- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में लगातार तीन चुनाव से सरकार चला रही भाजपा इस बार परेशान है! लेकिन, उसके सामने ऐसी क्या राजनीतिक मज़बूरी है कि चुनाव से पहले अध्यक्ष बदलने का फैसला लेना पड़ा? जबकि, भाजपा कैडर बेस पार्टी है, जिसमें नीचे से ऊपर तक जिम्मेदारियों का बंटवारा निर्धारित होता है। पार्टी और उसके कार्यकर्ता चुनाव के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। ऐसी भाजपा में चुनाव जीतने की घबराहट नजर आ रही है। इसका कारण है कि पार्टी के कार्यकर्ताओं को उससे शिकायत है। उनका कहना है कि 'शिवराज किसी से मिलते नहीं, नंदकुमार किसी की बात समझते नहीं और सुहास की चलती नहीं!' ये बात काफी हद तक सही भी है। किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता की यही इच्छा होती है कि उसकी बात को तवज्जो मिले! लेकिन, भाजपा संगठन ने कार्यकर्ता को पूरी तरह हाशिए पर रख दिया है। न तो उनकी किसी बात को सुना जा रहा था, न उनके कहने पर फैसले लिए जा रहे थे, और न किसी के पास उनसे मिलने का समय था! ऐसे में यही रास्ता बचा था कि प्रदेश का संगठन ऐसे व्यक्ति को सौंपा जाए, जो पार्टी के कार्यकर्ताओं का नेतृत्व करे! करीब सालभर की तलाश के बाद आखिर नरेंद्र तोमर को ही ये जिम्मेदारी देने का फैसला किया गया! क्योंकि, पार्टी को ऐसा कोई नेता नहीं मिला जो आरएसएस, अमित शाह और शिवराज सिंह चौहान तीनों की पसंद हो और कार्यकर्ताओं को साथ लेकर चले।
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भारतीय जनता पार्टी ने मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले अपने संगठन को संवारने का काम शुरू कर दिया है। इसका पहला संकेत है कि पार्टी ने हर तरफ से फेल हो चुके अध्यक्ष नंदकुमार चौहान को हटाने का फैसला कर लिया। किसी सत्ताधारी पार्टी के चुने हुए प्रदेश अध्यक्ष को उसकी अक्षमता के कारण हटाना वास्तव में चिंता की बात है। अब ये लगभग तय है कि ये जिम्मेदारी नरेंद्र तोमर संभालेंगे, जो पहले भी दो बार पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष कुर्सी पर विराजकर प्रदेश में भाजपा सरकार बनाने का रास्ता बना चुके हैं। क्योंकि, इस बार का चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं समझा जा रहा! मुसीबत के इस वक़्त में पार्टी किसी नए नेता को ये जिम्मेदारी सौंपकर जोखिम मोल नहीं लेना चाहती है। इस काम के लिए पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय, जबलपुर के सांसद राकेश सिंह, मंत्री नरोत्तम मिश्रा के नाम भी सामने आए थे। लेकिन, पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व न तो आपसी खींचतान में उलझना चाहता है न कोई ऐसा जोखिम लेना चाहता है जो बाद में अफ़सोस का कारण बने!
नरेंद्र तोमर को तीसरी बार चुनाव करवाने की जिम्मेदारी देने के पीछे कारण खोजे जाएं, तो समझ आ जाएगा कि उनके नाम पर सहमति क्यों बनी! इसलिए कि वे कार्यकर्ताओं के नेता हैं। जबकि, प्रदेश में लम्बे समय से पार्टी संगठन पूरी तरह से 'नेताओं के द्वारा और नेताओं के लिए' ही संचालित हो रहा है, जहाँ कार्यकर्ताओं के लिए जगह नहीं है। जबकि, ये सर्वमान्य सत्य है कि लोकतंत्र में जब भी चुनावी हार-जीत का मुद्दा उठता है कार्यकर्ताओं की भूमिका को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है। गुजरात में किनारे की जीत के बाद राजस्थान और उत्तरप्रदेश में हुए लोकसभा उपचुनाव में भाजपा की हार का कारण कार्यकर्ताओं की उपेक्षा ही था। मध्यप्रदेश में कोलारस और मुंगावली के विधानसभा उपचुनाव में सारी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा की हार, ये सबक दे गई कि बंद कमरों में रणनीति बनाकर चुनाव नहीं जीते जाते! जीत के लिए कार्यकर्ताओं की ऊर्जा की जरुरत होती है।
मध्यप्रदेश में चुनावी माहौल भाजपा के खिलाफ पनप रहा है, ये बात सिर्फ कही नहीं जा रही भाजपा भी इसे अच्छी तरह समझ रही है। इसकी बड़ी वजह लोगों में भाजपा के प्रति पनपता असंतोष और झूठे चुनावी वादे ही नहीं हैं। उससे ज्यादा गंभीर मामला है, भाजपा कार्यकर्ताओं में पनपती हताशा और संभावित हार का भय! लोगों में सरकार और पार्टी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण बनाए रखने में कार्यकर्ता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! लेकिन, सरकार को ये भ्रम हो गया है कि लोगों के बीच सरकार की छवि बनाए रखने में कार्यकर्ता से ज्यादा अफसरों की भूमिका जरुरी है। मसला महज लोगों की तकलीफों को सुनने या उन्हें हल करने का आश्वासन देने का नहीं है। लोग जिस भरोसे से अपनी सरकार चुनते हैं, उन्हें लगता है कि सरकार के फैसले उनके दर्द का इलाज होंगे! लेकिन, यहाँ सबसे बड़ी परेशानी है, स्वयं को 'सबकुछ' मान लेने का भ्रम!
