Monday, October 29, 2018

भाजपा की गलतियाँ ही कांग्रेस को सत्ता का मौका देगी!


   विधानसभा चुनाव की दुंदुभि बज चुकी है। मध्यप्रदेश के दो परंपरागत राजनीतिक प्रतिद्वंदी फिर आमने-सामने हैं। एक के पास डेढ़ दशक की सत्ता की ताकत है, तो दूसरे के पास प्रतिद्वंदी की खामियों की फेहरिस्त! इस चुनाव में एक पार्टी अपनी उपलब्धियां गिनाएगी, दूसरी उसकी खामियां ढूंढेंगी! लेकिन, इस बार के चुनाव की खासियत है कि मतदाता किसी आँधी, तूफान से प्रभावित नहीं है। उसे पार्टी और उम्मीदवार को समझने का पूरा मौका मिल रहा है। मतदाता की ख़ामोशी इस बात का अहसास नहीं कराती कि उसके मन में क्या है! लेकिन, ये सच है कि सत्ताधारी पार्टी की गलतियां ही इस बार निर्णायक होगी। मतदाता उसे इन गलतियों की सजा देगा या माफ़ करेगा, यही अगली सरकार का फैसला करेगा।  
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 - हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश में सत्ता में लौटने का सपना देख रही कांग्रेस इन दिनों अच्छे उम्मीदवारों को लेकर संकट में है। पार्टी को ऐसे उम्मीदवार नहीं मिल रहे, जो  भाजपा के मुकाबले डंके की चोट पर चुनाव जीतने का दावा कर सकें। पार्टी को अभी ऐसे चेहरों की जरुरत है जिनकी छवि साफ़ हो और जो भाजपा उम्मीदवारों पर हावी हो सकें। पश्चिम मध्यप्रदेश का मालवा-निमाड़ इलाका भी कांग्रेस की इस परेशानी अछूता नहीं है। इंदौर, उज्जैन संभाग की 25 से ज्यादा सीटें ऐसी हैं, जहाँ पार्टी के पास सौ टंच चुनाव जीतने वाले चेहरे नदारद हैं। क्योंकि, लगातार तीन विधानसभा चुनाव की हार ने कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास खोखला कर दिया। जब कोई पार्टी लगातार चुनाव हारती है, तो उसके पास नए चेहरों का अकाल पड़ जाता है। नए लोग पार्टी से कन्नी काटने लगते हैं और पुराने नेता मायूस होकर बैठ जाते हैं। 
  चुनाव के उत्साह में भले ही नए, पुराने नेता चुनाव जीतने का दावा कर रहे हों, पर लगता नहीं कि वे कोई चमत्कार कर सकेंगे! इंदौर में ही कांग्रेस को 5 ऐसे चेहरे नहीं मिल रहे, जिन पर दांव लगाया जाए। इंदौर जिले में विधानसभा की 9 सीटें हैं, जिनमें 6 सीटें शहरी हैं। सांवेर, महू और देपालपुर ग्रामीण सीटें हैं। पिछले दो चुनाव छोड़ दिए जाएं तो तीनों ग्रामीण सीटों की तासीर हमेशा बदलती रही है। महू से पिछले दो विधानसभा चुनाव भाजपा के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय जीते। इससे पहले वे इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-2 से चुनाव लड़ते रहे हैं। महू से फिर कैलाश विजयवर्गीय चुनाव लड़ते हैं, तो यहाँ कांग्रेस उम्मीदवार के लिए जीत आसान नहीं होगी। देपालपुर से भी मनोज पटेल ने दो चुनाव जीते हैं, जबकि यहाँ लम्बे समय तक कांग्रेस का झंडा लहराया। यहाँ इस बार मनोज पटेल से लोगों की नाराजी के कारण भाजपा कमजोर दिख रही है, पर सारा दारोमदार कांग्रेस के चेहरे पर टिका है। यदि कांग्रेस ने किसी नए चेहरे पर दांव लगाया तो यहाँ पंजा मजबूत हो सकता है। उधर, सांवेर की सीट पर कांग्रेस के तुलसी सिलावट ने हमेशा अपना दम दिखाया है, पर पिछले चुनाव में मोदी की आँधी में वे भी अपनी सीट बचा नहीं सके थे। लेकिन, जीतने वाले राजेश सोनकर पिछले 5 साल में अपना प्रभाव नहीं छोड़ सके। इस बार फिर इन्हीं दोनों के बीच मुकाबले की उम्मीद की जा रही है। 
    शहर की दो विधानसभा सीटें ऐसी हैं जो लम्बे समय से भाजपा के कब्जे में हैं। ये हैं क्षेत्र क्रमांक-2 और 4 क्षेत्र। क्षेत्र क्रमांक-2 मिल मजदूरों का एरिया कहा जाता है, जहाँ से कैलाश विजयवर्गीय ने कई बार चुनाव जीता और दो चुनाव पहले अपनी सियासी सल्तनत अपने दोस्त रमेश मेंदोला को सौंपकर किला फतह करने महू चले गए। ऐसे में रमेश मेंदोला ने पिछला चुनाव 92 हज़ार से जीतकर अपने दावे को एकबार फिर मजबूत किया है। इस बार भी यहाँ कांग्रेस सिर्फ खानापूरी के लिए चुनाव मैदान उतरेगी, यह जानते हुए कि रमेश मेंदोला को हराना आसान नहीं है। पिछले चुनाव की लीड कम हो सकती है, पर इतनी कम भी नहीं कि कांग्रेस का झंडा लहराने लगे।   
