Friday, January 5, 2018

मध्यप्रदेश की कुनबा परस्त राजनीति में भाजपा की हिस्सेदारी!

- हेमंत पाल 

 सभी राजनीतिक दलों में वंशवाद का घुन लगा हुआ है। हर नेता अपने बाद या अपने रहते अपने निर्वाचन क्षेत्र को आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित करना चाहते हैं। ऐसे में पहले प्रधानमंत्री और अब अमित शाह की नसीहत के बाद 'पार्टी विद द डिफरेंस' कहलाने वाली भाजपा कितने वंशवादी सपूतों को अगले चुनाव में टिकिट देती है, ये देखना दिलस्चस्प होगा। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को अपनी पार्टी में वंशवाद नजर नहीं आता! उन्हें ये सब केवल कांग्रेस में दिखता है। जिस गांधी परिवार की तुलना नरेंद्र मोदी औरंगज़ेबी राज से कर रहे हैं, उसी परिवार का एक कुनबा भाजपा में ख़म ठोंककर बैठा है। मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति को देखकर तो साफ पता चलता है वंशवाद की अमरबेल भाजपा से किस तरह लिपटी हुई है। मध्यप्रदेश में भाजपा की वंशवादी राजनीति के सुबूत कम नहीं हैं। पार्टी के वंशवाद विरोध की ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि वह ख़ुद भी वंशवाद की गिरफ़्त में है और बाक़ी दलों को पीछे छोड़ती नज़र आ रही है। 
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  हमारे देश में सबसे बड़े लोकतंत्र का जमकर ढोल बजाया जाता हैं। चुनाव होते हैं, तो लोकतंत्र के महान उत्सव के जयकारे लगते हैं। लेकिन, नजदीक से देखने पर पता चलता है कि दरअसल ये एक तरह से राजे-रजवाड़ों की कोई प्रतियोगिता है। चुनाव जीतते हैं, तो राजतिलक होता है, हारते हैं तो हाथ जोड़कर निकल जाते हैं। इन्हीं रुझानों और प्रवृत्तियों का अध्ययन करते हुए ब्रिटिश लेखक और इतिहासकार पैट्रिक फ़्रेंच ने 2011 में अपनी किताब 'इंडियाः  अ पोट्रेट' में लिखा था कि वो दिन दूर नहीं जब भारत में एक तरह से राजशाही कायम हो जाएगी। ऐसा समय जहां पीढ़ीगत व्यवस्था के तहत कोई शासक गद्दी पर होगा! उन्होंने तो ये आशंका भी जाहिर कर दी थी कि भारतीय संसद कुनबों का सदन हो जाएगा। उनके इस अनुमान का नजारा दिखाई भी देने लगा है। 
    कुनबा राजनीति के प्रतिनिधियों को चुनने में मतदाताओं के नजरिए को लेकर भी कई अध्ययन हुए हैं। इनमें पाया गया कि मतदाता युवा हों, अधेड़ या फिर बुज़ुर्ग, उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वो किसी राजनीतिक दल को वोट दे रहे हैं या कुनबे के किसी व्यक्ति की राजनीतिक क्षमता को तौलकर! वे तो जैसे परिपाटी निभाते जाते हैं। लेकिन, लोकतंत्र के मुकम्मल विकास के लिए ये रवैया घातक हो सकता है। आगे चलकर ये उस अंदेशे को भी सच्चाई में बदल सकता है कि कहीं हो न हो इस देश में फिर राजा-प्रजा का वही पुराना सामंती दौर न आ जाए! हालांकि, वर्चस्व और दबंगई के कई नजारे नेताओं के अपने विधानसभा या संसदीय या प्रभाव वाले क्षेत्रों में दिखाई देते रहते हैं। जिस तरह आम लोग उन्हें सर झुकाकर प्रणाम करते या पांव छूते हैं, ये सब यही बताता हैं कि जो कल होने वाला है, वो टुकड़ों-टुकड़ों में तो आज भी सामने है।
