Monday, October 29, 2018

टिकट के दावेदारों ने समीकरण गड़बड़ाए



  इन दिनों मध्यप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियाँ अपने-अपने उम्मीदवारों के कटघरे में खड़े हैं! दोनों पार्टियों को समझ नहीं आ रहा कि उनके लिए चुनाव जीतने वाला चेहरा कौनसा है! चुनाव से पहले लगा था कि दोनों के लिए उम्मीदवारों का चयन ज्यादा बड़ी मुश्किल नहीं बनेगा। भाजपा ने दर्जनभर सर्वे जरिए पता कर ही लिया था, कि उसका कौनसा विधायक फिर चुनाव लड़ने लायक है और कौनसा नाकारा! इसलिए जो नाकारा है, वो किनारे कर दिया जाएगा और उसकी जगह कोई नया आ जाएगा! उधर, कांग्रेस को तो 180 करीब नए चेहरे ढूँढना है, इसलिए उसके लिए भी ज्यादा मुश्किल नहीं आएगी! पर, जमीन पर ये सारे अनुमान गलत साबित हुए! दोनों पार्टियों में टिकट को लेकर जमकर घमासान मचा है। 100 से ज्यादा विधायकों के टिकट काटने का दावा करने वाली भाजपा को एक-एक टिकट काटने में पसीना आ गया। ऐसे में चुनाव समिति को समझ नहीं आ रहा, कि किसका टिकट काटे? उधर, कांग्रेस इस मुसीबत में है कि दावेदारों की भीड़ में किसे टिकट दें! जीत के दावों के बीच कौनसा चेहरा वास्तव में दांव लगाने लायक है! दोनों के सामने मुश्किल एक ही है कि किसे टिकट दें और किसे नहीं! टिकट चाहने वालों की भीड़ ने कांग्रेस, भाजपा की सारी चुनावी रणनीति पर पानी फेर दिया। दिल्ली से लगाकर भोपाल तक चले मंथनों के कई दौर भी धरे रह गए। 
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- हेमंत पाल