    डेढ़ दशक तक सत्ता से बाहर रहने वाली कांग्रेस के सामने अच्छे उम्मीदवारों के अभाव का संकट खड़ा होना स्वाभाविक है। लेकिन, कांग्रेस का राजनीतिक वनवास इस बार ख़त्म हो जाएगा, इस बात का दावा भी नहीं किया जा सकता। भाजपा जिस आक्रामक ढंग से चुनाव लड़ने की तैयारी में है, कांग्रेस उसके मुकाबले कई मोर्चों पर बेहद कमजोर है। चुनाव को लेकर कांग्रेस के नेताओं ने भी रणनीति बनाई होगी, पर वो रणनीति अभी तक किसी भी नजरिए से कारगर होती दिखाई नहीं दे रही। मेहनत के बावजूद कांग्रेस में एक बिखराव सा लग रहा है। उम्मीद की जा रही थी, कि कमलनाथ के अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी में एकजुटता आएगी और लोगों को पार्टी की ताकत दिखेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। पार्टी के तीन दिग्गजों की तीन धाराएं स्पष्टतः अलग-अलग दिशाओं में बहती नजर आ रही है। कहीं-कहीं तो ये धाराएं आपस में उलझ भी रही है। अब देखना है कि उम्मीदवारों की घोषणा के बाद चुनावी माहौल कैसा बनेगा। वैसे भी कांग्रेस के पास खोने के लिए बहुत बड़ी सियासी जायदाद नहीं है। पार्टी पिछले चुनाव में जीती 57 सीटों से वो नीचे उतरेगी, ऐसा भी नहीं लगता! लेकिन, ये तय है कि कांग्रेस इस चुनाव में जो भी पाएगी, वो उसे भाजपा की गलतियों से ही मिलेगा।   
  फिलहाल कांग्रेस को सारी उम्मीदें पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी के धुंआधार प्रचार और भाजपा की कमजोरी से है। राहुल गाँधी भोपाल, विंध्य, महाकौशल और ग्वालियर-चंबल इलाके में चुनाव प्रचार का अपना पहला दौर पूरा कर चुके हैं। अब उनका फोकस मालवा-निमाड़ पर है, जहाँ कांग्रेस को अपनी उस खोई पहचान को पाना है, जो कभी उसकी ताकत हुआ करती थी। 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद पश्चिमी मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ में कांग्रेस ने अपनी जमीन ही खो दी। कांग्रेस की सबसे बुरी स्थिति 2003 और 2013 में हुई, जब मालवा से कांग्रेस के कई गढ़ उखड़ गए थे। इस बार क्या पार्टी उन पुराने किलों को से फतह कर पाएगी, ये सवाल मौंजूं है। 
  मालवा-निमाड़ की 66 में से मालवा की 48 विधानसभा सीटें ऐसी थीं, जिसे कई चुनाव में कांग्रेस ने ख़म ठोंककर जीती हैं। लेकिन, पिछले चुनाव में इनमें से 44 पर भाजपा का झंडा लहराया। इस बार कांग्रेस की कोशिश है कि खोई हुई साख को फिर पा लिया जाए। पार्टी को ये इसलिए भी संभव लग रहा है, कि इस बार किसान आंदोलन, एससी-एसटी एक्ट जैसे मुद्दे भाजपा के खिलाफ जाते दिख रहे हैं। कांग्रेस की कोशिश है कि इन मुद्दों को भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करके अपने वोट बैंक को मजबूत किया जाए। मंदसौर में हुए किसान आंदोलन के बाद कांग्रेस ने इस मामले को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। राहुल गाँधी और ज्योतिरादित्य सिंधिया यहाँ दो-दो बार आम सभाएं कर लोगों की संवेदनाओं को झकझोर चुके हैं। जबकि, एससी-एसटी मामले पर सवर्ण-ओबीसी सरकारी कर्मचारी उद्वलित हैं। अब दारोमदार इस पर है, कि कांग्रेस लोगों की नाराजी को किस तरह वोटबैंक में तब्दील कर पाती है। 
   मालवा-निमाड़ इलाके में भी कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व पांसा फैंकने की कोशिश में है। यही कारण है कि राहुल गाँधी को महांकाल और ओंकारेश्वर ले जाने की योजना है। ब्राह्मणों को रिझाने के लिए उन्हें भगवान परशुराम की जन्मस्थली जानापाव भी ले जाने का विचार है। इन सारी तैयारियों का लक्ष्य है कि पार्टी के प्रदर्शन को सुधारा जाए। कांग्रेस की कोशिश है कि इंदौर जिले की 9 विधानसभा सीटों में से जिन 8 पर भाजपा का कब्जा है, उसमें सेंध लगाई जाए। जबकि, धार जिले की 7 में से 5 सीटें भाजपा के पास हैं। झाबुआ की भी 3 में से 2 सीटें भाजपा ने जीती थीं। यहाँ की एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार जीता था। जबकि, नीमच की सभी 3 सीटें, मंदसौर की 4 में से 3 सीटें, उज्जैन जिले की सभी सातों सीटें, रतलाम जिले की सभी 5 सीटें, देवास की सभी 5 सीटें, शाजापुर की सभी 3 सीटें और आगर जिले की दोनों सीटों पर भाजपा काबिज है। पिछले चुनाव में जिन 7 जिलों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला था, पार्टी की कोशिश होगी कि वहां कोई चमत्कार किया जाए! लेकिन, वो चमत्कार कैसे होगा ये कोई नहीं जानता! शायद भाजपा की गलतियाँ ही कांग्रेस को मौका देंगी। जबकि, भाजपा पुरानी गलतियों को सुधारने के बजाए नए चुनावी पांसे फैंककर मतदाताओं को भरमाने में लगी है।     
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