Saturday, March 31, 2018

परदे पर कहीं खो गई किसान की पीड़ा!

हेमंत पाल
  सिनेमा के बारे में कहा जाता है कि वह अपने सौ साल से ज्यादा लम्बे जीवनकाल में हर दर्द की आवाज बनता रहा है। जब भी समाज के किसी अंग में दर्द होता, सिनेमा उस कराह को मनोरंजन की शक्ल में लोगों के सामने पेश करता! फिर ये दर्द वहाँ तक महसूस कराया जाता है, जहाँ इसका इलाज होता है! अभी तक तो यही होता आया था, पर अब शायद ये एक मिथक बनकर रह गया। अब सिनेमा के परदे से किसी दर्द की कराह नहीं उभरती! न तो अब सिनेमा की कहानियों में मजदूर बचे, न किसान और न समाज का वो कमजोर हिस्सा जहाँ कभी सिनेमा की कहानियाँ पहुंचा करती थीं! अब सिनेमा खालिस मनोरंजन बन गया जिसमें अधनंगे जिस्म की नुमाइश और बेसिरपैर की कहानियाँ बची हैं। 
   किसानों की बात की जाए तो 1953 में बनी फिल्म 'दो बीघा जमीन' देश के किसानों की पीड़ा को परदे पर पर उकेरने वाली संभवतः पहली फिल्म थी। फिल्म में जिस संवेदनशील और परिष्कृत ढंग से कर्ज जंजाल में फंसे किसान को जमीन से बेदखल किए जाने की कहानी को गूंथा गया था, उसने देखने वाले को अंदर तक झकझोर दिया था। यह फ़िल्म किसानों की दुनिया का सबसे मानवीय चित्रण था। फ़िल्म में न सिर्फ उपेक्षितों की, बल्कि शोषितों की भी पीड़ा उकेरी गई थी। फिल्म की खासियत थी कि ये एक मजबूर किसान के दर्द को गहराई तक प्रस्तुत कर पाई थी। किसान के लिए उसकी जमीन से कीमती और कुछ नहीं होता! उसके लिए ज़मीन महज भूमि का एक टुकड़ा नहीं, बल्कि सबकुछ होता है! जब उससे ये छीन ली जाए और उसे दाने-दाने को तरसाया जाए, तब की पीड़ा का आर्तनाद कान फोड़ने वाला ही होगा। फिल्म का मूल भाव इसी पीड़ा के आस-पास था।
  मेहबूब खान की 1957 में आई फिल्म 'मदर इंडिया' भी एक किसान के ही दर्द से कराहती फिल्म थी। लेकिन, फिल्म में किसान एक महिला थी, इसलिए पीड़ा कुछ ज्यादा ही उभरकर सामने आई। यह गरीबी से संघर्ष करती औरत राधा की कहानी है जो कई मुश्किलों का सामना करते हुए अपने बच्चों को पालने और खुद को जागीरदार से नजरों से बचाने की कोशिश में लगी रहती है। यह फ़िल्म बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फ़िल्मों में गिनी जाती है। इसे 1957 में तीसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाज़ा गया था। 
  1967 में आई मनोज कुमार की फिल्म 'उपकार' की कहानी राधा और उसके दो बेटों भारत और पूरन की थी। राधा की इच्छा अपने बेटों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने की थी। लेकिन, मजबूरी होती है कि अपने बेटों की पढ़ाई का खर्च वहन नहीं कर पाती है। भारत खुद की पढाई का त्याग करके पूरन को पढ़ाता है, पर पूरन रास्ते से भटक जाता है। ये अच्छाई और बुराई के संघर्ष की कहानी थी, जिसके अंत में अच्छाई जीतती है। लेकिन, एक मजबूर और की जिजीविषा भी इसमें झलकती है।     
  आमिर खान की 2001 में आई फिल्म 'लगान' भी किसानों और ब्रिटिश अफसरों की लगान वसूली पर टिकी थी। कहानी के मुताबिक जब सूखा पीड़ित  किसान लगान कम करने की मांग करते हैं, तो छावनी के ब्रिटिश फौजी अफसर क्रिकेट में उनको हराने की शर्त रख देते हैं। गाँव वाले ये शर्त स्वीकार कर लेते हैं और अंत में एक युवक भुवन की लगन से जीत भी जाते हैं। ये फिल्म भी किसानों की पीड़ा और उनके संघर्ष की दास्तान ही थी। 
  आमिर खान का ही 2010  निर्माण था 'पीपली लाइव' जो किसान के लिए बनी योजनाओं पर व्यवस्था की लापरवाही पर तमाचा थी। उस व्यवस्था पर जिसके पास मरे हुए किसान के लिए तो योजना है, लेकिन उसके लिए नहीं जो जीना चाहता है। ये उन पत्रकारों पर तमाचा थी, जिनकी लाइव आत्महत्या में तो रुचि होती है, पर रोज़ मरने वाले किसानों में नहीं! ये कहानी है उस भारत की है, जहां इंडिया की चमक फीकी ही नहीं पड़ती, बल्कि ख़त्म हो गई है। अब वो वक़्त गुजर गया जब फिल्मों में असली भारत के दर्शन हुआ करते थे। तब किसानों, मजदूरों और समाज के दबे-कुचले वर्ग की समस्याओं को कहानी में पिरोकर इस तरह दिखाया जाता था कि व्यवस्था को चलाने वाले तक सिहर जाते थे। अब तो 'सौ करोड़ क्लब' में शामिल होने की चाह ने फिल्मकारों के वो सारे दायित्व भुला दिए।     
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