मध्यप्रदेश में 'सपाक्स समाज' के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए प्रतिद्वंदी पार्टियां ये प्रचारित करने में लगी हैं कि ये थके, चुके और रिटायर्ड लोगों का संगठन है। इस पार्टी में ज्यादातर वे सरकारी अफसर हैं, जो नौकरी के बाद अब पार्ट टाइम राजनीति करना चाहते हैं। जबकि, जमीनी तौर पर देखा जाये तो ये सच नहीं है। यदि इन लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा होती, तो उनके लिए किसी भी पार्टी से जुड़कर राजनीति करना ज्यादा आसान होता। कई अफसरों ने ये किया भी है! लेकिन, यदि नई विचारधारा वाली रजनीतिक पार्टी की परिकल्पना की गई है, तो उसके पीछे कोई लक्ष्य निर्धारित है। जब 'सपाक्स' गैर-आरक्षित सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों का संगठन था, तब भी उसने पदोन्नति में आरक्षण के फैसले का विरोध किया! अब, जबकि इस संगठन के गर्भ से राजनीतिक पार्टी जन्म ले चुकी है, उसके सोच, संकल्प और विचारों में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। बल्कि, इस पार्टी ने आरक्षण खिलाफ लोगों में दबे आक्रोश को बाहर लाने का काम किया है।
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- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में चुनाव आचार संहिता की घोषणा के साथ ही राजनीतिक संघर्ष की दुंदुभि बज गई! सभी राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव के रण क्षेत्र में अपनी सेनाओं की जमावट करना शुरू कर दिया। प्रदेश की तासीर के मुताबिक यहाँ कांग्रेस और भाजपा परंपरागत प्रतिद्वंदी रहे हैं। बीच-बीच में तीसरे विकल्प के हल्के झटके जरूर आते रहे! लेकिन, कोई भी स्थाई रूप से तीसरा विकल्प नहीं बन सका। इस बार भी समझा जा रहा था कि कांग्रेस और भाजपा ही किला लड़ाएंगे, पर माहौल बदलता नजर आ रहा है। कर्मचारियों-अधिकारियों के संगठन 'सपाक्स' से जन्मी राजनीतिक पार्टी 'सपाक्स समाज' ने मालवा-निमाड़ में दोनों प्रमुख पार्टियों को घेर सा दिया है। इस पार्टी का असर कुछ ऐसा है, जो चार साल पहले दिल्ली में 'आम आदमी पार्टी' (आप) का महसूस किया गया था। प्रशासन की भट्टी में तपे अफसरों की बहुलता वाली इस पार्टी को आधार देने के लिए जिस तरह मेहनत की जा रही है, वो पार्टी की गंभीरता दर्शाती है।
'सपाक्स समाज' के बढ़ते असर ने सबसे ज्यादा भाजपा को प्रभावित किया है। क्योंकि, प्रदेश में 15 साल से काबिज भाजपा से लोगों की नाराजी जगजाहिर है। भाजपा को लग रहा है कि उसके प्रति मतदाताओं का गुस्सा 'सपाक्स समाज' को फ़ायदा दे सकता है। कांग्रेस 15 साल से सत्ता से बेदखल है और उसके पास खोने को कुछ है भी नहीं! यही कारण है कि पश्चिमी मध्यप्रदेश में 'सपाक्स समाज' को उम्मीद की किरण की तरह देखा जा रहा है। कांग्रेस के प्रति लोगों की नाराजी अपेक्षाकृत कम हैं। लम्बे समय से सत्ता में न होने से कांग्रेस पर उंगली भी नहीं उठाई जा सकती। जो लोग भाजपा से नाराज हैं और कांग्रेस को भी वोट देना नहीं चाहते, उनके लिए 'सपाक्स समाज' एक सार्थक विकल्प है। सत्ता से नाराजी के बहाव से 'सपाक्स समाज' फायदे में रहेगा।
