मध्यप्रदेश की एकमात्र राज्यसभा सीट के लिए कांग्रेस ने पुराने नेता राजमणि पटेल को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। उनका नाम चौंकाने वाला है।क्योंकि, राजमणि पटेल ऐसा नाम है, जिन्हें आज कि सक्रिय राजनीति के लोग भुला चुके हैं। 2003 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद से ही राजनीति की मुख्य धारा से बाहर हैं। लेकिन, अब पार्टी ने एक बार फिर उन पर दांव लगाकर अपना विश्वास व्यक्त किया है। दरअसल, राजमणि पटेल को इसलिए चुना, क्योंकि कांग्रेस का मानना है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के ओबीसी होने के कारण भाजपा की जड़ें मजबूत हुई है। वे किरार जाति से हैं, जबकि राजमणि कुर्मी हैं। काँग्रेस का यह फैसला प्रदेश के कुर्मी वोटरों को साधने के लिहाज से लिया गया है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, मध्यप्रदेश में जातीय राजनीति की हलचल बढ़ने लगी है। विधानसभा के बजट सत्र में भी विधायकों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों में जातियों से जुड़े सवाल बढ़े हैं।
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- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश अभी तक जातीय राजनीति से मुक्त माना जाता था। लेकिन, धीरे-धीरे यहाँ की राजनीति की नसों में भी जातीय राजनीति का जहर भरने लगा। उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह अब मध्यप्रदेश में भी राजनीति की धारा उसी दिशा में बढ़ती नजर आ रही है, जो उत्तर प्रदेश और बिहार में बहती है। जैसे-जैसे विधानसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों का सोच और समीकरण भी उसी नजरिए से गढ़े जा रहे हैं। इस बार प्रदेश के दोनों राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस का लक्ष्य 'अन्य पिछड़ा वर्ग' (ओबीसी) के वोटर्स को अपने पाले में लेकर राजनीति की चौंसर खेलना है। कांग्रेस का राजमणि पटेल को राज्यसभा में भेजने के पीछे का कारण भी वही बताया जा रहा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक मध्यप्रदेश में 'अन्य पिछड़ा वर्ग' (ओबीसी) की आबादी 3 करोड़ 70 लाख है, जो प्रदेश की कुल जनसंख्या का 51.02 प्रतिशत है। प्रदेश की कुल आबादी 7 करोड़ 26 लाख 26 हजार 809 है, जो देश की आबादी का 6% है। प्रदेश की आबादी का 15.51% अनुसूचित-जाति और 21.1% अनुसूचित जन-जाति है।
राजमणि पटेल को राज्यसभा में भेजने का फैसला करने के पीछे का कारण कांग्रेस का अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में पैठ बनाना बताया जा रहा है। लेकिन, इसके पीछे कोई तार्किक आधार नजर नहीं आ रहा! कांग्रेस के पास इस बात का शायद कोई जवाब नहीं होगा कि राज्यसभा में एक ओबीसी नेता को भेजने से पूरे प्रदेश में इस वर्ग को कैसे साधा जा सकता है? वास्तव में तो असल राजनीतिक समीकरण कुछ और होंगे! लेकिन, इस बहाने ओबीसी को साधने की कोशिश जरूर कर ली गई! न तो राजमणि पटेल प्रदेश में अकेले बड़े ओबीसी नेता हैं और न उनको राज्यसभा में भेजने से इस वर्ग के वोटर्स कांग्रेस की तरफ मुड़ जाएंगे। कांग्रेस ने सिर्फ राजमणि पटेल का ही दांव नहीं खेला, गुजरात के कांग्रेस विधायक एवं ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर ने भी मध्यप्रदेश में इसी समीकरण पर काम शुरू कर दिया है। वे भी प्रदेश में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव की तर्ज पर ओबीसी को एकजुट करने की कोशिश में लग गए हैं। वे प्रदेश में ओबीसी के युवाओं का संगठन बनाने में जुट गए। अल्पेश के मुताबिक विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के घोषणा पत्र में ओबीसी, अनुसूचित जाति, जनजाति को लेकर विकास के बिंदु शामिल किए जाएंगे। कुल मिलाकर प्रदेश का राजनीतिक माहौल इन दिनों ओबीसी को साधने में लगा है। इसे संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि पिछले दो-तीन विधानसभा सत्रों से मध्यप्रदेश विधानसभा में पूछे जाने वाले सवालों में जातीय सवाल ज्यादा होने लगे!
