से पूरी नहीं कर पा रही है, जितनी कि आस थी! ऐसे में कांग्रेस भी भाग्य भरोसे छींका टूटने का रास्ता देख रही है! कांग्रेस खुद कोई मेहनत नहीं कर रही, बल्कि भाजपा के कमजोर होने का ही रास्ता देख रही है। आज कांग्रेस के पास न तो कोई कार्यक्रम है न भविष्य को लेकर कोई योजना! राजनीति के नाम पर सरकार और मुख्यमंत्री के विरोध और प्रदर्शन से ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा! पूरी पार्टी प्रवक्ताओं की बयानबाजी तक ही सीमित है। चुनाव के मुहाने पर आकर भी यदि अब कांग्रेस नहीं संभली, तो उसे एक और हार के लिए तैयार हो जाना चाहिए! इसलिए कि चुनाव के 8 महीने पहले भी कांग्रेस चिर-निंद्रा में ही है, जैसी पिछले 14 साल से है। 
  कांग्रेस ने 2014 में अरुण यादव को कांग्रेस की कमान सौंपी थी! क्योंकि, तब हार से आहत होकर कोई भी इस जिम्मेदारी को सँभालने को तैयार नहीं था! पिछले विधानसभा चुनाव के बाद तो कांग्रेस को किसी बड़े करिश्में की उम्मीद भी नहीं थी। मोदी-लहर ने पूरे देश में कांग्रेस को जबरदस्त पटकनी दी थी! लोकसभा चुनाव में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही बड़ी मुश्किल से अपनी सीट बचा पाए थे। अरुण यादव को भी खंडवा सीट से हार का मुँह देखना पड़ा था। सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस इस गुटबाजी से कभी मुक्त होगा? क्या सभी नेता मिलकर 'मिशन-2018' को लेकर निर्गुट राजनीति का एक उदाहरण पेश करने का मन नहीं बना पा रहे? 'मिशन-2018' से पहले मुख्यमंत्री पद का चेहरा और प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर चल रही जोर-आजमाइश कुछ ऐसे ही सवाल खड़े कर रही है। 
  सच ये भी है कि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं है कि उनके आने से कोई चमत्कार होगा? इतनी हारों के बाद भी कांग्रेस के दिग्गज नेताओं के कंधों पर यह भार नहीं है कि सभी साथ बैठकर प्रदेश में कांग्रेस की दुर्दशा पर विचार करें। साथ ही जनता के बीच गुटबाजी में बंटी कांग्रेस के मिथक को मिटाकर मजबूत कांग्रेस का भरोसा दिलाएं। लगता नहीं कि इन नेताओं ने कभी प्रदेश में पार्टी की दुर्दशा पर गंभीरता से विचार किया होगा? ये जानने की कोशिश भी नहीं की होगी कि कांग्रेस की ब्लॉक, जिला इकाईयां गुटबाजी में बंटी कांग्रेस का संदेश क्यों दे रही हैं। मैदानी स्तर पर ये इकाईयां भाजपा संगठन के सामने कहां खड़ी हैं? 
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Wednesday, January 10, 2018

दलितों की तो सिनेमा में भी हालत खस्ता!

