- हेमंत पाल
बदलते हुए दौर में यदि सबसे पहले कहीं बदलाव देखना हो, तो सिनेमा में देखिए! ज़माने को तो बदलने में बरसों लग जाते हैं, पर सिनेमा का चेहरा चंद दिनों में अपने आपको बदल लेता है। एक ढर्रे पर चलता हुआ सिनेमा, एक झटके में नया दिखाई देने लगता है। दर्शकों की पसंद को सिनेमा ही बहुत जल्द समझता है! फिल्मकार जानते हैं कि दर्शकों की पसंद की प्लेट में अब क्या परोसा जाना चाहिए! फिलहाल जो दौर आया है, वह इसी बदलाव का संकेत है। बॉलीवुड ने इस सच को जरा देर से स्वीकारा, पर अब वो नया दौर दिखाई देने लगा है। बीते चंद सालों में फिल्मों की कहानियों में जो परिवर्तन आया, वो आने वाले कल के मनोरंजन का ही संकेत है।
घिसे-पिटे पुराने ढर्रे वाली रोमांटिक कहानियों, फूहड़ कॉमेडी और फिजूल की मारधाड़ वाली फ़िल्में अब दर्शकों की पसंद से बाहर हो चुकी है। दर्शक अब कुछ नया देखना चाहता है। उसे सार्थक मनोरंजन चाहिए न कि खोखली संवेदनों वाली रोतली फ़िल्में! वो जिंदगी की असली कहानियां देखना चाहता है, जिसमें चुनौतियां भी हों और उनका निराकरण भी सामने आए! उसे कुछ ऐसा देखना है, जो उसकी कल्पना से बाहर की बात न हो! साफ़ कहें तो दर्शक का रुख अच्छी कहानियों पर केंद्रित है, न कि निरर्थक मनोरंजन में! इस सच्चाई को नकारा भी कैसे जा सकता है कि फिल्म की कहानी ही सब कुछ होती है। एक्टिंग तो हर एक्टर कर ही लेता है, बशर्ते कहानी में दम हो!
सिनेमा के माध्यम से यदि पिछड़े सोच और पुरातन मान्यताओं पर चोट की जा रही है, तो सिनेमा को भी इसी दिशा में सोचना होगा। सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने में सिनेमा हमेशा ही एक अच्छा माध्यम रहा है, तो उसे ये प्रयास करना भी चाहिए। पिछले कुछ दिनों में इस तरह की जो भी फ़िल्में बनी, उन्हें सराहा भी इसीलिए गया कि उनमें कुछ नयापन है। समाज में वर्जनाओं की कमी नहीं है, पर जब तक सिनेमा के जरिए उन पर चोट नहीं होगी, समाज में नई सोच भी जागृत नहीं होगी। हिचकी, शुभ मंगल सावधान, पैडमेन, टॉयलेट : एक प्रेम कथा, न्यूटन, अलीगढ़ के बाद 'सुई-धागा' और 'बत्ती गुल-मीटर चालू' जैसी फ़िल्में इसी बदलाव का प्रतीक हैं। इनमें ऐसी कई फ़िल्में हैं जो वर्जित विषय पर बनी, पर उनका कहीं कोई विरोध नहीं हुआ और वे खूब चलीं! ऐसी फिल्मों को महज मनोरंजन नहीं, बल्कि गंभीर विषय के रूप में लिया गया।
'सुई-धागा' में हथकरघा के आधार बनाकर कुटीर उद्योग के महत्व को दर्शाया गया है और अंततः इस श्रम की जीत भी दिखाई गई! इशारों में चीन के बढ़ते बाजार के बीच स्वदेशी की जरुरत को भी महसूस कराया गया है। 'बत्ती गुल मीटर चालू' बिजली चोरी और बिजली कंपनियों की मनमानी पर बनी फिल्म है। कौन सोच सकता था कि कभी कोई ऐसे विषयों पर भी फिल्म बनाने का साहस कर सकेगा? 'टॉयलेट : एक प्रेम कथा' और 'पैडमेन' तो समाज की पुरातन सोच को बदलने वाली ऐसी फ़िल्में हैं, जिनके बारे में कुछ साल पहले तक तो सोचा भी नहीं गया होगा?
अच्छी कहानियों की खोज में अब समाज के ऐसे चरित्रों पर भी बायोपिक बनाई जाने लगी, जिनके बारे में कभी आयडिया नहीं आया होगा। बड़े खिलाड़ियों और एक्टरों पर तो बायोपिक बनाना सामान्य बात है, पर अब तो सहादत हसन मंटो और आनंद कुमार पर भी बायोपिक बनाई जा रही है। आनंद कुमार आईआईटी के लिए हर साल अभावग्रस्त पर प्रतिभाशाली 30 बच्चों को पढ़ाते हैं। ऐसे ही साहित्य की दुनिया के सआदत हसन मंटो की जिंदगी पर भी फिल्म बनाई गई। थोड़ा इंतजार किया जाए, तो अभी और भी ऐसे चेहरे सामने आएंगे, जिनकी प्रतिभा और समाज के प्रति उनके योगदान को अभी तक सामने आने का मौका नहीं मिल पाया है।
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