Tuesday, April 30, 2019

मौसम और चुनाव की गर्मी में बदजुबान होते नेता!

- हेमंत पाल

   इस बार के लोकसभा चुनाव को नेताओं के बिगड़े बोल के लिए भी याद किया जाएगा! ये किसी एक पार्टी के नेताओं की बपौती नहीं रह गई, सभी को बदजुबानी की बीमारी लग गई है! मजाक में राजनीतिक कटाक्ष किए जाएं, तो शायद उन्हें अनदेखा किया जा सकता है! लेकिन, चुनाव में जिस तरह की भाषा इस्तेमाल की जा रही है, वो बेहद गंभीर मामला है! कटाक्ष यदि प्रतिद्वंदी तक सीमित हों, तो भी बात अलग है! लेकिन, ऐसा नहीं हो रहा! इस माहौल में सबसे ज्यादा आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल भोपाल की भाजपा उम्मीदवार साध्वी प्रज्ञा ने किया! उनके बिगड़े बोल की देशभर में प्रतिक्रिया हुई! भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव और प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की जुबान भी बेलगाम हो चली है! कोई बाजू काटकर हाथ में पकड़ाने की धमकी दे रहा है, तो कोई सरकार में आने के बाद सरकारी अधिकारियों को देख लेने के लिए धमका रहा है। 
000 

  भोपाल की लोकसभा सीट इस बार देशभर में प्रोफाइल है! कांग्रेस ने यहाँ पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को टिकट देकर भाजपा का एकाधिकार तोड़ने की कोशिश की है! लेकिन, भाजपा को उनसे मुकाबले के लिए उनकी कद-काठी का कोई नेता नहीं मिला! जिसका भी नाम चला, वो कन्नी काट गया! अंततः भाजपा को साध्वी प्रज्ञा को उम्मीदवार बनाकर उतारना पड़ा! साध्वी ने भोपाल आते ही आग उगलना शुरू करके ये बता दिया कि वे किस तरह का चुनाव लड़ने भोपाल आई हैं! साध्‍वी प्रज्ञा ठाकुर एक के बाद एक विवादस्पद बयान दे रही हैं! उन्होंने सबसे पहले मुंबई हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे को लेकर विवादित बयान दिया! उन्होंने कहा था कि मुंबई में हुए 26/11 हमले में शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे को उनके कर्मों की सजा मिली है! उनके कर्म ठीक नहीं थे, इसलिए उन्हें संन्यासियों का शाप लगा! साध्वी प्रज्ञा ने कहा कि जिस दिन मैं जेल गई, उसके सवा महीने में ही आतंकियों ने उनका अंत कर दिया!  
   इसके बाद साध्वी प्रज्ञा ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को लेकर भी विवादित बयान दिया। एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि राम मंदिर निश्चित रूप से बनाया जाएगा। यह एक भव्य मंदिर होगा! यह पूछने पर कि क्या वे राम मंदिर बनाने की समयसीमा बता सकती हैं? साध्वी प्रज्ञा ने कहा, 'हम मंदिर का निर्माण करेंगे! आखिर, ढांचे (बाबरी मस्जिद) को ध्वस्त भी तो हम ही गए थे! साथ में ये भी जोड़ दिया कि ढांचा उन्होंने चढ़कर गिराया था! जबकि, खबरखोजियों का कहना कि 1992 में जब ढांचा गिराया गया, प्रज्ञा ठाकुर की उम्र 4 साल थी! इन सारे बयानों की जमकर आलोचना हुई! वाजपेई सरकार में गृह राज्यमंत्री रहे स्वामी चिन्मयानंद ने भी साध्वी प्रज्ञा के बयान को गलत बताया! कहा कि प्रज्ञा ने पहाड़ जैसी ग़लती की है! उन्होंने दिग्विजय सिंह के ख़िलाफ़ अपने अभियान को बहुत कमज़ोर कर लिया और जनता की सहानुभूति खो दी। साध्वी प्रज्ञा के बयान पर चुनाव आयोग ने भी संज्ञान लिया और उन्हें चुनाव आचार संहिता उल्लंघन का नोटिस थमा दिया। 
  विवादस्पद बयानबाजी में भाजपा के नेताओं का कोई जोड़ नहीं है! छोटे-मोटे नेता ये गलती करें, तो उनकी अनदेखी की जा सकती है! पर, बड़े नेताओं की जुबान भी काबू में नहीं है! इसे बौखलाहट भी नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, जिनके मुखारविंद से बोल निकल रहे हैं, वे मुख्यमंत्री और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष जैसे जिम्मेदार पदों पर रहे हैं! प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो छिंदवाड़ा में कलेक्टर को मंच से खुली धमकी दी। एक चुनाव सभा में उन्होंने कहा 'अरे पिट्ठू कलेक्टर सुन ले, हमारे दिन भी जल्दी आएंगे, तो तब तेरा क्या होगा?' मामला ये था कि कलेक्टर ने शिवराज सिंह को उमरेठ में शाम 5 बजे के बाद हेलीकॉप्टर उतारने की इजाजत नहीं दी थी! कलेक्टर ने आचार संहिता का पालन करते हुए इजाजत देने से इंकार किया था। इस पर शिवराज सिंह भड़क गए और कलेक्टर को देख लेने की धमकी दी! 
   प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव भी बदजुबानी करने वालों में पीछे नहीं रहे! शिवपुरी में भाजपा उम्मीदवार के नामांकन के दौरान सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को उन्होंने खुलेआम धमकी दी! उन्होंने कहा था कि महीने, दो महीने बाद हम आपको इसी जगह पर मिलेंगे, फिर हम आपको आपकी औकात का ज्ञान कराएंगे। भार्गव ने वहाँ मौजूद भाजपा नेताओं से कहा कि एक-एक का नाम नोट करिए हम चुन-चुनकर उन लोगों को निपटाने का काम करेंगे। राजगढ़ (ब्यावरा) में भी भाजपा की विजय संकल्प यात्रा में पार्टी के पूर्व राज्यमंत्री बद्रीलाल यादव ने मुख्यमंत्री कमलनाथ को लेकर गलत बयानी की। हलके लहजे में उन्होंने कहा कि इसका जाना तय है! ये या तो अस्पताल जाएगा या दूसरी जगह! राहुल, सोनिया, दिग्विजय और सिंधिया ने कमलनाथ को इतना जहर पिला दिया है कि इसके आंतडे ख़राब हो गए हैं।
   गोपाल भार्गव की जुबान फिसली हो, या गलती से एक बार उन्होंने कुछ बोल दिया हो, ऐसा नहीं है! 
सागर के बामोरा गांव में संयोजक पालक कार्यकर्ता सम्मेलन में भी गोपाल भार्गव ने निम्नस्तर की बात कही थी! उन्होंने कहा कि दिग्विजय सिंह की उंगलियों और मुंह में गुप्त रोग है, इसलिए वह देश के खिलाफ बोलते है। जब तक वो मोबाइल पर अपनी उंगलियां नहीं चला लेते, अपने मुंह से कुछ देश के खिलाफ कोई बयान नहीं दे देते, तब तक दिग्विजय सिंह का खाना हजम नहीं होता। इस कार्यक्रम में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह समेत कई नेता मौजूद थे। सबने उनके बयान पर ठहाके भी लगाए! सवाल यह है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की मौजूदगी में ऐसे बयान देकर वे कैसी राजनीति को जन्म देने की कोशिश कर रहे थे। 
  प्रदेश भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और खंडवा सांसद नंदकुमार सिंह चौहान तो बिगड़े बोल के लिए पुराने विख्यात हैं। वे कब क्या बोल दें, कोई अनुमान नहीं लगा सकता! चुनाव के दौरान वे एक पत्रकार के मोदी विरोधी सवाल पूछने पर भड़क गए। एक पत्रकार ने उनसे पूछ लिया था कि इस बार मोदी लहर कहाँ है? ये सुनकर चौहान उसे पाकिस्तानी पत्रकार बताने से भी नहीं चूके। बोले कि आपने ये खबर पाकिस्तानी रेड़ियो पर सुनी होंगी, जो सवाल आप कर रहे हैं, ये बात किसी पाकिस्तानी न्यूज़ एजेंसी का सवाल होगा? इसके बाद भी नंदकुमार चौहान की जुबान पर लगाम नहीं लगा! एक चुनाव सभा में उन्होंने राहुल गांधी पर हमला बोलते हुए कहा कि राहुल गाँधी कुछ भी कर सकते हैं! वे एक ऐसी मशीन लाने वाले हैं, जिसमें एक तरफ से आदमी डालेंगे तो दूसरी तरफ से 'बाई' (औरत) बाहर आएगी! अपने बड़बोले अंदाज में कहा कि जब राहुल गांधी आलू से सोना बनाने की मशीन बना सकते हैं तो आदमी से औरत बनाने की मशीन भी तैयार कर सकते हैं!  
   बात सिर्फ भाजपा नेताओं तक ही सीमित नहीं है! कांग्रेस के बड़े नेताओं की जुबान भी फिसल रही है! सिंगरोली में एक सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस उम्मीदवार अजय सिंह ने कहा कि रीति पाठक ने क्षेत्र में विकास का कोई काम नहीं करवाया। 2014 में मोदी लहर थी और उन्होंने सबको 15-15 लाख देने का झूठा वादा किया था। इसलिए अबकी बार ऐसी भूल मत करना 'ठीक माल नहीं बा!' इस बयान को लेकर भी उनकी काफी छीछालेदर हुई! उधर, छतरपुर में समाजवादी पार्टी के नेता आरआर बंसल भी पीछे नहीं रहे! एक कार्यक्रम में बंसल ने कार्यकर्ताओं को कहा कि जो वोटर बूथ तक वोट डालने न जाएं, उनकी पर्ची लाकर खुद वोट डाल दें। जब इसका विडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ तो लोगों की कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई! अभी बदजुबानी का दौर ख़त्म नहीं हुआ है! चुनाव तक और भी जुबान से निकले बेकाबू बयान सामने आने वाले हैं!
--------------------------------------------------------------------------

Sunday, April 28, 2019

फ्लॉप फिल्म का घाटा कौन भरे?