- हेमंत पाल


  समाज में 'दलित' एक ऐसा शब्द बन गया, जो आज दमन, दुत्कार और दारिद्र का पर्याय है। यह शब्द सुनते ही एक ऐसा बेचारगी सा चेहरा सामने आता है, जिसकी दाढ़ी बढ़ी होती है, कपडे फटे, बाल रूखे और पेट खाली होता है। दलितों की ऐसी तस्वीर रचने में सिनेमा का भी योगदान कम नहीं रहा! नाना पलसीकर और मनमोहन कृष्ण जैसे कुछ कलाकारों ने इस छवि को ज्यादा ही स्थायी रूप दिया है। अस्पृश्यता पर बनी पहली फिल्म थी 1936 में आई देविका रानी और अशोक कुमार अभिनीत 'अछूत कन्या।' यह दलित समस्या के बजाए इस वर्ग की कन्या और ब्राह्मण लडके की शादी के विरोध को लेकर बनी और खूब चली। इसके बाद कुछ और निर्माताओं ने इस विषय पर हाथ आजमाए, लेकिन उनकी फिल्में दम नहीं पकड़ सकी! इससे पहले नीतिन बोस की 1934 में बनी 'चंडीदास' और 1935 में वी. शांताराम की 'धर्मात्मा' ने सतही तौर इस विषय को छूने का प्रयास किया था। दलित विषय पर 1959 में बनी बिमल राय की 'सुजाता' एक प्रेम कहानी थी। लेकिन, इसमें वास्तविकता, आदर्शवाद और मानवता का घालमेल कुछ इस तरह से किया गया था कि इसने देश-विदेश को दलित के असली चेहरे से परिचित कराया। आज भी ऐसी कोई फिल्म नहीं बनी जो 'सुजाता' के आगे उससे बड़ी लकीर खींच सके। 
  दलित और सवर्ण के प्रेम प्रसंग के दायरे को लांघने का साहस श्याम बेनेगल ने दिखाया और 1974 में 'अंकुर' और 1975 में 'निशांत' के माध्यम से दलित शमन और उत्पीडन को शिद्दत के साथ पेश किया। 1976 में आई 'मंथन' में एक बार फिर इस वर्ग की अशिक्षा और गरीबी को परदे पर उतारने की कोशिश की गई! नए सिनेमा में श्याम बेनेगल को इस वर्ग पर महारथ हांसिल है। जिसे उन्होंने 1982 में प्रदर्शित 'आरोहण' और 1983 में प्रदर्शित 'मंडी' के माध्यम से परदे पर पेश करने में सफलता हांसिल की। गोविंद निहलानी ने 'आक्रोश' में सामूहिक बलात्कार और हत्या से जुड़े मामले को पूरी ईमानदारी से पेश किया, तो प्रकाश झा की 1985 में प्रदर्शित 'दामुल' में जातिवाद और राजनीति को बिहार की पृष्ठभूमि में पेश किया था।  लम्बे समय के बाद 2011 में प्रकाश झा ने 'आरक्षण' के माध्यम से एक बार इस विषय को छूने का प्रयास किया। लेकिन, बाॅक्स ऑफिस का मोह इसे ले डूबा। 
  ऐसा भी नहीं कि हर बार दलित और उनकी समस्याओं को ईमानदारी से पेश किया गया हो! दर्जनों ऐसी फ़िल्में बनी जिसका दलितों की वास्तविक समस्याओं से दूर-दूर तक वास्ता तक नहीं था। यश चोपड़ा तक इस विषय से अपने को बचा नहीं पाए और 2007 में 'एकलव्य' जैसी फूहड़ फिल्म बना बैठे। राकेश रोशन ने दो बार इस विषय पर पैसा पानी की तरह बहाया! लेकिन, न तो उनकी 'जाग उठा इंसान' उन्हें सफलता दिला पाई और न शाहरूख को लेकर बनाई गई 'कोयला' ने बाॅक्स ऑफिस पर दहकने का काम किया। 1970 में प्रदर्शित जितेन्द्र, आशा पारेख की 'नया रास्ता' में भी इसी फॉर्मूले को दोहराया गया, जो किसी काम नही आया। दिलीप कुमार की अमर, देव आनंद की आँधी, राजकपूर और शम्मीकपूर की 'चार दिल चार राहें' में इस विषय को महज प्रसंग के रूप में शामिल किया गया था। दलितों के साथ सबसे ज्यादा भद्दा मजाक सावन कुमार की फिल्म 'सौतन' में किया गया। इसमें नीली आँखों वाले गोरे चिट्टे श्रीराम लागू के चेहरे पर जिस तरह से कालिख पोती गई थी, उसे देखकर दर्शकों को न आई हो ऐसा संभव नहीं!  
  दलित विषय पर बड़े केनवस वाली फिल्में यर्थावादी नहीं हो पाती। इसीलिए कम बजट पर बनी फिल्मों को इस विषय का वास्तविक चित्रण करने में सफलता मिली। 2014 में चैतन्य तम्हाणे की 'कोर्ट' को 62वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। 2015 में प्रदर्शित 'मसान' ने भी सफलता हांसिल की। हालांकि, यह दलित समस्या का कोई उचित समाधान पेश नहीं करती। फिर भी इसका फिल्मांकन उम्मीद जगाता है। पिछले साल जनवरी में प्रदर्शित विकास मिश्रा की 'चौरंग्या' भी इस विषय को अच्छी तरह से पेश करती है। जिस तरह से इन दिनों दलित आंदोलन की आग का धुंआ इधर-उधर उठता दिखाई दे रहा है, संभव है किसी फिल्मकार के दिमाग में एक बार फिर इस विषय पर फिल्म बनाने का कीडा कुलबुलाए!  


