Tuesday, October 16, 2018

कांग्रेसी सियासत के गलियारों में दिग्विजयी धमक!


   मध्यप्रदेश में सियासी माहौल गरमा रहा है। पार्टियों में सही उम्मीदवार के लिए बार-बार पत्ते फैंटे जा रहे हैं। चुनाव की घोषणा के बाद से ही कांग्रेस और भाजपा के अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, सपाक्स, जयस और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी समेत और भी कई छोटी-छोटी पार्टियां भी दांव खेलने को तैयार हैं। डेढ़ दशक से प्रदेश की सत्ता में काबिज भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती 165 विधायकों में से जीतने वाले चेहरों को चुनना है। जबकि, कांग्रेस को अपने सिर्फ 57 विधायकों में से उन्हें चुनना है, जो उसके लिए सत्ता की सीढ़ी बन सकें। सारा दारोमदार उम्मीदवारों के चयन का है। जिस भी पार्टी ने मतदाताओं की नब्ज पहचानकर सही चेहरे को उम्मीदवार चुना, उसके लिए ये जंग आसान हो जाएगी। भाजपा का तो पूरा संगठन इस काम में लगा है! उधर, कांग्रेस में भी पार्टी आलाकमान के साथ प्रदेश के तीनों प्रमुख नेता अपने समर्थकों को टिकट दिलाने की कोशिश में हैं। लेकिन, हवा बताती है कि कांग्रेस के टिकटों के फैसले में दिग्विजय सिंह का पलड़ा कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया से कहीं ज्यादा भारी है।   
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- हेमंत पाल   
   र पार्टी के लिए चुनाव के मौसम में सबसे मुश्किल काम होता है, ऐसे उम्मीदवार को खोजना जो उसकी रीति-नीति पर खरा उतरने के साथ जीतने वाला मोहरा बन सके। मध्यप्रदेश के इस बार के विधानसभा चुनाव का दारोमदार इसी पर टिका है। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों अपने उम्मीदवारों को कई कसौटियों पर परख रही है। भाजपा ने तो काफी पहले से इसके लिए सर्वेक्षण करवाए और कई रिपोर्ट पर काम किया। ये काम कांग्रेस ने भी किया, पर अंतिम स्थिति में टिकट वितरण में किस नेता का पलड़ा भारी रहेगा, इसे लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में 57 सीटें मिली थी, इसलिए उसे अधिकांश नए चेहरों पर दांव लगाना होगा। पिछला चुनाव जीतने वाले विधायकों में से भी कुछ के टिकट कटना तय है, पर ज्यादातर विधायक फिर मैदान में दिखाई देंगे! अभी ये सवाल ही है कि किन विधायकों के टिकट कटेंगे और चुनाव में नए चेहरों को उतारने में किसका पलड़ा भारी रहेगा? कांग्रेस के चाणक्य कहे जाने वाले नेता दिग्विजय सिंह का, प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ का या फिर नए जोश वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का?
    विधानसभा चुनाव से पहले कहा जा रहा था, कि पार्टी ने टिकट बंटवारे से दिग्विजय सिंह को दूर रखने का फैसला किया है! लेकिन, हालात देखकर कहा नहीं जा सकता कि पार्टी ने ऐसा कोई फार्मूला तय किया होगा! ये किसी भी स्थिति में संभव भी नहीं है। सियासी अनुमान हैं कि प्रदेश की अधिकांश सीटों पर उनके दखल से ही नाम तय हो रहे हैं। चुनाव से पहले दिग्विजय सिंह की राजनीतिक सक्रियता को लेकर भी काफी भ्रम था। उनकी भूमिका क्या होगी, उन्हें प्रदेश की राजनीति में दखलंदाजी के योग्य समझा भी जाएगा या नहीं! ऐसे कई सवाल हवा में थे। लेकिन, पंद्रह साल तक मध्यप्रदेश की राजनीति से बाहर रहने वाले दिग्विजय सिंह ने 'नर्मदा-परिक्रमा' के बाद न केवल प्रदेश की राजनीति में सक्रिय वापसी की, बल्कि पार्टी को एक सूत्र में बांधने के लिए प्रदेशभर का दौरा भी किया। उनका 'संगत में पंगत' वाला फार्मूला काफी हद तक सफल माना गया। प्रदेश में समन्वय समिति के मुखिया के रूप में उन्होंने पार्टी को एक सूत्र में बांधने की जो कोशिश की, जो सही दिशा में उठाया गया कदम माना जा रहा है। 