- हेमंत पाल

   कौनसी फिल्म चलेगी और कौनसी नहीं, ये ऐसा सवाल है जिसका जवाब आजतक न तो खोजा जा सका है और न कोई खोज सकता है! इस बिजनेस में सफलता की कोई गारंटी नहीं होती! बड़े कलाकार और निर्देशक भी नहीं कह सकते कि उनकी फ़िल्में चल ही जाएगी! ऐसी सैकड़ों फ़िल्में याद की जा सकती हैं जिनके हिट होने की पूरी उम्मीद थी, पर ऐसा हुआ नहीं! ख़ास बात ये कि ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा नुकसान फिल्म को खरीदकर सिनेमाघरों में चलाने वाले डिस्टीब्यूटर को होता है। निर्माता तो फिल्म के रिलीज होने से पहले ही उसे बेचकर, मुनाफा कमाकर बाहर निकल जाता है। जब से फिल्म के संगीत, ओवरसीज, डिजिटल और इसी तरह के दूसरे अधिकार बिकने लगे हैं, फिल्म की लागत निकालना ज्यादा आसान हो गया! अब ऐसे हालात नहीं है जब 'मेरा नाम जोकर' के फ्लॉप होने के बाद राजकपूर परिवार संकट में आ गया था! आज तो फिल्म के फ्लॉप होने पर भी प्रोड्यूसर करोड़ों कमा लेते हैं।   
    इस साल की बड़ी फिल्मों में से एक करण जौहर की 'कलंक' को दर्शकों ने नकार दिया। डेढ़ सौ करोड़ में बनी यह फिल्म हफ्तेभर में ढेर हो गई! इसे बड़ी फ्लॉप इसलिए भी कहा जा रहा है कि इस फिल्म ने अपनी लागत भी नहीं निकाली! इस वजह से फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर को भारी नुकसान हुआ। फिल्म के फ्लॉप होने पर डिस्ट्रीब्यूटर्स और एक्सीबिटर्स को नुकसान होना नई बात नहीं है! न ये पहली बार नहीं हुआ और  आखिरी बार! फिल्म इतिहास ऐसे हादसों से भरा पड़ा है! लेकिन, इस फिल्म से हुआ नुकसान अकेले डिस्ट्रीब्यूटर कंपनी क्यों झेले? करण जौहर ने इस नुकसान की कुछ भरपाई करने की घोषणा करके उसे राहत दी है। ये कदम इसलिए भी उठाया गया कि आगे  कारोबारी रिश्तों में खटास न पड़े!
  किसी प्रोड्यूसर ने डिस्ट्रीब्यूटर की पीड़ा को समझा है, ये पहले भी हो चुका है! पहले भी पैसे लौटने की परम्परा रही है! सलमान ने 'ट्यूबलाइट' के नुकसान की भरपाई की थी! शाहरुख़ ने 'जब वी मेट' के अलावा अशोका, पहेली और 'दिलवाले' के फ्लॉप होने पर भी डिस्ट्रीब्यूटर को कुछ पैसे लौटाए थे। जबकि, अनुराग कश्यप ने 'बॉम्बे वेलवेट' के फ्लॉप होने पर भी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया! इसका नतीजा ये हुआ कि उसके बाद अनुराग कश्यप के साथ डिस्ट्रीब्यूटर कंपनी 'फॉक्स' ने कोई फिल्म नहीं की। इन अच्छे क़दमों का अनुसरण अब आमिर खान भी करने वाले हैं। यशराज की फिल्म 'ठग्स ऑफ हिंदोस्तान' का भी जादू चला नहीं चला! इस मल्टीस्टार फिल्म को दर्शकों ने पसंद नहीं किया जिसका सीधा असर एग्जीबिटर्स पर हुआ! इस फिल्म ने पहले दिन 50 करोड़ कमाए तो लगा था कि ये 'बाहुबली: द कन्क्लूजन' को पछाड़ देगी! लेकिन, तीन दिन में ही फिल्म ने पानी नहीं माँगा! लेकिन, आमिर ने पैसा लौटाया कि नहीं, अभी इस बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिली!
 फिल्म के फ्लॉप होने पर सामान्यतः निर्माता कंपनी डिस्ट्रीब्यूटर्स को पैसा नहीं लौटाती! लेकिन, सलमान खान भी पैसे लौटने वालों में से हैं, जिन्होंने 'ट्यूबलाइट' के कुछ घाटे को खुद भी सहा और डिस्ट्रीब्यूटर्स को आधा पैसा लौटाया। ये बात अलग है कि इस फ्लॉप फिल्म से भी सलमान ने कमाई की थी। 35 करोड़ रुपए लौटाने पर भी उन्हें खास फर्क नहीं पड़ा था। लेकिन, इन्हीं सलमान ने अपनी बड़ी फ्लॉप फिल्म 'वीर' के समय वादे के बाद भी डिस्ट्रीब्यूटर्स के पैसे नहीं लौटाए थे।
   रणबीर कपूर और कटरीना कैफ की फिल्म 'जग्गा जासूस' रिलीज़ भी फ्लॉप भी हो गई थी! रणबीर कपूर ने कहा था कि यदि फिल्म कमाई नहीं कर पाती, तो वे डिस्ट्रिब्यूटर्स के पैसे लौटा देंगे। लेकिन, शायद ऐसा किया नहीं गया। जबकि, रणबीर ने ये तक कहा था कि ये 1950 में मेरे दादाजी राज कपूर की फिल्मों के जमाने से होता आ रहा है। जब 'मेरा नाम जोकर' में डिस्ट्रिब्यूटर्स ने घाटा झेला तो 'बॉबी' के हिट होने पर दादाजी ने फायदे का एक बड़ा हिस्सा सिनेमाघर मालिकों की जगह डिस्ट्रिब्यूटर्स को दिया था। वास्तव में ये एक स्वस्थ परंपरा है। क्योंकि, फिल्म के हिट होने से निर्माता से लगाकर डिस्ट्रिब्यूटर्स और सिनेमा मालिक तक पैसा कमाते हैं। लेकिन, जब कभी फिल्म फ्लॉप हो तो उस घाटे में भी हिस्सेदारी की जाना चाहिए!
------------------------------------------------------

Monday, April 22, 2019

भाजपा के लिए मुश्किल है मध्यप्रदेश की आदिवासी सीटें!


    अपनी सारी कोशिशों के बाद भी लोकसभा चुनाव में भाजपा आदिवासी क्षेत्रों में अपनी ताकतवर मौजूदगी दर्ज नहीं करा सकी! मध्यप्रदेश की 6 आदिवासी सीटों में से कहीं भी भाजपा का पलड़ा भारी नहीं लग रहा! पिछले चुनाव में भाजपा ने सभी 6 सीटें जीत ली थी, पर उपचुनाव में झाबुआ सीट उसके हाथ से निकल गई! लेकिन, इस बार पिछली कहानी दोहराएगी, ऐसे कोई आसार नहीं हैं! किसी भी सीट पर भाजपा का उम्मीदवार दमदार नजर नहीं आ रहा! आज भी कांग्रेस से दूसरे दर्जे के या आयातित नेता ही भाजपा की पहली पसंद बनते हैं। प्रदेश की 47 विधानसभा सीटें भी आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं, लेकिन कोई सर्वमान्य नेता की कमी भाजपा में हमेशा खली है। जबकि, संघ आदिवासी क्षेत्रों में बरसों से काम कर रहा है।आदिवासी विकास और वनवासी कल्याण परिषद, वनबंधु मित्र मंडल जैसे कई आनुषंगिक संगठन भी बने, उन्होंने काम भी किया, पर नेतृत्व नहीं गढ़ सका। प्रदेश के 21 जिलों में आदिवासी इतने बहुमत में है। विधानसभा की तो 35 सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासियों के समर्थन के बिना कोई उम्मीदवार जीत ही नहीं सकता! 
000 

- हेमंत पाल 

  भारतीय जनता पार्टी लम्बे समय से ये सच्चाई जानती है कि आदिवासी समुदाय में उसकी पैठ कमजोर है! क्योंकि, भाजपा आज भी आदिवासियों का भरोसा जीतने में कामयाब नहीं हो सकी! आजादी के बाद से ही आदिवासी कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक रहे हैं। इसमें सैंध लगाने के लिए संघ ने भी काफी कोशिशें की और ये कोशिश आज भी जारी है, पर इसका कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया! प्रदेश की 6 लोकसभा सीटों के लिए जब भी सही उम्मीदवार की खोज होती है तो असलियत सामने आ जाती है। इस बार भी भाजपा की स्थिति आदिवासी सीटों पर ठीक-ठाक नजर नहीं आ रही! करीब सभी सीटों पर भाजपा को आदिवासी क्षेत्रों में चुनौती मिलती दिख रही है। मोदी लहर में पिछली सभी सीटें (बाद में झाबुआ-रतलाम सीट हार भी गई थी) भाजपा ने भले जीत ली हों, पर वर्तमान हालात ऐसे नहीं हैं!   
   मध्यप्रदेश की 7.26 करोड़ की आबादी में 21% अनुसूचित जनजाति की है। लेकिन, इस आबादी का झुकाव हमेशा कांग्रेस की तरफ रहा है। 2013 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने भले ही अपनी सीटें बढ़ा ली हों, पर पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है, जो आदिवासियों को प्रभावित कर सके! धार और झाबुआ में आदिवासियों को जो नेतृत्व कांग्रेस ने दिया, वो भाजपा नहीं दे सकी! दिलीपसिंह भूरिया ने कांग्रेस छोड़ी तो उनकी जगह कांतिलाल भूरिया ने ले ली, पर भाजपा अपने बूते पर ऐसा कोई नेता खड़ा नहीं कर सका! कांग्रेस के शिवभानुसिंह सोलंकी और जमुना देवी के सामने भाजपा का कोई नेता टिक नहीं सका! यही स्थिति दिलीपसिंह भूरिया की भी थी। मंडला सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी रहे, लेकिन अपनी पहचान नहीं बना सके, बल्कि विवादों में ही ज्यादा रहे! यही कारण रहा कि 2013 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी इलाके की करीब तीन चौथाई सीटें भाजपा के पास थीं! लेकिन, 2018 के चुनाव में हालात उलट गए। आज अधिकांश सीटें कांग्रेस के पास है। 
     करीब 2 दशक बाद ये पहला मौका है, जब आदिवासी वोट भाजपा के हाथ से निकलता नजर आ रहा है। विधानसभा चुनाव के नतीजों का संकेत भी यही है। इन सुरक्षित सीटों पर भाजपा को बड़ा नुकसान होने की आशंका है। विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने मालवा-निमाड़ से महाकौशल तक आदिवासी सीटों पर नुकसान झेला है। मालवा-निमाड़ में भाजपा 2014 में मिली 66 में से 57 सीटों से फिसलकर 27 पर इसीलिए पहुंची कि धार, झाबुआ और खरगोन में उसके ज्यादातर उम्मीदवार हार गए। यदि विधानसभा चुनाव के नतीजों को आधार मानकर आंकलन किया जाए तो भाजपा के लिए पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों को दोहरा पाना मुश्किल लग रहा है। अनुसूचित जनजाति वाली सीटें हैं शहडोल, मंडला, बैतूल, खरगोन, धार और झाबुआ-रतलाम है। इनमें सिर्फ कांग्रेस झाबुआ-रतलाम ही उपचुनाव में जीत पाई थी! अब ये सभी आधा दर्जन सीटें खतरे में लगती हैं। 
  धार लोकसभा सीट पर पिछला चुनाव भाजपा ने जीता था। यहाँ सवित्री ठाकुर ने जीती थी, लेकिन इस बार पार्टी ने थके, चुके उम्मीदवार छतरसिंह दरबार को टिकट दिया है। वे पहले सांसद रह चुके हैं, पर अब उनका कोई जनाधार नहीं बचा! वे न तो विक्रम वर्मा गुट के हैं न रंजना बघेल गुट के! उन्हें पार्टी ने क्या सोचकर टिकट दिया है, ये समझ से परे हैं। विधानसभा चुनाव में संसदीय क्षेत्र की 8 में से 6 सीटें कांग्रेस ने जीती है। यहाँ छतरसिंह दरबार का मुकाबला कांग्रेस के दिनेश गिरेवाल से होगा। दिनेश गिरेवाल भी बेहद कमजोर उम्मीदवार हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में वोटों के बड़े अंतर ने कांग्रेस की ताकत को बढ़ाया है। यही स्थिति खरगोन लोकसभा सीट की भी है। यहाँ भी भाजपा के लिए पिछली जीत दोहरा पाना आसान नहीं है। इस संसदीय सीट पर भाजपा को विधानसभा की 8 में से एक सीट पर बढ़त मिली है। एक पर निर्दलीय जीता और 6 सीटें कांग्रेस के पास गईं! ऐसे हालात में पार्टी ने पिछले चुनाव जीते सुभाष पटेल का टिकट काटकर गजेंद्र पटेल को उम्मीदवार बनाया है, जो किसी के गले नहीं उतर रहा! 
  मंडला लोकसभा सीट से भाजपा ने फग्गनसिंह कुलस्ते को फिर उम्मीदवार बनाया है। यहां के संसदीय क्षेत्र में भाजपा के पास विधानसभा की सिर्फ 2 सीटें हैं। 6 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस की जीत ने उनके उत्साह को बढ़ाया है। पार्टी ने अपने सर्वे में पाया कि यहाँ फग्गनसिंह कुलस्ते के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश है, इस कारण वे सीट बदलना भी चाह रहे थे, पर पार्टी ने उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी। यहाँ पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं होने से उनको ही मैदान में उतारा गया! उनका अनमनेपन से चुनाव लड़ना, नतीजा साफ़ दर्शा रहा है। यहाँ से कांग्रेस ने कमल मरावी को उम्मीदवार बनाया है। वे भी लोकप्रिय नेता नहीं हैं, पर कुलस्ते का विरोध उनकी राह को आसान बना सकता है। 
   शहडोल में भी भाजपा अंदरूनी राजनीति से जूझ रही है। जबकि, यहाँ कांग्रेस और भाजपा दोनों को विधानसभा की 4-4 सीटें मिली है और मुकाबला बराबरी का है। पिछली बार यहाँ गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के उम्मीदवार हीरासिंह मरकाम ने चुनाव लड़कर त्रिकोणीय स्थिति बनाकर भाजपा की जीत को आसान कर दिया था। इस बार यहाँ भाजपा ने ज्ञानसिंह को हटाकर हेमाद्री सिंह को उम्मीदवारी सौंपी है। वे कांग्रेस की नेता राजेश नंदिनी सिंह की बेटी हैं। यहाँ कांग्रेस ने भाजपा छोड़कर आई प्रमिला सिंह को टिकट दिया है। विरोध के स्वर कांग्रेस में भी हैं, पर इससे भाजपा की जीत आसान हो जाएगी, ऐसा नहीं है। यहाँ यदि भाजपा को जीतना है तो उसे पूरा जोर लगाना पड़ेगा! बैतूल लोकसभा सीट से पिछला चुनाव जीतने वाली भाजपा की ज्योति धुर्वे फर्जी जाति प्रमाण पत्र के मामले में उलझी है। इसलिए धुर्वे को टिकट देने का तो सवाल ही नहीं उठता था! विधानसभा चुनाव में यहाँ कांग्रेस और भाजपा दोनों ने बराबरी से 4-4 सीटें जीती हैं। भाजपा ने इस बार संघ की पृष्ठभूमि वाले दुर्गादास उइके को मैदान में उतारा है। वे कोई कमाल कर सकेंगे, इसमें संदेह है। क्योंकि, उनका भी विरोध है। 
    झाबुआ-रतलाम लोकसभा सीट कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया के पास है। वे 2013 में जीते भाजपा के दिलीपसिंह भूरिया के निधन के बाद के हुए उपचुनाव में भाजपा की निर्मला भूरिया को हराकर ये चुनाव जीते थे। इससे पहले दिलीपसिंह भूरिया ने ही कांतिलाल भूरिया को हराया था। इस संसदीय क्षेत्र की 8 में से सिर्फ 3 विधानसभा सीट पर ही भाजपा को बढ़त मिली है। कांग्रेस ने पांच सीटें जीती हैं। कांग्रेस ने फिर कांतिलाल भूरिया को उम्मीदवार बनाया, तो मुकाबले में भाजपा ने झाबुआ से विधायक गुमानसिंह डामोर को उतारा है! विधायक को लोकसभा चुनाव नहीं लड़ाने के नियम के बावजूद डामोर को उम्मीदवार बनाए जाने का साफ़ मतलब है कि यहाँ भाजपा के पास कोई सशक्त उम्मीदवार नहीं है! सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद गुमानसिंह डामोर भाजपा में आए और विधानसभा का चुनाव जीते! लेकिन, उनकी जीत का कारण कांग्रेस में फूट थी! जैवियर मेढ़ा ने निर्दलीय चुनाव लड़कर भाजपा के लिए रास्ता आसान कर दिया था, पर फिलहाल ऐसे हालात नहीं है!    
----------------------------------------------------------