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Friday, January 5, 2018

मध्यप्रदेश की कुनबा परस्त राजनीति में भाजपा की हिस्सेदारी!

- हेमंत पाल 

 सभी राजनीतिक दलों में वंशवाद का घुन लगा हुआ है। हर नेता अपने बाद या अपने रहते अपने निर्वाचन क्षेत्र को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित करना चाहते हैं। ऐसे में पहले प्रधानमंत्री और अब अमित शाह की नसीहत के बाद 'पार्टी विद द डिफरेंस' कहलाने वाली भाजपा कितने वंशवादी सपूतों को अगले चुनाव में टिकिट देती है, ये देखना दिलस्चस्प होगा। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को अपनी पार्टी में वंशवाद नजर नहीं आता! उन्हें ये सब केवल कांग्रेस में दिखता है। जिस गांधी परिवार की तुलना नरेंद्र मोदी औरंगज़ेबी राज से कर रहे हैं, उसी परिवार का एक कुनबा भाजपा में ख़म ठोंककर बैठा है। मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति को देखकर तो साफ पता चलता है वंशवाद की अमरबेल भाजपा से किस तरह लिपटी हुई है। मध्यप्रदेश में भाजपा की वंशवादी राजनीति के सुबूत कम नहीं हैं। पार्टी के वंशवाद विरोध की ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि वह ख़ुद भी वंशवाद की गिरफ़्त में है और बाक़ी दलों को पीछे छोड़ती नज़र आ रही है। 
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  हमारे देश में सबसे बड़े लोकतंत्र का जमकर ढोल बजाया जाता हैं। चुनाव होते हैं, तो लोकतंत्र के महान उत्सव के जयकारे लगते हैं। लेकिन, नजदीक से देखने पर पता चलता है कि दरअसल ये एक तरह से राजे-रजवाड़ों की कोई प्रतियोगिता है। चुनाव जीतते हैं, तो राजतिलक होता है, हारते हैं तो हाथ जोड़कर निकल जाते हैं। इन्हीं रुझानों और प्रवृत्तियों का अध्ययन करते हुए ब्रिटिश लेखक और इतिहासकार पैट्रिक फ़्रेंच ने 2011 में अपनी किताब 'इंडियाः  अ पोट्रेट' में लिखा था कि वो दिन दूर नहीं जब भारत में एक तरह से राजशाही कायम हो जाएगी। ऐसा समय जहां पीढ़ीगत व्यवस्था के तहत कोई शासक गद्दी पर होगा! उन्होंने तो ये आशंका भी जाहिर कर दी थी कि भारतीय संसद कुनबों का सदन हो जाएगा। उनके इस अनुमान का नजारा दिखाई भी देने लगा है। 
    कुनबा राजनीति के प्रतिनिधियों को चुनने में मतदाताओं के नजरिए को लेकर भी कई अध्ययन हुए हैं। इनमें पाया गया कि मतदाता युवा हों, अधेड़ या फिर बुज़ुर्ग, उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वो किसी राजनीतिक दल को वोट दे रहे हैं या कुनबे के किसी व्यक्ति की राजनीतिक क्षमता को तौलकर! वे तो जैसे परिपाटी निभाते जाते हैं। लेकिन, लोकतंत्र के मुकम्मल विकास के लिए ये रवैया घातक हो सकता है। आगे चलकर ये उस अंदेशे को भी सच्चाई में बदल सकता है कि कहीं हो न हो इस देश में फिर राजा-प्रजा का वही पुराना सामंती दौर न आ जाए! हालांकि, वर्चस्व और दबंगई के कई नजारे नेताओं के अपने विधानसभा या संसदीय या प्रभाव वाले क्षेत्रों में दिखाई देते रहते हैं। जिस तरह आम लोग उन्हें सर झुकाकर प्रणाम करते या पांव छूते हैं, ये सब यही बताता हैं कि जो कल होने वाला है, वो टुकड़ों-टुकड़ों में तो आज भी सामने है।
