Thursday, January 18, 2018

सरकारों का फैसला अब सोशल मीडिया ही करेगा!


    भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार सोशल मीडिया की चुनावी नतीज़ों पर छाप स्पष्ट नज़र आ रही है। क्योंकि, आज लोगों के जीवन में सोशल मीडिया इतने गहरे तक रच-बस गया है कि उससे अलग होकर कुछ सोचना संभव नहीं! ऐसे में सोशल मीडिया के राजनीतिक प्रभाव से भी इंकार नहीं है! आने वाले चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका के महत्वपूर्ण होने को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। बल्कि, कहा जा सकता है कि चुनाव में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की हार-जीत भी यही मीडिया तय करेगा! वैसे पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की 'इमेज मेकिंग' का एक बड़ा काम सोशल मीडिया ने ही किया था! अब 5 साल बाद ये मीडिया कहीं ज्यादा विस्तृत हो गया है। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया क्या गुल खिलाएगा! अब किसी अन्य मीडिया पर चुनाव प्रचार का असर नहीं रह गया! क्योंकि, सोशल मीडिया  कारण पार्टी और उम्मीदवार की अच्छाई और बुराई किसी से छुपी नहीं रहती!    
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हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान शांत और सौम्य व्यवहार वाले माने जाते हैं। हाल ही में उनका एक वीडियो सामने आया, जिसमें उन्होंने धार जिले के सरदारपुर में निकाय चुनाव के दौरान रोड शो के दौरान साथ चल रहे अपने सुरक्षाकर्मी को धक्का दे दिया। इसी जिले के मनावर में भाजपा विधायक रंजना बघेल ने निकाय चुनाव के मतदान की पर्ची बाँटने वाली टेबल से भाजपा का झंडा निकलने वाले पुलिसकर्मी को डांटकर भगा दिया। धरमपुरी में नगर परिषद् चुनाव के भाजपा उम्मीदवार का स्वागत जूतों का हार पहनकर किया गया! आगर-मालवा में एकात्म यात्रा के झंडे थामने को लेकर सांसद मनोहर उंटवाल और विधायक गोपाल परमार के बीच मारपीट हुई। ये वो घटनाएं हैं, जो सोशल मीडिया के जरिये लोगों के सामने आई और उसपर व्यापक प्रतिक्रिया हुई! दस साल पहले किसी ने सोचा नहीं था कि चुनाव प्रचार या किसी कार्यक्रम में अव्यवस्था की ख़बरें चंद मिनटों में सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक पहुँच जाएगी!  
    हमारे देश में सोशल मीडिया में चुनाव प्रचार का पहला प्रयोग पिछले लोकसभा चुनाव (2014) में शुरू हुआ! नरेंद्र मोदी को विकास पुरुष के रूप में प्रोजेक्ट करने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही थी। अब वह समय आ गया, जब चुनाव इंटरनेट पर लड़े जाएंगे! देश में 'फेसबुक' यूज़र्स की संख्या 17 करोड़ के करीब पहुँच चुकी है! यानी देश का हर 9वां व्यक्ति महीने में कम से कम एक बार 'फेसबुक' का इस्तेमाल करता है। यही स्थिति 'व्हाट्सएप्प' की भी है। इसके यूजर्स की संख्या भी 16 करोड़ के पार है। अमेरिका के बाद भारत 'फेसबुक' का सबसे बड़ा बाजार बन गया! भारत में 'व्हाट्सएप्प' तो वैसे भी दुनिया में सबसे बड़ा बाजार है। अधिकांश