Sunday, April 21, 2019

अमिताभ की अधूरी फिल्मों के किस्से!

- हेमंत पाल

  फिल्मों का इतिहास बड़ा अजीब है! इसे बाहर से देखने और इसकी सच्चाई में बहुत फर्क है! ग्लैमर से भरी इस दुनिया  दुःख हैं, जो न तो बखाने जा सकते हैं और न उनका कोई हल ही है। ऐसी ही एक पीड़ा है, फिल्मों का अधूरा रह जाना! बॉलीवुड में जितनी फ़िल्में बनना शुरू होती है, उसमें से कई फ़िल्में पूरी ही नहीं हो पाती! कुछ तो मुहूर्त शॉट तक ही सीमित होकर रह जाती है और ऐसी भी फ़िल्में हैं जो आधी बनी और डिब्बे में बंद हो गईं! छोटे कलाकारों की अधूरी और रिलीज न होने वाले फिल्मों की तो फेहरिस्त काफी लम्बी है, पर अमिताभ बच्चन जैसे बड़े कलाकार भी उनमें शामिल हैं, जिनकी कई फिल्मों मुहूर्त तो हुए, पर वे बनी नहीं! कुछ फ़िल्में बनकर तैयार तो हुईं, पर उन्होंने परदे मुँह नहीं देखा!  
   अमिताभ बच्चन की ऐसी ही फिल्म है 'शूबाइट' जिसे अभी तक रिलीज नहीं किया जा सका है। इस फिल्म को लेकर परसेप्ट पिक्चर कंपनी और यूटीवी प्रोडक्शन हाउस के बीच विवाद चल रहा है। इस कारण ये लंबे समय से अटकी है। अमिताभ बच्चन की एक फिल्म थी 'शिवा' बनी थी। ये हॉलीवुड फिल्म 'लॉस्ट एंड फाउंड' पर आधारित थी इसमें अमिताभ ने बड़े भाई का किरदार निभाया था, पर वो डिब्बे में ही बंद होकर रह गया! 'यार मेरी जिंदगी' भी ऐसी ही एक फिल्म थी, जिसका डायरेक्शन अशोक गुप्ता ने किया था। इसमें अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा मुख्य भूमिका में थे। लम्बे अरसे तक अटकने के बाद बड़ी मुश्किल से इसे रिलीज किया गया, पर चंद सिनेमाघरों में! अमिताभ और रेखा ने कई फ़िल्में साथ की, लेकिन इनकी पहली फिल्म थी 'अपना पराया' जो कुछ सीन की शूटिंग के बाद पैकअप हो गई! बाद में दोनों 'दो अजनाने' में साथ दिखाई दिए! अमिताभ ने 'खुदा गवाह' में डबल रोल निभाया था और इसमें उनकी हीरोइन थी श्रीदेवी! लेकिन, शायद बहुत काम लोग जानते हैं कि पहली बार 'खुदा गवाह' मनमोहन देसाई के डायरेक्शन में 1978 में बनना शुरू हुई थी! इसमें उनके साथ परवीन बाबी हीरोइन थी। ये फिल्म मुहूर्त के बाद नहीं बन पाई। मनमोहन देसाई ने ही 'सरफरोश' बनाना शुरू की थी। इसमें अमिताभ के साथ परवीन बाबी, ऋषि कपूर, कादर खान और शक्ति कपूर थे। लेकिन, इस फिल्म का हश्र भी अच्छा नहीं हुआ! बाद में इसी नाम से फिल्म बनी, जिसमें आमिर खान ने काम किया था। डायरेक्टर राकेश कुमार ने 1980 में अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार, रेखा और वहीदा रहमान को लेकर फिल्म 'टाइगर' शुरू की थी।  किंतु, प्रोड्यूसर और कलाकारों में हुए विवाद के कारण फिल्म रिलीज नहीं हो सकी।  
   डायरेक्टर टी रामाराव की फिल्म 'खबरदार' (1984) यदि रिलीज होती, तो अमिताभ बच्चन और कमल हासन पहली बार साथ नजर आते। लेकिन, फिल्म बनी तो.पर रिलीज नहीं हुई! बाद में इन दोनों ने 'गिरफ्तार' में साथ काम किया था। सुभाष घई ने भी अमिताभ को लेकर 1987 में 'देवा' बनाने की प्लानिंग की थी! लेकिन, मुहूर्त के बाद फिल्म की हफ्तेभर की शूटिंग हुई और फिल्म बंद कर दी गई! इसके बाद सुभाष घई ने किसी और कलाकार को लेकर भी ये फिल्म नहीं बनाई। यही हश्र अमिताभ की फिल्म 'शिनाख्त' की भी हुई थी, जिसका मुहूर्त 1988 में हुआ था। डायरेक्टर टीनू आनंद ने इसमें अमिताभ के साथ माधुरी दीक्षित को लिया था। कुछ दिन फिल्म की शूटिंग भी हुई, पर अचानक इसे बंद कर दिया गया। अमिताभ की ऐसी ही एक फिल्म थी 'आलीशान' जो 1988 में सेट पर आई थी। एक हफ्ते की शूटिंग के बाद ये फिल्म भी नहीं बनी! इसके बंद होने के बाद अमिताभ बच्चन ने 'मैं आजाद हूं' में काम किया था। 
  मुद्दा ये नहीं कि अमिताभ बच्चन की फ़िल्में अधूरी रही या पूरी होने के बाद भी उन्हें परदे का मुँह देखने का मौका नहीं मिला! ये पीड़ा सलमान खान और अक्षय कुमार जैसे कलाकारों ने भी भोगी है। सलमान की भी पांच से ज्यादा और अक्षय की भी करीब दस फ़िल्में किसी न किसी कारण से अटकी हुई हैं। जब ऐसे बड़े कलाकारों को ये सब भोगना पड़ता है, तो कल्पना की जा सकती है कि उन छोटे कलाकारों और तकनीशियनों के साथ क्या बीतता होगा जिनकी गाड़ी ही इन बड़े कलाकारों की वजह से चलती है। 
-----------------------------------------------------------

Wednesday, April 17, 2019

मालवा-निमाड़ : भाजपा और कांग्रेस दोनों को सेबोटेज का खतरा!

- हेमंत पाल  
  
श्चिम मध्यप्रदेश की मालवा-निमाड़ इलाके की 8 लोकसभा सीटों के लिए दोनों पार्टियों के अधिकांश उम्मीदवार घोषित हो गए! लेकिन, पर कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए जीत गले में फँसी हड्डी की तरह हैं! उम्मीदवारों को देखकर किसी भी सीट से कोई भी पार्टी जीत का दावा नहीं कर सकती! असमंजस और असंतोष इतना गहरा है कि कहा नहीं जा सकता कि बाजी कौन मारेगा! दोनों ही पार्टियों में ज्यादातर उम्मीदवारों को लेकर नाराजी है! ऐसी स्थिति में सेबोटेज का खतरा दोनों तरफ नजर आ रहा है। 
   इंदौर लोकसभा सीट से लम्बे इंतजार के बाद कांग्रेस ने पंकज संघवी को उम्मीदवार घोषित कर दिया। आश्चर्य है कि इस बात का कि इस नाम की घोषणा में इतनी देर क्यों की गई? पंकज संघवी अभी तक कोई बड़ा चुनाव नहीं जीते हैं। वे इतने लोकप्रियभी नहीं हैं कि आसानी से लोकसभा चुनाव जीत सकें! पार्षद का एक चुनाव जीतने के अलावा उनके राजनीतिक इतिहास में कोई जीत दर्ज नहीं है! पंकज संघवी ने 1983 में पहली बार इंदौर नगर निगम के पार्षद का चुनाव लड़ा और जीता था। उनका परिवार के धार्मिक, सामाजिक और व्यवसायिक, शैक्षणिक कार्यों से जुड़ा है इसी के चलते कांग्रेस ने 1998 में उन्हें इंदौर की लोकसभा सीट का टिकट दिया! संघवी ये चुनाव भाजपा की सुमित्रा महाजन से 49,852 वोटों से चुनाव हार गए थे। 2009 में कांग्रेस ने फिर उन पर भरोसा जताया और महापौर का चुनाव लड़वाया! इस चुनाव में भी वे भाजपा के उम्मीदवार कृष्णमुरारी मोघे से 4 हजार वोटों से हारे थे। 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्हें इंदौर के क्षेत्र क्रमांक-5 से उम्मीदवार बनाया गया! इस चुनाव में भी वे भाजपा के महेंद्र हार्डिया से साढ़े 12 हज़ार वोटों से हारे थे! संघवी के बारे में चर्चित है कि वे चुनाव आने पर ही सक्रिय होते हैं और फिर राजनीतिक परिदृश्य से लोप हो जाते हैं। शहर में कांग्रेस की गुटीय राजनीति को देखते हुए, वे कोई चमत्कार कर सकेंगे, इसमें संशय है! 
    धार की आदिवासी लोकसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार दिनेश गिरेवाल के नाम की घोषणा के साथ ही विरोध शुरू हो गया! कांग्रेस समर्थकों का कहना है कि ये टिकट गुटीय राजनीति के चलते दिया गया है! दिनेश गिरेवाल की संसदीय क्षेत्र में कोई राजनीतिक पहचान नहीं है। वे सिर्फ जिला पंचायत के सदस्य रहे हैं, इसके अलावा उन्होंने कोई बड़ा चुनाव नहीं लड़ा और न जीता! इस सीट से तीन बार के सांसद गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी का नाम तय माना जा रहा था, लेकिन उनकी जगह नए और अंजान व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया गया! जिले में कई जगह दिनेश गिरेवाल के पुतले जलाए जा रहे हैं और उनके क्षेत्र में न घुसने के पोस्टर लगे हैं! ये स्थिति कांग्रेस में ही नहीं, भाजपा में भी है। घोषित भाजपा उम्मीदवार छतरसिंह दरबार के खिलाफ भी कई नेताओं ने मोर्चा खोल दिया है। कुछ नेता तो टिकट बदले जाने के लिए दिल्ली और भोपाल भी कूच कर गए! दोनों पार्टियों में जिस तरह का माहौल है, ये कहना मुश्किल है कि किसका पलड़ा भारी होगा!
    खरगोन सीट से कांग्रेस उम्मीदवार डॉ गोविंद मुजाल्दा का विरोध तो उनके नाम घोषित होने के साथ ही होने लगा है! इसके पीछे भी उनके अराजनीतिक होने को बताया जा रहा है। पार्टी के स्थानीय नेता तो खुलकर उनके खिलाफ खड़े हो गए! झाबुआ-रतलाम सीट से भाजपा उम्मीदवार जीएस डामोर का भी अंदरूनी विरोध हो रहा है! उन्हें पार्टी ने नियम तोड़कर टिकट दिया है। भाजपा ने तय किया था कि किसी विधायक को टिकट नहीं दिया जाएगा! लेकिन, डामोर को उम्मीदवार बनाने में इस नियम को किनारे किया गया! उन्हें बाहरी व्यक्ति भी बताया गया! क्योंकि, वे धार जिले के रहवासी हैं। इसे भाजपा की कमजोरी माना जाना चाहिए कि इतने सालों बाद भी झाबुआ, आलीराजपुर और रतलाम क्षेत्र में कोई अच्छा आदिवासी नेतृत्व खड़ा नहीं किया जा सका! 
   देवास-शाजापुर सीट से भी भाजपा ने महेंद्रसिंह सोलंकी को टिकट दिया जो नौकरी छोड़कर आए हैं! इसका स्थानीय स्तर पर विरोध हो रहा है। टिकट के दावेदारों के समर्थकों का कहना है कि पार्टी का ये फैसला मंजूर नहीं है! मंदसौर में भाजपा के मौजूदा सांसद और उम्मीदवार सुधीर गुप्ता का विरोध जगजाहिर था! लेकिन, पार्टी ने अपनी पहली लिस्ट में ही उन्हें टिकट दिया! जबकि कांग्रेस ने भी एक बार फिर मीनाक्षी नटराजन पर दांव लगाया है, जो पिछली बार हार गई थी! यहाँ दोनों ही पार्टियों में अपने-अपने उम्मीदवार का विरोध है, लेकिन पार्टी के फैसले के सामने सब मजबूर भी हैं। भाजपा ने उज्जैन लोकसभा सीट से विधानसभा चुनाव हारे नेता अनिल फिरोजिया को खड़ा किया है! स्वाभाविक है कि पार्टी में अन्य दावेदारों में असंतोष तो नजर आएगा ही! आप सारा दारोमदार इस बात पर है कि जिस पार्टी में ज्यादा सेबोटेज होगा, उसका उम्मीदवार हारेगा!  
--------------------------------------------------------

कांग्रेस को कहीं महँगी न पड़ जाए रियासतों की सियासत!