  राहुल गाँधी 2017 के सितम्बर में अमेरिका दौरे पर गए थे। वहां उन्होंने बर्कले यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स को संबोधित किया। भारत के राजनीतिक दलों में वंशवाद से जुड़े एक सवाल पर राहुल ने कहा कि पूरा देश ही ऐसा चल रहा है। इसके लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, डीएमके नेता स्टालिन से लेकर ऐक्टर अभिषेक बच्चन तक के नाम गिनाए। उन्होंने कहा कि वास्तव में भारत में अधिकांश पार्टियों के अंदर यही समस्या है। इसलिए हम पर ही मत जाइए। अखिलेश यादव सत्ताधारी परिवारों के वंशज हैं तो स्टालिन भी वही हैं। प्रेमकुमार धूमल के बेटे भी उसी वंशवादी परंम्परा के वाहक हैं। यहां तक कि अभिषेक बच्चन भी कुनबापरस्ती से ही निकले हैं। पूरा भारत इसी तरह चल रहा है। मैं कांग्रेस पार्टी में बदलाव चाहता हूँ। कांग्रेस में ऐसे लोग ज्यादा नहीं, जो वंशवाद की देन नहीं हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिनके पिता, दादा, दादी या परदादा राजनीति में रहे हैं। मैं इस बारे में इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता हूँ।      राहुल गांधी के वंशवाद पर दिए इस बयान ने राजनीति में कुनबा और भाई-भतीजावाद को लेकर बहस छेड़ दी थी। इसके बाद हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भाजपा को वंशवाद विहीन बताते हुए कांग्रेस पर वंशवादी राजनीति के आरोप लगाए। लेकिन, मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति को देखकर तो साफ पता चलता है यहाँ भाजपा की कुनबा राजनीति के सुबूत कम नहीं हैं। विजयराजे सिंधिया की बेटी यशोधरा राजे सिंधिया, सुंदरलाल पटवा के भतीजे सुरेंद्र पटवा, कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी, कैलाश नारायण सारंग का बेटा विश्वास सारंग प्रदेश मंत्रिमंडल में हैं। विक्रम वर्मा की पत्नी नीता वर्मा, ज्ञान सिंह का बेटा शिवनारायण सिंह, लक्ष्मणसिंह गौड़ की पत्नी मालिनी गौड़, दिलीप सिंह भूरिया की बेटी निर्मला भूरिया, वीरेंद्र सखलेचा का बेटा ओमप्रकाश सखलेचा, फूलचंद वर्मा के बेटे राजेंद्र वर्मा और सारंगपुर में पूर्व विधायक अमरसिंह कोठार के बेटे कुंवरजी कोठार विधायक हैं। बाबूलाल गौर की बहू कृष्णा गौर भोपाल की महापौर रह चुकी हैं। ये वो सच है जो बताता है कि कुनबापरस्ती में भाजपा कहाँ कम से कम है। 
  भाजपा में कुनबावाद सिर्फ पहली पंक्ति के नेताओं तक सीमित नहीं है। इस परम्परा की अमर बेल दूसरी पंक्ति के नेताओं में भी बढ़ना शुरू हो गई! जबकि, पिछले साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि भाजपा नेता अपने परिवार के सदस्यों को टिकट देने के लिए दबाव न डालें। लेकिन, लगता है प्रधानमंत्री की इस सलाह को कम से कम मध्यप्रदेश में भाजपा ने तो किनारे कर ही दिया। जब भारतीय जनता युवा मोर्चा की कार्यकारिणी घोषित हुई, इसमें आधा दर्जन से ज्यादा नेता पुत्रों को जगह दी गई। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र सिंह तोमर, राज्यसभा सदस्य प्रभात झा के बेटे त्रिशमूल झा, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार चौहान के बेटे हर्षवर्धन सिंह, मंत्री नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण मिश्रा, मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव को इस कार्यकारिणी में शामिल किए गए। इन नेता पुत्रों को दी गई जगह साफ बताती है को भविष्य में इनके विधायक या सांसद के तौर पर राजतिलक की राजनीतिक बिसात बिछा दी गई है। मध्यप्रदेश में 'राज्य उपभोक्ता परिषद' का गठन किया गया है। परिषद के सदस्यों में राज्य सरकार ने पांच नेता पुत्रों को 'उपभोक्ता उपभोक्ता परिषद' में जगह दी गई। नवनियुक्त सदस्यों की सूची में विधायक और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश, मंत्री गोपाल भार्गव के पुत्र अभिषेक, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के पुत्र देवेंद्र सिंह तोमर, सांसद नागेंद्र सिंह के पुत्र जयंत सिंह और जयंत मलैया के बेटे सिद्धार्थ मलैया हैं!
