Wednesday, April 17, 2019

कांग्रेस को कहीं महँगी न पड़ जाए रियासतों की सियासत!


- हेमंत पाल

  सियासत में रियासतों का दखल आज भी कायम है। रियासतें चली गई, पर उनकी जगह सियासतों ने ली ली! वही अंदाज और वही ठसका कायम है! पर, इसका नतीजा भुगतना पड़ रहा है लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीतिक पार्टियों के उन कार्यकर्ताओं को जो रियासत की सियासत का हिस्सा नहीं हैं! इस बार के लोकसभा चुनाव में भी जहाँ रियासतों का दखल रहा है, वहां उम्मीदवारों का चयन भी इसी मापदंड से हो रहा है! पार्टियों से जुड़े कथित राजा, महाराजा पार्टी के सक्षम नेताओं को नहीं, अपने जी-हुजूरियों को उम्मीदवार बना रहे हैं! ताजा सबूत है धार लोकसभा सीट से एक अंजाने चेहरे दिनेश गिरेवाल को टिकट दिया जाना! जनभावनाओं को किनारे करते हुए उन्हें टिकट इसलिए दिया गया कि सिंधिया खेमे के दत्तीगाँव रियासत के उत्तराधिकारी और विधायक राजवर्धन सिंह के नजदीक हैं। लेकिन, इस लोकसभा क्षेत्र के लोग इस फैसले के खिलाफ खड़े हो गए! 
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  आजादी के बाद देश में किसी राजनीतिक पार्टी की कोई पहचान नहीं थी! कांग्रेस स्वतंत्रता संग्राम से जुडी थी, इसलिए वही एक पार्टी सामने थी! उसी में गरम दल और नरम दल बन गए थे। ऐसी स्थिति में राजाओं, महाराजाओं का राजनीति में प्रवेश हुआ और उनका वोट बैंक सामने आया जो आज भी कायम है! इन राज परिवारों का दम-ख़म भले हो गया, मगर उनका वोट बैंक आज भी कायम है! ऐसी स्थिति में कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए उनको साधना जरुरी है। राजपरिवारों को भी राजनीतिक पार्टियों के संरक्षण की जरूरत है। इस तरह दोनों एक-दूसरे की जरूरत है।1956 में जब मध्यप्रदेश बना तो यही राजा, महाराजा प्रदेश की राजनीति की मुख्यधारा में शामिल हो गए और सत्ता के सूत्र अपने हाथ में ले लिया! प्रदेश की कई रियासतें और जागीरें जिनका अच्छा प्रभाव था वे राजनीति के सिपहसालार बन बैठे! इस बार के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर मध्यप्रदेश के रियासतों से नाता रखने वाले उत्तराधिकारियों और उनके नजदीकियों ने टिकट हांसिल करने में कामयाबी पाई है। इन्हीं घरानों के कुछ वारिस कांग्रेस तो कुछ भाजपा का नेतृत्व कर रहे हैं और दोनों ही पार्टियों से वे टिकट पाने में सफल रहे! दोनों पार्टियों ने करीब दर्जनभर ऐसे ही उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है! बात खुद की उम्मीदवारी तक सीमित होती तो ठीक था, अब तो उनके कोटे से भी टिकट दिए जाने लगे! 
    मध्यप्रदेश के गठन के बाद से रियासतों के वारिसों ने अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार राजनीतिक पार्टियों में अपनी हैसियत से प्रभाव जमाया! मध्यप्रदेश के गठन के बाद 18 साल इन्हीं रियासतों के राजाओं ने प्रदेश की कमान संभाली! इनमें सबसे ज्यादा 10 साल तक राघौगढ़ रियासत के प्रतिनिधि दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री रहे! वहीं चुरहट रियासत से जुड़े अर्जुन सिंह करीब छ: मुख्यमंत्री रहे। इसके अलावा गोविंद नारायण सिंह व राजा नरेशचंद्र सिंह भी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने! ख़ास बात ये कि सिंधिया रियासत का कोई प्रतिनिधि कभी प्रदेश  कमान नहीं संभाल पाया! लेकिन, इन सभी का कांग्रेस से नाता रहा है। जबकि, प्रदेश में पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जड़ें मजबूत करने में सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया का अहम योगदान रहा है। राज्य की सियासत में रियासतों के दखल पर गौर किया जाए तो सिंधिया राजघराने की विजयाराजे सिंधिया, उनके पुत्र माधवराव सिंधिया व पुत्री यशोधरा राजे और माधव राव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक हैसियत किसी से छुपी नहीं है। इसी तरह रीवा राजघराने के मार्तण्ड सिंह और उनकी पत्नी प्रवीण कुमारी और अब पुष्पराज सिंह राजनीति में सक्रिय हैं।
