Tuesday, July 31, 2018

कांग्रेस का अति-आत्मविश्वास कहीं आत्मघात साबित न हो!


- हेमंत पाल

  मध्यप्रदेश में कांग्रेस इन दिनों अति-आत्मविश्वास से चूर नजर आ रही है। कांग्रेस के नेताओं की भाव-भंगिमाएं, बोल व्यवहार से लगाकर चेहरे के हाव-भाव दर्शा रहे हैं कि सत्ता के दरवाजे उनके लिए खुल गए! चुनाव तो बस उस दरवाजे में प्रवेश करने का एक बहाना है! कांग्रेस को लग रहा है कि मध्यप्रदेश की सत्ता उससे हाथभर दूर है। पार्टी के हर नेता के तेवर ऐसे हैं, जैसे वोटर ने उनके कान में कह दिया हो, कि उसका वोट तो इस बार कांग्रेस को ही मिलेगा! बिना किसी कोशिश के वोटर उन्हें पाँच साल सरकार चलाने का पट्टा देने वाला है। पार्टी की बयानबाजी और गुरुर वाली भाषा से नहीं लग रहा कि ये पार्टी 15 साल से विपक्ष में छटपटा रही है। उसे लग रहा है कि भाजपा का दौर अब खत्म हो गया! सरकार चलाने नंबर अब उनका है। जबकि, सत्ता में होते हुए भी भाजपा की तैयारी कम नहीं लग रही! हर स्तर पर भाजपा मेहनत का पसीना बहाती दिख दे रही है। हमेशा चुनाव के मोड में रहने वाली भाजपा आसानी से कांग्रेस को सत्ता में आने मौका देगी, ऐसा नहीं लग रहा! जिस तरह से भाजपा ने चौथी बार सरकार बनाने के लिए कमर कसी है, लगता नहीं कि वो ये मौका भी हाथ से जाने देगी! लेकिन, यदि कांग्रेस वास्तव में भाजपा को सत्ता से हटाना चाहती है तो उसे धरातल पर आना पड़ेगा! वोटर की मनःस्थिति को समझना होगा! आत्मविश्वास तो रखना होगा, पर 'अति' रूप में नहीं!  
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   विधानसभा चुनाव को अब चार महीने भी नहीं बचे! धीरे-धीरे चुनाव का माहौल बन रहा है। वादों और आश्वासनों का राजनीतिक बाजार गरमाने लगा है। चुनाव में उतरने की तैयारी करने वालों ने कमर कास ली है! लेकिन, पंद्रह साल से सत्ता से बाहर रहने पर भी कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा कि वो भाजपा को किस कोने से उखाड़ने की तैयारी करे! क्योंकि, डेढ़ दशक में भाजपा ने अपनी जड़ें बहुत गहरे तक उतार दी! बूथ लेबल से लगाकर प्रचार तक में भाजपा ने पूरी ताकत झौंक दी। जबकि, मुकाबले में खड़ी कांग्रेस अभी तक चुनाव संघर्ष के लिए अपनी सेना ही खड़ी नहीं कर पाई! जिस सेना को युद्ध में सेनापति के लिए लड़ना है, उस सेना के ओहदेदार ही तय नहीं हो पा रहे! प्रदेश में पार्टी आपस की लड़ाई में ही उलझी नजर आ रही है।
    समझा जा रहा था कि कमलनाथ को पार्टी की कमान सौंपने के बाद सारे धड़े संतुलित हो जाएंगे, पर ऐसा नहीं हुआ! सत्ता मिलने से पहले ही सत्ता संघर्ष छिड़ गया! अंदर से जिस तरह की ख़बरें रिसकर बाहर आ रही हैं, वो अच्छा संकेत नहीं दे रही! पार्टी के सभी बड़े नेताओं की आपसी खींचतान बाहर तक दिखाई दे रही है। प्रदेश में विधानसभा की 230 सीटें हैं। इनमें अनुसूचित जाति की 35 और जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 47 है, जहाँ कांग्रेस को पूरी ताकत से लगना चाहिए, पर अभी तक कांग्रेस के नेताओं ने पहला राउंड ही पूरा नहीं किया! दिग्विजय सिंह अकेले नेता हैं जो भोपाल से बाहर निकलकर कांग्रेस के लिए किला लड़ा रहे हैं। 
   कांग्रेस आलाकमान ने मध्यप्रदेश के लिए मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया, इसलिए कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच जिस तरह का शीत युद्ध छिड़ा है, वो छुप नहीं रहा! अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव और प्रदेश के प्रभारी दीपक बावरिया ने अपने बयानों से इस युद्ध को और भड़का दिया! अपने आपको सर्वशक्तिमान दिखाने के फेर में वे कभी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करते हैं, तो कभी उपमुख्यमंत्री घोषित कर देते हैं। उनके इस तरह के बयानों से वोटर्स में गलत संदेश जा रहा है। वैसे वोटर्स का झुकाव सिंधिया की तरफ ज्यादा दिखाई देता है। उन्होंने मालवा इलाके में उज्जैन, इंदौर एवं धार में सभाएं भी की है, लेकिन वे 'अपना आदमीवाद' का मोह नहीं त्याग सके! सिंधिया कांग्रेस के अकेले ऐसे नेता हैं, जिन्हें सुनने के लिए भीड़ आती है। इस वजह से सिंधिया की सक्रियता से भाजपा की चिंता बढ़ती है। जबकि, कमलनाथ ने अभी तक प्रदेश में कोई दौरा नहीं किया। उनका ज्यादातर समय दिल्ली, भोपाल की परिक्रमा में ही गुजर रहा है। अध्यक्ष होने के नाते वे खुद को मुख्यमंत्री पद का सबसे मजबूत दावेदार मानते हैं। लेकिन, यदि उन्हें भाजपा को मुकाबले के लिए मजबूर करना है, तो पूरे लाव-लश्कर के साथ जंग में उतरना होगा!