राजनीतिक दल सोशल मीडिया पर अपने प्रचार में करोड़ों खर्च कर रहे हैं। स्पष्ट है कि वे अपना पैसा पानी में तो नहीं डाल रहे हैं! फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर या यूट्यूब जैसे मीडिया पर राजनीतिक दलों का भरोसा है, उसके पीछे मॉस मीडिया की एक थ्योरी काम कर रही है। इसके मुताबिक, लोग जानकारी या विचारों के लिए इस मीडिया के जरिए किसी ओपीनियन मेकर को चुनते हैं। उसी की बात सुनी और कई बार मानी भी जाती है। इसे 'टू स्टेप थ्योरी' कहा जाता हैं। 
  इस बार के गुजरात चुनाव ने भी सोशल मीडिया को नई दिशा दी! कैंपेन, वायरल सेक्स सीडी कंटेंट और नेताओं के बयानों पर जोक इस बार के गुजरात चुनाव का अहम हिस्सा रहे हैं। यह चुनाव इस बार जमीन से ज्यादा सोशल मीडिया पर लड़ा गया। भाजपा ने राज्य में लोगों तक सीधी पहुंच के लिए 45 हज़ार व्हाट्सएप्प ग्रुप तैयार किए थे। कांग्रेस ने भी सोशल मीडिया पर कंटेंट भेजने के लिए इस मीडिया को समझने वाले कार्यकर्ताओं का सहारा लिया। यह सब 'विकास पागल हो गया है' जैसे कैंपेन के साथ शुरू हुआ! कहते हैं कि जब एक युवा ने एक ट्रक को डिवाइडर से टकराते देखा और अचानक से यह जुमला उनके दिमाग में आया। उसने इसे' फेसबुक' पर पोस्ट कर दिया। यह हैशटैग फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सअप पर चलने लगा और कांग्रेस ने तुरंत इसे पकड़ लिया। भाजपा ने इसका जवाब देते हुए नारा पोस्ट किया 'मैं हूँ विकास!'  
  गुजरात के करीब एक करोड़ इंटरनेट सब्सक्राइबर्स और स्मार्टफोन की पहुंच के कारण पार्टियों ने गुजरात चुनाव में सोशल मीडिया को काफी गंभीरता से लिया। पार्टी ने गुजरात चुनाव में मुख्य तौर पर सोशल मीडिया के दो प्लेटफॉर्म 'व्हाट्सएप्प' और 'फेसबुक' पर काफी फोकस किया। चुनाव से पहले गुजरात में कांग्रेस और भाजपा के फॉलोअर्स की संख्या करीब दो लाख थी! लेकिन, भाजपा गुजरात की व्यूवरशिप बढ़कर 25 लाख हो गई। भाजपा के लिए सोशल मीडिया का राजनीतिक मैसेज पूरी तरह नरेंद्र मोदी, अमित शाह और विजय रूपाणी के भाषणों पर बनाए गए विडियो पर आधारित था। जहां तक हार्दिक पटेल की बात है, तो उनकी सोशल मीडिया की टीम में 700 युवा थे। ये 'व्हाट्सएप्प' के अलग-अलग ग्रुपों और 'फेसबुक' पेज पर काम कर रहे थे। पिछली बार हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भी सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण रोल रहा था! पार्टी की कोर टीम के साथ देशभर में दस अलग-अलग स्थानों पर भी सोशल मीडिया टीम भी सक्रिय थी। साथ ही ट्विटर टीम से 200 से अधिक स्वयंसेवक सीधे तौर पर जुड़े थे। सोशल मीडिया की कोर टीम ने इसके इस्तेमाल का प्रशिक्षण भी दिया। विरोधी पार्टियों जब नेताओं पर हमला करने में व्यस्त थी, तब 'आप' ने स्थानीय मुद्दों को ज़्यादा तरज़ीह दी। 
