मध्य प्रदेश में मालवा-निमाड़ का राजनीतिक मूड बहुत कुछ तय करता है। ये वो इलाका है जहाँ के बारे में कहा जाता है कि जो भी पार्टी यहाँ आगे रहती है, वही प्रदेश में सरकार बनाती है। लम्बे समय से ये इलाका हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रभाव में रहा है, इसलिए यहाँ भाजपा हमेशा ही ताकतवर बनी रही। भाजपा और संघ से जुड़े कई नेता मालवा से ही निकले हैं। जातीय हिसाब से भी ये इलाका अजीब सा सामंजस्य रखता है। यहाँ आदिवासी सीटें भी हैं और सामान्य भी। अभी तक आदिवासियों को कांग्रेस समर्थित माना जाता था। पर, पिछले विधानसभा चुनाव में मालवा-निमाड़ की अधिकांश आदिवासी सीटें भाजपा ने जीती थीं। यहाँ कुल 66 सीटें हैं, जिनमें 50 सीटें मालवा में हैं और 16 निमाड़ में। पिछले चुनाव में कांग्रेस के हाथ सिर्फ 9 सीटें लगी थीं। लेकिन, इस बार यहाँ का मिजाज अलग ही नजर आ रहा है।
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- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश का राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र से लगने वाला पश्चिमी क्षेत्र मालवा-निमाड़ कहलाता है। ये अभी तक तीसरी राजनीतिक शक्ति के प्रभाव से मुक्त रहा है। लेकिन, इस बार के विधानसभा चुनाव का माहौल कुछ अलग है। इसलिए कहा नहीं जा सकता कि ऊंट किस करवट बैठेगा? क्योंकि, आदिवासियों के बीच 'जयस' ने, सवर्णों-पिछड़ों में 'सपाक्स' राजनीतिक पार्टी ने, पंचायतों में 'भारतीय पंचायत पार्टी' ने सेंध लगा दी है। पाटीदारों के स्वयंभू नेता हार्दिक पटेल भी चुनाव में अपना असर दिखाएंगे ये तय है। प्रशासनिक रूप से इंदौर और उज्जैन संभागों वाले इस इलाके में विधानसभा की 66 सीटें आती हैं। 2013 के चुनाव में मालवा की 50 सीटों में से 45 पर भाजपा जीती थी! जबकि, कांग्रेस केवल 4 सीटें ही जीत पाई थी। वहीं, थांदला सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार जीता था। निमाड़ की 16 में से 11 सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों ने जीत हांसिल की थी। कांग्रेस के हाथ महज 5 सीट ही लग थी। इस बार के विधानसभा चुनाव के लिए दोनों पार्टियां पूरी जोश से मैदान में हैं। अपनी पैठ बनाने के लिए सभी पार्टियां ने अलग-अलग रणनीति के साथ तैयारी की है। यह भाजपा का गढ़ है और 15 साल से पार्टी इसी इलाके में अपनी पकड़ के बल पर प्रदेश पर राज करती आ रही है। कहा जाता है कि जो मालवा-निमाड़ में जो जीत हांसिल करता है, उसे प्रदेश पर राज करने का मौका मिलता है। दरअसल, ये इलाका भाजपा के लिए साख और नाक का सवाल है। आपातकाल के पहले तक ये कांग्रेस का गढ़ रहा। लेकिन, उसके बाद से यहां भाजपा की जड़ें मजबूत होती गई!
मालवा-निमाड़ की 66 में से 35 सामान्य, 22 अनुसूचित जनजाति-22 की और 9 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। अभी भाजपा के पास सामान्य वाली 32, अजजा की 16 (थांदला के निर्दलीय विधायक समेत) और अजा की 9 सीटें हैं। जबकि, कांग्रेस के पास 3 सामान्य, 6 अजजा सीटें हैं। अजा की कोई सीट पिछली बार कांग्रेस नहीं जीत सकी थी। यहाँ की 12 सीटें शहरी इलाके में हैं, 11 अर्द्ध शहरी इलाकों में और 46 सीट ग्रामीण क्षेत्र की हैं। इनमें से कांग्रेस के जीतू पटवारी सिर्फ राऊ वाली अर्द्धशहरी सीट जीत सके थे। इसके अलावा सभी सीटें भाजपा के पास हैं। 2013 के चुनाव में मालवा इलाके में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा को 10.76% वोट ज्यादा मिले थे, निमाड़ में यह अंतर 8.33% था। लेकिन, इस बार कांग्रेस मालवा-निमाड़ को साधने की पूरी कोशिश में है। उन्हें उम्मीद है कि किसान आंदोलन के बाद भाजपा के खिलाफ लोगों में जो नाराजी पनपी है, इसका फायदा उन्हें विधानसभा चुनाव में मिल सकता है।