कांग्रेस और भाजपा के सामने इसे तीसरा प्रतिद्वंदी समझे जाने के पीछे बड़ा कारण इससे जुड़े लोग भी है। कांग्रेस और भाजपा भले ही 'सपाक्स समाज' के पदाधिकारियों को रिटायर्ड, चुके और थके कहकर प्रचारित कर रहे हों, पर असलियत ये है कि यही वे लोग हैं, जिन्होंने सत्ता की खूबियों और खामियों को काफी नजदीक से देखा है! ये बरसों तक सत्ता और प्रशासन की कड़ी रहे हैं, इसलिए वे जानते हैं कि जनता से कैसे जुड़ा जाना चाहिए! इन लोगों ने सत्ता के दम्भ में चूर नेताओं के सामने जनता की बेबसी और मज़बूरी को भी महसूस किया है। इसके अलावा इनका सबसे सशक्त पक्ष है, इन्हें मिल रहा सवर्णों का सहयोग! एससी-एसटी एक्ट के खिलाफ जब कांग्रेस और भाजपा के मुँह बंद है 'सपाक्स समाज' ही मुखरता से बोल पा रही है। इस पार्टी ने लोगों में आरक्षण के खिलाफ दबी चिंगारी को भी आवाज देने का काम किया है। अभी तक आरक्षण के प्रति नाराजी होते हुए भी लोगों के पास ऐसा कोई माध्यम नहीं था, जहाँ वे इस विरोध को व्यक्त कर सकें। 'सपाक्स समाज' ने उस विरोध को अपना झंडा बनाया है, जो कहाँ-कहाँ असर करेगा कहा नहीं जा सकता।
'सपाक्स समाज' की अपनी राजनीतिक विचारधारा ही भाजपा और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी परेशानी का कारण है। एससी-एसटी कानून में संशोधन का विरोध करने की हिम्मत इन दोनों ही पार्टियों में नहीं है। केंद्र में काबिज भाजपा सरकार ही एससी-एसटी एक्ट में संशोधन की जनक है, इसलिए वो तो इसके खिलाफ बोलने से रहे! कांग्रेस भी मूक होकर इसके पक्ष में हैं। क्योंकि, संविधान संशोधन के खिलाफ बोलने से मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उसके हाथ से निकल सकता है। 'सपाक्स समाज' का प्लस पॉइंट यही है कि इस पार्टी का जन्म ही इस विरोध के गर्भ से हुआ है। विधानसभा चुनाव में 'सपाक्स समाज' की आरक्षण विरोधी विचारधारा ही उसकी ताकत है। लेकिन, 'सपाक्स' के सदस्य सरकारी नौकरी में हैं, जो खुलकर राजनीति करने मैदान में नहीं आ सकते! इसलिए 'सपाक्स समाज' पार्टी को राजनीतिक पार्टी बनाकर मैदान में उतारा जा रहा है। पर, अब 'सपाक्स समाज' अकेला नहीं दिख रहा, करणी सेना, गुर्जर संगठन समेत कई सामाजिक संगठनों ने उसके साथ जुड़कर ताकत बढ़ाने का काम किया है।
'सपाक्स समाज' के प्रभाव वाले मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ में 66 सीटें हैं। इनमें 35 सामान्य, शेष 31 सीटें अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। सामान्य वाली 35 सीटों पर 'सपाक्स समाज' ने सेंध लगाने की कोशिश की है और काफी हद तक वे सफल भी रहे हैं। खरगोन, खंडवा, उज्जैन, धार और इंदौर में इसे मिल रहा समर्थन राजनीतिक रूप से विधानसभा चुनाव में असर दिखाएगा ये तय है। निमाड़ और मालवा में कई प्रभावशाली लोगों का 'सपाक्स समाज' से जुड़ना भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस के लिए भी चिंता की बात है। चार साल पहले दिल्ली में 'आप' को भी गंभीरता से नही लिया गया था। लेकिन, इसी पार्टी में भाजपा की हवा निकाल दी थी! आश्चर्य नहीं कि तीसरे विकल्प के रूप में 'सपाक्स समाज' भी कुछ ऐसा ही चमत्कार कर दे! राजनीति में कुछ भी संभव है! वह भी ऐसी स्थिति में जब माहौल में कोई आँधी, लहार और तूफ़ान न हो! 2013 के विधानसभा चुनाव में मालवा इलाके में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को 10.76% वोट ज्यादा मिले थे। जबकि, निमाड़ में यह अंतर 8.33% था। इस बार कांग्रेस मालवा-निमाड़ को साधने की पूरी कोशिश में है। उन्हें उम्मीद है कि किसान आंदोलन के बाद भाजपा के खिलाफ लोगों में जो नाराजी पनपी है, इसका फायदा उन्हें विधानसभा चुनाव में मिल सकता है। लेकिन, 'सपाक्स समाज' की मौजूदगी दोनों के समीकरण बिगाड़ दे तो आश्चर्य नहीं!
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