   भोपाल में 2017 के मध्य में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि भाजपा राजनीति में वंशवाद के लिए कोई जगह नहीं है। उनके इस बयान के बाद प्रदेश भाजपा में खलबली मच गई थी। क्योंकि, प्रदेश में कई भाजपा नेता ऐसे हैं, जो अपने पुत्र-पुत्रियों को चुनावी मैदान में उतारने की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन अमित शाह के बयान ने सभी के अरमानों पर पानी फेर दिया है। लेकिन, क्या वास्तव में ऐसा होगा, इस बात में शंका है। अमित शाह ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी पार्टी के मंत्री और विधायकों को भी संकेत दिए थे कि अगले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा वंशवाद के आधार पर नहीं, बल्कि योग्यता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करेगी। उनका स्पष्ट मत था कि इससे पार्टी के योग्य कार्यकर्ताओं को मौका नहीं मिल पाता! जिससे बहुत बड़ा वर्ग अपने आपको उपेक्षित महसूस करता है।
   सैद्धांतिक रूप से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का यह बयान अमल में आ पाता है या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में छुपा है। क्योंकि, पिछली बार भी जब पार्टी ने नेता पुत्रों को टिकट दिए थे, तब यही कहा गया था कि पार्टी ने योग्यता के आधार पर टिकट वितरित किए हैं। अब कांग्रेस के कुनबावाद पर निशाना साधने वाले अपनी पार्टी में इस परंपरा को बढ़ावा देंगे या योग्यता को स्थान देंगे, यह देखने वाली बात होगी। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान के बेटे हर्षवर्धन सिंह चौहान, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा के बेटे त्रिशमूल झा, पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय, मंत्री नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण मिश्रा, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र सिंह तोमर, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के बेटे मंदार महाजन, मंत्री हर्ष सिंह के बेटे विक्रम सिंह, पूर्व मंत्री करणसिंह वर्मा के बेटे विष्णु वर्मा, कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन के बेटे मौसम बिसेन, वनमंत्री गौरीशंकर शेजवार के बेटे मुदित शेजवार, राज्यसभा सदस्य सत्यनारायण जटिया के बेटे राजकुमार जटिया, लक्ष्मीनारायण यादव के बेटे सुधीर यादव, मंत्री माया सिंह के बेटे पितांबर सिंह टिकट पाने वालों की लाइन में हैं।
  क्या कारण है कि राजनीति में कुनबावाद के लिए सिर्फ कांग्रेस, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव को ही कोसा जाता है! देश की बाकी पार्टियों की तरह भाजपा में भी इतने सारे परिवारों का कुनबावाद अच्छा कैसे है? कांग्रेस पर भाजपा सबसे ज़्यादा हमले भी करती है, पर दावा नहीं करती कि वह ख़ुद इससे मुक्त है! भाजपा जिस रफ़्तार से पार्टी में परिवारों का दखल बढ़ा रही है, बहुत जल्दी वो सभी पार्टयों को पीछे छोड़ देगी। कुछ अपवादों को छोड़कर भाजपा के लगभग सभी नेताओं के परिवार राजनीति में हैं। भाजपा के कुनबावाद विरोध की हक़ीक़त यह है कि वह ख़ुद भी इसकी गिरफ़्त में है! इस मामले में वो बाक़ी दलों को पीछे छोड़ती भी नज़र आ रही है। ऐसे में क्या अमित शाह और नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी में सक्रिय कुनबों की तुलना मुग़ल उत्तराधिकार से करना पसंद करेंगे?
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Tuesday, January 2, 2018

भाजपा के लिए यक्ष प्रश्न है '75 पार चुनाव से बाहर' फार्मूला!

