- हेमंत पाल
हिंदी फिल्मों के दर्शकों का नजरिया धीरे-धीरे बदलता दिखाई दे रहा है। अब एक्शन. रोमांस और बदले की भावना वाली कहानियों पर फ़िल्में नहीं बन रही! यदि कोई हिम्मत कर भी रहा है तो ऐसी फ़िल्में पसंद नहीं की जा रही! प्रेम कहानियों पर बनी फ़िल्में भी प्रेक्टिकल होती जा रही हैं, जैसे 'बरेली की बरफी!' आशय यह कि फिल्मों का परिदृश्य पिछले दो-तीन सालों में तेजी से बदला है। विषयों में जितनी विविधता दिखाई दे रही है, इतनी पहले कभी नहीं दिखी। हल्की-फुल्की और छोटे बजट की फिल्मों का बाजार पनप रहा है। लग रहा है कि साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने वाले युवा हिंदी भाषी फिल्मकारों की जमात भी तैयार हो रही है। जिस तरह बायोपिक और चर्चित घटनाओं पर फ़िल्में बन रही है, लगता है अगला कदम किसी भी भाषा साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्में बनाने का ही होगा।
दरअसल, साहित्य और सिनेमा दोनों ही अलग-अलग विधा हैं। लेकिन, जब से फिल्मों में कहानियों को जगह मिलने लगी, इसका आधार साहित्यिक कृतियों ही थी। हिंदी की पहली फिल्म 'हरिश्चंद्र' भी भारतेंदु हरिशचंद्र के नाटक 'हरिशचंद्र' पर ही आधारित थी। इसके बाद प्रेमचंद की कई कालजई कृतियों पर फ़िल्में बनाई गई! कुछ चली तो कुछ को दर्शकों ने नकार दिया। मुंबईया फिल्मकार ने हिंदी की कृतियों पर फिल्म बनाने से हमेशा ही परहेज किया है। सालों में बमुश्किल कोई एक फिल्म आती है, जो किसी साहित्यिक कृति को आधार मानकर बनाई जाती है।
इसका कारण यह भी है कि साहित्यिक कृतियों पर फिल्म की बिकाऊ स्क्रिप्ट लिखना आसान नहीं होता। फिल्म के निर्माता और निर्देशन का उस साहित्यिक कृति के मूल भाव को समझना पहली शर्त है। इसके बाद स्क्रिप्ट भी उसी भाव को प्रदर्शित करे, तभी कोई फिल्म जन्म लेती है। क्योंकि, कथाकार की भावना को समझना, उसमें मनोरंजन का पक्ष ढूँढना और सबसे बड़ी बात ये पता लगाना कि जब ये परदे पर आएगी तो इसे दर्शक स्वीकारेंगे या नहीं! क्योंकि, हर फिल्म के पीछे व्यावसायिक दबाव भी काम करता है। ये दबाव भी होता है कि मनोरंजन के बीच साहित्यकार की सोच के साथ भी पूरा इंसाफ हो! इसलिए कि साहित्यकार अपनी कल्पना शक्ति से पाठकों को जिस कहानी से रूबरू करवाता है, फिल्मकार उसे उतनी ईमानदारी से परदे पर उतार भी पाता है या नहीं, ये भी ध्यान रखने वाली बात है। एक ही कहानी को अलग-अलग पाठक अपने मानस में अलग प्रभाव के साथ लेते हैं। जबकि, फिल्मकार को उसे हर दर्शक के नजरिए से सजाना पड़ता है। अब आज गुलजार जैसे फिल्मकार तो हैं नहीं, जो कमलेश्वर की कृति 'आँधी' और 'मौसम' के साथ न्याय करें।
किशोर साहू ने शेक्सपियर के नाटक 'हेमलेट' पर इसी नाम से एक फिल्म बनाई थी। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास 'चित्रलेखा' पर केदार शर्मा ने फिल्म बनाई, जो सफल भी रही। चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानी 'उसने कहा था' पर भी फिल्म बनी। आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास पर 'धर्मपुत्र' पर बीआर चोपड़ा ने फिल्म बनाई। फणीश्वरनाथ रेणु की 'कहानी मारे गए गुलफाम' पर 'तीसरी कसम' बनी और तीनों फिल्में बुरी तरह फ्लाप रहीं। कहानीकार राजेंद्र सिंह बेदी की कृति 'एक चादर मैली सी' पर भी जब फिल्म बनी, पर वह भी नहीं चली। इसका एक ही कारण था कि वे लेखक के मर्म को पकड़कर उसे परदे पर नहीं उतार सकीं!
इसे हिंदी फिल्मों का दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि फिल्मों में पैसा लगाने वालों का साहित्य से कोई सरोकार नहीं रहा! जबकि, बांग्ला और मराठी फ़िल्में लम्बे समय तक साहित्यिक कृतियों से जुडी रहीं। इसके विपरीत हिंदी सिनेमा पर पंजाबी, उर्दू और दक्षिण भारत के फिल्मकार हावी रहे हैं। 70 के दशक में जरूर हिंदी साहित्य पर फ़िल्में बनी, पर ये भी बांग्ला भाषी बासु चटर्जी ने बनाई। उन्होंने राजेंद्र यादव के उपन्यास 'सारा आकाश' मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच' पर 'रजनीगंधा' बनाई। इससे पहले शरदचंद्र के उपन्यासों पर फिल्म बनाने के कई प्रयोग हुए हैं। लेकिन, अब जिस तरह की फ़िल्में पसंद की जा रही है, उम्मीद है कि शायद फिल्मकारों की नजर अच्छी कहानियों पर पड़े और वे उन्हें परदे पर उतारने का जोखिम ले सकें।
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