  राहुल गाँधी 2017 के सितम्बर में अमेरिका दौरे पर गए थे। वहां उन्होंने बर्कले यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स को संबोधित किया। भारत के राजनीतिक दलों में वंशवाद से जुड़े एक सवाल पर राहुल ने कहा कि पूरा देश ही ऐसा चल रहा है। इसके लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, डीएमके नेता स्टालिन से लेकर ऐक्टर अभिषेक बच्चन तक के नाम गिनाए। उन्होंने कहा कि वास्तव में भारत में अधिकांश पार्टियों के अंदर यही समस्या है। इसलिए हम पर ही मत जाइए। अखिलेश यादव सत्ताधारी परिवारों के वंशज हैं तो स्टालिन भी वही हैं। प्रेमकुमार धूमल के बेटे भी उसी वंशवादी परंम्परा के वाहक हैं। यहां तक कि अभिषेक बच्चन भी कुनबापरस्ती से ही निकले हैं। पूरा भारत इसी तरह चल रहा है। मैं कांग्रेस पार्टी में बदलाव चाहता हूँ। कांग्रेस में ऐसे लोग ज्यादा नहीं, जो वंशवाद की देन नहीं हैं। कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिनके पिता, दादा, दादी या परदादा राजनीति में रहे हैं। मैं इस बारे में इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता हूँ।      राहुल गांधी के वंशवाद पर दिए इस बयान ने राजनीति में कुनबा और भाई-भतीजावाद को लेकर बहस छेड़ दी थी। इसके बाद हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भाजपा को वंशवाद विहीन बताते हुए कांग्रेस पर वंशवादी राजनीति के आरोप लगाए। लेकिन, मध्यप्रदेश की भाजपा राजनीति को देखकर तो साफ पता चलता है यहाँ भाजपा की कुनबा राजनीति के सुबूत कम नहीं हैं। विजयराजे सिंधिया की बेटी यशोधरा राजे सिंधिया, सुंदरलाल पटवा के भतीजे सुरेंद्र पटवा, कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी, कैलाश नारायण सारंग का बेटा विश्वास सारंग प्रदेश मंत्रिमंडल में हैं। विक्रम वर्मा की पत्नी नीता वर्मा, ज्ञान सिंह का बेटा शिवनारायण सिंह, लक्ष्मणसिंह गौड़ की पत्नी मालिनी गौड़, दिलीप सिंह भूरिया की बेटी निर्मला भूरिया, वीरेंद्र सखलेचा का बेटा ओमप्रकाश सखलेचा, फूलचंद वर्मा के बेटे राजेंद्र वर्मा और सारंगपुर में पूर्व विधायक अमरसिंह कोठार के बेटे कुंवरजी कोठार विधायक हैं। बाबूलाल गौर की बहू कृष्णा गौर भोपाल की महापौर रह चुकी हैं। ये वो सच है जो बताता है कि कुनबापरस्ती में भाजपा कहाँ कम से कम है। 
  भाजपा में कुनबावाद सिर्फ पहली पंक्ति के नेताओं तक सीमित नहीं है। इस परम्परा की अमर बेल दूसरी पंक्ति के नेताओं में भी बढ़ना शुरू हो गई! जबकि, पिछले साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि भाजपा नेता अपने परिवार के सदस्यों को टिकट देने के लिए दबाव न डालें। लेकिन, लगता है प्रधानमंत्री की इस सलाह को कम से कम मध्यप्रदेश में भाजपा ने तो किनारे कर ही दिया। जब भारतीय जनता युवा मोर्चा की कार्यकारिणी घोषित हुई, इसमें आधा दर्जन से ज्यादा नेता पुत्रों को जगह दी गई। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र सिंह तोमर, राज्यसभा सदस्य प्रभात झा के बेटे त्रिशमूल झा, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार चौहान के बेटे हर्षवर्धन सिंह, मंत्री नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण मिश्रा, मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव को इस कार्यकारिणी में शामिल किए गए। इन नेता पुत्रों को दी गई जगह साफ बताती है को भविष्य में इनके विधायक या सांसद के तौर पर राजतिलक की राजनीतिक बिसात बिछा दी गई है। मध्यप्रदेश में 'राज्य उपभोक्ता परिषद' का गठन किया गया है। परिषद के सदस्यों में राज्य सरकार ने पांच नेता पुत्रों को 'उपभोक्ता उपभोक्ता परिषद' में जगह दी गई। नवनियुक्त सदस्यों की सूची में विधायक और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश, मंत्री गोपाल भार्गव के पुत्र अभिषेक, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के पुत्र देवेंद्र सिंह तोमर, सांसद नागेंद्र सिंह के पुत्र जयंत सिंह और जयंत मलैया के बेटे सिद्धार्थ मलैया हैं!
