Wednesday, January 10, 2018

दलितों की तो सिनेमा में भी हालत खस्ता!

- हेमंत पाल


  समाज में 'दलित' एक ऐसा शब्द बन गया, जो आज दमन, दुत्कार और दारिद्र का पर्याय है। यह शब्द सुनते ही एक ऐसा बेचारगी सा चेहरा सामने आता है, जिसकी दाढ़ी बढ़ी होती है, कपडे फटे, बाल रूखे और पेट खाली होता है। दलितों की ऐसी तस्वीर रचने में सिनेमा का भी योगदान कम नहीं रहा! नाना पलसीकर और मनमोहन कृष्ण जैसे कुछ कलाकारों ने इस छवि को ज्यादा ही स्थायी रूप दिया है। अस्पृश्यता पर बनी पहली फिल्म थी 1936 में आई देविका रानी और अशोक कुमार अभिनीत 'अछूत कन्या।' यह दलित समस्या के बजाए इस वर्ग की कन्या और ब्राह्मण लडके की शादी के विरोध को लेकर बनी और खूब चली। इसके बाद कुछ और निर्माताओं ने इस विषय पर हाथ आजमाए, लेकिन उनकी फिल्में दम नहीं पकड़ सकी! इससे पहले नीतिन बोस की 1934 में बनी 'चंडीदास' और 1935 में वी. शांताराम की 'धर्मात्मा' ने सतही तौर इस विषय को छूने का प्रयास किया था। दलित विषय पर 1959 में बनी बिमल राय की 'सुजाता' एक प्रेम कहानी थी। लेकिन, इसमें वास्तविकता, आदर्शवाद और मानवता का घालमेल कुछ इस तरह से किया गया था कि इसने देश-विदेश को दलित के असली चेहरे से परिचित कराया। आज भी ऐसी कोई फिल्म नहीं बनी जो 'सुजाता' के आगे उससे बड़ी लकीर खींच सके। 
  दलित और सवर्ण के प्रेम प्रसंग के दायरे को लांघने का साहस श्याम बेनेगल ने दिखाया और 1974 में 'अंकुर' और 1975 में 'निशांत' के माध्यम से दलित शमन और उत्पीडन को शिद्दत के साथ पेश किया। 1976 में आई 'मंथन' में एक बार फिर इस वर्ग की अशिक्षा और गरीबी को परदे पर उतारने की कोशिश की गई! नए सिनेमा में श्याम बेनेगल को इस वर्ग पर महारथ हांसिल है। जिसे उन्होंने 1982 में प्रदर्शित 'आरोहण' और 1983 में प्रदर्शित 'मंडी' के माध्यम से परदे पर पेश करने में सफलता हांसिल की। गोविंद निहलानी ने 'आक्रोश' में सामूहिक बलात्कार और हत्या से जुड़े मामले को पूरी ईमानदारी से पेश किया, तो प्रकाश झा की 1985 में प्रदर्शित 'दामुल' में जातिवाद और राजनीति को बिहार की पृष्ठभूमि में पेश किया था।  लम्बे समय के बाद 2011 में प्रकाश झा ने 'आरक्षण' के माध्यम से एक बार इस विषय को छूने का प्रयास किया। लेकिन, बाॅक्स ऑफिस का मोह इसे ले डूबा। 
  ऐसा भी नहीं कि हर बार दलित और उनकी समस्याओं को ईमानदारी से पेश किया गया हो! दर्जनों ऐसी फ़िल्में बनी जिसका दलितों की वास्तविक समस्याओं से दूर-दूर तक वास्ता तक नहीं था। यश चोपड़ा तक इस विषय से अपने को बचा नहीं पाए और 2007 में 'एकलव्य' जैसी फूहड़ फिल्म बना बैठे। राकेश रोशन ने दो बार इस विषय पर पैसा पानी की तरह बहाया! लेकिन, न तो उनकी 'जाग उठा इंसान' उन्हें सफलता दिला पाई और न शाहरूख को लेकर बनाई गई 'कोयला' ने बाॅक्स ऑफिस पर दहकने का काम किया। 1970 में प्रदर्शित जितेन्द्र, आशा पारेख की 'नया रास्ता' में भी इसी फॉर्मूले को दोहराया गया, जो किसी काम नही आया। दिलीप कुमार की अमर, देव आनंद की आँधी, राजकपूर और शम्मीकपूर की 'चार दिल चार राहें' में इस विषय को महज प्रसंग के रूप में शामिल किया गया था। दलितों के साथ सबसे ज्यादा भद्दा मजाक सावन कुमार की फिल्म 'सौतन' में किया गया। इसमें नीली आँखों वाले गोरे चिट्टे श्रीराम लागू के चेहरे पर जिस तरह से कालिख पोती गई थी, उसे देखकर दर्शकों को न आई हो ऐसा संभव नहीं!  
  दलित विषय पर बड़े केनवस वाली फिल्में यर्थावादी नहीं हो पाती। इसीलिए कम बजट पर बनी फिल्मों को इस विषय का वास्तविक चित्रण करने में सफलता मिली। 2014 में चैतन्य तम्हाणे की 'कोर्ट' को 62वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। 2015 में प्रदर्शित 'मसान' ने भी सफलता हांसिल की। हालांकि, यह दलित समस्या का कोई उचित समाधान पेश नहीं करती। फिर भी इसका फिल्मांकन उम्मीद जगाता है। पिछले साल जनवरी में प्रदर्शित विकास मिश्रा की 'चौरंग्या' भी इस विषय को अच्छी तरह से पेश करती है। जिस तरह से इन दिनों दलित आंदोलन की आग का धुंआ इधर-उधर उठता दिखाई दे रहा है, संभव है किसी फिल्मकार के दिमाग में एक बार फिर इस विषय पर फिल्म बनाने का कीडा कुलबुलाए!  


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