पिछले कुछ सालों से संगठन और सरकार के फैसलों में पार्टी कार्यकर्ताओं और जनभावनाओं की अनदेखी हो रही है। जनता तो अपना फैसला सुनाने के लिए आजाद है, लेकिन संगठन ने कार्यकर्ताओं को जिस तरह हाशिए पर रख दिया है, मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर नजर आने लगा। पार्टी ने संगठन के जिम्मेदार पदों पर कई ऐसे नेताओं को जगह दे दी, जो उस पद के आसपास भी फिट नहीं बैठते! पार्टी के कई जिला अध्यक्ष ऐसे नेताओं को बना दिया जिनके प्रति कार्यकर्ताओं में रोष था। ये सिर्फ जिला अध्यक्षों के मामले में ही नहीं हुआ, हर स्तर पर बड़े नेताओं ने दोयम दर्जे के पदाधिकारियों को स्थानीय कार्यकर्ताओं की मर्जी जाने बिना जबरन बैठाया। प्रदेश संगठन के नए मुखिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि ऐसे लोगों की छंटनी करे और जिम्मेदार लोगों को ही सही जिम्मेदारी सौंपे! क्योंकि, पार्टी में सबसे बड़ा आक्रोश ही इस बात को लेकर है कि सत्ता में आने के बाद नेताओं ने कार्यकर्ताओं को भुला दिया!
नंदकुमार सिंह चौहान को हटाने की हलचल काफी पहले से चल रही थी। उनके रहते पार्टी में आपसी खींचतान और अंतर्कलह बहुत ज्यादा बढ़ गई! इससे संगठन लगातार कमजोर हुआ है। वहीं उपचुनावों में हार से भी मनोबल टूटा है। उधर, प्रदेश के संगठन महामंत्री सुहास भगत से भी पार्टी कार्यकर्ताओं ने बहुत ज्यादा अपेक्षाएं की थी! लेकिन, उन्हें निराशा ही हाथ लगी! सुहास भगत की ख़ामोशी और कथित निष्क्रियता से पार्टी कार्यकर्ता निराश भी हुआ और नाउम्मीद भी! कार्यकर्ताओं से उनकी दूरी बनी है। सतह पर जो दिख रहा है उसका निष्कर्ष यही निकाला जा रहा है कि भगत कार्यकर्ताओं की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे! जबकि, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तक कार्यकर्ताओं की पहुँच नहीं है। ऐसी स्थिति में विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी के लिए संगठन को मजबूत करना जरूरी था। यही कारण है कि नए प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सबसे आगे नरेंद्र तोमर का नाम सामने आया! तोमर को संगठनात्मक क्षमता के साथ ही प्रशासन पर मजबूत पकड़ और कुशल रणनीतिकार के रूप में जाना जाता है। उनकी छवि हवाबाजी करने वाले नेता के बजाए काम को तवज्जो देने वाले जमीनी नेता की है। वे पहले भी दो बार प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। वे 008 और 2013 में पार्टी के लिए संकट मोचक की भूमिका में थे और प्रदेश में भाजपा सरकार बनाने में अहम जिम्मेदारी निभाई! उनके कार्यकाल में संगठन को मजबूत माना जाता था।
गुजरात विधानसभा के चुनाव में भी नरेन्द्र तोमर अहम भूमिका निभा चुके हैं। लोकतांत्रिक समर के कुशल रणनीतिकार के रूप में उभरे केंद्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को गुजरात विधानसभा चुनाव का सह-प्रभारी बनाए जाने के पीछे उनकी इसी काबलियत को परखा गया था। मध्य प्रदेश सहित कई प्रदेशों में हुए चुनावों में वे अपनी कुशल रणनीति का कई बार परिचय दे चुके हैं। गुजरात विधानसभा का समर किसी भी सियासी पार्टी या ‘क्षत्रप’ के लिए किसी ‘वाटरलू’ से कम नहीं था। पार्टी आलाकमान की नजर में नरेन्द्र तोमर की छवि कुशल संगठक और परिश्रमी तथा चतुर चुनावी रणनीतिकार की है। शिवराज सिंह भी तोमर को अपने विजयरथ का सारथी मानते हैं।
भाजपा को इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिए कि प्रदेश में उसका कोई विकल्प नहीं है या जमीनी तौर पर कांग्रेस उनके मुकाबले में कहीं नहीं ठहरती! हर वोटर राजनीतिक नजरिए से नहीं सोचता! उसे लगता कि उसकी परेशानी का कारण सरकार है। बढ़ती महंगाई उसकी जेब पर भारी पड़ है। अफसरशाही उसके काम के आड़े आ रही है। जायज काम के लिए भी उसे रिश्वत देना पड़ रही है। अहम् भरी नेतागिरी में उसकी सुनवाई नहीं हो रही है, तो वो सत्ता पर काबिज पार्टी को छोड़कर किसी को भी वोट देने में देर नहीं करता! भारत का वोटर जब किसी के पक्ष में वोट देता है, तो उसका कारण दूसरी पार्टी से उसकी नाराजी होती है! फिर वो ये नहीं देखता कि आने वाली सरकार उसके हित में होगी या नहीं! उसकी नाराजगी यदि किसी के समर्थन का कारण बने, तो इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता! इसलिए बेहतर हो कि भाजपा को वोटर को भरमाने के भ्रम में न रहे!
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