  जबकि, तीन चुनाव में पहली बार भाजपा सरकार के खिलाफ लोगों की नाराजी देखने को मिल रही है। यही कारण है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपनी घोषणाओं से हर वर्ग को साधने की कोशिश में लगे हैं। उनकी 'जन आशीर्वाद यात्रा' में भी भीड़ तो जमा हो रही है, पर कार्यकर्ताओं और आम लोगों की नाराजी छुप नहीं रही! इस सच को भाजपा भी समझ रही है, इसलिए भाजपा ने अपने नाराज कार्यकर्ताओं को मनाने के लिए बड़े नेताओं को जिलेवार जिम्मेदारी सौंप दी। भाजपा के संगठन महामंत्री रामलाल भी प्रदेशभर का दौरा करके कार्यकर्ताओं को चुनाव के लिए तैयार कर रहे हैं। सत्ता में होते हुए भी पार्टी विधानसभा चुनाव के साथ ही अगले साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की जमीन भी बना रही है। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को उनके प्रभाव क्षेत्र में ही घेरने की रणनीति पर भी काम हो रहा है। लेकिन, चुनाव को लेकर क्या ऐसी तैयारी कांग्रेस की नहीं होना चाहिए? जबकि, कांग्रेस अपने आप में ही उलझी है। मतभेद भाजपा में भी कम नहीं है। जहाँ सत्ता की चाशनी होती है, वहाँ तो मतभेद ज्यादा होना स्वाभाविक भी है, पर वे सतह पर नहीं आ रहे! पार्टी के नाम पर भाजपा में सबका एक हो जाना, उनका सबसे सशक्त पक्ष है! 
  कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया से अलग दिग्विजय सिंह ने अलग ही मोर्चा संभाल रखा है। उन्होंने अपने आपको चुनावी राजनीति और मुख्यमंत्री पद की दौड़ से भी अलग रखा। उन्होंने स्पष्ट कहा कि मैं न तो चुनाव लड़ना चाहता हूँ और न मुख्यमंत्री बनना! कांग्रेस के साथ सबसे बड़ी परेशानी ये है, कि प्रदेश में उसके बड़े नेताओं में ही मतभेद नहीं हैं, कार्यकर्ता भी उसी अनुपात में बंटे हैं। मतभेदों की फाड़ ऊपर से नीचे तक साफ़ दिखाई दे रही है। जिलों से लगाकर छोटे-छोटे गाँव तक यही स्थिति है! पार्टी भी ये जानती है, इसलिए उसने बकायदा दिग्विजय सिंह को समन्वय का प्रभारी बनाया है। पार्टी ने उन्हें अलग-अलग गुटों के नेताओं के बीच समन्वय बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है, वे ये काम कर भी रहे हैं। प्रदेश की अपनी 'एकता यात्रा' के दौरान वे सभी कांग्रेसियों को एक करने के लिए उन्हें अन्न-जल की कसम भी खिला रहे हैं। दिग्विजय सिंह अपनी इस मुहिम के तहत आधे से ज्यादा प्रदेश का दौरा कर चुके हैं। लेकिन, लग नहीं रहा कि समन्वय का संदेश कार्यकर्ताओं के दिल में उतर भी रहा है! ये कसम खिलाकर आगे बढ़ते हैं, पीछे फिर कार्यकर्ता पीठ फेरकर खड़े हो जाते हैं। 
  पार्टी हाईकमान भी इस सच से वाकिफ है कि प्रदेश में पार्टी की गुटबाजी को काबू में करना आसान नहीं है। कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी, अरुण यादव और अजय सिंह तक ने अपने गुट बना रखे हैं। इसीलिए हर बड़े नेता को अलग जिम्मेदारी सौंपकर सामंजस्य लाने की कोशिश पार्टी ने की है! लेकिन, यह कोशिश सफल होगी, इसमें संदेह है। फिलहाल तो प्रदेश में पार्टी की पूरी राजनीति कमलनाथ और सिंधिया के आसपास ही सिमट गई! कमलनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती जिलों के बाद गाँव में संगठन खड़ा करने की है। इतने साल तक सत्ता से बाहर रहने के कारण कई  इलाकों में कांग्रेस के पास ऐसे चेहरे,भी नहीं बचे, जो भाजपा को सामने खड़े होकर चुनौती दे सकें! कई विधानसभा क्षेत्रों में तो कांग्रेस के पास चुनाव लड़ाने लायक चेहरे तक नहीं हैं! पार्टी अपनी कितनी भी ताकत दिखाने का दावा करे, पर जमीनी स्तर पर कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरी साफ़ समझ में आ रही है। बेहतर होगा कि कांग्रेस अति-आत्मविश्वास का दिखावा करने के बजाए, अपने सारे तुरुप के पत्ते समेटकर कोई सधी हुई चाल चले! यदि कांग्रेस के सारे बड़े खिलाड़ी एक-दूसरे के पत्ते उजागर करके भाजपा को हराने की कोशिश करेंगे, तो हो सकता है कि इस बार भी उन्हें विधानसभा में वही विपक्ष वाली कुर्सी नसीब होगी!
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