मध्यप्रदेश में बड़ी आबादी होने के बाद भी दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह राजनीतिक सशक्तिकरण नहीं हुआ? यहाँ आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग की भी आबादी में बड़ी हिस्सेदारी है। यहाँ उनका सशक्तिकरण न होने के पीछे सबसे बड़ा कारण ये रहा कि ज़्यादातर हिस्सा सामंतों के चंगुल में रहा। इस वजह से ये लोग हमेशा दोहरी, तिहरी ग़ुलामी में रहे। गुलामी की वही मानसिकता आज भी इन लोगों में है। मध्य प्रदेश के गठन से पहले ज़्यादातर हिस्से राजे-रजवाड़ों के अधीन थे। विलय के बाद भी इन रजवाड़ों ने अपने इलाके में कभी पिछड़ों, दलितों और अनुसूचित जातियों में राजनीतिक चेतना को उभरने नहीं दिया। मध्यप्रदेश में आबादी के हिसाब से क्षेत्रफल का घनत्व ज्यादा है। इस कारण संसाधन हांसिल करने के लिए यहां उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह संघर्ष नहीं करना पड़ता! यहाँ आदिवासी, दलित, पिछड़े वर्ग, महिला या अल्पसंख्यक आंदोलनों की भी कमी रही है। यही कारण है कि इनके बीच से कोई नेतृत्व उभरकर सामने नहीं आया।
मध्य प्रदेश में आदिवासी बेल्ट भी बिखरा हुआ है। लेकिन, फिर भी यहाँ आदिवासियों के बीच से राजनीतिक नेतृत्व उभरा! कांग्रेस की तरफ से जमुना देवी, शिवभानु सिंह सोलंकी, उनके पुत्र सूरजभान सिंह सोलंकी, अरविंद नेताम, उर्मिला सिंह, दिलीप सिंह भूरिया, कांतिलाल भूरिया जैसे आदिवासी नेता सामने आये हैं। शिवभानु सिंह सोलंकी और जमुना देवी तो उप-मुख्यमंत्री तक रहे! कांतिलाल भूरिया प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। लेकिन, आदिवासियों में अभी तक ऐसा कोई नेता नहीं हुआ जो अपने दम पर वजूद बना सका हो! जो भी नेता सामने आए हैं, उन्हें सवर्ण नेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए आगे बढ़ाया और राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया। लेकिन, एक बड़ी कमजोरी ये रही कि आदिवासियों से अगर कोई नेता बना तो वो उस वर्ग को भूल गया, जिसके दम पर चुनाव जीतकर आते हैं।
कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में आत्मनिर्भर आदिवासी राजनीतिक नेतृत्व को कभी उभरने नहीं दिया और अगर कुछ उभरे भी तो उन आदिवासी नेताओं को आत्मसात कर लिया। 80 और 90 के दशक में भारतीय जनता पार्टी से चुनौती मिलने के कारण कांग्रेस ने आदिवासियों और दलितों को पार्टी से जोड़ने के लिए कुछ कदम जरूर उठाए, पर बाद में उनका असर कम होता गया। इस दौरान देश के हिंदी भाषी इलाकों में पनप रहे दलित और पिछड़े वर्ग के आंदोलन के प्रभाव को कम करने के लिए मध्यप्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकारों ने आदिवासियों और दलितों के लिए विशेष पैकेजों की घोषणा भी की! दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में कई कदम उठाए गए। कांग्रेस की ये सारी पहल आदिवासियों और दलितों की आर्थिक स्थिति की बेहतरी के लिए थी। इससे उनको लाभ भी मिला भी। लेकिन, इस वर्ग को राजनीतिक स्तर पर सशक्त करने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए गए! इसी का नतीजा है कि प्रदेश में कांग्रेस को हमेशा दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग में से नेतृत्व तलाशना पड़ता है। राजमणि पटेल भी इसी तरह की एक कोशिश कही जा सकती है। आदिवासियों के अलावा मध्य प्रदेश में दलित आंदोलन भी उभर कर सामने नहीं आ सका। जबकि, उत्तर प्रदेश में दलित आंदोलन ने गहरी जड़ें पकड़ी 2007 में मायावती के नेतृत्व में 'बहुजन समाज पार्टी' ने अपने दम पर वहाँ सरकार बनाने लायक बहुमत हांसिल किया था।
मध्य प्रदेश में ये बात सिर्फ़ आदिवासी और दलित राजनीति तक ही सीमित नहीं है। पिछड़ी जातियों का भी यहाँ बड़ी आबादी है, लेकिन पिछड़े वर्गों ने भी तक अपने अधिकारों के लिए कोई सशक्त आंदोलन खड़ा नहीं किया। कांग्रेस के सुभाष यादव, अरुण यादव, भाजपा के शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती भी पिछड़े वर्ग से ही आते हैं। लेकिन, इनकी राजनीतिक सफलता को पिछड़े वर्गों का सशक्तिकरण नहीं कहा जा सकता। शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती हिंदुवादी आंदोलन से उभरे नेता हैं। जबकि, राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से प्रभावित और सामाजिक न्याय के नाम पर उभरे मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद जैसे नेताओं का राजनीतिक अस्तित्व आज भी बरक़रार है। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में दलित, आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग की बड़ी आबादी होने के बावजूद प्रदेश की राजनीति पर सवर्णों का ही राज है। राजमणि पटेल जैसे किसी नेता को चुना भी जाता है तो उसके पीछे भी सवर्ण राजनीति के समीकरण ही काम करते हैं।
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