प्रदेश और देश की राजनीति के ज्यादातर संघ और भाजपा के बड़े नेता इसी मालवा-निमाड़ से आते हैं। पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे, पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा, वीरेंद्र सखलेचा, कैलाश जोशी के अलावा सत्यनारायण जटिया, विक्रम वर्मा, नंदकुमार सिंह चौहान और लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन, केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत भी यहीं से हैं। संघ में नंबर दो की हैसियत रखने वाले सुरेश भैय्याजी जोशी भी मालवा से ही हैं। जबकि, कांग्रेस की तरफ से सुभाष यादव और बाद में उनके बेटे अरुण यादव ने ही निमाड़ का प्रतिनिधित्व किया है। मालवा से कांग्रेस के नेता तो कई हुए, पर जिन्हें याद रखा जाए ऐसे नेताओं में आदिवासी इलाके से शिवभानुसिंह सोलंकी और जमुना देवी ही रही। ये दोनों प्रदेश के उपमुख्यमंत्री तो रहे, पर मुख्यमंत्री की कुर्सी उनसे दूर ही रही। लेकिन, ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रभाव को आज भी यहाँ नाकारा नहीं जा सकता! इसका कारण ये कि मालवा का एक बड़ा क्षेत्र 'सिंधिया रियासत' का हिस्सा रहा है।
इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के अलावा 'जय आदिवासी संगठन' (जयस) और 'सपाक्स' के राजनीति में उतरने से भी समीकरण बदलने के आसार हैं। ये दोनों राजनीतिक पार्टियाँ नहीं, बल्कि संगठन हैं, पर अब इन्होंने राजनीति के लिए मैदान में उतरने की तैयारी की है। दोनों के ही कर्ताधर्ता मालवा से हैं। 'जयस' के डॉ हीरालाल अलावा झाबुआ से हैं और 'सपाक्स' के हीरालाल त्रिवेदी बड़नगर (उज्जैन) के हैं। डॉ अलावा दिल्ली के एम्स जैसा संस्थान छोड़कर आदिवासी युवाओं में अलख जगाने आ गए! जबकि, हीरालाल त्रिवेदी आईएएस से रिटायरमेंट के बाद सवर्णों और पिछड़ों को एकजुट करके 'सपाक्स' को खड़ा करने में सफल हुए। 'जयस' जनजातीय समुदाय के दबदबे वाली प्रदेशभर की 80 सीटों पर अपनी ताकत आजमाने की तैयारी में हैं। 'अबकी बार, आदिवासी सरकार' का नारा देने वाला 'जयस' यदि आदिवासी वोट काटने में सफल हुआ तो इसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिलना तय समझा जा रहा है। उधर, 'सपाक्स' ने भी भोपाल में अपने सफल जमावड़े के बाद सभी 230 सीटों पर लड़ने का एलान कर दिया। दिल्ली से जुड़े पंचायत पदाधिकारियों के राष्ट्रीय संगठन ने भी 'भारतीय पंचायत पार्टी' (बीपीपी) बनाकर घुसपैठ शुरू की है। नरेश यादव की अगुवाई में इसे चुनाव आयोग ने रजिस्टर्ड कर 'पोस्ट बॉक्स' चुनाव चिन्ह भी आवंटित किया है। संगठन से राजनीतिक पार्टी बनकर जयस, सपाक्स और बीपीपी क्या रंग दिखाते हैं, ये चुनाव से पहले स्पष्ट हो जाएगा।
गुजरात चुनाव में भाजपा के लिए परेशानी खड़ी करने वाले पाटीदार नेता व 'किसान क्रांति सेना' के अध्यक्ष हार्दिक पटेल मध्यप्रदेश में भी भाजपा के लिए मुसीबत बन सकते हैं। उनकी मौजूदगी पाटीदार समाज प्रभावित करती है और मालवा-निमाड़ में इस समाज का असर है। प्रदेश की 58 सीटों को पाटीदार वोट प्रभावित करते हैं। जो ज्यादातर मालवा-निमाड़ सहित रीवा और सागर संभाग में रहते हैं। प्रदेश में 1 करोड़ 42 लाख लोग पाटीदार समाज के हैं। हार्दिक ने घोषणा की है, कि वे प्रदेशभर में आमसभा करेंगे। 17 दिन की जनजागृति यात्रा भी निकालेंगे, ये यात्रा 14 दिन मालवा-निमाड़ में रहेगी। घोषित तौर पर तो वे कांग्रेस या भाजपा के साथ होने की बात नहीं करते! लेकिन, सब जानते है कि वे हमेशा भाजपा के खिलाफ ही खड़े दिखाई देते है।
कृषि और व्यापार का केंद्र माने जाने वाले मालवा-निमाड़ पर भाजपा कुछ ज्यादा ही ध्यान दे रही है। क्योंकि, भाजपा को किसानों की नाराजी का भय सता रहा है, जिसके पीछे मंदसौर गोलीकांड है। देखा जाए तो प्रदेश में किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा जोर मालवा-निमाड़ में ही था। मंदसौर में हुए गोलीकांड में किसानों की मौत को कांग्रेस काफी हद तक भुनाने में सफल भी रही। इसके अलावा शिवराज सरकार पर उनकी ही पार्टी के लोग यह आरोप भी लगाते आए हैं कि पाँच साल से मालवा-निमाड़ को उपेक्षा का सामना करना पड़ा है। इंदौर, धार, देवास, शाजापुर, झाबुआ, रतलाम, मंदसौर, नीमच, और आलीराजपुर ऐसे जिले हैं जहां से इस बार सरकार में एक भी मंत्री नहीं रहा। जबकि, निमाड़ का प्रतिनिधित्व करने के लिए तीन मंत्री हैं। अब देखना ये है कि मालवा-निमाड़ का खामोश मतदाता के दिल में क्या छुपा है?
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