    मलनाथ जब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, तब दावा किया गया था कि अब कांग्रेस एक है। पार्टी में गुटबाजी और 'अपना आदमीवाद' की राजनीति बिल्कुल ख़त्म हो गई। इस बार टिकट उसी मिलेगा, जो वास्तव में जीतने की कूबत रखता होगा! ये बात कहने और सुनने में बहुत अच्छी लगती है। कांग्रेस का ये दावा भी अच्छा लगा, पर ऐसा हुआ नहीं! एक-एक सीट के लिए खींचतान चल रही है। विधायकों की 45-50 सीटें छोड़ जाएं, तो बची हुई अधिकांश सीटों पर घमासान मचा है। न तो कोई टिकट के दावेदार पार्टी की बात समझने को तैयार हैं, न पार्टी के नेता आपसी गुटबाजी से उभरे! टीवी सर्वे पर कांग्रेस की संभावित जीत ने पार्टी को इतना उत्साहित कर दिया कि पार्टी के सारे आका अपने मोहरों पर दांव लगाने पर तुले हैं। हर बड़ा नेता इस कोशिश में है कि जीत वाली सीटों पर उसके ही समर्थक को टिकट मिले ताकि उसका पलड़ा भारी रहे। लेकिन, इस पूरी कवायद में दिग्विजय सिंह की 'संगत में पंगत' वाली रणनीति कामयाब होती दिखाई दे रही है। वही एक नेता हैं, जिन्हें पूरे प्रदेश की जमीनी हकीकत पता है।    
     कांग्रेस ने भले ही दिग्विजय सिंह को किनारे करने का नाटक किया हो, पर टिकटों की इस मारामारी से ये बात सामने आ गई कि अभी उनकी ताकत चुकी नहीं है। यदि वे नेपथ्य में हैं, तो ये भी उनकी ही कोई रणनीति का कोई हिस्सा है। उन्होंने इस बार स्वयं ही चुप रहने और मंच पर दिखाई न देने की भूमिका चुनी है। दिग्विजय सिंह के पीछे रहने का ही नतीजा है, कि कई सीटों पर बिना किसी विवाद के सहमति बनने की बातें कही गई! कांग्रेस का दावा है कि शुरुआती 70 सीटों पर उम्मीदवारों के नाम अंतिम रूप से तय हो गए हैं। लेकिन, ऐसा सभी सीटों के लिए हो सकेगा, ऐसा नहीं लगता। पिछले चुनावों की ही तरह इस बार भी अंतिम समय तक नाम उलझे रहेंगे। पहले माना जा रहा था कि टिकटों का फैसला कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की पसंद-नापसंद पर निर्भर करेगा, पर ऐसा नहीं हुआ और न ऐसा होना संभव था। दिग्विजय सिंह पार्टी में एक बड़ा फैक्टर है, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
   ये बात सभी जानते हैं कि प्रदेश की कांग्रेसी सियासत तीन-चार नेताओं के प्रभाव क्षेत्र में बंटी है। ग्वालियर-चंबल इलाके में ज्योतिरादित्य सिंधिया, महाकौशल में कमलनाथ और मालवा, निमाड़ और बुंदेलखंड में दिग्विजय सिंह का दबदबा है। जबकि, बघेलखंड में नेता विपक्ष अजय सिंह का असर है। पहले इन नेताओं के प्रति निष्ठा रखने वाले लोगों को ही टिकट मिलते थे! लेकिन, इस बार कहा जा रहा था कि अब यह फॉर्मूला अब नहीं चलेगा! एजेंसियों से कराए जा रहे कई सर्वे पर भी पार्टी काफी हद तक भरोसा कर रही है। यही प्रयोग गुजरात और कर्नाटक में भी किया गया था, जिसके अच्छे नतीजे रहे। पार्टी ने इस बार के सर्वे का सैंपल साइज भी हर विधानसभा में 5 हज़ार वोटर्स से बढ़ाकर 15 हज़ार कर दिया था। इसलिए कि जो आकलन निकले वो ज्यादा सटीक हो। क्योंकि, इस बार सर्वे के नतीजों को ही टिकट का आधार बनाया गया है। उम्मीदवारी का अंतिम फैसला किसी नेता के प्रति निष्ठा से नहीं होगा! कांग्रेस की योजना भाजपा से पहले ही टिकट फाइनल करने की थी। लेकिन, ऐसा हो नहीं सका। पहले यहाँ तक कहा गया था कि जिन 50 सीटों पर कांग्रेस पिछले पाँच विधानसभा से चुनाव नहीं जीत सकी थी, वहाँ उम्मीदवारों की घोषणा सितंबर में कर दी जाएगी! लेकिन, ये काम अक्टूबर अंत तक भी नहीं हुआ! 
  भाजपा में भी हालात काबू में नहीं हैं। वहाँ भी एक-एक नाम पर जमकर छिड़ी हुई है। पार्टी ने भले ही पहले 100 से ज्यादा टिकट काटने की बात कह दी हो, लेकिन अब ये संभव नहीं लग रहा। अब घटते-घटते बात 60-65 टिकटों पर आ गई! जिस भी विधायक को अपने टिकट पर संकट नजर आ रहा है, वो विद्रोह की भूमिका में नजर आने लगता है। पार्टी ने 2008 और 2013 में टिकट का फार्मूला बनाया था 'मिनिमम रिक्स-मैक्सिमम रिजल्ट।' इसके अच्छे नतीजे निकले थे। दोनों बार 50 से ज्यादा टिकट बदले गए थे। इस बार ये गाज किस पर गिरेगी, कहा नहीं जा सकता। जबकि, कुछ विधायकों की सीटें बदलने की भी कोशिश की जा रही है। इनमें विधायकों के अलावा कुछ मंत्री भी शामिल है। 
   ये भी सही है कि मौजूदा विधायकों के टिकट कटने की खबरों ने भी पार्टी के अंदर भूचाल सा ला दिया है। पार्टी का तर्क है कि सर्वे में जिनके जीतने के आसार नहीं हैं, उन्हें टिकट नहीं दिया जाएगा! लेकिन, कोई भी ये मानने को तैयार नहीं है! संघ का तर्क है कि नेतृत्व को लेकर लोगों में गुस्सा नहीं है, लेकिन विधायकों के प्रति लोगों में जबरदस्त नाराजी है। यदि इस गुस्से ठंडा करना है, तो चेहरे बदलना ही होंगे! लेकिन, ये कोई मानने को तैयार नहीं कि उसके नीचे से जमीन खिसक रही है। भाजपा के सामने सबसे बड़ा संकट ये है कि टिकट काटते हैं, तो विद्रोह का खतरा है! यदि टिकट देते हैं, तो लोगों की नाराजी झेलना पड़ेगी! एक तरफ कुंआ है और दूसरी तरफ खाई! पर इसी संकट से निकलना ही तो चुनाव प्रबंधन में परीक्षा की असली घड़ी है!
    भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भले ही प्रदेश संगठन पर इस बार 200 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा हो, पर हालात ऐसे नहीं है कि पार्टी इस लक्ष्य तक पहुँच पाएगी! किसानों की नाराजी, एंटी इनकम्बैंसी, एट्रोसिटी एक्ट, सवर्णों का गुस्सा भाजपा को शायद ही टारगेट तक पहुंचने दे! परिस्थितियों को देखते हुए पार्टी भी संभल संभलकर फैसले कर रही है। जबकि, भाजपा की कमजोरी को ही कांग्रेस ने अपनी ताकत बनाया है। प्रदेश सरकार की 15 साल की खामियों, किसानों की नाराजी, बेरोजगारी, अफसरशाही और सरकार के अधूरे वादों को कांग्रेस ने अपना चुनावी मुद्दा बनाया है। लेकिन, सारा दारोमदार इस बात पर है कि पार्टी का चेहरा बनने वाले उम्मीदवार कौनसे हैं। क्योंकि, दोनों पार्टियां जिसे चुनाव में उतारेगी, वही उसकी जीत का आधार बनेंगे!  
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