    प्रदेश कांग्रेस में फिलहाल दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की विधानसभा सीटों के समीकरण से वाकिफ हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया बड़े नेता जरूर हैं, पर प्रदेश की सभी 230 सीटों पर उनकी पकड़ मजबूत नहीं मानी जा सकती! कमलनाथ का प्रभाव महाकौशल के कुछ जिलों तक सीमित हैं। जबकि, ज्योतिरादित्य सिंधिया का मालवा में जोर है, पर सभी सीटों पर नहीं! वे शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, मुरैना, और ग्वालियर की सीटों की तासीर को ही ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं। जबकि, दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता हैं, जो पूरे प्रदेश की अधिकांश सीटों को समझते हैं। उन्हें हर जगह की तासीर और वो समीकरण भी पता हैं, जो चुनाव पर असर डाल सकते हैं। दिग्विजय सिंह की यही राजनीतिक पकड़ उन्हें टिकट वितरण में मददगार बनाती है। 
  कांग्रेस की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे कभी हाशिए पर नहीं होते! उनसे नफरत तो की जा सकती है, पर उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! उन्हें राजनीति का चाणक्य भी इसीलिए कहा जाता है, कि उन्होंने कई बार हारी हुई बाजियों को पलट दिया है। अल्पसंख्यकों को लेकर उनके कई बयान विवादास्पद भी बने! फिर भी कांग्रेस में उनके कद को कोई कम नहीं कर सका। ऐसे भी मौके आए, जब उनके बयान पार्टी की फजीहत का कारण बने! लेकिन, कांग्रेस में उनका वजन बरकरार रहा। नर्मदा परिक्रमा पूरी करने के बाद राजनीतिक सक्रियता की पहली सीढ़ी चढ़ते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा था कि उनका लक्ष्य कांग्रेस को एकजुट और मजबूत करना है। इस नजरिए से कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी पकड़ से पार्टी को मजबूती तो दी है। दस साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद हुई हार से आहत दिग्विजय सिंह अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर रहे! जबकि, राजनीति में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि किसी ने पहले कभी ऐसा किया हो! लेकिन, जब से वे सक्रिय हुए हैं, राजनीतिक गलियारों में उनकी धमक को महसूस किया जाने लगा है!
     दिग्विजय सिंह ने बेहद रणनीतिक तरीके से राजनीति में वापसी की है। उनकी छह महीने लंबी नर्मदा परिक्रमा से पहले समझा नहीं गया था कि ये खामोश और अराजनीतिक यात्रा एक दिन सियासत को झकझोर देगी! यात्रा की शुरुआत में तो इसे गंभीरता सी नहीं लिया गया, पर जैसे-जैसे परिक्रमा आगे बढ़ती गई, उसके सियासी मंतव्य खोजे जाने लगे। इसके चलते संघ और भाजपा के साथ कांग्रेस में भी मंथन होने लगा था। दिग्विजय सिंह ने तो इसे निजी और नितांत धार्मिक यात्रा पर बताया और राजनीतिक चर्चा से भी उन्होंने दूरी बनाए रखी! लेकिन, उनके हर इशारे को सियासत से जोड़कर देखा गया। आज जो दिग्विजय सिंह दिखाई दे रहे हैं, वो काफी हद तक नर्मदा यात्रा से मिली ऊर्जा से ही लबरेज है! इस चुनाव के बाद यदि किसी नेता के सबसे ज्यादा उभरने की उम्मीद की जा सकती है, तो वे दिग्विजय सिंह ही होंगे! क्योंकि, उनके पास खोने को कुछ नहीं है।
   पिछले विधानसभा चुनाव में मालवा और निमाड़ भाजपा का सबसे ताकतवर गढ़ रहा था। रतलाम, झाबुआ, उज्जैन, शाजापुर, आगर मालवा, आलीराजपुर, देवास और सीहोर की सभी विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है। इंदौर की 9 सीटों में से 8, धार की 7 में से 5 सीटें और मंदसौर की 4 में से 3 सीटों पर भाजपा ने झंडा गाड़ा था। सीहोर जिले की मालवा क्षेत्र की 2 सीटें हैं, इन पर भी भाजपा जीती थी। लेकिन, इस बार मालवा और निमाड़ का माहौल भाजपा के पक्ष में झुका दिखाई नहीं दे रहा। 2013 के मुकाबले भाजपा कमजोर नजर आ रही है। इसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं। करीब सवा साल पहले मंदसौर जिले से शुरू हुए उग्र किसान आंदोलन ने पूरे मालवा को अपने प्रभाव में लिया था। यहाँ पुलिस फायरिंग में मारे गए 7 किसानों के कारण पूरे प्रदेश में भारी हंगामा भी हुआ। मृतक किसानों में 5 पाटीदार समुदाय से आते थे, जो मालवा का प्रभावशाली किसान वर्ग है। बुंदेलखंड और मालवा में दलित आबादी बहुत बड़ी है। उज्जैन जिले में प्रदेश के सबसे ज्यादा दलित रहते हैं। इनके कर्मचारी संगठन सपाक्स की सबसे ज्यादा सक्रियता भी मालवा में है। सपाक्स खुलकर शिवराज सरकार के विरोध में है। इन सब चीजों के चलते भाजपा की राह बहुत आसान समझ नहीं आ रही। ऐसे में यदि कांग्रेस ने सही उम्मीदवारों को चुन लिया तो भाजपा के लिए ये चुनाव मुश्किल बन सकते हैं। 
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