- हेमंत पाल

  सियासत में रियासतों का दखल आज भी कायम है। रियासतें चली गई, पर उनकी जगह सियासतों ने ली ली! वही अंदाज और वही ठसका कायम है! पर, इसका नतीजा भुगतना पड़ रहा है लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीतिक पार्टियों के उन कार्यकर्ताओं को जो रियासत की सियासत का हिस्सा नहीं हैं! इस बार के लोकसभा चुनाव में भी जहाँ रियासतों का दखल रहा है, वहां उम्मीदवारों का चयन भी इसी मापदंड से हो रहा है! पार्टियों से जुड़े कथित राजा, महाराजा पार्टी के सक्षम नेताओं को नहीं, अपने जी-हुजूरियों को उम्मीदवार बना रहे हैं! ताजा सबूत है धार लोकसभा सीट से एक अंजाने चेहरे दिनेश गिरेवाल को टिकट दिया जाना! जनभावनाओं को किनारे करते हुए उन्हें टिकट इसलिए दिया गया कि सिंधिया खेमे के दत्तीगाँव रियासत के उत्तराधिकारी और विधायक राजवर्धन सिंह के नजदीक हैं। लेकिन, इस लोकसभा क्षेत्र के लोग इस फैसले के खिलाफ खड़े हो गए! 
000 

  आजादी के बाद देश में किसी राजनीतिक पार्टी की कोई पहचान नहीं थी! कांग्रेस स्वतंत्रता संग्राम से जुडी थी, इसलिए वही एक पार्टी सामने थी! उसी में गरम दल और नरम दल बन गए थे। ऐसी स्थिति में राजाओं, महाराजाओं का राजनीति में प्रवेश हुआ और उनका वोट बैंक सामने आया जो आज भी कायम है! इन राज परिवारों का दम-ख़म भले हो गया, मगर उनका वोट बैंक आज भी कायम है! ऐसी स्थिति में कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए उनको साधना जरुरी है। राजपरिवारों को भी राजनीतिक पार्टियों के संरक्षण की जरूरत है। इस तरह दोनों एक-दूसरे की जरूरत है।1956 में जब मध्यप्रदेश बना तो यही राजा, महाराजा प्रदेश की राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो गए और सत्ता के सूत्र अपने हाथ में ले लिया! प्रदेश की कई रियासतें और जागीरें जिनका अच्छा प्रभाव था वे राजनीति के सिपहसालार बन बैठे! इस बार के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर मध्यप्रदेश के रियासतों से नाता रखने वाले उत्तराधिकारियों और उनके नजदीकियों ने टिकट हांसिल करने में कामयाबी पाई है। इन्हीं घरानों के कुछ वारिस कांग्रेस तो कुछ भाजपा का नेतृत्व कर रहे हैं और दोनों ही पार्टियों से वे टिकट पाने में सफल रहे! दोनों पार्टियों ने करीब दर्जनभर ऐसे ही उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है! बात खुद की उम्मीदवारी तक सीमित होती तो ठीक था, अब तो उनके कोटे से भी टिकट दिए जाने लगे! 
    मध्यप्रदेश के गठन के बाद से रियासतों के वारिसों ने अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार राजनीतिक पार्टियों में अपनी हैसियत से प्रभाव जमाया! मध्यप्रदेश के गठन के बाद 18 साल इन्हीं रियासतों के राजाओं ने प्रदेश की कमान संभाली! इनमें सबसे ज्यादा 10 साल तक राघौगढ़ रियासत के प्रतिनिधि दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री रहे! वहीं चुरहट रियासत से जुड़े अर्जुन सिंह करीब छ: मुख्यमंत्री रहे। इसके अलावा गोविंद नारायण सिंह व राजा नरेशचंद्र सिंह भी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने! ख़ास बात ये कि सिंधिया रियासत का कोई प्रतिनिधि कभी प्रदेश  कमान नहीं संभाल पाया! लेकिन, इन सभी का कांग्रेस से नाता रहा है। जबकि, प्रदेश में पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जड़ें मजबूत करने में सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया का अहम योगदान रहा है। राज्य की सियासत में रियासतों के दखल पर गौर किया जाए तो सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया, उनके पुत्र माधवराव सिंधिया व पुत्री यशोधरा राजे और माधव राव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक हैसियत किसी से छुपी नहीं है। इसी तरह रीवा राजघराने के मार्तण्ड सिंह और उनकी पत्नी प्रवीण कुमारी और अब पुष्पराज सिंह राजनीति में सक्रिय हैं।
  धार-महू लोकसभा सीट से इस बार कांग्रेस ने सिंधिया समर्थक माने जाने वाले दिनेश गिरवार टिकट दिया है। जबकि, गिरवाल ने जिला पंचायत सदस्य के अलावा कोई बड़ा चुनाव नहीं लड़ा! जिले की राजनीति में भी उनकी कोई पहचान नहीं है! फिर भी कांग्रेस ने उन पर भाजपा के कब्जे वाली इस सीट पर उनको चुनाव लड़ाने का भरोसा जताया! उनको उम्मीदवार बनाने में बदनावर के विधायक राजवर्धनसिंह दत्तीगांव और गंधवानी विधायक उमंग सिंगार की भूमिका रही! ये दोनों ही विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया खेमे के माने जाते हैं। गिरवाल और उनकी पत्नी दोनों जिला पंचायत सदस्य रह चुके हैं। इससे ज्यादा उनकी कोई राजनीतिक उपलब्धि नहीं रही! जबकि, दिग्विजय सिंह खेमे के गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी को टिकट नहीं दिया गया! तीन बार सांसद होने बावजूद राजूखेड़ी का नाम क्यों काटा गया, ये धार के कांग्रेस समर्थक समझ नहीं पा रहे हैं! धार जिले में अभी तक आदिवासियों के भील और भिलाला समाज का वर्चस्व रहा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों तरफ से ही इन्हीं समाज के नेताओं को मौका दिया गया! दिनेश गिरवाल का स्थानीय स्तर पर खुलकर विरोध हो रहा है! कई जगह उनके पुतले तक जलाए गए और कुछ गाँवों में उनके न आने के पोस्टर लगे हैं। लेकिन, फिर भी कांग्रेस के सिंधिया खेमे को भरोसा है कि वे ये सीट जीत लेंगे!  
   पश्चिम मध्यप्रदेश के निमाड़ इलाके की खरगोन सीट से उम्मीदवार बनाए गए डॉ गोविंद मुजाल्दे का भी विरोध हुआ! कांग्रेस के पूर्व जिला अध्यक्ष सुखलाल परमार ने उनका खुलकर विरोध किया। परमार लंबे समय तक बड़वानी जिले के अध्यक्ष रहे हैं। उनकी मांग है कि उम्मीदवार के बारे में पुनर्विचार किया जाए। उन्होंने सामूहिक इस्तीफे की भी चेतावनी दी है। उनका कहना है कि हम तीस साल से भाजपा के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन, टिकट देने में हमसे पूछा तक नहीं गया! कांग्रेस पार्टी ने ऐसे व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया है, जो पार्टी का प्राथमिक सदस्य तक नहीं है। बताते हैं कि डॉ मुजाल्दे का नाम दिग्विजय सिंह खेमे ने आगे बढ़ाया है! राजगढ़ लोकसभा सीट से कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह समर्थक मोना सुस्तानी को उम्मीदवार बनाया है। मोना तीन बार से जिला पंचायत सदस्य चुनी जा रही हैं और जनपद सदस्य भी रह चुकी हैं। मोना के ससुर गुलाब सिंह सुस्तानी विधायक रह चुके हैं। राजगढ़ सिंह दिग्विजय सिंह की परंपरागत सीट मानी जाती है। इस सीट से दिग्विजय सिंह के अलावा उनके भाई लक्ष्मण सिंह भी सांसद रह चुके हैं। मोना सुस्तानी का तो यहाँ तक कहना है कि वे सिर्फ चेहरा हैं, राजगढ़ सीट से दिग्विजय सिंह ही चुनाव लड़ रहे हैं। 
  प्रदेश की एक महत्वपूर्ण सीट ग्वालियर है जो इस बार कांग्रेस के दिग्विजय खेमे के पाले में रही! इलाके में सिंधिया घराने का वर्चस्व है, फिर भी इस बार तीन बार के हारे अशोक सिंह को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया! जहाँ जीवन में नेताओं को पूरा दमखम लगाने के बाद भी एक बार चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिलता, वहाँ अशोक सिंह जैसे भी नेता हैं,  जिन्हें तीन बार चुनाव हारकर भी चौथी बार चुनाव लड़ने  मिल जाता है! सिर्फ इसलिए कि वे सिंधिया और दिग्विजय सिंह दोनों राजघरानों साधने में कामयाब रहते हैं।        
  गुना सीट पर तो जैसे सिंधिया घराने का ही कब्ज़ा है! आजादी के बाद सिंधिया परिवार ही यहाँ से अपने परिवार या प्रतिनिधि को चुनाव लड़वाता रहा है। अशोकनगर, गुना, शिवपुरी तीन जिलों की आठ विधानसभाओं से बनी इस लोकसभा सीट पर किसी पार्टी की नहीं, बल्कि सिंधिया परिवार की तूती बोलती है। सिंधिया परिवार की तीन पीढ़ियां यहां से 14 बार लोकसभा चुनाव जीती हैं। 2014 में ज्योतिरादित्य सिंधिया यहाँ से कांग्रेस के टिकट पर चौथी बार सांसद चुने गए थे। इस बार भी वही उम्मीदवार हैं। उनकी दादी विजयराजे सिंधिया यहाँ से 6 बार, उनके पिता माधवराव सिंधिया 4 बार सांसद रहे हैं। 1998 लोकसभा चुनाव में तो विजयाराजे सिंधिया नामांकन पत्र भरने के बाद इतनी बीमार हो गई थी कि एक बार भी जनसम्पर्क या प्रचार करने नहीं आई! फिर भी वे चुनाव जीत गईं। माधवराव सिंधिया तो यहां से एक बार निर्दलीय रूप में कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों को हराकर जीत गए थे। 
------------------------------------------------------------------------------

Sunday, April 14, 2019

जिन्हें पसंद नहीं, वे फ़िल्में न देखें!