- हेमंत पाल

  भारतीय जनता पार्टी के बारे में अकसर कहा जाता है कि ये केडरबेस पार्टी हैं, जहाँ सबकुछ निर्धारित नियम-कायदे के मुताबिक होता है। जब पार्टी विपक्ष में थी, बरसों तक यह होता भी रहा! लेकिन, सत्ता की चमक ने पार्टी को भटका और उलझा सा दिया है। 75 साल पार वाले नेताओं को राजनीतिक वानप्रस्थ आश्रम भेजने का फार्मूला ऐसा ही मुद्दा है, जो आने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी के गले की फाँस बनेगा। एक तरफ तो 75 पार के दो नेताओं बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को मंत्रिमंडल से निकाला गया। जबकि, इसके बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने स्पष्ट कह दिया पार्टी ने ऐसा कोई फैसला नहीं किया है कि 75 पार के नेताओं को चुनाव लड़ने से वंचित रखा जाए! ये ऐसी विरोधाभासी बातें हैं, जो पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से सामने आई! ऐसी स्थिति में अंतिम फैसला क्या होगा, ये असमंजस पार्टी के लिए नुकसानदेह हो सकता है। क्योंकि, अब उन भाजपा नेताओं की पहचान होने लगी है, जो अपनी उम्र की प्लैटिनम जुबली मनाने के नजदीक हैं। जहाँ से ये जीतते आए हैं, वहाँ विकल्प भी तलाशा जाने लगा है। जबकि, बाबूलाल गौर ने ख़म ठोंककर उसी सीट से फिर चुनाव लड़ने का दावा भी किया था, जहाँ से वे 9 बार जीते हैं। 
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  मध्यप्रदेश में अगले साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इन चुनाव में भाजपा के 75 पार उम्र वाले नेताओं को टिकट मिलेंगे या नहीं, ये सवाल अभी भी सवाल ही है! पार्टी ने भी अभी तक इस सवाल का जवाब दबाकर ही रखा है कि इस मामले में क्या नीति अपनाई जाएगी! क्योंकि, पिछले कुछ महीने पहले जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भोपाल आए थे, तब उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि 75 पार के नेताओं को पार्टी टिकट नहीं देगी, ऐसी कोई नीति नहीं बनाई गई! उनके इस बयान के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और उम्रदराज होने के नाते शिवराज मंत्रिमंडल से विदा हुए बाबूलाल गौर की बांछे खिल गई थी। भोपाल की गोविंदपुरा विधानसभा सीट से कई बार चुनाव जीतने वाले गौर की उस पीड़ा को अमित शाह ने दूर कर दिया, जो उनके अनुभव के आगे उम्र की सीमा के चलते छोटा हो गया था। अमित शाह की घोषणा के बाद करीब दो दर्जन नेताओं के फिर सक्रिय होने की उम्मीद जागी है। पार्टी की रणनीति यह है कि 'मिशन-2018' में पार्टी को अनुभवी नेताओं का सहयोग मिले, साथ ही भितरघात का खतरा भी कम हो! लेकिन, जो उलझन खड़ी हो गई है, उसका निराकरण नहीं हो पा रहा! हालांकि, संविधान और क़ानून उम्र के आधार पर ऐसी किसी पाबंदी की बात नहीं करता!
  पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बयान के बाद से बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को हटाने के फैसले पर सवाल उठाने लगे थे! अब, जबकि विधानसभा चुनाव को एक साल भी नहीं बचा, पार्टी को अपना नजरिया स्पष्ट करना पड़ेगा कि वास्तव में 75 पार के नेता चुनाव में उतरेंगे या नहीं! यदि शाह के बयान को नीतिगत निर्णय समझा जाए तो 75 साल से ऊपर के लोगों के चुनाव न लड़ाने की कोई योजना नहीं है। उधर, विवादस्पद बयानबाजी के विख्यात प्रदेश के पार्टी के अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने कहा था कि अगले विधानसभा चुनाव में पार्टी की उम्र को लेकर बनाई गई गाइड लाइन को सख्ती से लागू किया जाएगा। जिनकी उम्र 75 साल पूरी हो चुकी है, उन्हें टिकट नहीं मिल पाएगा। यदि वास्तव में ऐसा हुआ तो मौजूदा कई बड़े नेताओं को राजनीतिक वानप्रस्थ की और गमन करना पड़ेगा। लेकिन, पार्टी की कथित रीति-नीति पर ऊँगली उठाने वाले भाजपा के कुछ नेता दबी जुबान से कहते कि पार्टी में अब कोई नैतिकता नहीं बची! अब नियम-कायदे इसलिए गढ़े जाते हैं कि किसे साइड लाइन करना है और किसे लाइन में आगे लाना है।