  धार-महू लोकसभा सीट से इस बार कांग्रेस ने सिंधिया समर्थक माने जाने वाले दिनेश गिरवार टिकट दिया है। जबकि, गिरवाल ने जिला पंचायत सदस्य के अलावा कोई बड़ा चुनाव नहीं लड़ा! जिले की राजनीति में भी उनकी कोई पहचान नहीं है! फिर भी कांग्रेस ने उन पर भाजपा के कब्जे वाली इस सीट पर उनको चुनाव लड़ाने का भरोसा जताया! उनको उम्मीदवार बनाने में बदनावर के विधायक राजवर्धनसिंह दत्तीगांव और गंधवानी विधायक उमंग सिंगार की भूमिका रही! ये दोनों ही विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया खेमे के माने जाते हैं। गिरवाल और उनकी पत्नी दोनों जिला पंचायत सदस्य रह चुके हैं। इससे ज्यादा उनकी कोई राजनीतिक उपलब्धि नहीं रही! जबकि, दिग्विजय सिंह खेमे के गजेंद्रसिंह राजूखेड़ी को टिकट नहीं दिया गया! तीन बार सांसद होने बावजूद राजूखेड़ी का नाम क्यों काटा गया, ये धार के कांग्रेस समर्थक समझ नहीं पा रहे हैं! धार जिले में अभी तक आदिवासियों के भील और भिलाला समाज का वर्चस्व रहा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों तरफ से ही इन्हीं समाज के नेताओं को मौका दिया गया! दिनेश गिरवाल का स्थानीय स्तर पर खुलकर विरोध हो रहा है! कई जगह उनके पुतले तक जलाए गए और कुछ गाँवों में उनके न आने के पोस्टर लगे हैं। लेकिन, फिर भी कांग्रेस के सिंधिया खेमे को भरोसा है कि वे ये सीट जीत लेंगे!  
   पश्चिम मध्यप्रदेश के निमाड़ इलाके की खरगोन सीट से उम्मीदवार बनाए गए डॉ गोविंद मुजाल्दे का भी विरोध हुआ! कांग्रेस के पूर्व जिला अध्यक्ष सुखलाल परमार ने उनका खुलकर विरोध किया। परमार लंबे समय तक बड़वानी जिले के अध्यक्ष रहे हैं। उनकी मांग है कि उम्मीदवार के बारे में पुनर्विचार किया जाए। उन्होंने सामूहिक इस्तीफे की भी चेतावनी दी है। उनका कहना है कि हम तीस साल से भाजपा के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन, टिकट देने में हमसे पूछा तक नहीं गया! कांग्रेस पार्टी ने ऐसे व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया है, जो पार्टी का प्राथमिक सदस्य तक नहीं है। बताते हैं कि डॉ मुजाल्दे का नाम दिग्विजय सिंह खेमे ने आगे बढ़ाया है! राजगढ़ लोकसभा सीट से कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह समर्थक मोना सुस्तानी को उम्मीदवार बनाया है। मोना तीन बार से जिला पंचायत सदस्य चुनी जा रही हैं और जनपद सदस्य भी रह चुकी हैं। मोना के ससुर गुलाब सिंह सुस्तानी विधायक रह चुके हैं। राजगढ़ सिंह दिग्विजय सिंह की परंपरागत सीट मानी जाती है। इस सीट से दिग्विजय सिंह के अलावा उनके भाई लक्ष्मण सिंह भी सांसद रह चुके हैं। मोना सुस्तानी का तो यहाँ तक कहना है कि वे सिर्फ चेहरा हैं, राजगढ़ सीट से दिग्विजय सिंह ही चुनाव लड़ रहे हैं। 
  प्रदेश की एक महत्वपूर्ण सीट ग्वालियर है जो इस बार कांग्रेस के दिग्विजय खेमे के पाले में रही! इलाके में सिंधिया घराने का वर्चस्व है, फिर भी इस बार तीन बार के हारे अशोक सिंह को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया! जहाँ जीवन में नेताओं को पूरा दमखम लगाने के बाद भी एक बार चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिलता, वहाँ अशोक सिंह जैसे भी नेता हैं,  जिन्हें तीन बार चुनाव हारकर भी चौथी बार चुनाव लड़ने  मिल जाता है! सिर्फ इसलिए कि वे सिंधिया और दिग्विजय सिंह दोनों राजघरानों साधने में कामयाब रहते हैं।        
  गुना सीट पर तो जैसे सिंधिया घराने का ही कब्ज़ा है! आजादी के बाद सिंधिया परिवार ही यहाँ से अपने परिवार या प्रतिनिधि को चुनाव लड़वाता रहा है। अशोकनगर, गुना, शिवपुरी तीन जिलों की आठ विधानसभाओं से बनी इस लोकसभा सीट पर किसी पार्टी की नहीं, बल्कि सिंधिया परिवार की तूती बोलती है। सिंधिया परिवार की तीन पीढ़ियां यहां से 14 बार लोकसभा चुनाव जीती हैं। 2014 में ज्योतिरादित्य सिंधिया यहाँ से कांग्रेस के टिकट पर चौथी बार सांसद चुने गए थे। इस बार भी वही उम्मीदवार हैं। उनकी दादी विजयराजे सिंधिया यहाँ से 6 बार, उनके पिता माधवराव सिंधिया 4 बार सांसद रहे हैं। 1998 लोकसभा चुनाव में तो विजयाराजे सिंधिया नामांकन पत्र भरने के बाद इतनी बीमार हो गई थी कि एक बार भी जनसम्पर्क या प्रचार करने नहीं आई! फिर भी वे चुनाव जीत गईं। माधवराव सिंधिया तो यहां से एक बार निर्दलीय रूप में कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों को हराकर जीत गए थे। 
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