- हेमंत पाल

  सिनेमा के जितने प्रशंसक हैं, उतने ही आलोचक भी! जो प्रशंसक हैं उनको हर फिल्म पसंद आती है और जो आलोचक हैं, वो हर फिल्म में खामी ढूंढते हैं! ये स्वाभाविक है और हर विधा में ये होता भी है! लेकिन, समय के साथ-साथ फिल्म बनाने वाले और इसे देखने वाले दोनों की समझदारी बढ़ी है। पहले दर्शक एक्टर को उसके कैरेक्टर से पहचानते थे! अब, फिल्म बनाने वालों और दर्शकों की मैच्योरिटी है कि दर्शक एक्टर को उसके रोल से कंफ्यूज नहीं करते! बल्कि समझते हैं कि ये अच्छा एक्टर है, इसने यदि फिल्म में हीरो का रोल किया था, तो विलेन बनने का मौका मिला तो वो ये रोल भी अच्छा करेगा। यानी अब एक्टर की सीमाबंदी नहीं रही! राजकपूर और राजेंद्र कुमार जैसे अभिनेता अपनी इमेज तोड़कर शायद ही किसी फिल्म में विलेन बने हों! लेकिन, अब अमिताभ, शाहरुख़ और आमिर जैसे एक्टर भी विलेन बनने का मौका नहीं छोड़ते और रोल के साथ पूरा इंसाफ भी करते हैं।
    फिल्मों की कहानी चोरी के मामलों में भी पहले के मुकाबले लगाम लगी है। पहले तो हॉलीवुड की फिल्में हमारे यहाँ आती ही नहीं थीं! आती भी थी, तो बरसों बाद और बड़े शहरों के चंद थियेटर में लगती थीं। इसलिए कि तब हॉलीवुड की इंग्लिश फ़िल्में एक दूसरी चीज थी, कहीं दूसरी दुनिया के अजूबे की तरह! लेकिन, अब संचार तंत्र इतना आसान हो गया कि हॉलीवुड की फ़िल्में पहले हमारे देश में रिलीज होने लगी! ऐसे में किसकी हिम्मत होगी कि वह कहानी की जस की तस चोरी कर सके! ऐसा किया तो पता लग जाएगा कि यह आइडिया कहां से आया है। एक बात ये भी कि आज के फिल्मकारों में आत्मविश्वास भी बहुत ज्यादा है! उन्हें पसंद दूसरे के आइडिये चुराकर अपनी कलात्मकता का दावा किया जाए! 
  दरअसल, सिनेमा ने धीरे-धीरे चलते हुए दौड़ना सीख लिया है। सिनेमा ने ही दुनिया को अलग-अलग आयामों से अभिव्यक्त किया! क्योंकि, किसी भी देश की फिल्में उस समाज का हिस्सा होती है! जैसे-जैसे समाज बढ़ता या बदलता है, उसी तरह वहां कि फिल्में भी बदलती हैं। अगर समाज की हालत बेहतर होती है, तो वहां की फ़िल्में भी उसी अनुपात में बेहतर होती चली जाएँगी! कोई समाज जब अपनी परंपराओं को बदलता है, तो वह बदलाव फिल्मों में भी दिखता है। वास्तव में फिल्में समाज का आईना नहीं होती, वो तो समाज का ख्वाब होती हैं। उसके अंदर वो तमाम उम्मीदें भी दिखाई देती हैं, जो समाज के जहन में पलटी हैं। साथ में तमाम तरह के डर और फिक्र भी साथ चलती है! सिनेमा ही वो माध्यम है जिसमें समाज की सभी अच्छी-बुरी बातें होती हैं। उसकी रिवायतें होती हैं, लेकिन वो समाज की तस्वीर नहीं होता! फिल्म देखकर उस समाज की कल्पना बेमानी होगी! किसी ने एक बात बहुत सोच-समझकर कही है 'मुझे किसी देश के विज्ञापन दिखा दो, मैं उस समाज के बारे में सब कुछ बता सकता हूँ।' हो सकता है मनोरंजन के लिए बनने वाली फिल्में कमाई के मकसद से बनाई जा रही हों! लेकिन, वे भी समाज को ही दिखाती हैं। इनमें भी समाज के ख्वाब या उम्मीदें हैं। उनके संस्कार और उनके नैतिक मूल्य सब कुछ तो हैं। वक्त के साथ नैतिक मूल्यों में भी तब्दीली आती है, उसी तरह फिल्मों में भी यह तब्दीली दिखाई देती है।
  जहाँ तक फिल्म की कहानी की बात है तो हमारे देश में कहानी सुनाने की प्रथा हज़ारों साल पुरानी है। गाँव की चौपाल हो, संस्कृत के नाटक हो, रामलीला या कृष्णलीला हो, नौटंकी हों, यात्रा हो चाहे उर्दू पारसी थियेटर हों! ये सब बोलती फिल्म के पहले का मनोरंजन था। उन सबमें गाने होते थे। हम कहानी में गीत पिरोकर उसे सुनाते थे और यही हमारा रिवाज भी था! अब ये किसी आलोचल को पसंद नहीं है, तो ये उसकी अपनी परेशानी है! अगर कोई एतराज करे कि इतालवी ओपेरा में लोग गाते क्यों हैं? क्योंकि, उसमें गाया जाता है! यदि आपको इतालवी ओपेरा नहीं पसंद है तो आप कुछ और देख लीजिए! सबको खुश रखने का जिम्मा फिल्मकारों का तो नहीं होता! हमारे यहाँ फिल्म बनाने का बरसों से यही अंदाज है और आगे भी रहेगा। वक्त के साथ अलग तरह की फिल्में भी बन रही हैं। उनमें कई बार संगीत है भी तो बैकग्राउंड में है, लिप सिंक नहीं हैं। लेकिन, ऐसी फिल्में जरूर बनें, जो पारंपरिक हैं! जो पहले बना करती थीं, वो भी बनती रहें। हमारे यहाँ फिल्म में कहानी सुनाने का एक खास अंदाज है, हम वो क्यों छोड़ें और किसके लिए? जहाँ तक फिल्मों में नाच गाने की बात है तो ये हिंदी फिल्मों का सुहाग है। अब जिन दर्शकों को हिंदी फिल्मों की कहानी और नाच-गाना पसंद नहीं है, वो हमारी फ़िल्में न देखें, दूसरी फिल्में देखें या कोई और मनोरंजन ढूंढ लें!
----------------------------------------------------

Monday, April 8, 2019

एक चिट्ठी के साथ इंदौर की राजनीति से 'ताई' युग की बिदाई!



   ये आशंका सही साबित हुई कि भारतीय जनता पार्टी ने इस बार इंदौर लोकसभा सीट से सुमित्रा महाजन 'ताई' को उम्मीदवार नहीं बनाएगी! पार्टी ने ये फैसला काफी पहले कर लिया था! इस राज को खुलते-खुलते उम्मीदवारों की 16 लिस्ट सामने आ गई! लेकिन, इस पूरे प्रसंग का सबसे दुखद पहलू ये रहा कि भाजपा ने अपनी महिला नेता की सम्मानजनक बिदाई नहीं की! बल्कि, उन्हें इस बात के लिए मजबूर किया गया कि वे खुद आगे बढ़कर चुनाव से इंकार करें, और अंततः ये हुआ भी! यदि पार्टी 75 पार वाले फार्मूला पर अडिग थी, तो इसकी जानकारी दी जा सकती थी! इस पूरे घटनाक्रम के बाद भी कुछ सवाल अनुत्तरित हैं कि 'ताई' को रास्ते से हटाने का मूल कारण क्या है? विधानसभा चुनाव के समय उनका अड़ियलपन या किसी मामले में उनके प्रति पार्टी की नाराजी?
000 
- हेमंत पाल
  इंदौर लोकसभा की सीट को देश की हाईप्रोफाइल सीटों में से है। इसका कारण भी सुमित्रा महाजन उर्फ़ 'ताई' को ही माना जा सकता है! वे 30 साल में हुए 8 लोकसभा चुनाव यहाँ से जीती, जो अपने आपमें एक रिकॉर्ड है! लेकिन, इन 30 सालों के कार्यकाल में उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया, जिसे उनकी उपलब्धियों में गिना जाए! उन पर एक समाज विशेष तक सीमित होने के भी आरोप लगे! उनके आसपास भी राजनीतिक जमावड़े का हमेशा अभाव देखा गया! 'ताई' ने अपनी राजनीतिक ताकत का कभी मतदाताओं के लिए इस्तेमाल नहीं किया! सक्रियता के नाम पर वे मंत्रियों और मंत्रालयों को चिट्ठी लिखने तक सीमित रहीं! अपनी राजनीतिक पारी का अंत भी उन्होंने चिट्ठी लिखकर ही किया! किंतु, इस चिट्ठी ने उनका कद नहीं बढ़ाया, बल्कि घटाया है। देश के पाँच बड़े संवैधानिक पदों में से एक लोकसभा अध्यक्ष तक पहुंची 'ताई' को पार्टी से परेशान होकर खुद ही उम्मीदवारी से मुक्त होने की घोषणा करना पड़ी!
    अभी तक पार्टी नेतृत्व की तरफ से जो संकेत मिल रहे रहे थे, उनका निष्कर्ष यही था कि उम्र के लिहाज़ से पार्टी उन्हें 'मार्गदर्शक मंडल' की लिस्ट में शामिल कर चुकी है। इस लिहाज से 75 पूरे कर चुकी सुमित्रा महाजन की राजनीतिक पारी अब समाप्त हो गई! लेकिन, शायद वे यह बात स्वीकरने को तैयार नहीं थीं! इंदौर में पार्टी के लिए खुद को ज़रूरी मानते हुए दो महीने से चुनाव की तैयारी में लगी थीं। उनका निर्वाचन क्षेत्र के पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों से मिलने-जुलने का सिलसिला भी जारी था। उन्हें पूरा भरोसा था कि पार्टी के पास उनका कोई विकल्प नहीं है! लेकिन, ये उनकी ग़लतफ़हमी रही! अपनी राजनीति के सफ़र के हर चुनाव में 'ताई' की दावेदारी लगभग चुनौतीविहीन रही है। उन्हें बिना मांगे टिकट मिलता रहा, लेकिन इस बार उन्हें संघर्ष के बाद भी नाकामी ही मिली। क्योंकि, पार्टी ने 75 वर्ष से अधिक की उम्र वाले नेताओं को टिकट न देने का फ़ैसला किया है। हर जीत में उन्हें पार्टी की चुनावी मशीनरी और बेहतर प्रबंधन का फ़ायदा मिला है। चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और कांग्रेस के नेताओं के आपसी मतभेदों का भी उन्हें लाभ मिला।
    1989 में जब भाजपा ने पहली बार सुमित्रा महाजन को कांग्रेस के प्रकाशचंद्र सेठी के सामने इस सीट पर उतारा था! इसके बाद तो यह सीट उन्हीं के नाम हो गई! जबकि, सुमित्रा महाजन इससे पहले विधानसभा का चुनाव महेश जोशी से हार चुकी थीं। वे 1982-85 के कार्यकाल में इंदौर महानगर पालिका में पार्षद भी रही हैं। लेकिन, लोकसभा उनको इतनी रास आई कि उन्होंने तीन दशक में 8 बार चुनाव जीते! इस बार उन्होंने एक विवादस्पद बयान जरूर दिया था कि वे किसी 'योग्य व्यक्ति' को ही इंदौर की चाभी सौंपेगी! जबकि, वो योग्य व्यक्ति कौन होगा, इसका चयन करने का काम उनका नहीं बल्कि पार्टी का है! वे ऐसा बयान देने की हकदार भी नहीं हैं! ये फैसला पार्टी का होता है और आखिर पार्टी ने उनके पल्ले से चाभी खोलकर अपने कब्जे में कर ही ली! 
   'ताई' के लिए इस बार ज्यादा मुसीबत कांग्रेस नहीं, उनकी अपनी पार्टी के नेता ही रहे! भाजपा नेता सत्यनारायण सत्तन ने तो चुनौती ही दे डाली थी कि यदि पार्टी ने इस बार भी 'ताई' को उम्मीदवार बनाया, तो वे भी मैदान में उतरेंगे! लेकिन, उन्होंने खुद टिकट नहीं मांगा! जिनको टिकट देने की मांग की, उसमें एक नाम भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का भी था। ये नाम आज भी चर्चा में है और जोरशोर से है कि 'ताई' के बाद यदि इंदौर से कोई जीत सकता है, तो वे कैलाश विजयवर्गीय हो सकते हैं! लेकिन, 'ताई' के आसपास के लोग शायद इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। चिट्ठी कांड के अगले दिन 'ताई' के मराठी समर्थकों की एक बड़ी फ़ौज ने बिना नाम लिए कैलाश विजयवर्गीय का विरोध किया! पहले तो उन्होंने 'ताई' को फिर से मैदान में उतरने के लिए मनाने की कोशिश की! लेकिन, जब उन्हें लगा कि ये संभव नहीं है, तो उनका कहना था कि राजनीति में बेदाग रहने वाली 'ताई' की क्या ऐसी बिदाई होना थी? समर्थकों ने ये तक कहा कि आपका प्यारा शहर गुंडागर्दी, रंगदारी और माफियाओं के जाल में न उलझे! बड़ा सवाल है कि यह इशारा किसकी तरफ है? 'ताई' का सबसे सशक्त विकल्प कैलाश विजयवर्गीय हैं, तो क्या ये निशाना भी उन्हीं पर लगाया जा रहा है?
  ऐसा नहीं कि 'ताई' इंदौर की सर्वमान्य नेता रही हैं! उनके खिलाफ कई बार माहौल भी बना, पर अपनी किस्मत के दम पर वे चुनाव जीतती रही! 2009 में तो भाजपा के एक गुट ने उन्हें टिकट देने का भी भारी विरोध किया था! ये विरोध पूरे चुनाव में दिखा और जमकर सेबोटेज भी हुआ! हालात ये हो गए थे कि 'ताई' कांग्रेस उम्मीदवार सत्यनारायण पटेल से बड़ी मुश्किल से साढ़े 11 हज़ार वोट से ही चुनाव जीत सकी थीं। वो खुला विरोध था, इस बार फिर भाजपा में 'ताई' के खिलाफ आवाज उठी! कभी प्रकाशचंद्र सेठी से इंदौर की चाभी छीनने वाली 'ताई' के हाथ से अब पार्टी ने ही चाभी छीन ली। कांग्रेस तो कहीं नजर नहीं आ रही, भाजपा में ही उनसे चाभी छीनने वाले बाँह चढ़ाए खड़े हैं।
   सुमित्रा महाजन ने 2014 का चुनाव करीब साढ़े चार लाख वोट से जीता था। लेकिन, इस बार इंदौर इलाका भाजपा के कब्जे से बाहर निकल गया! विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने संसदीय क्षेत्र की 8 में से 4 सीटें जीत ली। कांग्रेस अब लोकसभा चुनाव को बराबरी का मान रही है। साढ़े 4 लाख की लीड भी घटकर एक लाख के अंदर आ गई! कांग्रेस का ये भी मानना है कि उसे प्रदेश में चुनावी वादे पूरे करने का भी लाभ मिलेगा। इस बार लोकसभा चुनाव में करीब 25 लाख 70 हजार मतदाता वोट डालेंगे! जबकि, विधानसभा चुनाव में करीब 24 लाख 80 हजार मतदाता थी। एक लाख नए मतदाताओं के नाम जुड़े हैं। नए जुड़ने वालों में ज्यादातर युवा मतदाता ज्यादा हैं, जो पहली बार वोटिंग करेंगे। ये नए मतदाता ही फैसला करेंगे कि लोकसभा में उनका अगला प्रतिनिधि किस पार्टी का और कौन हो!
  क्या इसे इत्तफाक कहा जाना चाहिए कि आरएसएस के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी इंदौर पहुंचते हैं और 'ताई' को अपने समर्थकों को राजनीतिक वैराग्य मार्ग की सूचना देना पड़ती है! सुमित्रा महाजन खुद लोकसभा टिकट की दावेदारी से हटीं या उन्हें हटने के लिए मजबूर किया गया? इस सवाल का जवाब सभी को मिल चुका है! अपनी कोशिशों के तहत वे संघ के बड़े नेताओं के संपर्क में रहीं! भैयाजी जोशी से उनका सतत संपर्क रहा और शायद उनका ही इशारा रहा होगा कि पार्टी को फैसला सुनाए उससे पहले वे खुद ही रास्ते से हट जाएं! वही 'ताई' ने किया भी, लेकिन उनके समर्थकों को अभी भी यही लग रहा है कि उनकी नेता ने त्याग किया है! जबकि, ये छुपी सच्चाई नहीं है कि उन्होंने कोई त्याग नहीं किया, बल्कि उन्हें रास्ते से हटने के लिए मजबूर किया गया है! इसके साथ ही इंदौर की राजनीति से 'ताई युग' की समाप्ति हो गई!
---------------------------------------------