   प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने कहा था कि इस मुद्दे पर संगठन स्तर पर भले ही कोई गाइड लाइन न हो! लेकिन, मध्यप्रदेश में 75 पार उम्र के नेताओं को मंत्री नही बनाया जाएगा और टिकट भी खास परिस्थितियों में ही दिए जाएंगे। अमित शाह ने चुनाव लड़ने के लिए 75 साल की उम्र का फार्मूला नहीं होने के बयान से प्रदेश के एक दर्जन से ज्यादा नेताओं को सियासत में जैसे संजीवनी मिल गई थी। सियासत के इन उम्रदराज महारथियों को एक बार फिर टिकट ओर मंत्री पद मिलने से उम्मीदें भी बढ़ गई थी। बाबूलाल गौर ओर सरताज सिंह जैसे नेताओं के बयान भी आ गए कि हम चुनाव लड़ने के लिए तैयार है। अब ये नहीं कहा जा सकता कि टिकट के फार्मूले में राष्ट्रीय अध्यक्ष की बात का वजन होगा या बड़बोले प्रदेश अध्यक्ष का? क्योंकि, प्रदेश भाजपा में लगभग एक दर्जन नेता ऐसे है जो 75 साल की उम्र के आसपास होने के बावजूद राजनीति में सक्रिय रहना चाहते हैं। इनमें आधा दर्जन विधायक और करीब इतने ही सांसद है। इसके अलावा निगम मंडलो के अध्यक्ष भी 75 साल उम्र के करीब है। ये सभी भाजपा नेता अमित शाह के बयान के बाद मान चुके थे, कि अब संगठन उनके टिकट के दावे को नकारेगा नहीं। लेकिन, अभी भी दावे से कहा नहीं जा सकता कि पार्टी का अंतिम फैसला क्या होगा!
    अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव और उसके बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में यदि वास्तव में '75 पार चुनाव से बाहर' वाला फार्मूला लागू होता है तो बाबूलाल गौर (88 साल), सरताज सिंह (77 साल), रंजीतसिंह गुणवान (73 साल), रमाकांत तिवारी (76 साल), कुसुम मेहदले (72 पार), जयंत मलैया (70 पार), नागेंद्र सिंह (77 साल), सुमित्रा महाजन (74 साल), लक्ष्मीनारायण यादव (73 साल), मेघराज जैन (74 साल), सत्यनारायण जटिया (71 साल) और कैलाश जोशी (88 साल) को भी चुनाव से बाहर होना पड़ेगा। इस उहापोह के बावजूद मंत्रिमंडल से बाहर किए गए बाबूलाल गौर टिकट के लिए दावेदारी करने में पीछे नहीं हैं। उन्होंने यह भी दावा किया है कि व्यापमं घोटाले के कथित आरोपी लक्ष्मीकांत शर्मा और सेक्स कांड के आरोपी राघवजी भी भाजपा के टिकट पर ही चुनाव लड़ेंगे।
  यदि भाजपा ने ये फार्मूला लागू करके इन नेताओं को राजनीतिक वानप्रस्थ दे भी दिया, तो इस बात की क्या गारंटी है कि ये नेता अपनी मुखरता को काबू में रखकर ख़ामोशी से घर बैठ जाएंगे? बाबूलाल गौर और सरताज सिंह तो कई बार अपनी मुखरता का अहसास करा भी चुके हैं। बाकी के नेता अभी बोले नहीं हैं, पर वे खामोश रहेंगे, ये कहा नहीं जा सकता! ये भी हो सकता है कि वे खुलकर सामने आ जाएं और चुनाव में भाजपा के लिए चुनौती खड़ी कर दें! ये भी संभव है कि खामोश रहकर सेबोटेज करें! संभावना तो इस बात की भी है कि भाजपा की प्रतिद्वंदी पार्टी इस सर-फुटव्वल का अपने तरीके से फ़ायदा लेने की कोशिश करे! निष्कर्ष यही है कि '75 पार चुनाव से बाहर' वाला फार्मूला फिलहाल भाजपा के गले की फाँस बन गया है! इसे नंदकुमार सिंह चौहान जैसे बयानबाजों ने और उलझा दिया! भाजपा संगठन अपने फैसले से पलटता है, तो भी उसकी किरकिरी होना तो तय है! तब ये माना जाएगा कि पार्टी ने 75 पार वाले नेताओं के दबाव के आगे पार्टी को झुकना पड़ा!       
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