   जिस सोशल मीडिया ने चार साल पहले नरेंद्र मोदी को राजनीति के शिखर पर बैठाया था। इन दिनों सोशल मीडिया में चल रही जुमलेबाजी में उसी मोदी-सरकार की नीतियों और काम की जमकर खिंचाई हो रही है। भाजपा को सोशल मीडिया का अच्छा खिलाड़ी माना जाता है, लेकिन अब पार्टी के लिए सोशल मीडिया को हैंडल करना मुश्किल हो रहा है! ऐसी ही कुछ स्थिति मध्यप्रदेश में भी है, जहाँ सरकार और पार्टी पर लगातार हमले हो रहे हैं। पार्टी को चिंता है कि उसकी बिगड़ती छवि देश के अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी असर डाल सकती है। 2018 में छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, मेघालय. मिजोरम, नगालैंड, राजस्थान और त्रिपुरा में चुनाव होने वाले हैं। भाजपा को सोशल मीडिया की मंझी हुई खिलाड़ी माना जाता है। पार्टी ऑनलाइन स्पेस में अच्छी खासी जगह रखती हैं, इसका ट्विटर बेहद ही एक्टिव है और सोशल मीडिया पर भी इसके मैसेज लोगों को आकर्षित करते हैं। ट्रोलिंग में भी पार्टी का जवाब नहीं, लेकिन पार्टी के लिए ऑनलाइन स्पेस में हो रही आलोचना और विरोध अब परेशानी बन गया है। 
  चुनाव में सोशल मीडिया भारत में नया प्रयोग है। पर, अमेरिकी चुनाव में ये काफी साल पहले ही अपने प्रभाव का ख़म ठोंक चुका है। 2008 का अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव दुनिया का पहला ऐसा चुनाव था, जिसके बारे में कहा गया था कि इसे पूरी तरह सोशल मीडिया पर लड़ा गया! बराक ओबामा की 'ट्विटर' और 'फेसबुक' टीम ने उनका एजेंडा वोटरों तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इससे पहले तक कहा जाता था कि अमेरिकी चुनाव टेलीविजन पर लड़े जाते हैं। तब चुनाव के नतीजे उम्मीदवारों की टीवी बहस में उनकी परफॉर्मेंस से ही तय हो जाते थे। लेकिन, अब यह ट्रेंड बदल चुका है। मॉस कम्युनिकेशन की दृष्टि से 2008 अमेरिका के लिए एक टर्निंग पॉइंट रहा। इसके बाद वहाँ चुनाव का चेहरा ही बदल गया। अमेरिका में सोशल मीडिया के प्रभाव का ही असर था कि निर्वाचित राष्ट्रपति बराक ओबामा की ह्वाइट हाउस में हुई पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहली बार एक ब्लॉगर को भी बुलाया गया था। तब यह पहली बार हुआ था, पर अब यह आम चलन है। 
  2018 के विधान सभा चुनाओं को मद्दे नज़र रखते हुए मध्यप्रदेश मे आम आदमी पार्टी ने बड़ी ही तेजी से सोशल मीडिया में अपनी जगह बनाई है। हाल ही में संपन्न दूसरे राज्यों के चुनावों का विश्लेषण करने पर साफ़ होता है कि अब सोशल मीडिया पूरे चुनावी कैंपेन का एक बहुत महतवपूर्ण हिस्सा है। कई बार तो ये निर्णायक भूमिका भी अदा कर रहा है। मध्य प्रदेश में पार्टी के हर कार्यक्रम की जानकारी, गतिविधियाँ, प्रदर्शन और मध्य प्रदेश सरकार के घोटाले देश के सामने आ रहे हैं। यूथ वोटर या फर्स्ट टाइम वोटर तक पार्टी की विचार धारा और दिल्ली सरकार के काम को पहुँचाने में यह टीम जी जान से जुटी हुई है। इस परिदृश्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि अब वोटर्स को प्रचार से रिझाना या भरमाना पार्टियों के लिए संभव नहीं है। आज हर वोटर्स के हाथ में ऐंड्रोइड मोबाइल फ़ोन है जो सबकी खबर रखता है। अगला चुनाव तो वही जीतेगा, जो सोशल मीडिया पर वोटर्स का दिल जीतेगा!  
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