बाजार के दबाव में है सिनेमा!

- हेमंत पाल

  हिंदी सिनेमा से ज्यादा नैतिक अपेक्षाएं नहीं पाली जाना चाहिए! खुलेपन के खोखले दंभ से जूझता सिनेमा आज दुनिया के साम्राज्यवादी बाजारों के दबाव से जूझ रहा है। क्योंकि, सिनेमा भी अब खोखले आदर्शों के तनाव से बचना चाहता है। उसके लिए यह वक्त नैतिक आख्यानों, संस्कृति और परंपरा की दुहाई देने का नहीं है। इसलिए कि वह दुनिया के बाजार का सांस्कृतिक एजेंट है। उसके ऊपर सिर्फ बाजार वाले मांग और आपूर्ति के कायदे-कानून लागू होते हैं। सिनेमा भी इसी मांग और आपूर्ति पर खरा उतरने की बेताबी से जूझ रहा है। ऐसी स्थिति में सिनेमा के सामाजिक दायित्व और उसके सरोकारों पर नजर डालना बेहद जरुरी है।  
  वास्तविकता यह है कि आज का सिनेमा कला फिल्मों के बाजार की एक पूरी धारा को निगल गया। वो कला फ़िल्में जिन्होंने समाज की असलियत दिखाने की कोशिश की थी, आज नदारद है। लेकिन, उस सिनेमा से जुड़ा तबका अभी भी इसी बाजार को सजाने में लगा है। एक समय वो था जब वी. शांताराम से लगाकर गुरुदत्त, केए अब्बास ने व्यावसायिक सिनेमा में दखल देकर नए सिनेमा की नींव रखी थी। उस सिनेमा का मकसद सिर्फ चांदी काटना नहीं था! लेकिन, आज का सिनेमा उद्योग सिर्फ मुनाफा कमाने तक सीमित है। उसके लिए फिल्म की रिलीज के साथ ही सौ, दो सौ करोड़ क्लब में शामिल होने की चिंता सताने लगती है। उसके ये इरादे खतरनाक संकेत हैं। 
    इस एक सच की स्थापना ने हिंदी सिनेमा के मूल्य ही बदल दिए। दस्तक, अंकुर, मंथन, मोहन जोशी हाजिर हो, चक्र, अर्धसत्य, पार, आधारशिला, दामुल, अंकुश, धारावी जैसी फिल्में देने वाली धारा ही कहीं लुप्त हो गई। एक सामाजिक माध्यम के रूप में सिनेमा के इस्तेमाल की जिनमें समझ थी वे भी मुख्यधारा के साथ बहने लगे। यह बात भी काबिले गौर है कि कला फिल्मों ने अपने सीमित दौर में भी अपनी सीमाओं के बावजूद व्यावसायिक सिनेमा की झूठी और मक्कार दुनिया की पोल खोल दी। यह सही बात है कि आज सिनेमा का माध्यम अपनी तकनीकी श्रेष्ठताओं, प्रयोगों के चलते एक बेहद खर्चीला माध्यम बन गया है। ऐसे में सेक्स, हिंसा उनके अतिरिक्त हथियार बन गए हैं। 
   आज के सिनेमा की धारा समाज के लिए नहीं बल्कि बाजार के लिए है। सामाजिक सरोकार, प्रेम, देशभक्ति, भाईचारा ये सब कुछ यदि उनके मुनाफे का माध्यम बने तो ठीक, वरना ये सब भी दरकिनार कर दिए जाते हैं। मायालोक में विचरण करते इस सिनेमा का अपने आसपास के परिवेश से कोई सरोकार नहीं है। इसका कारण है कि आज उसके पास कोई आदर्श ‘नायक’ नहीं है। परदे पर पहले नायक और नायिका एकांत में नाचते या प्रेमालाप करते थे, आज ये सब खुलेआम करते हैं। संगीत का शोर और शब्दों का अकाल आज के इस सिनेमा की दयनीयता को बखानते हैं। जीवन का अनिवार्य हिस्सा बने होने के बाद भी सिनेमा पर समाज या सरकार का कोई बौद्धिक अंकुश नहीं है। इस का नतीजा ये रहा कि सिनेमा पूरी तरह निरंकुश हो गया। 
  समाज के एक बड़े हिस्से को सबसे ज्यादा सर्वाधिक प्रभावित करने वाले इस माध्यम के संदेशों को लेकर हमेशा ही लंबी बहस चलती रही है। लेकिन, धीरे-धीरे यह दौर भी थम सा गया! ऊँगली उठाने वाले जागरूक लोगों ने भी यह मान लिया कि इस माध्यम से किसी भी तरह की जनअपेक्षाएं पालना सही नहीं है। फिल्मकार भी यह तर्क देकर हर सवाल का अंत कर देते हैं कि हम तो वही दिखाते हैं, जो समाज में घटता है। किन्तु, यह बयान सच्चाई के कितना करीब है, ये हकीकत सब जानते हैं। सच तो ये है कि आज का सिनेमा कभी भी समाज की हलचलों का वास्तविक आईना नहीं बनता! उसे या तो वह अंतिरंजित करता है या सरलीकृत करके पेश करता है। 
  80 और 90 के दशक में लोगों की टूटती आस्था और सपनों से छल के बीच मुख्यधारा का सिनेमा अभिताभ बच्चन के रुप में ऐसी शख्सियत के उत्थान का गवाह बना, जो अपने बल पर अन्याय के खिलाफ लड़ाई मोल लेता था। लेकिन, आज वो दौर भी ख़त्म हो गया। आज का सिनेमा जहां पहुंचा है, वहां नायक-खलनायक और जोकर का फर्क ही ख़त्म हो गया। इसके बीच में शुरू हुए कला फिल्मों के आंदोलन को उसका ‘सच’ और उनकी ‘वस्तुनिष्ठ प्रस्तुति’ ही हजम कर गई! ऐसी स्थिति में यह तथ्य भी उभरकर सामने आया कि बाजार में झूठ ही ज्यादा बिकता है! 
--------------------------------------------------------------------

Tuesday, April 2, 2019

भाजपा का असमंजस, किसका टिकट काटे और कितनों को बक्शे!

- हेमंत पाल 
 
   भाजपा को यदि मध्यप्रदेश की 29 लोकसभा सीटों पर अच्छा प्रदर्शन करना है, तो उसे आरएसएस की सर्वे रिपोर्ट को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए, जैसा कि उसने विधानसभा चुनाव के समय किया था! ऐसा किया गया तो उसे लोकसभा चुनावों में भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। आरएसएस ने अपनी रिपोर्ट के आधार पर भाजपा नेतृत्व को सलाह दी है कि मौजूदा 26 सांसदों में से 16 सांसदों के टिकट काटकर स्थिति को संभाला जा सकता है! जबकि, वास्तव में तो 20 सांसद ऐसे हैं, जिनसे उनके इलाके की जनता खुश नहीं है। पिछली बार तो कई सांसद भाजपा के वोट बैंक और नरेंद्र मोदी फैक्टर के कारण चुनाव जीत गए थे, लेकिन इस बार स्थितियां उतनी अनुकूल नजर नहीं आ रही! मालवा-निमाड़, चंबल, मध्यभारत, बुंदेलखंड, विंध्य और ग्वालियर इलाके में से कहीं भी भाजपा दमदार नजर नहीं आ रही! जबकि, उसे एंटीइनकम्बेंसी के साथ प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने का भी नुकसान उठाना पड़ेगा!    
000 

