Saturday, March 10, 2018

मध्यप्रदेश कांग्रेस में नेतृत्व की भूमिका पर उठते सवाल!

- हेमंत पाल

  गुजरात विधानसभा चुनाव में सम्मानजनक हार और कोलारस, मुंगावली उपचुनाव में जीत के बाद कांग्रेस का पूरा ध्यान साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। लेकिन, कांग्रेस की चुनावी तैयारी उतनी स्पष्ट नजर नहीं आ रही, जितनी दिखाई देना चाहिए! चुनाव को चंद महीने रह गए हैं, पर कांग्रेस में अभी भी सर फुटव्वल का दौर जारी है। लाख टके का सवाल है कि विधानसभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा? अरुण यादव ही चुनाव तक अध्यक्ष बने रहेंगे या उनकी जगह कोई और लेगा? किसी नेता को मुख्यमंत्री के चेहरे के लिए प्रोजेक्ट किया जाएगा या नहीं? ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की इन चुनाव में क्या भूमिका होगी? इन सवालों के जवाब जिन्हें देना हैं, वे खामोश हैं। पहले अटेर और उसके बाद कोलारस, मुंगावली की जीत के बाद कांग्रेस को खुलकर सामने आना था, पर ऐसा नहीं हुआ! इस जीत का जितना श्रेय ज्योतिरादित्य सिंधिया को मिलना था, वह भी कहीं गुम हो गया। ऐसे में शंका उभरती है कि क्या पिछले तीन चुनाव की तरह कांग्रेस इस बार भी भाजपा को वॉकओवर देने के मूड में है? यदि नहीं तो चुनावी हलचल दिखाई क्यों नहीं दे रही? 
0000000000 