   भोपाल में 2017 के मध्य में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि भाजपा राजनीति में वंशवाद के लिए कोई जगह नहीं है। उनके इस बयान के बाद प्रदेश भाजपा में खलबली मच गई थी। क्योंकि, प्रदेश में कई भाजपा नेता ऐसे हैं, जो अपने पुत्र-पुत्रियों को चुनावी मैदान में उतारने की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन अमित शाह के बयान ने सभी के अरमानों पर पानी फेर दिया है। लेकिन, क्या वास्तव में ऐसा होगा, इस बात में शंका है। अमित शाह ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी पार्टी के मंत्री और विधायकों को भी संकेत दिए थे कि अगले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा वंशवाद के आधार पर नहीं, बल्कि योग्यता के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करेगी। उनका स्पष्ट मत था कि इससे पार्टी के योग्य कार्यकर्ताओं को मौका नहीं मिल पाता! जिससे बहुत बड़ा वर्ग अपने आपको उपेक्षित महसूस करता है।
   सैद्धांतिक रूप से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का यह बयान अमल में आ पाता है या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में छुपा है। क्योंकि, पिछली बार भी जब पार्टी ने नेता पुत्रों को टिकट दिए थे, तब यही कहा गया था कि पार्टी ने योग्यता के आधार पर टिकट वितरित किए हैं। अब कांग्रेस के कुनबावाद पर निशाना साधने वाले अपनी पार्टी में इस परंपरा को बढ़ावा देंगे या योग्यता को स्थान देंगे, यह देखने वाली बात होगी। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान के बेटे हर्षवर्धन सिंह चौहान, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा के बेटे त्रिशमूल झा, पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय, मंत्री नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण मिश्रा, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र सिंह तोमर, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के बेटे मंदार महाजन, मंत्री हर्ष सिंह के बेटे विक्रम सिंह, पूर्व मंत्री करणसिंह वर्मा के बेटे विष्णु वर्मा, कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन के बेटे मौसम बिसेन, वनमंत्री गौरीशंकर शेजवार के बेटे मुदित शेजवार, राज्यसभा सदस्य सत्यनारायण जटिया के बेटे राजकुमार जटिया, लक्ष्मीनारायण यादव के बेटे सुधीर यादव, मंत्री माया सिंह के बेटे पितांबर सिंह टिकट पाने वालों की लाइन में हैं।
  क्या कारण है कि राजनीति में कुनबावाद के लिए सिर्फ कांग्रेस, लालू यादव और मुलायम सिंह यादव को ही कोसा जाता है! देश की बाकी पार्टियों की तरह भाजपा में भी इतने सारे परिवारों का कुनबावाद अच्छा कैसे है? कांग्रेस पर भाजपा सबसे ज़्यादा हमले भी करती है, पर दावा नहीं करती कि वह ख़ुद इससे मुक्त है! भाजपा जिस रफ़्तार से पार्टी में परिवारों का दखल बढ़ा रही है, बहुत जल्दी वो सभी पार्टयों को पीछे छोड़ देगी। कुछ अपवादों को छोड़कर भाजपा के लगभग सभी नेताओं के परिवार राजनीति में हैं। भाजपा के कुनबावाद विरोध की हक़ीक़त यह है कि वह ख़ुद भी इसकी गिरफ़्त में है! इस मामले में वो बाक़ी दलों को पीछे छोड़ती भी नज़र आ रही है। ऐसे में क्या अमित शाह और नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी में सक्रिय कुनबों की तुलना मुग़ल उत्तराधिकार से करना पसंद करेंगे?
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