  भारतीय जनता पार्टी ने 2014 लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश की 29 में से 27 सीटें जीतकर कांग्रेस को लगभग ख़त्म कर दिया था! बाद में झाबुआ-रतलाम सीट के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया ने जीतकर जो संकेत दिया था, अब उसी की परीक्षा है! बाद में हुए कई विधानसभा उपचुनाव भी कांग्रेस ने जीते और इस बार का विधानसभा चुनाव भी! मुद्दे की बात यह कि विधानसभा चुनाव में भी भाजपा की हार का एक बड़ा कारण केंद्र सरकार के फैसले ही रहे हैं! अब, जबकि लोकसभा के लिए जंग का बिगुल बज गया, भाजपा को अपनी सेना के सेनापति चुनने में पसीना आ रहा है। पिछले चुनाव की आसमान फाड़ जीत ही आज पार्टी के लिए गले की हड्डी बन गई! 26 में 16 (या इससे ज्यादा) टिकट काटना पार्टी के लिए मुश्किल हो रहा है! अभी तक घोषित 17 टिकटों में से भाजपा ने 7 के टिकट तो काट दिए! पर बाकी बची ९ सीटों पर क्या हालात बनते हैं, ये देखना होगा!
   प्रदेश की क्षेत्रवार लोकसभा सीटों को देखा जाए तो 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सबसे ज्यादा चुनौती का सामना चंबल, ग्वालियर क्षेत्र, महाकौशल और मालवा-निमाड़ में करना पड़ सकता है! चंबल की चार सीटों में से भाजपा के पास 3 और कांग्रेस के पास सिर्फ गुना की सीट है। इस अंचल में भिंड, मुरैना, ग्वालियर और गुना सीट आती है। इन तीनों इलाकों में विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस का प्रदर्शन भाजपा से बेहतर रहा है। चंबल और ग्वालियर में तो भाजपा को कांग्रेस के अलावा जाति संगठनों से भी मुकाबला करना पड़ेगा। भाजपा के लिए विधानसभा चुनाव में भी 15-20 सीटों पर पार्टी के बागियों ने समस्या खड़ी कर दी थी! यही कारण रहा कि भाजपा को सरकार बनाने से हाथ धोना पड़ गया। 
     मालवा-निमाड की 8 सीटों इंदौर, देवास-शाजापुर, उज्जैन, मंदसौर, झाबुआ-रतलाम, खरगौन, खंडवा और धार हैं। पिछले चुनाव में भाजपा को सभी पर जीत मिली थी! लेकिन, झाबुआ-रतलाम से जीते दिलीपसिंह भूरिया के निधन के बाद इस सीट पर उपचुनाव हुए और कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया चुनाव जीत गए थे। राजनीतिक हालात देखकर लगता है कि झाबुआ-रतलाम में तो अभी भी कांग्रेस के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं है। खंडवा, खरगौन, धार और मंदसौर में भी भाजपा की हालत ठीक नजर नहीं आ रही। खंडवा और मंदसौर में भाजपा ने सबसे पहले उम्मीदवार घोषित तो कर दिए, पर यहाँ उसे सेबोटेज का खतरा ज्यादा है! पार्टी को इन सीटों पर नई रणनीति बनाकर मैदान संभालना पड़ेगा! इंदौर जैसी प्रतिष्ठा वाली सीट पर अभी भी असमंजस बरक़रार है। पार्टी को सुमित्रा महाजन के अलावा कोई उम्मीदवार नजर नहीं आ रहा और उनके नाम पर कोई सहमति नहीं बन रही!  
    भोपाल और उससे लगी पांच लोकसभा सीटों भोपाल, विदिशा, राजगढ, बैतूल और होशंगाबाद पर नजर डालें तो भाजपा को इन सभी सीटों पर अपनी ही पार्टी के असंतुष्टों को मनाना पड़ेगा। ऐसे में बड़ी चुनौती सही उम्मीदवार को मैदान में उतारना होगा। इन सभी सीटों पर अभी भाजपा का कब्जा है। विदिशा सीट से सुषमा स्वराज चुनाव जीती थी, इस बार वे चुनाव लड़ने से मना कर चुकी हैं। बैतूल की सांसद ज्योति धुर्वे फर्जी जाति प्रमाण पत्र के मामले में विवाद में उलझी है। भोपाल से कांग्रेस ने दिग्विजय की उम्मीदवारी घोषित करके भाजपा को कुछ ज्यादा ही उलझा दिया है! ऐसे में मौजूदा सांसद आलोक संजर का टिकट बदला जाना करीब-करीब तय है! राजगढ़ में कांग्रेस को पहले से ही ताकतवर माना जा रहा है!
  फिलहाल बुंदेलखंड में भाजपा के कब्जे वाली चारों सीटों पर उसे कांग्रेस से कड़े मुकाबले के लिए तैयार होना पड़ेगा! क्योंकि, इस अंचल में विधानसभा चुनाव में भाजपा के पसीने छूट चुके हैं। पूर्व वित्त मंत्री जयंत मलैया तक को हार का सामना करना पड़ा था। पार्टी से बगावत कर निर्दलीय चुनाव लड़कर रामकृष्ण कुसमरिया ने दमोह, पथरिया के अलावा एक अन्य सीट पर भाजपा को जीतने से रोक दिया था। कुसमरिया अब कांग्रेस में हैं और लोकसभा चुनाव में वे भाजपा के लिए परेशानी का कारण भी बनेंगे। बुंदेलखंड की चार सीट सागर, दमोह, टीकमगढ़ और खजुराहो आती हैं। टीकमगढ़ से केंद्रीय राज्यमंत्री वीरेन्द्र कुमार सांसद हैं। दमोह सीट से प्रह्लाद पटेल के खिलाफ पार्टी के कई नेता खड़े हो चुके हैं। यहाँ तक कि विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव ने भी इस सीट से अपनी दावेदारी पेश की, पर पार्टी ने परिवारवाद  पर उन्हें मना कर दिया। विधानसभा चुनाव में दमोह लोकसभा क्षेत्र की सीटों पर भाजपा की बढ़त घटी है! लेकिन, पार्टी ने फिर प्रह्लाद पटेल को टिकट देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली! लेकिन, सागर में कांग्रेस कमजोर नजर आ रही है। 
   पिछले चुनाव में महाकौशल इलाके में भाजपा को 4 में से 3 सीटें मिली थी! छिंदवाड़ा सीट से कांग्रेस के कमलनाथ जीते थे। कांग्रेस ने इस बार उनकी जगह उनके बेटे नकुलनाथ को उम्मीदवार बनाया है। भाजपा ने यदि स्थितियों को भांपकर इस इलाके में फैसले नहीं किए तो उसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है! इसलिए कि महाकौशल की सबसे प्रमुख सीट जबलपुर बचाना ही भाजपा के लिए मुश्किल लग रहा है। यहाँ से तीन बार से पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह चुनाव जीत हैं! लेकिन, इस बार माहौल उनके पक्ष में नहीं है। जबलपुर के युवा नेता, पूर्व भाजयुमो प्रदेश अध्यक्ष धीरज पटैरिया ने पार्टी से बगावत करके विधानसभा चुनाव लड़ा था। वे लोकसभा चुनाव में भी पार्टी को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस इलाके की बालाघाट सीट से सांसद बोधसिंह भगत की जगह इस बार ढालसिंह बिसेन को मौका दिया गया है। जबकि, विरोध के बावजूद मंडला सीट से मौजूदा सांसद फग्गनसिंह कुलस्ते को पार्टी ने सातवीं बार लोकसभा का टिकट दिया है।  
  उत्तरप्रदेश की सीमा से लगने वाले विंध्य की सभी 4 लोकसभा सीटों (सतना, रीवा, सीधी और शहडोल) पर भाजपा का कब्जा है। लेकिन, इन सांसदों के खिलाफ जनता और पार्टी में जिस तरह का असंतोष है, उससे नहीं लगता है कि भाजपा की राह यहां आसान रहेगी। सबसे ज्यादा असंतोष सतना से लगातार तीन बार जीते गणेश सिंह को लेकर है, लेकिन पार्टी ने उन्हीं पर चौथी बार भरोसा जताया है! सीधी से फिर रीति पाठक और रीवा से जनार्दन मिश्रा को टिकट दिया गया! लेकिन, लग नहीं रहा कि पार्टी के इस फैसले से जनता और पार्टी में ख़ुशी है! भाजपा ने शहडोल के सांसद ज्ञानसिंह का टिकट जरूर बदला और हिमाद्री सिंह को उम्मीदवार बनाया है! विधानसभा चुनाव में विंध्य में भाजपा ने उम्मीद से अच्छा प्रदर्शन किया था, पर ये स्थितियां लोकसभा चुनाव में भी रहेंगी, ये दावा नहीं किया जा सकता!   
  हालात देखकर लगता है कि भाजपा को अपनी 26 सीटें बचाने के लिए पूरा जोर लगाना पड़ेगा। प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने के बाद ये चुनौती और ज्यादा मुश्किल हो गई है! इस कारण कई सीटों पर चुनाव जीतने के लिए भाजपा को मुश्किल हो सकती है। चुनाव का माहौल गरम होते-होते जिस तरह से स्थितियां बदल रही है, कहा नहीं जा सकता कि ऊंट किस तरफ करवट लेगा और इसका फ़ायदा किस पार्टी के पलड़े में जाएगा! भाजपा को सबसे ज्यादा खतरा एंटी इनकम्बैंसी का है। ऐसी कई सीटें हैं, जहां चुनाव जीतने के लिए नई रणनीति नहीं बनाई गई तो उसे भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है! उसे विधानसभा चुनाव के नतीजों और राजनीतिक समीकरणों समझकर फैसले करने होंगे! क्योंकि, कमलनाथ सरकार बनने के बाद बदले हालात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता!
---------------------------------------------------------------

समय और हम : पीछे देखते हुए आगे मत चलिए!


- हेमंत पाल
  समय एक ऐसा चक्र है जो न किसी के लिए रुकता है और न किसी के लिए वापस आता है। कहा जाता है कि समय बड़ा अजीब होता है। इसके साथ चलो तो किस्मत बदल देता है और न चलो तो किस्मत को ही बदल देता है। दुनिया में केवल समय ही है, जो हर इंसान को सीमित मात्रा में मिला है। बाकी सब चीज़े असीमित हो सकती है। समय को जिंदगी के समान माना गया है, कहते है अगर आप समय को बर्बाद कर रहे है तो ज़िंदगी को बर्बाद कर रहे है, अगर आप समय का अच्छा प्रयोग कर रहे है तो अपनी जिंदगी को अच्छा बना रहे है। समय पर काम शुरू करने वाला आदमी ही समय पर काम ख़त्म कर सकता है। कहते हैं कि दो प्रकार के व्यक्ति ही जीवन में असफल होते हैं, एक वे जो सोचते हैं कि पर समय पर काम को शुरू नहीं करते और दूसरे वे जो कार्य रूप में परिणित तो कर देते हैं, पर सोचते कभी नहीं। कहने का मतलब बिना सोचे समझे किया गया कार्य भी असफल होने का कारण हो सकता है। कहते हैं कि समय और समझ दोनों एक साथ खुशकिस्मत लोगों को ही मिलते है! क्योंकि, अकसर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। 
  किसी संत ने अपने शिष्यों से पूछा 'जिंदगी में सबसे ज्यादा जरूरी चीज़ क्या है, जिसे हमें न तो कभी खोना चाहिए न उसका गलत प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि, उसे एक बार खोने के बाद भगवान भी हमें वापस नहीं दिला सकता।' सभी शिष्यों ने अलग-अलग जवाब देते हुए पैसा, प्यार, माँ-बाप, परिवार, धैर्य, साहस, ताक़त, ज्ञान, भक्ति, गुरु, भगवान् और साँसों को सबसे जरूरी बताया! लेकिन, उनके सबसे प्रिय शिष्य ने समय को सबसे ज्यादा जरूरी बताते हुए कहा कि साँसों के अलावा सभी चीज़ों को हम खोने के बाद भी प्राप्त कर सकते है। केवल समय ही ज़िंदगी की ऐसी महत्वपूर्ण चीज़ है जिसे हमें कभी खोना नहीं चाहिए! क्योंकि, इसे खोने के बाद कोई भी हमें वापस नहीं दिला सकता।
   हम सभी जानते हैं कि सामान्य रूप से समय के तीन हिस्से होते हैं बीता हुआ अर्थात अतीत, समक्ष अर्थात वर्तमान तथा आने वाला अर्थात भविष्य। हमारे अंदर प्रायः पीछे देखते हुए आगे चलने की आदत होती है। कोई व्यक्ति अगर पीछे देखते हुए आगे चलता है, तो उसकी गति क्या होगी? निश्चित ही वह समय की रफ्तार से पिछड़ जाएगा और एक अभावपूर्ण व तनावग्रस्त जीवन जीने को विवश होगा। ऐसा व्यक्ति कितनी दूर जाएगा और कब इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। यह ईश्वर की इच्छा के भी विरूद्ध है। ईश्वर चाहता है कि आगे चलते समय हम सदैव आगे देखें और इसीलिए उसने हमारी आँखें हमारे चेहरे पर आगे लगाई हैं, पीछे गर्दन पर नहीं। यदि हम प्रकृति के विरुद्ध कोई कार्य करते हैं तो उसका दंड तो हमें भुगतना ही पड़ेगा। 
समय रुकता नहीं 
   समय को सच्चाई का पिता होने की भी संज्ञा दी गई है। एक अंग्रेजी कहावत के अनुसार 'मुझे ये लगता है कि समय सभी चीजों को परिपक्व कर देता है; समय के साथ सभी चीजें उजागर हो जाती हैं। इसलिए समय को सच्चाई का पिता माना गया है।' समय कुछ भी बदल सकता है, पर किसी के लिए कभी रुकता नहीं है। कहते है कि आदमी अच्छा या बुरा नहीं होता! बल्कि, उसका समय अच्छा और बुरा होता है। जब समय अच्छा चल रहा होता है, तो सब काम अपने आप अच्छे हो जाते है, लेकिन खराब समय शुरू होने के बाद बनते काम भी बिगड़ने लगते हैं। समय को एक अच्छा अध्यापक भी माना गया है, ये हमें हमेशा सिखाता रहता है। स्कूल में हमें सिखाने के बाद परीक्षा देनी पड़ती है। लेकिन, समय हमारी पहले परीक्षा लेता है और फिर सिखाता है।
  समय को भगवान की बनाई इस सृष्टि में सबसे बलवान माना गया है। जब समय बदलता है, तो इंसान को राजा से रंक और रंक से राजा बनने में देर नहीं लगती! इसके कहर से राजा-महाराजा तक घबराते हैं। हर कोई चाहता है कि समय हमेशा उनके साथ रहे।वास्तव में समय एक अच्छा चिकित्सक भी है! ये बड़े से बड़े घाव को भरने में सक्षम है। कहते हैं कि जिंदगी चार दिन की है, दो दिन आपके हक में और दो दिन आपके खिलाफ। जिस दिन हक में हो, गुरूर मत करना और जिस दिन खिलाफ हो थोड़ा सा सब्र जरूर करना। क्योंकि, समय बड़े से बड़ा घाव तक भर सकता है। 
  हमें समय का सदुपयोग करना बहुत जरूरी है। एक मिनट हमारे जीवन को नहीं बदल सकता, लेकिन एक मिनट में लिया गया निर्णय हमारे जीवन को बदल भी सकता है। समय की अहमियत भी हर किसी के लिए अलग-अलग होती है l इस दुनिया में कोई भी व्यस्त नहीं होता, बस सबके काम की प्राथमिकताएं अलग-अलग होती है। इसको इस तरह से समझ सकते है कि भगवान ने तो सबको एक दिन में जीने के लिए 24 घंटे ही दिए हैं। लेकिन, काम हर कोई अपनी प्राथिमकता के कारण अलग-अलग करता हैl सुख और दुःख दोनों समय की देन है, लेकिन कहते है कि जिस दिन आप समय के स्वभाव को समझेंगे, सुख में भी खुशियाँ मनाएंगे और दुःख में भी मुस्करायेंगे, क्योंकि आपको मालूम है "ये दिन भी नहीं रहेंगे" तो इस तरह से आप व्यर्थ की चिंता में समय बर्बाद न करके सुख और दुःख दोनों में मन को स्थिर रख कर मन की शांति प्राप्त कर सकते है। क्योंकि, बुरी से बुरी स्थिति में भी कुछ सकारात्मक जरूर होता है, यहाँ तक कि एक बंद पडी हुई घड़ी दिन-रात में दो बार सही समय प्रदर्शित करती है।
'समय' का राज 
  एनसाइक्लोपीडिया के मुताबिक इंसान ने बहुत-सी बातों का ज्ञान हांसिल किया है। लेकिन, समय को समझ पाना उसके लिए शुरू से ही एक राज़ रहा है। समय को समझना और समझाना बहुत ही मुश्‍किल है। हम समय के बारे में अकसर कहते हैं कि समय बीतता है, गुज़रता है, पलक झपकते ही उड़ जाता है। यह भी कहते हैं कि हम 'समय की धारा' में आगे निकलते जा रहे हैं। हालाँकि, हम समय के बारे में इतना सब कुछ कहते हैं, लेकिन फिर भी हममें से किसी को ठीक-ठीक यह नहीं मालूम कि हम कह क्या रहे हैं।
 असल में समय को समझना तो लोगों को मुश्‍किल लगता है, उस पर जब हमेशा तक ज़िंदा रहने की बात की जाती है तो वे और भी उलझन में पड़ जाते हैं। क्योंकि, वे यही देखते आए हैं कि समय गुज़रने का मतलब है पैदा होना, बड़ा होना, बूढ़ा होना और मर जाना। इसलिए उन्होंने हमेशा से समय बीतने को आयु का ढलना माना है। अगर ऐसे में कोई उन्हें समय को दूसरे तरीके से समझाने की कोशिश करे, तो उन्हें यह बात उल्टी और नियम के खिलाफ लगेगी। और वे शायद पूछें कि दुनिया का हर प्राणी समय के अधीन है, तो फिर सिर्फ इंसान ही क्यों समय के अधीन न हो? 
टाइम मैनेजमेंट 
  आज का काल 'समय प्रबंधन' का है, अर्थात ‘टाइम मैनेजमेंट’ का। आज हर स्थान पर, हर स्तर पर टाइम मैनेजमेंट का ही शोर सुनाई पड़ता है। 'टाइम मैनेजमेंट' के जरिए समय को मुट्ठी में बांधने का मंत्र सिखाया जा रहा हो। लेकिन, क्या हम समय को मुट्ठी में बांध सकते हैं? क्या हम समय को नियंत्रित कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं! समय की गति शाश्वत है। यह न तो कम होती है और न अधिक। यद्यपि ब्रम्हांड में कुछ शून्य खण्ड ऐसे भी हैं, जहां वैज्ञानिकों के अनुसार समय की गति परिवर्तित है। लेकिन, वह हमारी दुनिया नहीं है। हम जिस दुनिया में रहते हैं , वहीं का समय हमें प्रभावित करता है। हमारी दुनिया का सच यह है कि हमारे पास समय की गति को नियंत्रित करने की कोई शक्ति नहीं है। हम सामान्य मानव है और प्राकृतिक नियमों से बंधे हैं। हमारे पास मात्र स्वयं को नियंत्रण करने की शक्ति होती है यदि हमारे अंदर अच्छे-बुरे, सही-गलत व  उचित-अनुचित की समझ आ जाए। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि ‘समय-प्रबंधन’ कुछ नहीं होता! इसे समय के अनुसार स्वयं का प्रबंधन कहना व समझना ज्यादा उचित है। 
  हमारे पास हमारे कार्यों की सूची होनी चाहिए और हमें यह प्रबंधन कला आनी चाहिए कि निश्चित समयावधि में यदि हमें अमुक मात्रा के कार्य करने हैं तो उन्हें कैसे करना चाहिए। ये प्रबंधन कला हमारी सोच का स्पष्ट होना मात्र है। हम चाहें तो एक कार्य प्रारंभ कर उसके प्रक्रिया काल तक प्रतीक्षा कर उसे पूर्ण करने का विकल्प चुन सकते हैं या एक-एक करके अनेक कार्य प्रारंभ करके उनकी पूर्णता प्रक्रिया की अलग-अलग अवधियों के पश्चात एक -एक करके उन्हें पूरा कर अनेक परिणाम हांसिल कर सकते हैं। एक कार्य प्रारंभ कर उसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा में शिथिल व क्रियाहीन नहीं बैठा जाता। उस समय का लाभ लेकर दूसरे कार्य को प्रारंभ कर देना एक विकल्प है। जो पहला विकल्प चुनते हैं, वे समय को नष्ट करते हैं तथा समय प्रबंधन से चूक जाते हैं। जबकि, दूसरा विकल्प चुनने वाले समय प्रबंधन का लाभ उठाते हैं। 
----------------------------------------------

Monday, April 1, 2019

समलैंगिक किरदार और सिनेमा!


- हेमंत पाल

    फिल्मों में समलैंगिक किरदारों को लम्बे समय से द‍िखाया जाता रहा है। बॉलीवुड में ऐसे कई अभिनेता हैं, जो समाज की इस सच्चाई से आपको रुबरु कराने के लिए फिल्मों में 'गे' (समलैंगिक) की भूमिका निभा चुके हैं। किसी ने गंभीर किरदार बनकर तो किसी ने कॉमेडी के अंदाज में ये भूमिका निभाई। चिराग मल्होत्रा और प्रणय पचौरी की फिल्म 'टाइम आउट', भी एक गे-कैरेक्टर के आसपास घूमती है। हंसल मेहता की फिल्म 'अलीगढ़' में मनोज बाजपेई भी समलैंगिक प्रोफेसर का किरदार निभा चुके हैं। जबकि, 'दोस्ताना' दो ऐसे किरदार की कहानी थी, जो असलियत में तो समलैंगिक नहीं होते! लेकिन, किराए का घर ढूंढने के लिए मजबूरी में उन्हें ये किरदार निभाना पड़ता है। जॉन अब्राहम और अभिषेक बच्चन इसी रोल में नज़र आए थे। 1996 में आई दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' होमोसेक्सुअलिटी और फ्रीडम ऑफ स्पीच जैसे मुद्दे पर बनी थी। फिल्म में शबाना आज़मी और नंदिता दास होमोसेक्सुअल किरदार में नज़र आई थीं। 
   करण जौहर की फिल्म 'स्टूडेंट ऑफ द इयर' में अभिनेता ऋषि कपूर ने कॉलेज के प्रिंसिपल का किरदार निभाया था, लेकिन इस किरदार के हाव-भाव गे-किरदार जैसे थे। हाल ही में आई फिल्म 'पद्मावत' साल की सबसे बड़ी विवादित फ़िल्मों में से एक रही! इस फिल्म में जिम सौरभ का किरदार होमोसेक्सुअल जैसा था। शॉर्ट फिल्म 'तेरे जैसा यार कहां' में बॉलीवुड के डायरेक्टर सतीश कौशिक ने एक क्यूट रोल निभाया है। वे इस फिल्म में कैंसर पेशेंट के रोल में हैं। वहीं इस फिल्म में उनका किरदार होमोसेक्सुअल जैसे मुद्दे से जुड़ा हुआ है। निर्देशक फ़राज़ आरिफ़ अंसारी की शॉर्ट फ़िल्म 'सिसक' को कई फ़िल्म महोत्सवों में दिखाया गया! 'सिसक' समलैंगिकों पर बनी भारत की पहली साइलेंट फ़िल्म है। इसे 'विकेड क्वीर' (समलैंकिगों पर बोस्टन के सालाना फ़िल्म महोत्सव) में विजेता घोषित किया गया था। यहीं इस फ़िल्म का वर्ल्ड प्रीमियर भी हुआ था। निर्देशक फ़राज़ ने कहा था कि बोस्टन के इतिहास में ये पहला मौका है, जब कोई भारतीय फ़िल्म विजेता बनी! 
  अभिनेता अक्षय कुमार की फिल्मों में अलग ही इमेज रही है! लेकिन, 'ढिशूम' में अक्षय ने समलैंगिक का किरदार निभाया। अक्षय का कहना है कि उन्हें गर्व है कि उन्होंने ये किरदार निभाया! शायद अपनी जेनरेशन का मैं पहला कलाकार हूं, जिसने ऑनस्क्रीन समलैंगिक बनने की चुनौती स्वीकार की! बॉलीवुड के चार डायरेक्टरों ने ने एक फिल्म बनाई थी। इसमें करन जौहर की शार्ट फिल्म में रणदीप हुड्डा और साकिब सलीम ने समलैंगिक का रोल किया था। फिल्म में इन दोनों के बीच एक किसिंग सीन था, जो काफी चर्चा में रहा! अनुपम खेर ने सलमान खान की फिल्म 'दुल्हन हम ले जाएंगे' में करिश्मा कपूर के मामा के रोल निभाया था, जो कि एक समलैंगिक रोल था। फिल्म 'माई ब्रदर निखिल' भी इसी विषय की फिल्म थी। इसमें संजय सूरी और पूरब कोहली ने समलैंगिक का किरदार किया था। 
   दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' में दिखाए गए दो महिला किरदारों के आपसी रिश्तों पर काफी बवाल मचा था। फिल्म इश्मत चुगताई के उपन्यास 'लिहाफ' पर आधारित थी। इन किरदारों को शबाना आजमी और नंदिता दास ने निभाया था। फिल्म में दोनों का रिश्ता सास-बहू का दिखाया गया है। सेंसर ने फिल्म के कई हिस्सों पर कैंची चलाई तब जाकर फिल्म रिलीज हो पाई थी। बाद में फिल्म की दूसरे भाग की घोषणा करने पर मामला गर्मा गया और फिल्म बनी ही नहीं! महिला समलैंगिकता को लेकर बनी फिल्म 'गर्लफ्रेंड' की भी काफी चर्चा हुई। फिल्म में दो लड़कियों की कहानी है। जो एक दूसरे को पसंद करने लगती हैं। सेंसर ने हर फिल्म को तवज्जोह नहीं दी। सेंसर की कैंची कई फिल्मों पर चली, जिनमें खास तौर पर डू नो वाई-न जानें क्यों, अनफ्रीडम शामिल है। ये एक ऐसा विषय है, जिसे लेकर सेंसर भी थोड़ा चौकन्ना रहता है! 2014 में बनीं अनफ्रीडम को भारत में बैन कर दिया गया था। इनके अलावा कपूर एंड संस, डीयर डैड, माय सन इज गे, जस्ट अनदर लव स्टोरी, संचारम, लेडीज एंड जेंटल वीमन भी इसी जोनर की फिल्में रहीं जिन्हें सेंसर की कैंची से क़तर दिया गया।
-------------------------------------------------------------