    मध्यप्रदेश में बदहाल कांग्रेस को बाहर निकालने के लिए पार्टी के दो बड़े क्षत्रप बड़ी बेताबी से हाईकमान के इशारे का इंतजार कर रहे हैं। एक हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया और दूसरे हैं कमलनाथ। दोनों नेताओं को उम्मीद है कि वे कांग्रेस की नैया पार लगा देंगे। लेकिन, मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सियासत का मिजाज कहता है कि यहाँ अकेला चना कुछ नहीं कर सकता। प्रदेश में कांग्रेस सत्ता में तभी लौटेगी, जब कबीलों में बंटी कांग्रेस का मजबूत गठजोड़ बनेगा। पिछले तीन चुनाव से तो यहाँ आपस में ही एक-दूसरे को निपटाने का खेल चल रहा है। 2003 में जब दिग्विजय सिंह की करारी हार हुई थी, उसके बाद से ही यहाँ शह और मात का खेल चल रहा है। बाद में हुए दो चुनाव में तो कांग्रेस ने भाजपा के बजाए आपस में ही चुनाव ज्यादा लड़ा! 2008 में सुरेश पचौरी को निपटाने की चाल चली गई, तो 2013 में दिग्विजय सिंह के खेमे के कांतिलाल भूरिया को किनारे करने के लिए जुगत लगाई गई! इस बार प्रदेश में सत्ता विरोधी हालात हैं, पर कांग्रेस के नेताओं को उसे ज्यादा चिंता अपनी गोटी फिट करने की है।
   दो साल से मध्यप्रदेश की कांग्रेस कमेटी में नेतृत्व बदलाव का हल्ला है, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ! पार्टी ने न तो नेतृत्व बदलाव की बात को नकारा और न बदलाव ही किया। इसका असर ये पड़ा कि प्रदेश कांग्रेस में अस्थिरता बनी है। अरुण यादव बने रहेंगे या उनकी जगह कोई और लेगा, ये सवाल हमेशा हवा में बना रहा। आज भी ये सवाल ताजा है और जवाब का सभी को इंतजार है। राजनीतिक क्षेत्र में हलचल थी कि उपचुनाव के बाद कांग्रेस संगठन में बड़ा बदलाव होगा! लेकिन, ये होगा भी या नहीं, कोई नहीं जानता। अरुण यादव को राहुल गांधी ने राज्य में पार्टी का नेतृत्व करने के लिए चुना था। लेकिन, अब तक की स्थिति के मुताबिक तमाम कोशिशों के बाद भी वे कोई असरदार प्रभाव नहीं छोड़ पाए! उन्होंने कभी पदयात्रा की, कभी पोल खोल अभियान चलाया, लेकिन सारी कोशिशें बेअसर रही। क्योंकि, उनकी अपनी भी कुछ सीमाएं हैं, जिससे वे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। कांग्रेस के अंदरूनी बिखराव भी एक कारण रहा, जो उन्हें कामयाबी नहीं मिली। वे प्रदेश की जनता पर भी अपनी कोई छाप नहीं छोड़ सके।
  2008 में चुनाव से डेढ़ साल पहले जिस तरह उनके पिता सुभाष यादव को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया गया था। पार्टी में आज वही स्थिति अरुण यादव की है। वे चुनाव तक बने रहेंगे या जाएंगे, इस बारे में कोई कुछ नहीं कह रहा! अरुण यादव को भले ही राहुल गांधी का वरद हस्त प्राप्त हो, पर हालात उनके पक्ष में नजर नहीं आ रहे! उनके सामने कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दिग्गज खड़े हैं। हाल में लगातार तीन उपचुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद सिंधिया का दावा बहुत मजबूत नजर आ रहा है। वे अरुण यादव की कुर्सी के दावेदार भले न हों, पर मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने के उनके आसार ज्यादा हैं। ऐसे  कमलनाथ को अरुण यादव की जगह मौका दिया जाए तो आश्चर्य नहीं है। देखा जाए तो आज अकेले अजय सिंह ही हैं, जो अरुण यादव के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। विधानसभा में विपक्ष के नेता बने अजय सिंह का मिजाज कुछ बदला हुआ नजर आ रहा है। उनके मिजाज को इस बात से भांपा जा सकता है कि विधानसभा में अपना पदभार ग्रहण करने से पहले आयोजित स्वागत कार्यक्रम में उन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के साथ प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने का संकल्प लिया था। लेकिन, इस कार्यक्रम में वे मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने की खुद की इच्छा भी दबा नहीं सके थे।
  अभी ये मसला भविष्य के गर्भ में है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस मुख्यमंत्री पद के लिए किसी नेता को प्रोजेक्ट करेगी भी या नहीं! क्योंकि, प्रदेश प्रभारी दीपक बावरिया तो इससे इंकार ही कर चुके हैं। लेकिन, नेताओं ने अभी ये उम्मीद नहीं छोड़ी है। खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया भी खुले तौर पर कह भी चुके हैं कि प्रदेश में कांग्रेस को मुख्यमंत्री का चेहरा प्रोजेक्ट करना चाहिए। खुद के बारे में सवाल उठने पर उन्होंने कहा भी था कि पार्टी उन्हें जो भी जिम्मेदारी सौंपेगी, उसे वे निष्ठा के साथ निभाएंगे। वे अपने बयानों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंधिया पर लगातार हमले बोलते रहे हैं, जिससे उनकी दावेदारी को ज्यादा बल मिला है। अटेर के बाद कोलारस और मुंगावली उपचुनाव में कांग्रेस की जीत से उनके इस दावे को दम भी मिला है। प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे के निधन के बाद खाली हुई अटेर सीट के उपचुनाव में जिस तरह से उनके बेटे हेमंत कटारे की जीत हुई, उसमें भी ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कोलारस और मुंगावली की तरह अटेर विधानसभा उपचुनाव जीतने के लिए भी भाजपा ने सत्ता एवं संगठन के सारे संसाधन झोंक दिए थे, लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस जीती। सिंधिया ने पिछले तीनों उपचुनाव में सबको साथ लेकर आगे बढ़ने की अपनी क्षमता का बेहतर प्रदर्शन किया है।
  अरुण यादव की ऐसी छवि ऐसी नहीं है कि वे शिवराज सिंह का मुकाबला कर सकें। यह हवा भी चली थी कि यादव, सिंधिया और पचौरी की तिकड़ी शिवराज सिंह के मुकाबले में खड़ी की जाए। लेकिन, अहंकार के चलते यह संभव नहीं हो पाया। अब तो यही तय होना बाकी है कि चुनाव में कमलनाथ और सिंधिया की भूमिका क्या होगी? भाजपा से जंग के लिए कांग्रेस यदि कमलनाथ की जरूरत है, तो जनता को लुभाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे तारो ताजा चेहरे की भी उतनी ही दरकार है। नर्मदा परिक्रमा से लौटकर दिग्विजय सिंह की भूमिका भी अभी तय होना है। वे क्षत्रियों को एकजुट करने के साथ ही चुनाव की रणनीति बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, ये भी तय लग रहा है! दिग्विजय सिंह की प्रदेश की राजनीति में लौटने की कोई ललक नहीं है, ये भी अभी कहा नहीं जा सकता! लेकिन, ये तय है कि वे अपने बेटे जयवर्धन सिंह के लिए जगह बनाना चाहते हैं। यही कारण है कि वे ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरुण यादव की राह में रोड़ा बनते आए हैं। कमलनाथ की उम्र को देखते हुए, वे ज्यादा चिंतित नहीं हैं। आशय यही कि कोई किसी को नहीं सुहा रहा! पार्टी हाईकमान भी प्रदेश के इन क्षत्रपों की आपसी अदावत को समझ गया है। लेकिन, इस पूरी चुनावी पटकथा में अरुण यादव की भूमिका क्या होगी, ये कोई नहीं बता रहा!
---------------------------------------------------------------

No comments: